चैप्टर 5 विपात्र गजानन माधव मुक्तिबोध का उपन्यास | Chapter 5 Vipatra Gajanan Madhav Muktibodh Ka Upanyas
Chapter 5 Vipatra Gajanan Madhav Muktibodh Ka Upanyas
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एक बात साफ है कि हमें उस महफिल में मजा नहीं आता था जिसमें विविध प्रकार के भोजनीय पदार्थों से ले कर कैंसर और ल्यूकीमिया तक तथा भूतों से ले कर कम्युनिस्टों तक चर्चा होती। ये महफिलें जो शाम के पाँच बजे से ले कर रात के बारह-एक बजे तक चलती रहतीं, उस अभाव का परिणाम थीं जिसे अकेलापन कहते हैं। हम जो यहाँ बीस थे, वे चाहे परिवार में ही क्यों न रहें, अपने को अकेला, किसी शाखा से कटा हुआ और अधूरा महसूस करते थे। और अपने अकेलेपन की वेदना से भागने के लिए, वक्त काटने की एक तरकीब के तौर पर, सामूहिक भोजन, सामूहिक पार्टी, गपबाजी, महफिलबाजी का आसरा लिया करते। लोग भले ही उसका मजा लिया करें, मैं ऐसे बेढंगे, बेजोड़ और बेमेल सोसाइटी में रह कर बड़ी ही घुटन महसूस करता। यही हाल जगत का भी था। फर्क यही था कि मुझे इस तरह अकेलेपन से भागने और वक्त काटने की इच्छा नहीं रहती थी, न जगत को ही रहती थी, इसलिए हम लोग ‘अनसोशल’ कहलाते थे। क्लब की जिंदगी अगर सामाजिकता का लक्षण है तो मैं ऐसी सामाजिकता से बाज आया।
लोगों को ताज्जुब होता कि आखिर हम अपना वक्त कैसे काटते हैं! और जब उन्होंने यह देखा कि ब्रिज, साँपों और भूतों की चर्चा, एक-दूसरे की टाँग खींचने की होड़ और राजनीतिक गप की बजाय हम घूमने निकल जाते हैं और कभी हैमिंग्वे या डिकेंस अथवा एड्ना विन्सेंट मिले की चर्चा करते हैं तो उन्होंने अपनी नाराजगी जाहिर की। एक बार जब हम तरह-तरह की चर्चाओं में विलीन रात के आठ बजे घर पर लौटने की बजाय साढ़े नौ के करीब लौटे तो उनमें से एक ने कहा, ‘क्यों भई! जानते नहीं, भले आदमी रात में नहीं घूमा करते!’
और, हम ताज्जुब करने लगे कि आखिर ये ऊँची डिग्रियोंवाले लोग, जिन्होंने बड़ी उपाधियाँ प्राप्त की हैं, इतने जड़ और मूर्ख क्यों हैं!
दुबले, ऊँचे, इकहरे बादाम के पेड़ के नीचे हमारे साथियों को झुका हुआ देख कर मैं समझ गया कि उनकी आँखे हरे कच्चे बादामों को खोज रही हैं जो या तो आसपास की क्यारियों की काली मिट्टी में जम गए हैं या क्यारियों के बीचों-बीच जानेवाली खुशनुमा पगडंडी पर गिरे पड़े हैं। बादाम के पेड़ के आगे पूरब-दक्षिण की तरफ बड़ी और ऊँची भूरी-भूरी दीवार दिखाई दे रही है, उसके इस तरफ और बादाम के पेड़ के उस तरफ मटर और टमाटर की हरियाली फैली हुई है और मैंने देखा कि कुछ लोग वहाँ भी पहुँच गए हैं। उधर बगीचे के दक्षिण की तरफ जो मुँडेर है उसके नीचे लाल कन्हेर की झाड़ियों के आगे दूर तक तालाब लहरा रहा है जिसकी मटमैली नीली लहरें सूरज की किरणों को वापस फेंक रही हैं और इस तरह चाँदी और काँच के चमचमाते टुकड़ों की धारदार चमक पैदा कर रही हैं। तालाब के उस पार, आम के दरख्तों के नीचे कोई साइकिल पर तेज चला जा रहा है। एक मन हुआ कि आखिर हम अपने साथियों के पास बादाम के पेड़ के नीचे क्यों न पहुँच जाएँ और कुछ मटर जेब में भर लें। लेकिन फिर सोचा कि फिर वे लोग हमारा पिंड नहीं छोड़ेंगे। यह खयाल मेरे और जगत के मन में एक साथ आया। मैंने उससे कहा, ‘चलो, जल्दी चलो, नहीं तो अटक जाएँगे!’
यह बात हमारे मुँह से निकली ही थी कि पीछे से एक और आवाज आई, ‘ऐसी भी क्या जल्दी है, हम भी तो चल रहे हैं!’
तबीयत तो यह हुई कि पीछे घूम कर न देखें लेकिन हम जानते थे कि मोटे तल्लों के बूट हमारा पीछा नहीं छोड़ेंगे। बोगनबिला के फूलों से लदी हुई मेहराबवाले बगीचे के फाटक तक पहुचते ही उसने हमें पकड़ लिया और जगत की पीठ पर धप पड़ गई और एक गोरा सुनहला चेहरा, हमें चिढ़ाता हुआ, बोल उठा, बॉस तुम्हें बुला रहे हैं!
शायद उस नवागंतुक ने मेरी आँखों में क्रोध और घृणा की चिनगारी देखी होगी। तभी उसने एक साँस में कह डाला, ‘मैं कुछ नहीं कह रहा हूँ। मैं तो तुम्हें चाय पिलाना चाहता हूँ!’
हम लोग चुपचाप बाहर निकल गए। और पता नहीं क्यों हममें एक चुप्पी, एक फासला और साथ-ही-साथ अपना-अपना घिराव बढ़ता गया। मशीन के पहियों की भाँति हमारे पैर दाहिनी ओर मुड़ गए जहाँ से रास्ता, तालाब के किनारे-किनारे, आम के दरख्तों के नीचे से चला जा रहा था।
ज्यों ही हम बीस गज आगे बढ़ गए होंगे, हमारे सुनहरे चेहरेवाले साथी ने कहा, ‘यार, नीचे उतर कर चलें।’
मैंने एकदम ठहर कर, स्तब्ध हो कर पूछा, ‘क्यों?’
उसने कहा, ‘यह नया रास्ता है!’
मैंने जगत की ओर देखा। वह कटी डाल-सा, निजत्वहीन और शिथिल दिख रहा था। मैंने कहा, ‘चलो।’
जिस रास्ते पर अब तक हम चल रहे थे, वह तालाब के बाँध पर बना हुआ था। बाँध के बहुत नीचे एक छोटा-सा नाला बह रहा था और इधर-उधर घने-घने पेड़ तितर-बितर दिखाई दे रहे थे। हम अपने को सँभालते हुए नीचे उतर गए और नाला फाँद कर उस ओर जा पहुँचे जहाँ से एक पगडंडी शहर की ओर जा रही थी। फाँद करके मैं नाले की ओर क्षण-भर देखता रहा। वहाँ छोटी-छोटी मछलियाँ आनंदपूर्वक क्रीड़ा कर रही थीं। ऐसा लगता था कि उनकी क्रीड़ा को घंटों देखा जा सकता है।
पगडंडी पर दो ही कदम आगे बढ़ा हूँगा कि सामने लाखों और करोड़ों लाल-लाल दियोंवाला गुलमुहर का महान वृक्ष मेरे सामने हो लिया। उसके तल में अधसूखे, मुरझाए और सँवलाए फूल बिखरे हुए थे। और दो-चार फटी चड्ढियोंवाले मैले-कुचैले लड़के वहाँ न मालूम क्या-क्या बीन रहे थे!
मैंने शहर का यह हिस्सा देखा ही नहीं था। बाईं ओर अस्पताल की पीली दीवार चली गई, जिसके खतम होते ही छोटे-छोटे मकान, छोटे-छोटे घर, मिट्टी के घर चले गए थे। नि:संदेह अस्पताल के पिछवाड़े की यह गली थी। दाहिनी ओर खुला मैदान था, जिसमें इमली और नीम के पेड़ों के अलावा छोटे-छोटे खेत थे। एक खेत के बाद दूसरा खेत। ये तरकारियों के खेत थे। छोटी-छोटी मेढ़ें बनी हुई थीं। उन खेतों पर खूब मेहनत की गई थी। ऐसा लगता था कि ये खेत नहीं वरन कल्पनाशील चित्रकार-द्वारा निकाले गए मानव हाथ के चित्र हों। सब कुछ चित्रात्मक था। ये छोटे-छोटे खेत! वो इमली के दरख्त, जिसके नीचे गायें चर रही थीं और वे नीम के पेड़ जिसके तले एक चट्टान पर कोई बेघर-बेमकान आवारा अपनी मैली कुचैली गठरी खोल रहा था। उसने हमारी तरफ देखा, हमने उसकी तरफ। उसका चेहरा साँवला अंडाकार था, उस पर भोलेपन से भरी हुई एक अजीब मुरदनी छाई हुई थी। उसने मेरी कल्पनाओं को उकसा दिया। वह कौन था? किसी गरीब खेतिहर का लड़का, जो फट से भाग गया था और जो शहर में अब चाय न मिलने से थका-हारा यहाँ बैठा था! अब खेत खतम हो गए। एक नए सड़क की पुलिया दूर से दिखाई देने लगी। बाईं तरफ के घर गाँव के गरीबों के थे। बाहर खाटों पर पेड़ों की साया में माँएँ लेटी हुई थीं। कुछ लड़के ऊधम कर रहे थे। लेकिन मेरी आँखे एक जगह जा कर ठिठक गईं। एक मैली-कुचैली खाट पर एक बूढ़े की जिंदा ठठरी पड़ी हुई थी और उस ठठरी के दुबले चेहरे की आँखों में एक ज्योति थी। ऐसी ज्योति जो ममतापूर्वक एक बालक को देख रही थी।
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