चैप्टर 5 लंगड़ा खूनी : बाबू नयराम दास का उपन्यास | Chapter 5 Langada Khooni Novel By Babu Nayamdas

Chapter 5 Langada Khooni Novel By Babu Nayamdas

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पांचवा भेद

दुर्घटना स्थल की जांच

इस समय अजय सिंह का चेहरा विचारों की रौंद से लाल हो गया था और वह इस मामले की जांच में दिलों जान से परिश्रम कर रहा था। उसके भौहों में दो काली-काली लकीरें पड़ गई थी। जिस समय उसने अपना मुँह पृथ्वी पर झुकाया था, उस समय उसकी आँखें मोमबत्ती की तरह जल रही थी और उसकी नाक से ऐसी हवा निकल रही थी, मानो वह अपने शिकार को सूंघ रहा है।

इसी प्रकार वह तेजी के साथ आगे आगे जा रहा था। यहाँ तक कि हम लोग वरुणा नदी के किनारे पहुँच गये। नदी का किनारा नम था। किनारे के आसपास कई मनुष्यों के पद चिन्ह दिखलाई पड़े। अजय सिंह किसी स्थान पर तेजी के साथ चल पड़ता और कहीं बुत बनकर खड़ा हो जाता और किसी समय बड़ी तेजी के साथ इधर-उधर घूमने लग जाता था। इससे ‘दो मुल्लाह में मुर्गी हलाल’ होने वाली कहावत चरितार्थ होती थी, क्योंकि दोनों जासूसों के दो मत थे। किसी का ख़याल कुछ था और किसी का कुछ। मेरी दृष्टि अपने मित्र की तरफ थी। वह पद चिन्हों को घूर-घूर कर देखता था।

वरुणा नदी हरिहर के बाग से मिली हुई पच्चीस गज के लगभग चौड़ी होगी। दुर्घटना स्थल सूखे कीचड़ो और वृक्षों से ढका हुआ था। नदी के किनारे से कोई बीस कदम की दूरी पर रौंदी हुई घास दिखलाई पड़ी। भेदिये ने मुझे वह स्थान बतलाया, जहाँ मुर्दा पाया गया था। अजय सिंह के ध्यान आँखों से प्रतीत होते थे कि वह रौंदे हुए घास के एक-एक तिनके की खूब जांच कर रहा है। थोड़ी देर पर्यंत इसी प्रकार जांच करने के बाद वह भेदिया से कहने लगा – “तुम नदी की तरफ क्यों गए हो?”

भेदिया – “मैं यह जानना चाहता था कि शायद किसी किस्म का कोई…’

अजय ( भदिये की बात काटकर) – “किंतु मैं नहीं क्या? मेरे पास इतना समय नहीं था, नहीं तो मैं पुलिस अफसरों के पहले ही आकर मुकदमे को हल कर डालता, जो भेड़ों की गल्ले की तरह आकर यहाँ इकट्ठा हो गए थे और सात आठ कदम तक के सर्व निशानों को ढक दिया है। देखो या तुम्हारे ही पैर के चिन्ह है, ना जो बराबर चले गए हैं।”

यों कहने के बाद उसने अपनी दूरबीन लगाई और बहुत ध्यान से उधर उधर देखने लगा और पुनः बोल उठा – “यह देखो! महादेव के पद चिन्ह है। वह दो बात चला है। एक बार धीरे-धीरे और दूसरी बार तेजी के साथ क्योंकि इन चिन्हों में उसके एड़ियों की निशानियाँ है और पांव के अगले भाग भी उगे हुए हैं। और क्या विश्वनाथ सिंह के पैर के चिन्ह है, जब वह इधर-उधर फिर रहा था। और यह महादेव के बंदूक के चिन्ह है, जबकि वह अपने बाप की घुड़कियाँ सुन रहा था। ओह! यह कैसे भद्दे और मोटे पांवों के चिन्ह!!! यह देखो एक बार गया है और फिर लौट आया है। हाँ ठीक इन चिन्हों का मालिक पुनः अपना कोट लेने के लिए आया होगा।“

इसी प्रकार देखता घूमता हुआ वह झाड़ियों के किनारे जा पहुँचा, जहाँ एक बहुत बड़ा वृक्ष लगा हुआ था। इसके समीप पहुँचकर वह देखने और अपने विश्वासों को दर्द करने लगा। बहुत देर तक को सूखे पत्ते और टहनियों की उलट-पुलट करता रहा और फिर जहाँ तक अपनी दूरबीन से बन पड़ता है, वृक्ष को देखता रहा। वृक्ष की जड़ के पास पृथ्वी पर एक पत्थर का टुकड़ा पड़ा था। वह उस पर कुछ देर तक दृष्टि गड़ाए रहा। अंत को उसको उठाकर वह ऐसे स्थान में निकल गया, जहाँ संपूर्ण पद चिन्ह लुप्त थे और बोला –

“भेदिया बड़ा दिलचस्प मामला है। मैं ख़याल करता हूँ कि यह सामने वाली झोपडी उसी लड़की की है। मुझे वहाँ जाना चाहिए क्योंकि उस लड़की से दो एक बात पूछना है। यह काम करके फिर भोजन के लिए रवाना हो जाऊंगा।”

इस वार्तालाप के दस मिनट बाद हम लोग गाड़ी में बैठ कर घर के लिए रवाना हो गए। अजय से भी उस पत्थर के टुकड़े को हाथ में दिया कुछ बोला – “भेदिये! समझते हो या क्या है ? इसी से खून का काम पूरा किया गया है।”

भेदिया – “मैं तो ऐसा निशान पत्थर में कोई नहीं देखता।”

अजय – “हाँ चिन्ह तो कोई नहीं है।”

भेदिया – “तो फिर तुम कैसे कहते हो?”

अजय – “खूनी एक लंबा आदमी है, उसका बायां हाथ बेकाम है अर्थात उससे कुछ काम नहीं कर सकता और वह बायें टांग से लंगड़ाता भी है। उसकी पोशाक भूरी है। वह डबल बूट पहनता है। और वह स्वदेशी सिगार अपने होल्डर में रखकर पीता है और मोटे धार का चाकू अपनी जेब में रखता है और भी बहुत सी ऐसी चीजें हैं जिन्हें हमने मालूम किया है। किंतु जांच की सहायता के लिए इतना ही बहुत और काफ़ी है।“

भेड़िये ने मुस्कुरा कर कहा – “अफ़सोस है कि अभी तक मैंने कुछ निश्चय नहीं किया (धीमी आवाज में) कदाचित जो कुछ तुम कहते हो, वही सही हो, किंतु अभी तक मुझे…”

अजय (बात काट कर) – “तो फिर क्या? अपने ढोलकी अपनी-अपनी राग। मुझे इसे कुछ मतलब नहीं। तुम अपनी ही बात को सत्य समझे हो, किंतु मुझे अपनी ही पर विश्वास है। अब मेरा काम केवल दोपहर का और है, शायद शाम की गाड़ी में इलाहाबाद को लौट जाऊं।”

भदिया – “तो क्या इसको अधूरा ही छोड़ जाओगे?”

अजय – “अधूरा क्यों पूरा करके जायेंगे।”

भेदिया – “किंतु यह झमेला?”

अजय – “इसको पूरा कर दिया। झमेला कैसा?”

भेदिया – “फिर खूनी कौन है?”

अजय – “जिसका हुलिया अभी मैंने बयान किया है।”

भेदिया – ” वह कौन है?”

अजय – “इसकी कोई जरूरत नहीं है।”

इस पर भेदिया अपने मोढ़े को हिला कर कहने लगा – “मैं एक बुद्धिमान मनुष्य हूँ। सब लोग यहाँ मेरी बड़ी इज्जत करते हैं। मुझसे तो ऐसी बेहूदगी हो ही नहीं सकती कि मैं एक लंगड़ा आदमी ढूंढता फिरूं। यदि मैं ऐसा करूं भी, तो लोग मुझे दिल्लगी में उड़ा देंगे।”

अजय (बहुत धीरे से) – “तुम ना सही। तुम्हारे पिता और पिता माता ऐसा करेंगे। अच्छा सलाम! मैं ने तुम पर संपूर्ण भेद प्रकट कर दिया। अब जाने से पहले मिलूंगा।”

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