चैप्टर 48 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 48 Kayakalp Novel By Munshi Premchand
Chapter 48 Kayakalp Novel By Munshi Premchand
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अहिल्या के आने की खबर पाकर मुहल्ले की सैकड़ों औरतें टूट पड़ी। शहर के बड़े-बड़े घरों की स्त्रियां भी आ पहुंची। शाम तक तांता लगा रहा। कुछ लोग डेपुटेशन बनाकर संस्थाओं के लिए चंदै मांगने आ पहुंचे। अहिल्या को इन लोगों से जान बचानी मुश्किल हो गई। किस-किससे अपनी विपत्ति कहे? अपनी गरज के बावले अपनी कहने में मस्त रहते हैं, किसी की सुनते ही कब हैं? इस वक्त अहिल्या को फटे हालों यहां आने पर बड़ी लज्जा आई। वह जानती कि यहां यह हरबोंग मच जाएगा, तो साथ दस-बीस हजार के नोट लेती आती। उसे अब इस टूटे-फूटे मकान में ठहरते भी लज्जा आती थी। जब से देश ने जाना कि वह राजकुमारी है, तब से वह कहीं बाहर न गई थी। कभी काशी रहना हुआ, कभी जगदीशपुर। दूसरे शहर में आने का यह पहला ही अवसर था। अब उसे मालूम हुआ कि धन केवल भोग की वस्तु नहीं है, उससे यश और कीर्ति भी मिलती है। भोग से तो उसे घृणा हो गई थी, लेकिन यश का स्वाद उसे पहली ही बार मिला। शाम तक उसने पंद्रह-बीस हजार के चंदे लिख दिए और मुंशी वज्रधर को रुपए भेजने के लिए पत्र लिख दिया। खत पहुँचने की देर थी। रुपए आ गए। फिर तो उसके द्वार पर भिक्षुकों का जमघट रहने लगा। लंगडों-अंधों से लेकर जोड़ी और मोटर पर बैठने वाले भिक्षुक भिक्षा दान मांगने आने लगे। कहीं से किसी अनाथालय के निरीक्षण करने का निमंत्रण आता, कहीं से टी-पार्टी में सम्मिलित होने का। कमारी-सभा, बालिका विद्यालय, महिला क्लब आदि संस्थाओं ने उसे मानपत्र दिए और उसने ऐसे सुंदर उत्तर दिए कि उसकी योग्यता और विचारशीलता का सिक्का बैठ गया। ‘आए थे हरिभजन को, ओटन लगे कपास’ वाली कहावत हुई। तपस्या करने आई थी, यहां सभ्य समाज की क्रीडाओं में मग्न हो गई। अपने अभीष्ट का ध्यान ही न रहा।
ख्वाजा महमूद को भी खबर मिली। बेचारे आंखों से माजूर थे। मुश्किल से चल-फिर सकते थे। उन्हें आशा थी कि रानीजी मुझे जरूर सरफराज फरमाएंगी, लेकिन जब एक हफ्ता गुजर गया और अहिल्या ने उन्हें सरफराज न किया, तो एक दिन तामजान पर बैठकर स्वयं आए और लाठी टेकते हुए द्वार पर खड़े हो गए। उनकी खबर पाते ही अहिल्या निकल आई और बड़ी नम्रता से बोली-ख्वाजा साहब, मिजाज तो अच्छे हैं? मैं खुद ही हाजिर होने वाली थी, आपने नाहक तकलीफ की।
ख्वाजा–खुदा का शुक्र है। जिंदा हूँ। हुजूर तो खैरियत से रहीं?
अहिल्या–आपकी दुआ है, मगर आप मुझसे यों बातें कर रहे हैं, गोया मैं कुछ और हो गई हूँ। मैं आपकी पाली हुई वही लड़की हूँ, जो आज से पंद्रह साल पहले थी, और आपको उसी निगाह से देखती हूँ।
ख्वाजा साहब अहिल्या की नम्रता और शील पर मुग्ध हो गए। वल्लाह! क्या इन्कसार है, कितनी खाकसारी है ! इसी को शराफत कहते हैं कि इंसान अपने को भूल न जाए। बोले–बेटी, तुम्हें खुदा ने यह दरजा अता किया, मगर तुम्हारा मिजाज वही है, वरना किसे अपने दिन याद रहते हैं। प्रभुता पाते ही लोगों की निगाहें बदल जाती हैं, किसी को पहचानते तक नहीं, जमीन पर पांव तक नहीं रखते। कसम खुदा की, मैंने जिस वक्त तुम्हें नाली में रोते पाया था, उसी वक्त समझ गया था कि यह किसी बड़े घर का चिराग है। मैं यशोदानंदन मरहूम से भी बराबर यह बात कहता रहा। इतनी हिम्मत, इतनी दिलेरी, अपनी असमत के लिए जान पर खेल जाने का यह जोश, राजकुमारियों ही में हो सकता है। खुदा आपको हमेशा खुश रखे। आपको देखकर आंखें मसरूर हो गईं। आपकी अम्मांजान तो अच्छी तरह हैं? क्या करूं, पड़ोस में रहता हूँ, मगर बरसों आने की नौबत नहीं आती। उनकी सी पाकीजा सिफत खातून दुनिया में कम होंगी?
अहिल्या–आप उन्हें समझाते नहीं, क्यों इतना कष्ट झेलती हैं?
ख्वाजा–अरे बेटा, एक बार नहीं, हजार बार समझा चुका, मगर जब वह खुदा की बंदी मानें भी। कितना कहा कि मेरे पास जो कुछ है, वह तुम्हारा है ! यशोदानंदन मरहूम से मेरा बिरादराना रिश्ता है। सच पूछो तो मैं उन्हीं का बनाया हुआ हूँ। मेरी जायदादमें तुम्हारा भी हिस्सा है, लेकिन मेरी बातों का मुतलक लिहाज न किया। यह तवक्कुल खुदा की देन है। आपको इस मकान में तकलीफ होती होगी। मेरा बंगला खाली है, अगर कोई हरज न समझो, तो उसी में कयाम करो।
वास्तव में अहिल्या को उस घर में बड़ी तकलीफ होती थी। रात में नींद ही न आती। आदमी अपनी आदतों को एकाएक नहीं बदल सकता। पंद्रह साल से वह उस महल में रहने की आदी हो रही थी, जिसका सानी बनारस में न था। इस तंग, गंदे एवं टूटे-फूटे अंधेरे मकान में जहां रात भर मच्छरों की शहनाई बजती रहती थी, उसे कब आराम मिल सकता था? उसे चारों तरफ से बदबू आती हुई मालूम होती थी। सांस लेना मुश्किल था, पर ख्वाजा साहब के निमंत्रण को वह स्वीकार न कर सकी, वागीश्वरी से अलग वह वहां न रह सकती थी। बोली-नहीं ख्वाजा साहब, यहां मुझे कोई तकलीफ नहीं है। आदमी को अपने दिन न भूलने चाहिए। इसी में सोलह साल रही हूँ। जिंदगी में जो कुछ सुख देखा, वह इसी घर में देखा। पुराने साथी का साथ कैसे छोड़ दूं!
ख्वाजा–बाबू चक्रधर का अब तक कुछ पता न चला?
अहिल्या–इसी लिहाज से तो मैं बड़ी बदनसीब हूँ, ख्वाजा साहब ! उनको गए पंद्रह साल गुजर गए। पांच साल से लड़का भी गायब है। उन्हीं की तलाश में निकला हुआ है। लोग समझते होंगे कि इसकी-सी सुखी औरत दुनिया में न होगी ! और मैं अपनी किस्मत को रोती हूँ। इरादा था कुछ दिनों अम्मांजी के साथ अकेली पड़ी रहूँगी, पर अमीरी की बला यहां भी सिर से न टली। कहिए, अब यहां तो आपस में दंगा-फिसाद नहीं होता?
ख्वाजा–जी नहीं, अभी तक तो खुदा का फजल है, लेकिन यह देखता हूँ कि आपस में पहले की-सी मुहब्बत नहीं है। दोनों कौमों में कुछ ऐसे लोग हैं, जिनकी इज्जत और सरवत दोनों को लड़ाते रहने पर ही कायम है। बस, वह एक न एक शिगूफा छोड़ा करते हैं। मेरा तो यह कौल है कि हिंदू रहो, चाहे मुसलमान, खुदा के सच्चे बंदे रहो। सारी खूबियां किसी एक ही कौम के हिस्से में नहीं आईं। न सब मुसलमान पाकीजा हैं, न सब हिंदू देवता हैं, इसी तरह न सभी हिंदू काफिर हैं, न सभी मुसलमान मोमिन। जो आदमी दूसरी कौम से जितनी नफरत करता है, समझ लीजिए कि वह खुदा से उतनी दूर है। मुझे आपसे कमाल हमदर्दी है, मगर चलने-फिरने से मजबूर हूँ, वर्ना बाबू साहब जहां होते, वहां से खींच लाता।
ख्वाजा साहब जाने लगे, तो अहिल्या ने इस्लामी यतीमखाने के लिए पांच हजार रुपए दान दिए। इस दान से मुसलमानों के दिलों पर भी उसका सिक्का बैठ गया। चक्रधर की याद फिर ताजी हो गई। मुसलमान महिलाओं ने भी उसकी दावत की।
अहिल्या को अब रोज ही किसी-न-किसी जलसे में जाना पड़ता, और वह बड़े शौक से जाती। दो ही सप्ताह में उसका कायापलट-सा हो गया। यश-लालसा ने धन की उपेक्षा का भाव उसके दिल से निकाल दिया ! वास्तव में वह समारोहों में अपनी मुसीबतें भूल गई। अच्छे-अच्छे व्याख्यान तैयार करने में वह इतना तत्पर रहने लगी, मानो उसे नशा हो गया है। वास्तव में यह नशा ही था। यह लालसा से बढ़कर दूसरा नशा नहीं।
वागीश्वरी पुराने विचारों की स्त्री थी। उसे अहिल्या का यों घूम-घूमकर व्याख्यान देना और रुपए लुटाना अच्छा न लगता था। एक दिन उसने कह ही डाला-क्यों री अहिल्या, तू अपनी संपत्ति लुटाकर ही रहेगी?
अहिल्या ने गर्व से कहा–और है ही किसलिए, अम्मांजी? धन में यही बुराई है। कि इससे विलासिता बढ़ती है, लेकिन इसमें परोपकार करने की सामर्थ्य भी है।
वागीश्वरी ने परोपकार के नाम से चिढ़कर कहा–तू जो कर रही है, यह परोपकार नहीं, यश-लालसा है। अपने पुरुष और पुत्र का उपकार तो तू कर न सकी, संसार का उपकार करने चली है!
अहिल्या–तुम तो अम्मांजी आपे से बाहर हो जाती हो।
वागीश्वरी–अगर तू धन के पीछे अंधी न हो जाती, तो तुझे यह दंड न भोगना पड़ता। तेरा चित्त कुछ-कुछ ठिकाने पर आ रहा था, तब तक तुझे यह नई सनक सवार हो गई। परोपकार तो तब समझती, जब तू वहीं बैठे-बैठे गुप्त रूप से चंदे भिजवा देती। मुझे शंका हो रही है कि इस वाह-वाह से तेरा सिर न फिर जाए । धन का भूत तेरे पीछे बुरी तरह पड़ा हुआ है और अभी तेरा कुछ और अनिष्ट करेगा।
अहिल्या ने नाक सिकोड़कर कहा–जो कुछ करना था, कर चुका, अब क्या करेगा? जिंदगी ही कितनी रह गई है, जिसके लिए रोऊं?
दूसरे दिन प्रात:काल डाकिया शंखधर का पत्र लेकर पहुंचा, जो जगदीशपुर और काशी से घूमता हुआ आया था। अहिल्या पत्र पढ़ते ही उछल पड़ी और दौड़ी हुई वागीश्वरी के पास जाकर बोली-अम्मां, देखो, लल्लू का पत्र आ गया। दोनों जने एक ही जगह हैं। मुझे बुलाया है।
वागीश्वरी–ईश्वर को धन्यवाद दो बेटी। कहाँ हैं?
अहिल्या–दक्षिण की ओर हैं, अम्मांजी! पता-ठिकाना सब लिखा हुआ है।
वागीश्वरी–तो बस, अब तू चली जा। चल, मैं भी तेरे साथ चलूंगी।
अहिल्या–आज पूरे पांच साल के बाद खबर मिली है, अम्मांजी ! मुझे आगरे आना फल गया। यह तुम्हारे आशीर्वाद का फल है, अम्मांजी।
वागीश्वरी–मैं तो उस लड़के के जीवट को बखानती हूँ कि बाप का पता लगाकर ही छोड़ा। अहिल्या–इस आनंद में आज उत्सव मनाना चाहिए, अम्मांजी।
वागीश्वरी–उत्सव पीछे मनाना, पहले वहां चलने की तैयारी करो। कहीं और चले गए, तो हाथ मलकर रह जाओगी।
लेकिन सारा दिन गुजर गया और अहिल्या ने यात्रा की कोई तैयारी न की। वह अब यात्रा के लिए उत्सुक न मालूम होती थी। आनंद का पहला आवेश समाप्त होते ही वह इस दुविधा में पड़ गई थी कि वहां जाऊं या न जाऊं? वहां जाना केवल दस-पांच दिन या महीने के लिए जाना न था, वरन् राजपाट से हाथ धो लेना और शंखधर के भविष्य को बलिदान करना था। वह जानती थी कि पितृभक्त शंखधर पिता को छोड़कर किसी भांति न आएगा और मैं भी प्रेम के बंधन में फंस जाऊंगी। उसने यही निश्चय किया कि शंखधर को किसी हीले से बुला लेना चाहिए। उसका मन कहता था कि शंखधर आ गया, तो स्वामी के दर्शन भी उसे अवश्य होंगे। शंखधर ने पत्र में लिखा था कि पिताजी को मुझसे अपार स्नेह है। क्या यह पुत्र-प्रेम उन्हें खींच न लाएगा? वह चाहे संन्यासी ही के रूप में आएं, पर आएंगे जरूर, और जब अबकी वह उनके चरणों को पकड़ लेगी, तो फिर वह नहीं छुड़ा सकेंगे। शंखधर के राजसिंहासन पर बैठ जाने के बाद यदि स्वामीजी की इच्छा हुई, तो वह उनके साथ चली जाएगी और शेष जीवन उनके चरणों की सेवा में काटेगी। इस वक्त वहां जाकर वह अपनी प्रेमाकांक्षाओं की वेदी पर अपने पुत्र के जीवन को बलिदान न करेगी। जैसे इतने दिनों पति वियोग में जली है, उसी तरह कुछ दिन और जलेगी। उसने मन में यह निश्चय करके शंखधर के पत्र का उत्तर दे दिया। लिखा–‘मैं बहुत बीमार हं, बचने की कोई आशा नहीं, बस, एक बार तुम्हें देखने की अभिलाषा है। तुम आ जाओ, तो शायद जी उडूं, लेकिन न आए तो समझ लो अम्मां मर गई।’ अहिल्या को विश्वास था कि यह पत्र पढ़कर शंखधर दौड़ा चला आएगा और स्वामी भी यदि उसके साथ न आएंगे, तो उसे आने से रोकेंगे भी नहीं।
अभागिनी अहिल्या ! तू फिर धन-लिप्सा के जाल में फंस गई। क्या इच्छाएं भी राक्षसों की भांति अपने ही रक्त से उत्पन्न होती हैं? वे कितनी अजेय हैं। जब ऐसा ज्ञात होने लगा कि वे निर्जीव हो गई हैं, तो सहसा वे फिर जी उठी और संख्या में पहले से शतगुण होकर। पंद्रह वर्ष की दारुण वेदना एक क्षण में विस्मृत हो गई। धन्य रे तेरी माया !
संध्या समय वागीश्वरी ने पूछा–क्या जाने का इरादा नहीं है?
अहिल्या ने शरमाते हुए कहा–अभी तो अम्मांजी मैंने लल्लू को बुलाया है। अगर वह न आवेगा, तो चली जाऊंगी।
वागीश्वरी–लल्लू के साथ क्या चक्रधर भी आ जाएंगे? तू ऐसा अवसर पाकर भी छोड़ देती है। न जाने तुझ पर क्या आने वाली है !
अहिल्या अपने सारे दुःख भूलकर शंखधर के राज्याभिषेक की कल्पना में विभोर हो गई।
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