चैप्टर 5 प्रभावती सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 5 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi
Chapter 5 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi
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कुमार चुपचाप रूप की सुधा पी रहे हैं, देखकर यमुना प्रसन्न होकर बोली, “कुमार, हमारी आशा यहाँ से पूरी न होगी। प्रिय से मिलने के लिए कुछ परिश्रम करना होगा, अपनी सखी की तरफ से में हूँ। हमें शहर पार करके श्मशान-भूमि में मिलना होगा। प्रायः कोस-भर पैदल चलना है।”
“आपकी जैसी आज्ञा,” कुमार सँभलकर बोले।
“आइए,” यमुना आगे-आगे चली। “आगे बस्ती है, आवश्यक बातें उधर कहूँगी।”
दोनों मौन चलते गए।
राजकुमार के मन को अनेक प्रकार की धूप-छाँह से युक्त भिन्न-भिन्न रस और अलंकारों की कल्पनाएँ अपने आप उठ-उठकर समावृत करती रहीं। कभी प्रिय को एक ही अश्व पर बैठकर, लड़ते हुए, शत्रु-सैन्य को परास्त कर बढ़ते हुए संसार के राज्य को पार कर जाते हैं; कभी किसी एकान्त वन के सघन लता-भवन में आलिंगित विश्राम करते हैं, कभी निभृत कक्ष के रत्न-दीप प्रकाश में प्रियालाप में बँधे रहते हैं, जैसे इस मधुर स्वर का कभी अन्त न होगा-संसार का समस्त समुद्र स्थिर है, केवल दो बुदबुद अतल से कलरव करते हुए अनन्त ऊर्ध्व को उमड़ रहे हैं, जैसे समस्त पृथ्वी सुप्ति के अन्धकार में डूबी हुई है, केवल दो परिचित प्रहरी वार्तालाप करते हुए बैठे हैं सृष्टि से स्नेह-सौन्दर्य की रक्षा के लिए। फिर होश में आते हैं, फिर बिगड़े हुए को बनाने के लिए माया-मरीचिका की सृष्टि करते हैं, भ्रान्त मृग की तरह फिर दूर, दूरतर हो जाते। पैर जैसे अपने-आप यमुना का अनुसरण कर रहे हों।
नगर का पथ धीरे-धीरे पार हो गया, यमुना विगत अनेक स्मृतियों को गौरव-स्वरूपी अपनी महिमा को धारण किए, मौन, सहज-पग आगे-आगे चली जा रही थी। नगर पार कर उपवन के पथ को एक जगह रुककर, साथ पार्श्ववर्तिनी हो गई।
गम्भीर स्वर से बोली, “कुमार, आपके सौभाग्य का यह सबसे बड़ा लक्षण है कि प्रभा ने आपको वरण किया।”
कुमार स्वीकृति की सूचना-जैसे मौन रहे।
यमुना कहती गई, “इनके पिता की इच्छा बलवन्त से विवाह करने की थी।”
“फिर?” राजकुमार की सारी वृत्तियाँ एक साथ सचेत हो गईं।
“प्रभा मेरे प्रसंग से बलवन्त को घृणा करती थी। वह मुझे नहीं जानती, पर मेरा इतिहास जानती है। मेरी इच्छा का बलवन्त ने विरोध किया था। यह स्त्री होने के कारण प्रभा सहन नहीं कर सकी। उसने अपने पिता से खुलकर कुछ कहा नहीं; पर बलवन्त से विवाह का अवसर आ जाने पर वह अवश्य अपनी पूर्ण स्वतन्त्रता का परिचय देती।”
यमुना कुछ रुक गई। राजकुमार के सौन्दर्य के नशे पर इसका और प्रभाव पड़ा।
सँभलकर यमुना कहने लगी, “बलवन्त को महीने के लगभग हुआ, कान्यकुब्जेश की ओर से इधर के अधीन राजाओं से कर लेने तथा यज्ञ में आमन्त्रित के विचार से दलमऊ आए थे। महेश्वरसिंह से बातचीत हुई थी। बलवन्त प्रभावती को देखना चाहते थे, पर सखी अस्वस्थता के बहाने नहीं मिलीं।”
“तो इस विवाह से महेश्वरसिंह अनर्थ कर सकते हैं।”
“पर वीर और वीरांगना को अनर्थ से ही अधिक प्रेम होता है, यदि वह अनर्थ किसी सत्यप्रेम का विरोध है। आप क्या…”
“जी नहीं, आपका आदर्श मेरा रक्षक है। बलवन्त ने आपको यहाँ देखा था?”
“पहले मैंने सोचा था कि मैं न जाऊँगी। पर फिर सोचा, अगर न गई, तो प्रभा को शंका होगी। कड़े कार्यों में वह मुझे ही सामने करती है। उसे विश्वास है। मैं जानती थी, जितने नशों से दृष्टि ढँक जाती है, उन सबसे ऐश्वर्य-बड़प्पन का मद बड़ा है। इससे आदमी की मुखाकृति प्रायः नहीं देख पड़ती, वस्त्र और अलंकार, प्रशंसा और सम्मान परिचय देते हैं। कुमार, बालों को कुछ विशृंखल कर, प्रभा को सलाह देकर कि जब समय होगा, अपने मन की कर लेना, पर अभी से बुद्धि से रहित होना ठीक नहीं-उसे विश्वास दिला दो कि उसके लिए तुम्हें पिता का प्रस्ताव मंजूर है, नहीं तो ऐसा न हो कि कान्यकुब्ज का प्रियपात्र होने के कारण तुम्हारे पिता के इष्ट में अनिष्ट पैदा करे। प्रभा की ओर से मद्य और फल आदि लेकर मैं गई थी, कुछ बातें भी कीं, कुशल पूछी, पर वह मुझे पहचान नहीं सका। वह उस यमुना को पहचानता था जो राजकुमारी थी, इसे नहीं जो दासी है। अगर कुछ पहचान आएगी भी, तो वह अपनी आँखों को ही धोखा देते हुए समझेगा। दुष्यन्त ने जो अपनी प्रिया को और असली रूप में नहीं पहचाना, वहाँ वास्तव में यही भाव चित्रित है। उसने अँगूठी पहचानी थी।”
कुमार ने सोचते हुए पूछा, “देवी प्रभावती को आपके विगत इतिहास से जो प्रेम है, उसकी कभी आपसे चर्चा करती हैं।”
हँसकर यमुना ने कहा, “कई बार कर चुकी हैं। कहती हैं, विवाह वास्तव में गौरव का वही है। पर, यमुना के पति के साथ निरुद्देश्य होने पर, कभी-कभी दुःख भी करती हैं और तरह-तरह की मनोहर कल्पनाएँ। इच्छा है कि उसी रूप से विवाह करें। उसी रूप में उन्हें विवाह का आनन्द मिलता है। मैं कहती हूँ कि बेचारी, बहुत सम्भव है, किसी वन में दमयन्ती की तरह पति से छूटकर भटकती-फिरती हो या जानकीजी की तरह किसी रावण के यहाँ पड़ी पति की चिन्ता में गल रही हो, तो बिलकुल मुरझा जाती हैं, जैसे उन्हीं पर सब बीत रहा है। तब मैं कहती हूँ, हाय! मैं ही वह यमुना क्यों न हुई कि तुम्हारे गले से लिपटकर कहती कि प्रभावती, दुःख न करो बहन, में आ गई। तब नाराज होकर ‘चुप रह, तू क्या जाने कि वह क्या और कौन है’ डाँट देती हैं।”
राजकुमार उच्च स्वर से हँस पड़े।
यमुना कहने लगी, “एक दिन अपने-आप कहा, ‘यमुना, तू उन यमुना देवी को नहीं जानती, इसलिए सीताजी और दमयन्ती की मिसाल दिया करती है; पर तू बेचारी और जानती कितना है-तेरा क्या कुसूर!’ वे आज भी पूरी क्षत्राणी हैं, किसी किरात से डरनेवाली नहीं। बहुत ऊँचे दरजे की लड़ाई जानती हैं। उनका कोई अपमान थोड़े कर सकता है?”
पेड़ों की आड़ से बाहर निकलने पर नाव प्रतीक्षा करती हुई देख पड़ी, प्रभावती वीणा बजा रही थी। यमुना संयत हो गई। कुछ ही देर में खुले श्मशान-घाट ले जाकर खड़ी हुई। सेविकाओं ने सात रंगों से भिन्न पोरों के तौर पर रंजित तख्ता नीचे से निकालकर डाल दिया। उसी से प्रभावती तट पर उतरी। कुमार और यमुना कुछ दूर-दूर खड़े थे। हाथ जोड़कर कुमार को नमस्कार कर प्रभावती सामने खड़ी रही, प्रति प्रणाम कर यमुना को देखकर कुमार मन में मुस्कुराए। यमुना गम्भीर होकर टल गई और एक सेविका का नाम लेकर शीघ्र सामान ले आने के लिए कहा।
जल, आरती, फूल-मालाएँ, रोचना, कंकण आदि सजे रखे थे। सेविकाएँ एक-एक ले आईं। प्रभा ने जल से हाथ लगाकर पैर प्रक्षालित कर दिए, फिर अप्सरा के पंखोपम उसी उत्तरीय से चरण पोंछे, फिर बाएँ हाथ से पूजित पदों को दबाकर दाहिने से तीन बार अँगूठों की धूल-जैसे उठाकर नेत्रों में लगा सिर पर रखी। फिर आचमन करने लगी।
यमुना संयत है। बार-बार उठते आवेश को सहज भाव से दबाने की कोशिश कर रही है। प्रभा ने पदों पर, फिर मस्तक पर फूल चढ़ाकर रोचना लगाकर गले में गन्धराज की माला डालने लगी कि यमुना का सान्द्र कंठ सुन पड़ा, ‘साध्वी वीरांगना भव।’
‘यमुना और संस्कृत!’ – प्रभा का भाव भंग हो गया। माला पहनाकर निगाह फेरकर कुमार के दाहिनी बगल देखा, यमुना निष्पात पलकों से किसी महामहिमा में डूबी खड़ी थी। कोई भाव वहाँ न था, वह किसी को भी न देख रही थी। अज्ञात प्रेरणों से संकुचित होकर प्रभावती कुमार के हाथ में कंकण बाँधने लगी। कार्य समाप्त होने पर यमुना प्रकृतिस्थ हुई, कुमार के हाथ में कंकण देखकर आँखों में मृदु मुस्कुरा दी।
अब प्रभा आरती करने लगी। सबके हृदय में मधुर भाव ओत-प्रोत हो गया। फिर यमुना ध्यान-मग्न हो चली। दासियाँ, श्मशान-भूमि, आकाश, चन्द्र, ज्योत्स्ना, तारे, गंगा और सारी प्रकृति निष्पन्द! पूजिका की भावमयी आँखों और भ्रू-पलकों का वह अनुपम भक्ति-रूप राजकुमार स्तब्ध होकर देख रहे थे। मन से भासित होता था-आरती उसी की आरती कर रही है; ‘निःसंशय’, स्तब्ध प्रकृति तथा अन्य मौन मन कह रहे थे।
यमुना स्थिर कंठ से कहने लगी, “कुमार, यह देवी प्रभावती की सूझ है। उन्होंने श्मशान में आपको वर रूप से वरण किया है। सुन्दर, यह विश्व देवी की दृष्टि में केवल श्मशान है, यदि यहाँ उनके साथ आप नहीं। उनकी दृष्टि में आप ही उन्हें लुब्ध करनेवाले सौन्दर्य की एकमात्र सृष्टि हैं। इस श्मशान में आपको शिव मानकर आपके गले में उन्होंने वरमाला डाली है। वे पृथ्वी रूप से गुण-सुगन्ध-भूषित हो रही हैं। जल-रूप उन्होंने आपके चरण धोकर आपको अन्तःकरण का समस्त रस अर्पित कर दिया है। आपको माला पहनाकर, सुरोचित कर स्पर्श-जन्य अपना समीर अंश दे चुकी हैं। आरती द्वारा तथा नयनों की ज्योति से आपके वररूप को देखती और पूजती हुई अपना ताप-तत्त्व और अब मौन खड़ी हुई भी मन से आपके स्नेहाभिषेक में मधुर मुखर, आपको अपना आकाशतत्त्व भी दे चुकी हैं। परन्तु यह वह दान है, जो दोनों पक्ष से अपेक्षित है। इनके लिए हुए पंच-तत्त्वों के बदले आप अपने भी पंच-तत्त्व इन्हें दीजिए। तभी इनकी पूर्णता होगी। आपमें पंच तत्त्व-स्वरूपा शक्ति आकर मिली है; आप पंच तत्त्व-स्वरूप पुरुष को देकर सम हूजिए। यही आपकी भूमि है, यही रस जल, यही पंच-प्राणों को समीर, यही ज्योतिर्मयी दिव्य दृष्टि-दर्शन शोभा और यही शब्दों की आकाश रूपा। आप इन्हें रोचित कर माला पहनाकर प्रति-नमस्कार द्वारा प्रीत कीजिए।
सेविकाएँ अर्ध्य आदि लिए खड़ी थीं। कुमार ने बाएँ हाथ से मस्तक का पश्चाद्भाग थामकर दाहिने से, सुललित रोचना लगा दी, अक्षत छिड़के और दोनों हाथों से, प्रेम के दिव्य भाव से डूबे, प्रिय को माला पहना दी। प्रति-नमस्कार करने लगे, प्रभा ने दोनों हाथों बँधी अंजलि पकड़ ली।
यमुना प्रभा को आगे, पश्चात् कुमार को कर नाव पर ले चली। ललित-पद चलती प्रभा यमुना के भाषण-कौशल पर सोच रही थी। पर यमुना पहले ही सँभल चुकी थी। सुनाकर स्वगत कहने लगी, “आज पंडित गंगाधर महाराज मिल गए। जब राम की किरपा होती है तब क्या कोई काम बिगड़ता थोड़े है? बाहर निकली नहीं कि महाराज खड़े थे, सगुन देखकर मैं गोड़ों गिरी- ‘महाराज, भले मिले। ‘कहने लगे- ‘क्या है यमुना, खैर तो है?’ मैंने कहा- ‘महाराज, एक पंडित तत्-तत् करते थे, पाँच मिलाकर कहा था, मैंने पान, सुपारी, कत्था, चूना, लौंग याद कर लिया-कहते थे, इन ही से हर जीउ बना है, फिर वह पाँचों तत्-तत् समझा दिया, पर महाराज; मैं वह तो भूल गई, ‘पान-सुपारी-कत्था-चूना-लौंग’ याद रह गया है।’ महाराज हँसने लगे। बोले- ‘पंच तत्त्व हैं, तत्-तत् नहीं।’… ‘वह सब लिख दो, अच्छी तरह,’ मैंने कहा। फिर मैंने ब्याहवाली बातें पूछीं, मैंने कहा, ‘सब लिख दो।’ लिखा लिया। फिर दिन-भर पढ़ती ही तो रही! याद हो गया, फिर नाम बैठाकर, अपनी तरह से कह दिया। मैंने कहा, ‘महाराज, किसी स्त्री को अगर कहा जाए कि पति को मानो भी और खूब लड़ाका भी हो, तो सन्सकीरत में कैसा कहेंगे? मैंने सोच लिया था कि आखिर कुमारीजी का ब्याह है, कुछ कहे बिना कैसे बनेगा, पुरोहितजी होंगे नहीं। पंडितजी ने बताया, इसकी सन्सकीरत है- ‘साध्वी वीरांगना भव’।”
‘लड़ाका’ के पास राजकुमार फट पड़े-किसी तरह जब्त न कर सके, प्रभा भी खिलखिला दी, “चुप रह, तुझसे कोई कैफियत तलब करता है?”
“नहीं, मैंने कहा सायत,” कहकर यमुना चुप हो गई।
क्रमश:
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