चैप्टर 5 नारी सियारामशरण गुप्त का उपन्यास | Chapter 5 Nari Siyaramsharan Gupt Novel
Chapter 5 Nari Siyaramsharan Gupt Novel
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उस पञ्चाङ्ग नामक सूचीपत्र को लेकर हल्ली और हीरालाल में विरोध बढ़ गया है।
मदरसे की बात है । लड़के इधर-उधर अव्यवस्थित रूप में थे । कोई काँच के टुकड़े से काठ की पट्टी घोंट रहा था, कोई बोरका या दवात में पानी डालकर लौट रहा था, और कोई अपनी दवात कलम की खोज में था। कहीं-कहीं दस-दस पाँच-पाँच के झुण्ड लड़ झगड़कर शोर कर रहे थे। इतने में एक लड़के ने आकर खबर दी, बड़े पंडितजी आ रहे हैं | समाचार बिजली की तरह सब लड़कों में दौड़ गया। जब तक पंडितजी मदरसे के भीतर आकर उपस्थित हों तब तक अपने-अपने स्थान पर पहुँचकर सब लड़के जोर-जोर से अपना पाठ पढ़ने लगे थे।
पंडितजी ने कुरसी पर बैठकर आगे की मेज में हाथ के बेंत से खटखटाहट की नहीं कि एक साथ सन्नाटा खिंच गया। अब नित्य के अनुसार पढ़ाई शुरू होने वाली थी, तब तक हीरालाल ने उठकर कहा – पंडितजी, यह हल्ली मुझसे बुरी-बुरी बात कहता है ।
हल्ली अपनी जगह पर बैठे-बैठे बोल उठा – नहीं पंडितजी, यही मुझसे कह रहा था, – हल्ला, गल्ला, निठल्ला ।
हीरालाल ने कहा- यह सरासर झूठ बोल रहा है। यही कह रहा था, – हिरवा, चिरवा-
पंडितजी ने हाथ का बेंत मेज पर बजाते हुए दोनों को एक साथ बोलने के लिए रोका। हीरालाल आगे था, इसलिए उसी को पहले बोलने का मौका मिला। उसने कहा – पंडितजी, आपने जैसी दवाइयों का सूचीपत्र उस दिन फाड़कर फिकवा दिया था, वैसा ही यह अपने साथ लाया है।
हल्ली उस सूचीपत्र के साथ तलब किया गया। डरते-डरते पंडितजी के पास पहुँचकर उसने कहा- यह वैसा नहीं है पंडितजी ।
हल्ली के हाथ से सूचीपत्र छीनकर पंडितजी ने उसे नीचे फेंका और उसके गाल में दो तमाचे जड़ दिए। बोले- दियासलाई लगाकर सूचीपत्र अभी जला दो ।
कई लड़के दियासलाई लाने के लिए एक साथ इस तरह उठ खड़े हुए, मानो अभी किसी बहुत बड़ी प्रतियोगिता के खेल में भाग लेना है।
हल्ली रुआँसे मुँह से कातर होकर कहने लगा- पंडितजी, इसमें महादेवजी की रंगीन तसवीर है।
उसमें महादेवजी की तस्वीरे होने के दोष पर हल्ली को एक चपत और जड़कर पंडितजी ने कहा- अब कभी ऐसी चीज देखी तो मार मारकर ठीक कर दूँगा ।
हीरालाल से समझा जीत उसकी हुई और हल्ली ने सोचा, वह हार कर भी हारा नहीं है। फिर भी उसका जी न जाने कैसा हो गया कि उस दिन वह पढ़ने में मन बिलकुल न लगा सका । सब हिसाब गलत निकलने के कारण उसे फिर मार खानी पड़ी।
छुट्टी होने पर हल्ली ने हीरालाल से कहा- आज तुम हमारी ओर खेलने आये तो तुम्हारी हड्डी तोड़ दूँगा ।
“अभी शिकायत करता हूँ” – कहकर पंडितजी के पास जाने के लिए हीरालाल आगे बढ़ा। परन्तु हल्ली पहले ही देख चुका था कि वे चले गये हैं। मुड़कर हीरालाल ने कहा- मैं आऊँगा, देखें कौन रोकता है। गड़बड़ करोगे तो वारंट कटाकर थाने में बंद कर दूँगा ।
घर जाकर हल्ली ने एक आले में बस्ता पटका और घर के किवाड़ बंद करके खेल के मैदान में पहुँच गया। उसने सोचा, देखूं हीरा कैसे आज मेरे खेल में आता है। मन की उत्तेजना में उसे इस बात की सुर्त न रही कि रामू की दूकान पर उस समय उसे रामयण की पोथी लेने जाना है। दोपहर को दूकानदार उसे मिला नहीं था, तब सन्ध्या की छुट्टी के बाद उसने फिर वहाँ जाने का निश्चय किया था।
मैदान में कई लड़के पहले ही मौजूद थे। एक लड़का कपड़े की सिली गेंद और चीड़ के पटिये का बल्ला साथ लाया था। उसने कहा- गेंद की एक बाजी खेली जाय ।
दूसरी ओर कुछ लड़के मिलकर कौड़ियों का कोई खेल खेल रहे थे। उनमें जो हार रहा था, उसने पैर से कौड़ियों को ठुकराया और कहा- गेंद खेलने से कसरत होती है।
जीतने वाला प्रतिवाद करना चाहता था, तब तक तीसरे ने कहा — धरम की दाई मुण्डा देगा |
जिस लड़के को यह पुण्य कार्य सौंपा जा रहा था, उसका मुण्डन हाल में ही हुआ था। उसकी घुटी हुई खोपड़ी देखकर सब खिल- खिलाकर एक साथ हँस पड़े।
एक ओर लड़के ने सुझाया, ऐसी खोपड़ी पर चील झपट्टा बहुत अच्छा रहेगा।
हल्ली ने आगे बढ़कर कहा – यह सब कुछ नहीं, आओ रेल- रेल खेलें। यह मुण्डा मुण्डे डिब्बे का काम देगा।
सब लड़के उत्साह से इस नये प्रस्ताव पर एक साथ सहमत हो गये ।
“सात डिब्बे की गाड़ी बनेगी, ” – हल्ली ने कहा – ” परन्तु बनेगा कौन कौन ?”
डिब्बे बनने के लिए सब तैयार दिखाई दिये। जाय, अब यह समस्या सामने आई। एक लड़के ने इनमें से किसे चुना “सवारी का डिब्बा मैं हूँ- यह कहकर अपने साफे की ओर इंगित किया । वह थी उसकी सवारी !
तुरन्त चार डिब्बे सवारी के छाँट लिए गये; क्रम से पहला, ड्योढ़ा, दूसरा और तीसरा । साफ कपड़े पहने एक लड़के को – पहला दर्जा बना दिया गया, बाकी के लिए कुछ गड़बड़ पड़ी। दो डिब्बे बनाये गये माल के, जो नंगे सिर थे। और इसमें तो कुछ झंझट ही न थी कि मुण्डा डिब्बा सबके अन्त में रहेगा ।
“सात तो ये अभी हो गये और इंजन अभी बना नहीं। बिना इंजन के गाड़ी चलेगी कैसे?” – हल्ली ने कहा – ” अच्छा, टेसन मास्टर मैं न बनूँगा। आठवाँ मैं हुआ इंजन।”
कतार बाँधकर सब सीध में खड़े हो गये। इंजन ने मुँह से सीटी बजाई और कहा- फक्- फक्- फक्! !
इंजन चालू हो गया और गाड़ी हिली तक नहीं। इंजन को ही डपटकर बोलना पड़ा-गाड़ी चलती क्यों नहीं; क्या खराबी है?
गाड़ी चलने लगी। थोड़ा आगे बढ़कर इंजन रुक गया। उसने कहा- गाड़ी पीछे को लौटेगी। लाइन क्लिअर नहीं हुआ है और माल के डिब्बे में माल भी नहीं लादा गया। अरजुना, अपनी गेंद लखू को दे, वह है पैटमैन । गारड साब को गेंद दी जायगी तब गाड़ी चलेगी।
उलटी लौटकर गाड़ी फिर उसी जगह आई। वहाँ दूसरे लड़कों ने जमीन पर से जैसे कुछ उठाकर माल के डिब्बों में माल भरने का सा काम किया, गेंद पहले दरजे वाले डिब्बे ने गार्ड बनकर ली, दोनों ओर कुछ लड़के थोड़े फासले से तार के खम्भे बनकर खड़े हुए, तब कहीं दुबारा गाड़ी रवाना हो सकी।
थोड़ी दूर चलकर फक्-फक् करना छोड़ इंजिन फिर खड़ा हो गया। पीछे गर्दन मोड़कर उसने कहा-इंजन के अलावा दूसरा कौन फक् – फक् करता है ? राधे, सीध में रहो, गाड़ी रेल की पटरी से उतरे नहीं ।
सब ठीक ठाक होकर गाड़ी फिर चली और अबकी बार चलकर दौड़ने लगी। गाड़ी के दोनों ओर तार के खम्भे वाले लड़के भी हो- हल्ला करके साथ-साथ दौड़ रहे थे।
“टेसन जबलपुर ! गाड़ी पाँच मिनट ठहरेगी।” बगल के एक लड़के ने कहा। गाड़ी रुकी और आध मिनट में ही पाँच मिनट पूरे करके फिर दौड़ने लगी। जबलपुर के बाद आया लखनऊ, फिर लाहौर । लाहौर से बढ़कर एकदम दिल्ली जाकर गाड़ी रुकी। यहाँ उसे पूरे चौबीस घण्टे रुकना पड़ेगा। अब तक उसने बहुत बड़ा चक्कर काट लिया था।
सहसा हल्ली ने कहा- दिल्ली नहीं, यह टेसन कलकत्ते का है।
“हाँ हाँ कलकत्ते का है। गरमागरम दाल-रोटी-बिसकुट! बनारस के अमरूद !” आदि की आवाज आने लगीं।
हल्ली ने इंजिन वाले की हैसियत से हुक्म दिया- बाजार जाकर जिसे जो कुछ खरीदना हो, खरीद लावे। गाड़ी यहाँ बहुत रुकेगी।
गाड़ी तितर-बितर हो गई। कोई कहीं, कोई कहीं जाकर इच्छानुसार घूमने लगा। हल्ली ने अकेले पड़कर वेदना के साथ मन में कहा- मुझे तो कुछ लेना-देना है नहीं, मैं बप्पा को ढूंढ़ेगा। बाप का पता लगाने में माँ की करुण मूर्ति ही बार-बार उसकी आँखों के आगे आने लगी।
थोड़ी देर में फिर सब लड़के इकट्ठे हुए तब हल्ली ने देखा, हीरालाल भी वहाँ मौजूद है। उसका जी बुझा-बुझा हो रहा था, अब उसने फिर गरमी पकड़ ली। बोला- खबरदार, जो तुम मेरी रेल के पास आये !
उसने कहा – आता कौन है ! छिः छिः, रेल रेल कहीं ऐसे खेला जाता है? पुरखों ने सात जनम में कभी देखी हो तब तो-
हल्ली उसे मारने के लिए लपका। कई लड़के मुश्किल से बीच- बचाव कर सके।
गाड़ी फिर रवाना होकर किसी स्टेशन पर ठहरी तब एक लड़के ने आवाज लगाई – चाय गरमागरम ! गरम चाय खरीदने के लिए हल्ली ने जेब में हाथ डाला कि जड़ मूर्ति की तरह वह जहाँ का तहाँ खड़ा रह गया। थोड़ी देर बाद उसके मुँह से निकला – अरे मेरे दोनों रुपये कहाँ गये !
रेलगाड़ी का समस्त संगठन भंग करके लड़कों ने आसपास भीड़ लगा दी। एक साथ अनेक प्रश्नों का उत्तर देना उसके लिए असम्भव हो गया। हीरालाल भी उस भीड़ में घुस आया था, उसने पूछा- कैसे रुपये, कहाँ से आये थे ।
हल्ली बिगड़ पड़ा – रुपये और कैसे होते हैं – क्या तुम्हारे बाप के थे, जो पूछने आ गये?
उसने शान्ति से उत्तर दिया- नाराज क्यों होते हो? मैं तो इसलिए कुछ पूछ रहा था कि तुम जैसे गरीब लड़के के पास रुपये आ कहाँ से सकते हैं। जमना काकी या और किसी के चुराये होंगे। बुरे की सजा भगवान हाथों हाथ देते हैं। जाकर मैं अभी काकी से कहता हूँ ।
वह झंझट दूर होने पर लड़कों ने इधर-उधर खोज शुरू की। हल्ली ने बताया—जब मदरसे पहुँचा तब तो रुपये जेब में थे, बाद की खबर मुझे नहीं है।
“मदरसे में ही तो किसी ने नहीं उड़ा दिये ? तुम्हारी जेब वहाँ एक बार खनकती मैंने सुनी थी। यह हीरा बड़ा बदमाश है देखो कैसा हँस रहा था । ” – एक लड़के ने कहा ।
हल्ली बोला- यहाँ तो अच्छी तरह देख लो ।
उसकी रेलगाड़ी दिल्ली, लाहौर, न जानें कहाँ-कहाँ घूम फिरी थी । इन स्थानों में रुपयों का खोज निकालना सम्भव न था । भरसक प्रयत्न करके सब लड़के म्लान मन से अपने-अपने घर लौटे। एक लड़के ने कहा- सरकार के यहाँ दो रुपये रेलगाड़ी के टिकट में गये ।
हल्ली सिर नीचा किये चुपचाप अपने घर की पौर में जाकर खड़ा हो गया। आँगन में माँ के पास एकाएक जाने की हिम्मत उसकी नहीं हुई ।
जमना खेत पर से अभी-अभी लौटी थी। अपने मुहल्ले में पहुँचते ही हल्ली के रुपये खोने का समाचार उसे मिल गया था। आँगन के आले में मिट्टी का दिया रखकर वह उसकार रही थी कि पौर में उसे हल्ली के पैर की हलकी आहट सुनाई दी। यह स्वर उसका चिरपरिचित है, किसी हालत में इसे पहचानने में वह भूल नहीं कर सकती। वहीं से हल्ली के विषाद भरे चेहरे की कल्पना करके उसका हृदय व्यथित हो उठा। मृदु कण्ठ से उसने कहा- कौन है, हल्ली ?
वह जहाँ का तहाँ खड़ा खड़ा रहा, कोई उत्तर उसने न दिया। तब जमना ने वहीं पहुँच कर पूछा- हल्ली, रुपये खो गये क्या ?
यह स्वर तो नाराजी का नहीं है। हल्ली ने अभी कुछ देर पहले सोचा था कि यदि माँ नाराज होंगी तो मैं बिगड़कर कहूँगा- क्या मैंने जान-बूझकर गिराये हैं? इतना नाखुश होती हो तो तुमने मुझे दिये ही क्यों ? परन्तु माँ का स्वर तो यह वैसा नहीं है। वह बोला- “माँ” और आगे कुछ न कह सका ।
जमना ने कहा- गिर गये सो गिर गये, परन्तु बेटा, रुपया-पैसा सँभालकर रक्खा जाता है।
हल्ली दीन नहीं पड़ना चाहता था। वह हीरालाल को दिखा देना चाहता था कि मुझे किसी की परवा नहीं है । परन्तु माँ के इस प्यार के सामने तो झुके बिना नहीं रहा जाता। वह सिसक-सिसक कर रोने लगा।
जमना ने दोनों हाथों से खींचकर उसे गोद में चिपका लिया । बोली- रो मत बेटा, कल तेरे साथ पोथी लेने मैं आप चलूँगी !
मन ही मन वह कह रही थी- दो रुपये खो गये तो खो गये। जिन्दगी में न जानें कितना क्या खो जाता है। आनन्द इसमें भी है, आनन्द इसमें भी है।
क्रमश:
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