चैप्टर 50 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 50 Kayakalp Novel By Munshi Premchand
Chapter 50 Kayakalp Novel By Munshi Premchand
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राजा विशालसिंह की हिंसा-वृत्ति किसी प्रकार शांत न होती थी। ज्यों-ज्यों अपनी दशा पर उन्हें दुःख होता था, उनके अत्याचार और भी बढ़ते थे। उनके हृदय में अब सहानुभूति, प्रेम और धैर्य के लिए जरा भी स्थान न था। उनकी संपूर्ण वृत्तियां ‘हिंसा-हिंसा !’ पुकार रही थीं। जब उन पर चारों ओर से दैवी आघात हो रहे थे, उनकी दशा पर दैव को लेशमात्र भी दया न आती थी, तो वह क्यों किसी पर दया करें? अगर उनका वश चलता तो इंद्रलोक को भी विध्वंस कर देते। देवताओं पर ऐसा आक्रमण करते कि वृत्रासुर की याद भूल जाती। स्वर्ग का रास्ता बंद पाकर वह अपनी रियासत को ही खून के आंसू रुलाना चाहते थे। इधर कुछ दिनों से उन्होंने प्रतिकार का एक और ही शस्त्र खोज निकाला था। उन्हें नि:संतान रखकर मिली हुई संतान उनकी गोद से छीनकर, दैव ने उनके साथ सबसे बड़ा अन्याय किया था। दैव के शस्त्रालय में उनका दमन करने के लिए यही सबसे कठोर शस्त्र था। इसे राजा साहब उनके हाथों से छीन लेना चाहते थे। उन्होंने सातवां विवाह करने का निश्चय कर लिया था। राजाओं के लिए कन्याओं की क्या कमी? ब्राह्मणों ने राशि, वर्ण और विधि मिला दी थी। बड़े-बड़े पंडित इस काम के लिए बुलाए गए थे। उन्होंने व्यवस्था दे दी थी कि यह विवाह कभी निष्फल नहीं जा सकता, अतएव कई महीने से इस सातवें विवाह की तैयारियां बड़े जोरों से हो रही थीं। कई राजवैद्य रात-दिन बैठे भांति-भांति के रस बनाते रहते। पौष्टिक औषधियां चारों ओर से मंगाई जा रही थीं। राजा साहब यह विवाह इतनी धूमधाम से करना चाहते थे कि देवताओं के कलेजे पर सांप लोटने लगे।
रानी मनोरमा ने इधर बहुत दिनों से घर या रियासत के किसी मामले में बोलना छोड़ दिया था। वह बोलती भी, तो सुनता कौन? कहाँ तो यह हाल था कि राजा साहब को उसके बगैर एक क्षण भी चैन न आता था, उसे पाकर मानो वह सब कुछ पा गए थे। रियासत का सियाह-सुफेद सब कुछ उसी के हाथों में था, यहां तक कि उसके प्रेम-प्रवाह में राजा साहब की संतान-लालसा भी विलीन हो गई थी। वही मनोरमा अब दूध की मक्खी बनी हुई थी। राजा साहब को उसकी सूरत से घृणा हो गई थी। मनोरमा के लिए अब यह घर नरक-तुल्य था। चुपचाप सारी विपत्ति सहती थी। उसे बड़ी इच्छा होती थी कि एक बार राजा साहब के पास जाकर पूछू, मुझसे क्या अपराध हुआ है, पर राजा साहब उसे इसका अवसर ही न देते थे। उनके मन में एक धारणा बैठ गई थी और किसी तरह न हटती थी। उन्हें विश्वास था कि मनोरमा ही ने रोहिणी को विष देकर मार डाला। इसका कोई प्रमाण हो या न हो, पर यह बात उनके मन में बैठ गई थी। इस हत्यारिन से वह कैसे बोलते?
मनोरमा को आए दिन कोई न कोई अपमान सहना पड़ता था। उसका गर्वचूर करने के लिए रोज कोई न कोई षड्यंत्र रचा जाता था। पर वह उद्दंड प्रकृति वाली मनोरमा अब धैर्य और शांति का अथाह सागर है, जिसमें वायु के हल्के-हल्के झोकों से कोई आंदोलन नहीं होता। वह मुस्कराकर सब कुछ शिरोधार्य करती जाती है। यह विकट मुस्कान उसका साथ कभी नहीं छोड़ती। इस मुस्कान में कितनी वेदना, विडंबनाओं की कितनी अवहेलना छिपी हुई है, इसे कौन जानता है? वह मुस्कान नहीं, वह भी देखा, यह भी देखा’ वाली कहावत का यथार्थ रूप है। नई रानी साहिबा के लिए सुंदर भवन बनवाया जा रहा था। उसकी सजावट के लिए एक बड़े आईने की जरूरत थी। शायद बाजार में इतना बड़ा आईना न मिल सका। हुक्म हुआ-छोटी रानी के दीवानखाने का बड़ा आईना उतार लाओ। मनोरमा ने यह हुक्म सुना और मुस्करा दी। फिर कालीन की जरूरत पड़ी। फिर वही हुआ-छोटी रानी के दीवानखाने से लाओ। मनोरमा ने मुस्कराकर सारी कालीनें दे दी। इसके कुछ दिनों बाद हुक्म हुआ-छोटी रानी की मोटर नए भवन में लाई जाए । मनोरमा इस मोटर को बहुत पसंद करती थी, उसे खुद चलाती थी। यह हुक्म सुना, तो मुस्करा दी। मोटर चली गई।
मनोरमा के पास पहले बहुत-सी सेविकाएं थी। इधर घटते-घटते उनकी संख्या तीन तक पहुँच गई थी। एक दिन हुक्म हुआ कि तीन सेविकाओं में से दो नए महल में नियुक्त की जाएं। उसके एक सप्ताह बाद वह एक भी बुला ली गई। मनोरमा के यहां अब कोई सेविका न रही। इस हुक्म का भी मनोरमा ने मुस्कराकर स्वागत किया।
मगर अभी सबसे कठोर आघात बाकी था। नई रानी के लिए तो नया महल बन ही रहा था; उसकी माताजी के लिए एक दूसरे मकान की जरूरत पड़ी। माताजी को अपनी पुत्री का वियोग असह्य था। राजा साहब ने नए महल में उनका निवास उचित न समझा। माता के रहने से नई रानी की स्वाधीनता में विघ्न पड़ेगा, इसलिए हुक्म हुआ कि छोटी रानी का महल खाली करा लिया जाए । रानी ने यह हुक्म सुना और मुस्करा दी ! महल खाली करा दिया गया। जिस हिस्से में पहले महरियां रहती थीं, उसी को उसने अपना निवास स्थान बना लिया। द्वार पर टाट के परदे लगवा दिए। यहां पर भी उतनी ही प्रसन्न थी, जितनी अपने महल में।
एक दिन गरुसेवक मनोरमा से मिलने आए। राजा साहब की अप्रसन्नता का पहला वार उन्हीं पर हुआ था। वह दरबार से अलग कर दिए गए थे। वह अपनी जमींदारी की देखभाल करते थे। अधिकार छीने जाने पर वह अधिकार के शत्रु हो गए थे। अब फिर वह किसानों का संगठन करने लगे थे, बेगार के विरुद्ध अब फिर उनकी आवाज उठने लगी थी। मनोरमा पर ये सब अत्याचार देख-देखकर उनकी क्रोधाग्नि भड़कती रहती थी। जिस दिन उन्होंने सुना कि मनोरमा अपने महल से निकाल दी गई है, उनके क्रोध का पारावार न रहा। उनकी सारी वृत्तियां इस अपमान का बदला लेने के लिए तिलमिला उठीं।
मनोरमा ने उनका तमतमाया हुआ चेहरा देखा, तो कांप उठी।
गुरुसेवक ने आते ही पूछा–तुमने महल क्यों छोड़ दिया?
मनोरमा–कोई किसी से जबरदस्ती मान करा सकता है? मुझे वहीं कौन-सा ऐसा बड़ा सुख था, जो महल छोड़ने का दुःख होता? मैं यहां भी खुश हूँ।
गुरुसेवक–मैं देख रहा हूँ, बुड्ढा दिन-दिन सठियाता जाता है। विवाह के पीछे अंधा हो गया है।
मनोरमा–भैया, आप मेरे सामने ऐसे शब्द मुंह से न निकालें। आपके पैरों पड़ती हूँ।
गुरुसेवक–तुम शब्दों को कहती हो, मैं इनकी मरम्मत करने की फिक्र में हूँ। जरा विवाह का मजा चख लें।
मनोरमा ने त्योरियां बदलकर कहा–भैया, मैं फिर कहती हूँ कि आप मेरे सामने ऐसी बातें न करें। मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं। वह इस समय अपने होश में नहीं हैं। यही क्या, कोई आदमी शोक के ऐसे निर्दय आघात सहकर अपने होश में नहीं रह सकता। मैं या आप उनके मन के भावों का अनुमान नहीं कर सकते। जिस प्राणी ने चालीस वर्ष तक एक अभिलाषा को हृदय में पाला हो, उसी एक अभिलाषा के लिए उचित-अनुचित, सब कुछ किया हो और चालीस वर्ष के बाद जब उस अभिलाषा के पूरे होने के सब सामान हो गए हों, एकाएक उसके गले पर छुरी चल जाए , तो सोचिए कि उस प्राणी की क्या दशा होगी? राजा साहब ने सिर पटक कर प्राण नहीं दे दिए, यही क्या कम है? कम से कम मैं तो इतना धैर्य न रख सकती। मुझे इस बात का दुःख है कि उनके साथ मुझे जितनी सहानुभूति होनी चाहिए, मैं नहीं कर रही हूँ।
गुरुसेवक ने गंभीर भाव से कहा–अच्छा, प्रजा पर इतना जुल्म क्यों हो रहा है? यह भी बेहोशी है?
मनोरमा–बेहोशी नहीं तो और क्या है। जो आदमी पैंसठ वर्ष की उम्र में संतान के लिए विवाह करे, वह बेहोश ही है। चाहे उसमें बेहोशी का कोई लक्षण न भी दिखाई दे।
गुरुसेवक लज्जित और निराश होकर यहां से चलने लगे, तो मनोरमा खड़ी हो गई और आंखों में आंसू भरकर बोली-भैया, अगर कोई शंका की बात हो, तो मुझे बतला दो।
गुरुसेवक ने आंखें नीची करके कहा–शंका की कोई बात नहीं। शंका की कौन बात हो सकती है, भला?
मनोरमा–मेरी ओर ताक नहीं रहे हो, इससे मुझे शक होता है। देखो भैया, अगर राजा साहब पर जरा भी आंच आई, तो बुरा होगा। जो बात हो, साफ-साफ कह दो।
गुरुसेवक–मुझसे राजा साहब से मतलब ही क्या? अगर तुम खुश हो, तो मुझे उनसे कौनसी दुश्मनी है? रही प्रजा। वह जाने और राजा साहब जानें। मुझसे कोई सरोकार नहीं, मगर बुरा न मानो, तो एक बात पूछू। वह तो तुम्हें ठोकरें मारते हैं और तुम उनके पांव सहलाती हो। क्या समझती हो कि तुम्हारी इस भक्ति से राजा साहब फिर तुमसे खुश हो जाएंगे?
मनोरमा ने भाई को तिरस्कार की दृष्टि से देखकर कहा–अगर ऐसा समझती हूँ तो क्या बुराई करती हूँ। उनकी खुशी की परवा नहीं, तो फिर किसकी खुशी की परवा करूंगी? जो स्त्री अपने पति से दिल में कीना रखे, उसे विष खाकर प्राण दे देना चाहिए। हमारा धर्म कीना रखना नहीं, क्षमा करना है। मेरा विवाह हुए बीस वर्ष से अधिक हुए। बहुत दिनों तक मुझ पर उनकी कृपादृष्टि रही। अब वह मुझसे तने हुए हैं। शायद मेरी सूरत से भी घृणा हो। लेकिन आज तक उन्होंने मुझे एक भी कठोर शब्द नहीं कहा। संसार में ऐसे कितने पुरुष हैं, जो अपनी जबान को इतना संभाल सकते हों? मेरी यह दशा जो हो रही है, मान के कारण हो रही है। अगर मैं मान को त्याग कर उनके पास जाऊं, तो मुझे विश्वास है कि इस समय भी मुझसे वह हंसकर बोलेंगे और जो कुछ कहूँगी, उसे स्वीकार करेंगे। क्या इन बातों को मैं कभी भूल सकती हूँ? मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, अगर कोई शंका की बात हो तो मुझे बतला दो।
गुरुसेवक ने बंगलें झांकते हुए कहा–मैं तो कह चुका, मुझसे इन बातों से कोई मतलब नहीं।
यह कहते हुए गुरुसेवक ने आगे कदम बढ़ाया। मगर मनोरमा ने उनका हाथ पकड़ लिया और अपनी ओर खींचती हुई बोली-तुम्हारे मुख का भाव कहे देता है कि तुम्हारे मन में कोई न कोई बात अवश्य है, जिसे तुम मुझसे छिपा रहे हो। जब तक मुझे न बताओगे, मैं तुम्हें जाने न दूंगी।
गुरुसेवक–नोरा ! तुम नाहक जिद करती हो।
मनोरमा–अच्छी बात है, न बताइए। जाइए, अब न पूछूंगी। आज से समझ लीजिएगा कि नोरा मर गई।
गुरुसेवक ने हारकर कहा–अगर मैं कोई बात अनुमान से बता ही दूं, तो तुम क्या कर लोगी?
मनोरमा–अगर रोक सकूँगी, तो रो दूंगी।
गुरुसेवक–उसको तुम नहीं रोक सकतीं, मनोरमा ! और न मैं ही रोक सकता हूँ। मनोरमा कुछ उत्तेजित होकर बोली-कुछ मुंह से कहिए भी तो।
गुरुसेवक–प्रजा राजा साहब की अनीति से तंग आ गई है।
मनोरमा यह तो मैं बहुत पहले से जानती हूँ! भारत भी तो अंग्रेजों की अनीति से तंग आ गया है। फिर इससे क्या?
गुरुसेवक–मैं विश्वासघात नहीं कर सकता।
मनोरमा–भैया, बता दीजिए, नहीं तो पछताइएगा।
गुरुसेवक–मैं इतना नीच नहीं हूँ। बस, बस, इतना ही बता देता हूँ कि राजा साहब से कह देना, विवाह के दिन सावधान रहें।
गुरुसेवक लपककर बाहर चले गए ! मनोरमा स्तंभित-सी खड़ी रह गई, मानो हाथ के तोते उड़ गए हों। इस वाक्य का आशय उसकी समझ में न आया। हां, इतना समझ गई कि बारात के दिन कुछ न कुछ उपद्रव अवश्य होने वाला है !
कल ही विवाह का दिन था। सारी तैयारियां हो चुकी थीं। संध्या हो गई थी। प्रात:काल बारात यहां से चलेगी। ज्यादा सोचने-विचारने का समय नहीं था। इसी वक्त राजा साहब को सचेत कर देना चाहिए। कल फिर अवसर हाथ से निकल जाएगा। उसने राजा साहब के पास जाने का निश्चय किया, मगर पुछवाए किससे कि राजा साहब हैं या नहीं? इस वक्त तो वह रोज सैर करने जाते हैं, आज शायद सैर करने न गए हों, मगर तैयारियों में लगे होंगे !
मनोरमा उसी वक्त राजा साहब के दीवानखाने की ओर चली। इस संकट में वह मान कैसे करती? मान करने का समय नहीं है। चार वर्ष के बाद आज उसने पति के शयनागार में प्रवेश किया। जगह वही थी, पर कितनी बदली हुई। पौधों के गमले सूखे पड़े थे, चिड़ियों के पिंजरे खाली। द्वार पर चिक पड़ी हुई थी। राजा साहब कहीं बाहर जाने के लिए कपड़े पहने तैयार थे। मेज पर बैठे जल्दी-जल्दी कोई पत्र लिख रहे थे, मनोरमा को देखते ही कुर्सी से चौंककर उठ बैठे और बाहर की ओर चले, मानो कोई भयंकर जंतु सामने आ गया हो।
मनोरमा ने सामने खड़े होकर कहा–मैं आपसे एक बहुत जरूरी बात कहने आई हूँ। एक क्षण के लिए ठहर जाइए।
राजा साहब कुछ झिझककर खड़े हो गए। जिस अत्याचारी के आंतक से सारी रियासत त्राहि-त्राहि कर रही थी, जिसके भय से लोगों के रक्त सूखे जाते थे, जिसके सम्मुख जाने का साहस किसी को नहीं होता था, उसे ही देखकर दया आती थी। वह भवन जो किसी समय आसमान से बातें करता था, इस समय पृथ्वी पर मस्तक रगड़ रहा था। यह निराशा की सजीव मूर्ति थी, दलित अभिलषाओं की जीती-जागती तस्वीर, पराजय की करुण प्रतिमा, मर्दित अभिमान का आर्तनाद। और वह मोह का उपासक विवाह करने जा रहा था। मनोरथों पर पड़ी हुई तुषार सिर, मूंछ और भौंहों को संपूर्ण रूप से ग्रस चुकी थी, जिनकी ठंडी सांसों से दांत तक गल गए थे वही अपनी झुकी हुई कमर और कांपती हुई टांगों से प्रणय मंदिर की ओर दौड़ा जा रहा था। वाह रे, मोह की कुटिल क्रीड़ा !
मनोरमा ने आग्रहपूर्ण स्वर से कहा–जरा बैठ जाइए, मैं आपका बहुत समय न लूंगी।
राजा–बैलूंगा नहीं, मुझे फुरसत नहीं है। जो बात कहनी है, वह कह दो, मगर मुझे ज्ञान का उपदेश मत देना।
मनोरमा ज्ञान का उपदेश मैं भला आपको क्या दूंगी? केवल इतना ही कहती हूँ कि कल बारात में सावधान रहिएगा।
राजा–क्यों?
मनोरमा-उपद्रव हो जाने का भय है।
बस-बस, इतना ही कहना है या कुछ और?
मनोरमा–बस इतना ही।
राजा–तो तुम जाओ, मैं उपद्रवों की परवा नहीं करता। लुटेरों का भय उसे होता है, जिसके पास सोने की गठरी हो। मेरे पास क्या है, जिसके लिए डरूं?
एकाएक उनकी मुखाकृति कठोर हो गई। आंखों में अस्वाभाविक प्रकाश दिखाई दिया। उदंडता से बोले-मुझे किसी का भय नहीं है। अगर किसी ने चूं भी किया तो रियासत में आग लगा दूंगा। खुन की नदी बहा दूंगा। विशालसिंह रियासत का मालिक है, उसका गुलाम नहीं। कौन है जो मेरे सामने खड़ा हो सके-मेरी एक तेज निगाह शत्रुओं का पित्ता पानी कर देने के लिए काफी है।
मनोरमा का हृदय करुणा से व्याकुल हो उठा। इन शब्दों में कितनी मानसिक वेदना भरी हई थी, वे होश की बातें नहीं, बेहोशी की बाढ़ थी। आग्रह करके बोली-फिर भी सावधान रहने में तो कोई बुराई नहीं। मैं आपके साथ रहूँगी।
राजा ने मनोरमा को घोर सशंक नेत्रों से देखकर कहा–नहीं, नहीं, तुम मेरे साथ नहीं रह सकतीं, किसी तरह नहीं। मैं तुमको खूब जानता हूँ।
यह कहते हुए राजा साहब बाहर चले गए। मनोरमा खड़ी सोचती रह गई कि इन बातों का क्या आशय है? इन शब्दों में जो शंका और दुश्चिंता छिपी हुई थी, यदि इनकी गंध भी उसे मिल जाती, तो शायद उसका हृदय फट जाता, वह वहीं खड़ी-खड़ी चिल्लाकर रो पड़ती। उसने समझा, शायद राजा साहब को उसे अपने साथ रखने में वही संकोचमय आपत्ति है, जो प्रत्येक पुरुष को स्त्रियों से सहायता लेने में होती है। इस वक्त लौट गई, लेकिन वह खटका उसे बराबर लगा हुआ था।
रात अधिक बीत गई थी। बाहर बारात की तैयारियां हो रही थीं। ऐसा शानदार जुलूस निकालने की आयोजना की जा रही थी, जैसा इस नगर में कभी न निकला हो। गोरी फौज थी, काली फौज थी, रियासत की फौज थी। फौजी बैंड था, कोतल घोड़े, सजे हुए हाथी, फूलों की संवारी हुई सवारी गाड़ियां, सुंदर पालकियां-इतनी जमा की गई थीं कि शाम से घड़ी रात तक उनका तांता ही न टूटे। बैंड से लेकर डफले और नृसिंह तक सभी प्रकार के बाजे थे। सैकड़ों ही विमान सजाए गए थे और फुलवारियों की तो गिनती ही नहीं थी। सारी रात द्वार पर चहल-पहल रही। और सारी रात राजा साहब सजावट का प्रबंध करने में व्यस्त रहे। मनोरमा कई बार उनके दीवानखाने में आई और उन्हें वहां न देखकर लौट गई। उसके जी में बार-बार आता था कि बाहर ही चलकर राजा साहब से अनुनय-विनय करूं, लेकिन भय यही था कि कहीं वह सबके सामने बकझक न करने लगे। उसे कुछ कह न बैठें। जो अपने होश में नहीं, उसे किसकी लज्जा और किसका संकोच ! आखिर, जब इस तरह जी न माना, तो वह द्वार पर जाकर खड़ी हो गई कि शायद राजा साहब उसे देखकर उसकी तरफ आएं, लेकिन उसे देखकर भी राजा साहब उसकी ओर न आए, बल्कि और दूर निकल गए।
सारे शहर में इस जुलूस और इस विवाह का उपहास हो रहा था, नौकर-चाकर तक आपस में हंसी उड़ाते थे, राजा साहब की चुटकियां लेते थे। अपनी धुन में मस्त राजा साहब को कुछ न सूझता था, कुछ न सुनाई देता था। सारी रात बीत गई और मनोरमा को कुछ कहने का अवसर न मिला। तब वह अपनी कोठरी में लौट आई और ऐसी फूट-फूटकर रोई, मानो उसका कलेजा बाहर निकल पड़ेगा। उसे आज बीस वर्ष पहले की बात याद आई। जब उसने राजा से विवाह के पहले कहा था-मुझे आपसे प्रेम नहीं है, और न हो सकता है। उसने अपने मनोभावों के साथ कितना अन्याय किया था। आज वह बड़ी खुशी से राजा साहब की रक्षा के लिए अपना बलिदान कर देगी। इसे वह अपना धन्य भाग्य समझेगी। यह उस अखंड प्रेम का प्रसाद है, जिसका उसने पंद्रह वर्ष तक आनंद उठाया और जिसकी एक-एक बात उसके हृदय पर अंकित हो गई थी। उन अंकित चिह्नों को कौन उसके हृदय से मिटा सकता है? निष्ठुरता में इतनी शक्ति नहीं! अपमान में इतनी शक्ति नहीं! प्रेम अमर है, अमिट है।
दूसरे दिन बारात निकलने से पहले मनोरमा फिर राजा साहब के पास जाने को तैयार हुई, लेकिन कमरे से निकली ही थी कि दो हथियारबंद सिपाहियों ने उसे रोका।
रानी ने डांटकर कहा–हट जाओ, नमकहरामो ! मैंने ही तुम्हें नौकर रखा और तुम मुझसे ही गुस्ताखी करते हो?
एक सिपाही बोला–हुजूर के हुक्म के ताबेदार हैं, क्या करें? महाराजा साहब का हुक्म है कि हुजूर इस भवन से बाहर न निकलने पावें। हमारा क्या अपराध है, सरकार?
मनोरमा–तुम्हें किसने यह आज्ञा दी है?
सिपाही–खुद महाराजा साहब ने।
मनोरमा–मैं केवल एक मिनट के लिए राजा साहब से मिलना चाहती हूँ।
सिपाही–बड़ी कड़ी ताकीद है सरकार, हमारी जान न बचेगी।
मनोरमा ऐंठकर रह गई। एक दिन सारी रियासत उसके इशारे पर चलती थी। आज पहरे के सिपाही तक उसकी बात नहीं सुनते। तब और अब में कितना अंतर है !
मनोरमा ने वहीं खड़े-खड़े पूछा–बारात निकलने में कितनी देर है?
सिपाही–अब कुछ देर नहीं है। सब तैयारी हो चुकी है।
मनोरमा–राजा साहब की सवारी के साथ पहरे का कोई विशेष प्रबंध भी किया गया है?
सिपाही–हां हुजूर ! महाराज के साथ एक सौ गोरे रहेंगे। महाराज की सवारी उन्हीं के बीच में रहेगी।
मनोरमा संतुष्ट हो गई। उसकी इच्छा पूरी हो गई। राजा साहब सावधान हो गए, किसी बात का खटका नहीं। वह अपने कमरे में लौट गई।
चार बजते-बजते बारात निकली। जुलूस की लंबाई दो मील से कम न थी। भांति-भांति के बाजे बज रहे थे, रुपए लुटाए जा रहे थे, पग-पग पर फूलों की वर्षा की जा रही थी। सारा शहर तमाशा देखने को फटा पड़ता था।
इसी समय अहिल्या और शंखधर ने नगर में प्रवेश किया और राजभवन की ओर चले, किंतु थोड़ी ही दूर गए थे कि बारात के जुलूस ने रास्ता रोक दिया। जब यह मालूम हुआ कि महाराज विशालसिंह की बारात है, तो शंखधर ने मोटर रोक दी और उस पर खड़े होकर अपना रूमाल हिलाते हुए जोर से बोले-सब आदमी रुक जाएं, कोई एक कदम भी आगे न बढ़े ! फौरन महाराज साहब को सूचना दो कि कुंवर शंखधर आ रहे हैं।
दम के दम में सारी बारात रुक गई। कुंवर साहब आ गए। यह खबर वायु के झोंके की भांति इस सिरे से उस सिरे तक दौड़ गई! जो जहां था, वहीं खड़ा रह गया। फिर उनके दर्शन के लिए लोग दौड़-दौड़कर जमा होने लगे। जुलूस तितर-बितर हो गया। विशालसिंह ने यह भगदड़ देखी, तो समझे, कुछ उपद्रव हो गया। गोरों को तैयार हो जाने का हुक्म दे दिया। कुछ अंधेरा हो चला था। किसी ने राजा साहब से साफ तो न कहा कि कुंवर साहब आ गए, बस जिसने सुना, झंडी-झंडे, बल्लम-भाले फेंक-फांककर भागा। राजा साहब का घबरा जाना स्वाभाविक ही था। उपद्रव की शंका पहले ही से थी। तुरंत खयाल हुआ कि उपद्रव हो गया। गोरों को बंदूकें संभालने का हुक्म दिया।
उसी क्षण शंखधर ने सामने आकर राजा साहब को प्रणाम किया।
शंखधर को देखते ही राजा साहब घोड़े से कूद पड़े और उसे छाती से लगा लिया। आज इस शुभ मुहूर्त में, वह अभिलाषा भी पूरी हो गई, जिसके नाम को वह रो चुके थे। बार-बार कुंवर को छाती से लगाते थे, पर तृप्ति ही न होती थी। आंखों से आंसू की झड़ी लगी हुई थी। जब जरा चित्त शांत हुआ तो बोले-तुम आ गए बेटा, मुझ पर बड़ी दया की। चक्रधर को लाए हो न?
शंखधर ने कहा–वह तो नहीं आए।
राजा–आएंगे, मेरा मन कहता है। मैं तो निराश हो गया था, बेटा। तुम्हारी माता भी चली गईं। तुम पहले ही चले गए, फिर मैं किसका मुंह देख-देखकर जीता? जीवन का कुछ तो आधार चाहिए। अहिल्या तभी से न जाने कहाँ घूम रही है।
शंखधर–वह तो मेरे साथ हैं।
राजा–अच्छा, वह भी आ गई। वाह, मेरे ईश्वर ! सारी खुशियां एक ही दिन के लिए जमा कर रखी थीं। चलो, उसे देखकर आंखें ठंडी करूं।
बारात रुक गई। राजा साहब और शंखधर अहिल्या के पास आए। पिता और पुत्री का सम्मिलन बड़े आनंद का दृश्य था। कामनाओं के वे वृक्ष, जो मुद्दत हुई, निराशा-तुषार की भेंट हो चुके थे, आज लहलहाते, हरी-भरी पत्तियों से लदे हुए सामने खड़े थे। आंसुओं का वेग शांत हुआ, तो राजा साहब बोले-तुम्हें यह बारात देखकर हंसी आई होगी। सभी हंस रहे हैं, लेकिन बेटा, यह बारात नहीं है। कैसी बारात और कैसा दूल्हा ! यह विक्षिप्त हृदय का उद्गार है, और कुछ नहीं। मन कहता था-जब ईश्वर को मेरी सुधि नहीं, मुझ पर जरा भी दया नहीं करते, अकारण ही मुझे सताते हैं, तो मैं क्यों उनसे डरूं? जब स्वामी को सेवक की फिक्र नहीं, तो सेवक को स्वामी की फिक्र क्यों होने लगी? मैंने उतना अन्याय किया, जितना मुझसे हो सका। धर्म और अधर्म, पाप और पुण्य के विचार दिल से निकाल डाले। आखिर मेरी विजय हुई कि नहीं?
अहिल्या-लल्लू अपने लिए रानी भी लेता आया है।
राजा–सच कहना। यह तो खूब हुई। क्या वह भी साथ है?
मोटर के पिछले भाग में बहू बैठी थी। अहिल्या ने पुकारकर कहा-बहू, पिताजी के चरणों के दर्शन कर लो।
बहू आई। राजा साहब देखकर चकित हो गए। ऐसा अनुपम सौंदर्य उन्होंने किसी चित्र में भी न देखा था। बहू को गले लगाकर आशीर्वाद दिया और अहिल्या से मुस्कराकर बोले-शंखधर तो बड़ा भाग्यवान मालूम होता है। यह देवकन्या कहाँ से उड़ा लाया?
अहिल्या–दक्षिण के एक राजा की कुमारी है। ऐसा शील स्वभाव है कि देखकर भूख प्यास बंद हो जाती है। आपने सच ही कहा-देवकन्या है।
राजा–तो यह मेरी बारात का जुलूस नहीं, शंखधर के विवाह का उत्सव है !
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