चैप्टर 5 आँख की किरकिरी उपन्यास (चोखेर बाली उपन्यास) रवींद्रनाथ टैगोर | Chapter 5 Aankh Ki Kirkiri (Chokher Bali) Novel By Rabindranath Tagore

Chapter 5 Aankh Ki Kirkiri Novel By Rabindranath Tagore

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कुछ दिन सूखा पड़ने से नाज के जो पौधे सूख कर पीले पड़ जाते हैं, बारिश आने पर वे तुरंत बढ़ जाते हैं। आशा के साथ भी ऐसा ही हुआ। जहाँ उसका रक्त संबंध था, वहाँ वह कभी भी आत्मीयता का दावा न कर सकी, आज पराए घर में जब उसे बिन मांगे हक मिला, तो उसने इसे लेने में देर न की।

उस दिन दोपहर में राजलक्ष्मी नीचे उतर आईं। उन्होंने सोचा अन्नपूर्णा को जगाया जाए। बोलीं- ‘अरी ओ मंझली, जाकर देख जरा, तुम्हारी नवाब की बेटी नवाब के घर से कैसा पाठ पढ़ कर आई है! घर के बड़े-बूढ़े आज होते तो।’

अन्नपूर्णा ने कातर हो कर कहा – ‘दीदी, अपनी बहू को तुम शिक्षा दो, या हुकूमत चलाओ, मुझे क्या? मुझसे क्यों कह रही हो।’

राजलक्ष्मी धनुष की तनी डोरी-सी टंकार उठीं- ‘हूँ, मेरी बहू! जब तक तुम मंत्री हो, वह मुझे कैसे मान सकती है!’

यह सुन कर अन्नपूर्णा पैर पटकती हुई महेंद्र के कमरे में पहुँच गईं। आशा से बोलीं- ‘तू इस तरह से मेरा सिर नीचा करेगी री, मुँहजली! शर्म नहीं, हया नहीं, समय-असमय का खयाल नहीं, बूढ़ी सास पर गृहस्थी का सारा बोझ डालकर तुम यहाँ आराम फरमा रही हो? मेरा ही नसीब जला कि मैं तुझे इस घर में ले आई।’

कहते-कहते उनकी आँखों से आँसू बहने लगे और आशा भी सिर झुकाए आँचल के छोर को नाखून से नोचती हुई चुपचाप रोने लगी।

महेंद्र ने कहा – ‘यह देखो, इसके लिए मैं स्लेट, बही, किताब सब खरीद लाया हूँ। इसे मैं लिखना-पढ़ना सिखाऊँगा, चाहे लोग मेरी निंदा करें।’

अन्नपूर्णा बाली – ‘ठीक है, लेकिन यह क्या तमाम दिन? शाम के बाद घंटा-आधा घंटा पढ़ लिया बस! घंटा-आधा घंटा पढ़ना ही तो काफी होगा।’

महेंद्र – ‘इतना आसान नहीं है चाची, पढ़ने-लिखने में समय लगता है।’

अन्नपूर्णा खीझकर चली गईं। आशा भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ी। महेंद्र दरवाजा रोक कर खड़ा हो गया – उसने आशा की गीली आँखों की

विनती न मानी। वैसे आशा को नहीं लगता कि लिखना-पढ़ना जरूरी भी है, फिर भी वह अपने पति की खातिर किताबों पर एकबारगी झुक कर सिर हिलाती हुई बताई चीजें याद करती रहती। कमरे के कोने में छोटी-सी मेज पर डॉक्टरी की किताब खोले मास्टर साहब कुर्सी पर बैठे होते, बीच-बीच में कनखियों से छात्रा को देखते रहते। अचानक अपनी किताब बंद करके आवाज दी- ‘चुन्नी!’ यह आशा का ही घरेलू नाम था।

चौंककर आशा ने उधर देखा। वह बोला, ‘जरा लाओ तो किताब देखूं, कहाँ पढ़ रही हो? आशा को लगा जांच होगी और उसमें पास होने की उम्मीद कम ही थी। आगे-आगे पाठ और पीछे सपाट, कुछ यही हाल था। एक हाथ से उसकी कमर को कस कर लपेट कर दूसरे हाथ से

किताब पकड़ कर पूछा – ‘आज कितना पढ़ गई, देखूं तो।’

जितनी पंक्तियों पर वह सरसरी निगाह फेर गई थी, दिखा दिया। महेंद्र ने अचरज से कहा – ‘ओह, इतना पढ़ गई! मैंने कितना पढ़ा, बताऊं?’
और अपनी किताब के किसी अध्याय का शीर्षक-भर दिखा दिया। अचरज से आँखें बड़ी-बड़ी करके आशा ने पूछा – ‘तो इतनी देर से कर क्या रहे थे?’

उसकी ठोढ़ी पकड़ कर महेंद्र ने कहा – ‘मैं किसी के बारे में सोच रहा था; और जिसके बारे में सोच रहा था, वह दीमक का वर्णन पढ़ने में मशगूल थी!’

इस बे-वजह शिकायत का सटीक जवाब आशा दे सकती थी, लेकिन प्रेम की प्रतियोगिता में झूठी हार मान लेनी पड़ती है।

ऐसे ही एक रोज महेंद्र मौजूद नहीं था। मौका पाकर आशा पढ़ने बैठ गई कि अचानक कहीं से आकर उसने आँखें मींच लीं और किताब छीनकर कहने लगा, ‘बे-रहम, मैं नहीं होता हूँ, तो तुम मेरे बारे में सोचती तक नहीं। किताबों में डूब जाती हो!’

आशा ने कहा – ‘तुम मुझे गंवार बनाए रखोगे?’

महेंद्र ने कहा – ‘तुम्हारी कृपा से अपनी ही विद्या कौन आगे बढ़ रही है!’ बात आशा को लग गई। फौरन चल देने का उपक्रम करती बोली – ‘मैंने तुम्हारी पढ़ाई में ऐसी कौन-सी रुकावट डाली है?’

उसका हाथ थामकर महेंद्र ने कहा – ‘यह तुम नहीं समझोगी। मुझे भूल कर तुम जितनी आसानी से पढ़-लिख लेती हो, तुम्हें भूल कर उतनी आसानी से मैं नहीं पढ़-लिख पाता।’

शिक्षक ही जब शिक्षा की सबसे बड़ी बाधा हो तो छात्रा की क्या मजाल कि विद्या के वन में राह बनाकर चल सके। कभी-कभी मौसी की झिड़की याद आती और चित्त विचलित हो जाता। सास को देख कर शर्म से गड़ जाती, लेकिन सास उसे किसी काम को न कहती। अपने मन से उनकी मदद करना चाहती, तो वह पढ़ाई के हर्जे की बात कहकर वापस भेज देती।

आखिर अन्नपूर्णा ने आशा से कहा – ‘तेरी जो पढ़ाई चल रही है, वह तो देख ही रही हूँ, महेंद्र को क्या डॉक्टरी का इम्तहान न देने दोगी?’
यह सुनकर आशा ने अपने जी को कड़ा किया। महेंद्र से कहा – ‘तुम्हारे इम्तहान की तैयारी नहीं हो पा रही है। आज से मैं नीचे मौसी के कमरे में रहा करूंगी।’

इस उम्र में ऐसा कठोर संन्यास-व्रत! सोने के कमरे से एकबारगी मौसी के कमरे में निर्वासन! ऐसी कठोर प्रतिज्ञा करते हुए उसकी आँखों के कोनों में आँसू झलक पड़े, बेबस होंठ कांप उठे और गला रूंध गया। महेंद्र बोला – ‘बेहतर है, चाची के कमरे में ही चलो! मगर तब उन्हें हमारे कमरे में ऊपर आना पड़ेगा।’

ऐसा एक गंभीर प्रस्ताव मजाक बन गया, आशा इससे नाराज हुई। महेंद्र ने कहा – ‘इससे तो अच्छा है कि तुम रात-दिन मुझे आँखों-आँखों में रखो और निगरानी करो! फिर देखो कि मेरी इम्तहान की पढ़ाई चलती है कि नहीं।’

बड़ी आसानी से आखिर यही बात तै हो गई। यह निगाहों के पहरे वाला काम कैसा चलता था, विस्तार से बताने की जरूरत नहीं। इतना ही कह देना काफी होगा कि उस साल महेन्द्र इम्तहान में फेल हो गया और चारुपाठ के लंबे वर्णन के बावजूद पुरुभुज के बारे में आशा की अनिभिज्ञता दूर न हो सकी।

उनका यह अनूठा पठन-पाठन एकबारगी निर्विघ्न चलता रहा हो, ऐसा नहीं। बीच-बीच में बिहारी आकर बड़ी गड़बड़ मचाता। ‘महेन्द्र भैया’ की पुकार मचाकर वह आसमान सिर पर उठा लेता। महेन्द्र को उसके सोने के कमरे की माँद में खींचकर बाहर किये बिना उसे चैन न पड़ता। महेन्द्र की वह बड़ी लिहाड़ी लेता कि वह अपनी पढ़ाई में ढिलाई कर रहा है। आशा से कहता, ”भाभी, निगल जाने से हजम नहीं होता, चबा-चबाकर खाना चाहिए। अभी तो सारा भोजन एक ही कौर में निगल रही हो, बाद में हाजमे की गोली ढूंढे नहीं मिलेगी, हाँ।”

महेन्द्र कहता – ”चुन्नी, इसकी सुनो ही मत। इसे हमारे सुख से रश्क हो रहा है।”

बिहारी कहता – ”सुख जब तुम्हारी मुट्ठी में है, तो इस तरह से भागो कि औरों को रश्क न हो।”

महेन्द्र जवाब देता – ”औरों के रश्क से सुख जो होता है! चुन्नी जरा-सी चूक से मैं तुम्हें इस गधे के हाथों सौंप रहा था।”

बिहारीलाल आँखों में कहता – ‘चुप!’

इन बातों से आशा बिहारी पर मन-ही-मन कुढ़ जाती। कभी बिहारी उसकी शादी की बात चली थी, इसी से वह बिहारी से खिंची-खिंची रहती – यह बिहारी समझता था और महेन्द् इसी बात का मजाक किया करता।

राजलक्ष्मी बिहारी से दुखड़ा रोया करतीं। बिहारी कहता, ”माँ, कीड़े जब घर बनाते हैं, तो उतना खतरा नहीं रहता, लेकिन जब उसे काटकर वे उड़ जाते हैं, तो उन्हें लौटाना मुश्किल है। किसे यह पता था कि वह तुम्हारे बंधन को इस तरह तोड़ फेंकेगा।”

महेन्द्र के फेल होने की खबर से राजलक्ष्मी धधक उठीं, जैसे गर्मियों की आकस्मिक आग लहक उठती है। लेकिन उनकी यह जलन और चिंगारी भोगनी पड़ी अन्नपूर्णा को। उनका तो सोना-खाना हराम हो गया।

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