चैप्टर 46 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 46 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

चैप्टर 46 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 46 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 46 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 46 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

शंखधर को अपने पिता के साथ रहते एक महीना हो गया। न वह जाने का नाम लेता है, न चक्रधर ही जाने को कहते हैं। शंखधर इतना प्रसन्नचित्त रहता है, मानो अब उसके सिवा संसार में कोई दु:ख, कोई बाधा नहीं है। इतने ही दिनों में उसका रंग-रूप कुछ और हो गया है। मुख पर यौवन तेज झलकने लगा और जीर्ण शरीर भर आया है। मालूम होता है, कोई अखंड ब्रह्मचर्य व्रतधारी ऋषिकुमार है।

चक्रधर को अब अपने हाथों कोई काम नहीं करना पड़ता। वह जब एक गांव से दूसरे गांव जाते हैं, तो उनका सामान शंखधर उठा लेता है, उन्हें अपना भोजन तैयार मिलता है, बर्तन मंजे हुए, साफ-सुथरे। शंखधर कभी उन्हें अपनी धोती भी नहीं छांटने देता। दोनों प्राणियों के जीवन का वह समय सबसे आनंदमय होता है, जब एक प्रश्न करता और दूसरा उसका उत्तर देता है। शंखधर को बाबाजी की बातों से अगर तृप्ति नहीं होती, तो अल्पभाषी बाबाजी को भी बातें करने से तृप्ति नहीं होती। वह अपने जीवन के सारे अनुभव, दर्शन, विज्ञान, इतिहास की सारी बातें घोलकर पिला देना चाहते हैं। उन्हें इसकी परवाह नहीं होती कि शंखधर उन बातों को ग्रहण भी कर रहा है या नहीं, शिक्षा देने में वह इतने तल्लीन हो जाते हैं। जड़ी-बूटियों का जितना ज्ञान उन्होंने बड़े-बड़े महात्माओं से बरसों में प्राप्त किया था, वह सब शंखधर को सिखा दिया। वह उसे कोई नई बात बताने का अवसर खोजा करते हैं, उसकी एक-एक बात पर उनकी सूक्ष्म-दृष्टि पड़ती है। दूसरों से उसकी सज्जनता और सहनशीलता का बखान सुनकर उन्हें कितना गर्व होता है। वह मारे आनंद के गद्गद हो जाते हैं, उनकी आंखें सजल हो जाती हैं। सब जगह यह बात खुल गई कि यह युवक उनका पुत्र है। दोनों की सूरत इतनी मिलती है कि चक्रधर के इनकार करने पर भी किसी को विश्वास नहीं आता। जो बात सब जानते हैं, उसे वह स्वयं नहीं जानते और न जानना ही चाहते है।

एक दिन वह एक गांव में पहुंचे, तो वहां दंगल हो रहा था। शंखधर भी अखाड़े के पास जाकर खड़ा हो गया। एक पट्टे ने शंखधर को ललकारा। वह शंखधर का ड्योढ़ा था, पर शंखधर ने कुश्ती मंजूर कर ली। चक्रधर बहुत कहते रहे-यह लड़का लड़ना क्या जाने, कभी लड़ा हो तो जाने। भला, यह क्या लड़ेगा, लेकिन शंखधर लंगोट कसकर उखाड़े में उतर ही तो पड़ा ! उस समय चक्रधर की सूरत देखने योग्य थी। चेहरे पर एक रंग जाता था, एक रंग आता था। अपनी व्यग्रता को छिपाने के लिए अखाड़े से दूर जा बैठे थे, मानो वह इस बात से बिल्कुल उदासीन हैं। भला, लड़कों के खेल से बाबाजी का क्या संबंध? लेकिन किसी न किसी बहाने अखाड़े की ओर आ ही जाते थे। जब उस पढे ने पहली ही पकड़ में शंखधर को धर दबाया, तो बाबाजी आवेश में आकर स्वयं झुक गए। शंखधर ने जोर मारकर उस पढे को ऊपर उठाया, तो बाबाजी भी सीधे हो गए और जब शंखधर ने कुश्ती मार ली, तब तो चक्रधर उछल पड़े और दौड़कर शंखधर को गले लगा लिया। मारे गर्व के उनकी आंखें उन्मत्त-सी हो गईं। उस दिन अपने नियम के विरुद्ध उन्होंने रात को बड़ी देर तक गाना सुना।

शंखधर को कभी-कभी प्रबल इच्छा होती थी कि पिताजी के चरणों पर गिर पडूं और साफ-साफ कह दूं। वह मन में कल्पना किया करता कि अगर ऐसा करूं, तो वह क्या कहेंगे? कदाचित उसी दिन मुझे सोता छोड़कर किसी ओर की राह लेंगे। इस भय से बात उसके मुंह तक आके रुक जाती थी, मगर उसी के मन में यह इच्छा नहीं थी। चक्रधर भी कभी-कभी पुत्र-प्रेम से विकल हो जाते और चाहते कि उसे गले लगाकर कहूँ-बेटा, तुम मेरी ही आंखों के तारे हो, तुम मेरे ही जिगर के टुकड़े हो, तुम्हारी याद दिल से कभी न उतरती थी, सब कुछ भूल गया, पर तुम न भूले। वह शंखधर के मुख से उसकी माता की विरह-व्यथा, दादी के शोक और दादा के क्रोध की कथाएं सुनते कभी न थकते थे। रानीजी उससे कितना प्रेम करती थीं, यह चर्चा सुनकर चक्रधर बहुत दुःखी हो जाते। जिन बाबाजी की रूखे-सूखे भोजन से तुष्टि होती थी, यहां तक कि भक्तों के बहुत आग्रह करने पर भी खोये और मक्खन को हाथ से न छूते थे, वही बाबाजी इन पदार्थों को पाकर प्रसन्न हो जाते थे। वह स्वयं अब भी वही रूखा-सूखा भोजन ही करते थे, पर शंखधर को खिलाने में जो आनंद मिलता था, वह क्या कभी आप खाने में मिल सकता था?

इस तरह एक महीना गुजर गया और अब शंखधर को यह फिक्र हुई कि इन्हें किस बहाने से घर ले चलूं। अहा, कैसे आनंद का समय होगा, जब मैं इनके साथ घर पहुंचूंगा !

लेकिन बहुत सोचने से भी उसे कोई बहाना न मिला। तब उसने निश्चय किया कि माताजी को पत्र लिखकर यहीं क्यों न बुला लूं? माताजी पत्र पाते ही सिर के बल दौड़ी आएंगी। सभी आएंगे। तब देखू, यह किस तरह निकलते हैं? वह पछताया कि मैंने व्यर्थ ही इतनी देर लगाई। अब तक तो अम्मांजी पहुँच गई होतीं। उसी रात को उसने अपनी माता के नाम पत्र डाल दिया। वहां का पता-ठिकाना, रेल का स्टेशन, सभी बातें स्पष्ट करके लिख दीं! अंत में यह लिखा-आप आने में विलंब करेंगी, तो पछताएंगी। यह आशा छोड़ दीजिए कि मैं जगदीशपुर राज्य का स्वामी बनूंगा। पिताजी के चरणों की सेवा छोड़कर मैं राज्य का सुख नहीं भोग सकता। यह निश्चय है। इन्हें यहां से ले जाना असंभव है। इन्हें यदि मालूम हो जाए कि मैं इन्हें पहचानता हूँ, तो आज ही अंतर्धान हो जाएं। मैंने इनको अपना परिचय दे दिया है, आप लोगों की बातें भी सुनाया करता हूँ, पर मुझे इनके मुख पर जरा भी आवेश का चिह्न नहीं दिखाई देता, भावों पर इन्होंने अधिकार प्राप्त कर लिया है। आप जल्द से जल्द आवें।

वह सारी रात इस कल्पना में मग्न रहा कि अम्मांजी आ जाएंगी, तो पिताजी को झुककर प्रणाम करूंगा और पूछंगा-अब भागकर कहाँ जाइएगा? फिर हम दोनों उनका पल्ला न छोड़ेंगे, मगर मन की सोची हुई बात कभी पूरी हुई है?

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