चैप्टर 47 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 47 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

चैप्टर 47 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 47 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 47 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 47 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

एक महीना पूरा गुजर गया और न अहिल्या ही आई, न कोई दूसरा ही। शंखधर दिन भर उसकी बाट जोहता रहता। रेल का स्टेशन वहां से पांच मील पर था। रास्ता भी साफ था फिर भी कोई नहीं आया। चक्रधर जब कहीं चले जाते, तो वह चुपके से स्टेशन की राह लेता और निराश होकर लौट आता। आखिर एक महीने के बाद तीसरे दिन उसे एक पत्र मिला, जिसे पढ़कर उसके शोक की सीमा न रही। अहिल्या ने लिखा था-मैं बड़ी अभागिनी हूँ। तुम इतनी कठिन तपस्या करके जिस देवता के दर्शन कर पाए, उनके दर्शन करने की परम अभिलाषा होने पर भी मैं हिल नहीं सकती। एक महीने से बीमार हूँ, जीने की आशा नहीं, अगर तुम आ जाओ, तो तुम्हें देख लूं, नहीं तो यह अभिलाषा भी साथ जाएगी ! मैं कई महीने हुए, आगरे में पड़ी हूँ। जी घबराया करता है। अगर किसी तरह स्वामीजी को ला सको, तो अंत समय उनके चरणों के दर्शन भी कर लूं। मैं जानती हूँ, वह न आएंगे। व्यर्थ ही उनसे आग्रह न करना, मगर तुम आने में एक क्षण का भी विलंब न करना।

शंखधर डाकखाने के सामने खड़ा देर तक रोता रहा। माताजी बीमार हैं। पुत्र और स्वामी के वियोग से ही उनकी यह दशा हुई। क्या वह माता को इस दशा में छोड़कर एक क्षण भी यहां विलंब कर सकता है? उसने पांच साल तक अपना कोई समाचार न लिखकर माता के साथ जो अन्याय किया था, उसकी व्यथा से वह अधीर हो उठा।

उसका मुख उतरा हुआ देखकर चक्रधर ने पूछा–क्यों बेटा, आज उदास क्यों मालूम होते हो?

शंखधर–माताजी का पत्र आया है, वह बहुत बीमार हैं। मैं पिताजी को खोजने निकला था। वह तो न मिले, माताजी भी चली जा रही हैं। पिताजी इस समय मिल जाते, तो मैं उनसे अवश्य कहता….

चक्रधर–क्या कहते, कहो न?

शंखधर–कह देता कि..कि….आप ही माताजी के प्राण ले रहे हैं। आपका विराग और तप किस काम का, जब अपने घर के प्राणी की रक्षा नहीं कर सकते? आपके पास बड़ी-बड़ी आशाएं लेकर आया था, पर आपने भी अनाथ पर दया न की। आपको परमात्मा ने योगबल दिया है, आप चाहते, तो पिताजी की टोह लगा देते।

चक्रधर ने गंभीर स्वर में कहा–बेटा, मैं योगी नहीं हूँ, पर तुम्हारे पिताजी की टोह लगा चुका हूँ। उनसे मिल भी चुका हूँ। तुम नहीं जानते, पर वे गुप्त रीति से तुम्हें देख भी चुके हैं। आह ! उन्हें तुमसे जितना प्रेम है, उसकी कल्पना नहीं कर सकते। तुम्हारी माता को वह नित्य याद किया करते हैं, लेकिन उन्होंने अपने जीवन का जो मार्ग निश्चित कर लिया है, उसे छोड़ नहीं सकते और न स्वयं किसी के साथ जबरदस्ती कर सकते हैं। तुम्हारी माताजी अपनी ही इच्छा से वहां रह गई थीं। वह तो उन्हें अपने साथ लाने को तैयार थे।

शंखधर–आजकल तो माताजी आगरे में हैं। वागीश्वरी देवी से मिलने आई थीं, वहीं बीमार पड़ गईं, लेकिन आपने पिताजी से भेंट की और मुझसे कुछ न कहा। इससे तो यह प्रकट होता है कि आपको भी मुझ पर दया नहीं आती।

चक्रधर ने कुछ जवाब न दिया। जमीन की ओर ताकते रहे। वह अत्यंत कठिन परीक्षा में पड़े हुए थे। बहुत दिन के बाद, अनायास ही उन्हें पुत्र का मुख देखने का सौभाग्य प्राप्त हो गया था। वे सारी भावनाएं, सारी अभिलाषाएं, जिन्हें वह दिल से निकाल चुके थे, जाग उठी थी और इस समय वियोग के भय से आर्तनाद कर रही थीं। वह मोह-बंधन, जिसे वह बड़ी मुश्किल से ढीला कर पाए थे, अब उन्हें शतगुण वेग से अपनी ओर खींच रहा था, मानो उसका हाथ उनके अस्थिपंजर को चीरता हुआ उनके अंतस्तल तक पहुँच गया है।

सहसा शंखधर ने अवरुद्ध कंठ से कहा–तो मैं निराश हो जाऊँ?

चक्रधर ने हृदय से निकलते उच्छ्वास को दबाते हुए कहा–नहीं बेटा, संभव है, कभी वह स्वयं पत्र-प्रेम से विकल होकर तुम्हारे पास दौड़े जाएं। इसका निश्चय तुम्हारे आचरण करेंगे। अगर तुम अपने जीवन में ऊंचे आदर्श का पालन कर सके, तो तुम उन्हें अवश्य खींच लोगे। यदि तुम्हारे आचरण भ्रष्ट हो गए, तो कदाचित् इस शोक में वह अपने प्राण दे दें।

शंखधर–आपके दर्शन मुझे फिर कब होंगे? आपका पता कैसे मिलेगा? यद्यपि मुझे पिताजी के दर्शनों का सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ, लेकिन पिता के पुत्र-प्रेम की मेरे मन में जो कल्पना थी, जिसकी तृष्णा मुझे पांच साल तक वन-वन घुमाती रही, वह आपकी दया से पूरी हो गई। मैंने आपको पिता-तुल्य ही समझा है और जीवन-पर्यंत समझता रहूँगा। यह स्नेह, यह वात्सल्य, यह अपार करुणा मुझे कभी न भूलेगी। इन चरण-कमलों की भक्ति मेरे मन में सदैव बनी रहेगी। आपके दर्शनों के लिए मेरी आत्मा सदैव विकल रहेगी और माताजी के स्वस्थ होते ही मैं फिर आपकी सेवा में आऊंगा।

चक्रधर ने आर्द्र कंठ से कहा–नहीं बेटा, तुम यह कष्ट न करना। मैं स्वयं कभी-कभी तुम्हारे पास आया करूंगा ! मैंने भी तुमको पुत्र-तुल्य समझा है और सदैव समझता रहूँगा। मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ रहेगा।

संध्या समय शंखधर अपने पिता से विदा होकर चला। चक्रधर को ऐसा मालूम हो रहा था, मानो उनका हृदय वक्ष-स्थल को तोडकर शंखधर के साथ चला जा रहा है। जब वह आंखों से ओझल हो गया तो उन्होंने एक लंबी सांस ली और बालकों की भांति बिलख-बिलखकर रोने लगे। ऐसा मालूम हुआ, मानो चारों ओर शून्य है। चला गया ! वह तेजस्वी कुमार चला गया, जिसको देखकर छाती गज भर की हो जाती थी, और जिसके जाने से अब जीवन निरर्थक, व्यर्थ जान पड़ता था ! उन्हें ऐसी भावना हुई कि फिर उस प्रतिभा संपन्न युवक के दर्शन न होंगे !

Prev | Next | All Chapters 

अन्य हिंदी उपन्यास :

प्रेमाश्राम मुंशी प्रेमचंद की कहानी 

अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास 

गोदान मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

प्रेमा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

प्रतिज्ञा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

Leave a Comment