चैप्टर 5 रेबेका उपन्यास डेफ्ने ड्यू मौरिएर | Chapter 5 Rebecca Novel In Hindi Daphne du Maurier

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Chapter 5 Rebecca Novel In Hindi Daphne du Maurier

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मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि प्रथम प्रेम का ज्वर एक बार ही चढ़ता है। कवि लोग चाहे कुछ भी कहें, प्रेम एक बीमारी है और साथ ही एक बोझ भी। बीस इक्कीस वर्ष की आयु बड़ी कायरता की आयु होती है। ज़रा सी बात से ही हृदय को चोट लग जाती है।

मुझे ऐसा लग रहा था, मानो तकिये के सहारे बैठी श्रीमती हॉपर ने कुछ चिड़चिड़ाहट के साथ मुझसे पूछा, “आज सुबह से तुम क्या करती रही हो?”

“मैं टेनिस सीखने गई थी।” मैंने जवाब दिया। यह झूठ मेरे मुँह से निकला ही था कि मैं घबरा उठी और सोचने लगी कि अगर टेनिस सिखाने वाला आदमी अभी कहीं से आ गया और उसने श्रीमती हॉपर से शिकायत कर दी कि मैं कई दिनों से टेनिस सीखने नहीं गई हूँ तो क्या होगा?

“मेरे बीमार पड़ जाने से तुम्हें कोई काम ही नहीं रह गया है।” सिगरेट के टोंटें को क्रीम की शीशी में ठूंसते हुए उन्होंने कहा और मेरे हाथ से ताश लेकर उन्हें जोर ज़ोर से फेटने लगी।

“पता नहीं तुम आजकल सारे दिन करती क्या रहती हो?” वह बोलती रही, “इन दिनों तुमने कोई तस्वीर भी बनाकर मुझे नहीं दिखाई है और जब कभी मैं तुम्हें बाजार भेजती हूँ, जब तुम टेक्सोल लाना जरूर भूल जाती हो। बस इतनी तसल्ली है कि चलो छुट्टी रहने से तुम्हारा टेनिस का अभ्यास बढ़ रहा होगा। आगे चलकर वह तुम्हारे लिए बहुत फायदेमंद साबित होगा।”

मैं सोचती रही कि पंद्रह दिन से यानी जब से वह बीमार पड़ी है, मैं एक बार भी टेनिस खेलने नहीं गई हूँ। लेकिन मुझमें इतना साहस क्यों नहीं है कि मैं उन्हें बता दूं कि मैं रोज सुबह श्री द विंतर के साथ ही कार में घूमने जाती हूँ और रेस्टोरेंट में उनके साथ उन्हें की मेज़ पर खाना खाती हूँ।

मोंटीकार्लो की बहुत सी बातें अब मैं भूल गई हूँ। सवेरे-सवेरे हम सैर के लिए कहाँ जाते थे और क्या बातचीत करते थे, यह भी मुझे ठीक से याद नहीं है। किंतु मैं आज भी यह नहीं भूल पाती हूँ कि किस तरह टोप पहनते वक्त मेरी उंगलियाँ कांपती रहती थी और किस तरह लिफ्ट का इंतज़ार किए बिना ही मैं तेजी के साथ सीढ़ियों से उतरकर नीचे गैलरी में पहुँच जाती थी और दरबान के दरवाजा खोलने से पहले ही किवाड़ों को ठेलती हुई बाहर निकल जाती थी।

वहाँ श्री द विंतर ड्राइवर के स्थान पर बैठे अखबार पढ़ते हुए मेरा इंतज़ार करते होते। मुझे देखकर वह मुस्कुरा देते और अखबर को पिछली सीट पर डालकर मेरे लिए दरवाजा खोलते हुए कहते हैं –

“कहिए, दिल्ली दोस्त के आज क्या हाल-चाल हैं? वह कहाँ जाना चाहती हैं? आज हवा ठंडी है, तुम मेरा कोट पहन लो।”

मैं इतनी बड़ी हो चुकी थी कि उनके कपड़े पहनने में सुकून अनुभव कर सकती थी। उनका कोट उधार लेकर कुछ मिनटों के लिए भी अपने कंधों पर डाल सकना मेरे लिए एक विजय की बात थी और उससे मेरी सुबह चमक उठती थी।

मैं गोद में नक्शा लिए बैठी रहती थी और मेरे रूखे और सीधे बाल हवा में उड़ते रहते थे। यूं तो उनकी खामोशी में भी मुझे सुख मिलता था, लेकिन उनसे बातें करने के लिए मैं सदा आतुर रहती थी। मेरी बैरन तो मोटर में लगी वह घड़ी थी, जो एक बजा कर हमें रेस्टोरेंट पहुँचने के लिए बाध्य पर देती थी। हम कभी पूरब की ओर जाते थे, कभी पश्चिम की ओर; कभी गाँव में जाते थे, कभी समुद्र तट पर। लेकिन आज मुझे उनमें से किसी की भी याद नहीं है।

मुझे याद है सिर्फ एक बात…एक दिन इसी प्रकार बैठे-बैठे मैंने घड़ी की तरफ देखकर सोचा – यह क्षण यानी ग्यारह बजकर बीस मिनट कभी समाप्त ही न हो। इस आकांक्षा का पूरा पूरा सुख उठाने के लिए मैंने अपनी आँखें बंद कर ली। फिर एकाएक मैं बोल उठी, “काश ऐसा कोई अविष्कार हो सकता, जिससे स्मृतियाँ इत्र की तरह शीशी में बंद की जा सकती और वे न कभी उड़ती न कभी पुरानी पड़ती। इतना ही नहीं, बल्कि जब मन चाहता तब शीशी खोल दी जाती और स्मृतियाँ फिर साकार हो उठती।”

इतना कहकर मैंने उनकी तरफ देखा, यह जानने के लिए कि वह क्या जवाब देते हैं। लेकिन उन्होंने मेरी तरफ देखा ही नहीं। बराबर अपने आगे की सड़क पर दृष्टि गड़ाये रहे।

“अपने इस जीवन में कौन से क्षण को तुम फिर से जीवित करना चाहोगी?” उन्होंने अकस्मात पूछा। उनकी आवाज से यह पता नहीं लग सका कि वह मुझे चिढ़ा रहे हैं या सचमुच गंभीरतापूर्वक पूछ रहे हैं।

मैंने कहा, “कह नहीं सकती।” लेकिन फिर बिना कुछ सोचे समझे मैं एकाएक मूर्ख की तरह कह उठी, “मैं इसी क्षण को सुरक्षित रखना चाहती हूँ, इसे भूलना नहीं चाहती।”

“मैं समझ नहीं पाया कि तुम इस सुहावने दिन की प्रशंसा कर ही हो या मेरे कार चलाने की।” उन्होंने कहा और वह ऐसे हँस पड़े जैसे कोई भाई चिढ़ा रहा हो। तभी मुझे अपने और उनके बीच की उस बड़ी खाई का ध्यान आया, जिसे उनकी कृपा ने और भी चौड़ा कर दिया था। इस भावना से अभिभूत होकर में चुप बैठी रही।

मैं जानती थी कि इन घटनाओं के बारे में मैं श्रीमती हॉपर से कभी कुछ नहीं कहूंगी। इसलिए नहीं कि वह नाराज होंगी या उन्हें कोई आघात लगेगा। बल्कि इसलिए कि वह मेरे कथन पर अविश्वास सा प्रकट करते हुए अपने कंधे हिलाकर कहेंगी, “क्या उनकी उदारता है कि वह तुम्हें रोज घुमाने ले जाते हैं, लेकिन तुम्हें विश्वास है कि वह उकता नहीं जाते?” और तब मेरे कंधे थपथपाते पर वह मुझे टैक्सोल लेने भेज देंगी। ओह! छोटा होना भी कितनी हीनता की बात है। मेरे मन में यह ग्लानि उठी और मैं अपने दांतों से अपने नाखून काटने लगी।

श्री द विंतर की हँसी अब भी मेरे कानों में गूंज रही थी। मैं बिना कुछ सोचे समझे ही बोली उठी, “मैं चाहती हूँ कि मैं लगभग छत्तीस वर्ष की एक समझदार नारी होती। मेरे कपड़े काले साटन के होते और मेरे गले में मोतियों की माला होती है।”

“तब तुम इस समय कार में मेरे साथ न होती और अपने नाखून काटना बंद करो, यह वैसे ही काफ़ी बदसूरत हैं।”

“आप मुझे गुस्ताख समझेंगे।” मैं कहती गई, “लेकिन मैं जानना चाहती हूँ कि आप रोज मुझे अपने साथ कार में क्यों ले जाते हैं? आप दयालु हैं, यह तो स्पष्ट है। लेकिन आपने अपनी दया के लिए मुझे ही क्यों छांटा!”

मैं अपनी जवानी की अकड़ में तनी में सीधी बैठी रही।

उन्होंने बड़ी गंभीरता से जवाब दिया, “मैं तुम्हें इसलिए साथ लाता हूँ कि तुम काले साटन के कपड़े और मोतियों की माला पहने हुए नहीं हो और न छत्तीस साल की हो।” उनके मुख पर कोई भाव नहीं थे। पता नहीं वह मन ही मन में हँस तो नहीं रहे थे।

“यह सब तो ठीक है!” मैंने कहा, “मेरे विषय में जो कोई भी जाने लायक बात है, वह सब आप जानते हैं। लेकिन आपके बारे में मैं जितना पहले दिन जानती थी, उससे अधिक नहीं जान पाई हूँ।”

“उस दिन तुम क्या जानती थी?”

“बस यही कि आप मैंदरले में रहते हैं और आपकी पत्नी की मृत्यु हो चुकी है।”

आखिरकार मैंने वे शब्द कह ही डाले, जो मेरी जुबान पर कई दिनों से आ-आकर अटक जाते थे। “आपकी पत्नी” – बहुत ही सरलता से बिना किसी झिझक और हिचक के मैंने यह ऐसे कह दिया जैसे उसकी चर्चा भर कर देना संसार की सबसे दुर्लभ वस्तु हो। “आपकी पत्नी” एक बार मेरे मुंह से निकलने के बाद ये शब्द हवा में छाये रहे और मेरी आँखों के सामने नाचते रहे। और चूंकि वह चुप रहे और उन्होंने इस पर कुछ कहा नहीं, इसलिए ये शब्द और भयंकर दिखाई देने लगे। और अब मैं इन शब्दों को वापस नहीं ले सकती थी, वे तो एक बार कहे जा चुके थे। एक बार फिर कविता की पुस्तक का प्रथम पृष्ठ मेरी आँखों के सामने नाच उठा, जिस पर अजीब तिरछी लिपि में आर लिखा हुआ था। मैंने भीतर ही भीतर कुछ अस्वस्थता और कंपकंपी का अनुभव किया और मुझे ऐसा भय हुआ कि वह मुझे कभी क्षमा नहीं करेंगे और हमारे मित्रता यहीं समाप्त हो जायेगी।

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