चैप्टर 45 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 45 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

चैप्टर 45 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 45 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 45 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 45 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

राजा विशालसिंह ने जिस हौसले से अहिल्या का गौना किया, वह राजाओं-रईसों में भी बहुत कम देखने में आता है। तहसीलदार साहब के घर में इतनी चीजों के रखने की जगह भी न थी। बर्तन, कपड़े, शीशे के समान, लकड़ी की अलभ्य वस्तुएं, मेवे, मिठाइयां, गायें, भैसें-इनका हफ्तों तक तांता लगा रहा। दो हाथी और पांच घोड़े भी मिले, जिनके बांधने के लिए घर में जगह न थी। पांच लौडियां अहिल्या के साथ आईं। यद्यपि तहसीलदार साहब ने नया मकान बनवाया था, पर वह क्या जानते थे कि एक दिन यहां रियासत जगदीशपुर की आधी संपत्ति आ पहुंचेगी? घर का कोना-कोना सामानों से भरा हुआ था। कई पड़ोसियों के मकान भी अंट उठे। उस पर लाखों रुपए नकद मिले, वह अलग। तहसीलदार साहब लाने को तो सब कुछ ले आए, पर अब उन्हें देख-देख रोते और कुढ़ते। कोई भोगने वाला नहीं! अगर यही संपत्ति आज से पचीस साल पहले मिली होती, तो उनका जीवन सफल हो जाता, जिंदगी का कुछ मजा उठा लेते, अब बुढ़ापे में इनको लेकर क्या करें? चीजों को बेचना अपमान की बात थी। हां, यार-दोस्तों को जो कुछ भेंट कर सकते थे, किया। अनाज की कई गाड़ियां मिली थीं, वह सब उन्होंने लुटा दीं। कई महीने सदाव्रत-सा चलता रहा। नौकरों को हुक्म दे दिया कि किसी आदमी को कोई चीज मंगनी देने से इंकार मत करो। सहालग के दिनों में रोज ही हाथी, घोड़े, पालकियां, फर्श आदि सामान मंगनी जाते। सारे शहर में तहसीलदार साहब की कीर्ति छा गई। बड़े-बड़े रईस उनसे मुलाकात करने आने लगे। नसीब जगे, तो इस तरह जगे। कहाँ रोटियां भी न मयस्सर होती थीं, आज द्वार पर हाथी झूमता है। सारे शहर में यही चर्चा थी।

मगर मुंशीजी के दिल पर जो कुछ बीत रही थी, वह कौन जान सकता है? दिन में बीसों ही बार चक्रधर पर बिगड़ते-नालायक। आप तो आप गया, अपने साथ लड़के को भी ले गया। न जाने कहाँ मारा-मारा फिरता होगा, देश का उपकार करने चला है। सच कहा है-घर की रोएं, बन की सोएं। घर के आदमी मरें, परवा नहीं, दूसरों के लिए जान देने को तैयार। अब बताओ, इन हाथी, घोड़े, मोटरों और गाड़ियों को लेकर क्या करूं। अकेले किस-किस पर बैलूं? बहू है, उसे रोने से फुर्सत नहीं। बच्चा की मां है, उनसे अब मारे शोक से रहा नहीं जाता। कौन बैठे? यह सामान तो मेरे जी का जंजाल हो गया। पहले बेचारे शाम-सबेरे कुछ गा-बजा लेते थे, कुछ सरूर भी जमा लिया करते थे अब इन चीजों की देखभाल ही में भोर जो जाता। क्षण भर भी आराम से बैठने की मुहलत न मिलती। निर्मला किसी चीज की ओर आंख उठाकर भी न देखती, मुंशीजी ही को सबकी निगरानी करनी पड़ती थी।

अहिल्या यहां आकर और भी पछताने लगी। वह रनिवास के विलासमय जीवन से विरक्त होकर यहां प्रायश्चित्त करने के इरादे से आई थी, पर वह विपत्ति उसके साथ यहां भी आई। वहां उसे घर-गृहस्थी से कोई मतलब न था, यहां वह विपत्ति भी सिर पड़ी। जिन वस्तुओं से उसे जरा भी मोह न था, उन्हीं के खो जाने की खबर हो जाने पर उसे दुःख होता था। वह माया को जीतना चाहती थी, पर माया ने उसी को परास्त कर दिया। संपत्ति से गला छुड़ाना चाहती थी, पर संपत्ति उससे और चिमट गई थी। वहां कुछ देर शांति से बैठ सकती थी, कुछ देर हंस-बोलकर जी बहला लेती थी, किसी के ताने-मेहने न सुनने पड़ते थे, यहां निर्मला बाणों से छेदती और घाव पर नमक छिड़कती रहती थी। बहू के कारण वह अपने पुत्र से वंचित हुई। बहू के ही कारण पोता भी हाथ से गया। ऐसी बहू को वह पान-फूल से न पूज सकती थी। संपत्ति लेकर वह क्या करे? चाटे? पुत्र और पौत्र के बदले में इस अतुल धन का क्या मूल्य था? भोजन वह अब भी अपने हाथों से ही पकाती थी। अहिल्या के साथ जो महराजिनें आई थीं, उनका पकाया हुआ भोजन ग्रहण न कर सकती थी। अहिल्या से भी वह छूत मानती थी। इन दिनों मंगला भी आई हुई थी। उसका जी चाहता था कि यहां की सारी चीजें समेट ले जाओ अहिल्या अपनी चीजों को तीन-तेरह न होने देना चाहती थी। इससे ननद-भावज में कभी-कभी खटपट हो जाती थी।

बर्तनों में कई बड़े-बड़े कंडाल भी थे। एक कंडाल इतना बड़ा था कि उसमें ढाई सौ कलसे पानी आ जाता था। मंगला ने एक दिन यह कंडाल अपने घर भिजवा दिया। कई दिन बाद अहिल्या को यह खबर मिली, तो उसने जाकर सास से पूछा-अम्मांजी, वह बड़ा कंडाल कहाँ है, दिखाई नहीं देता?

निर्मला ने कहा–बाबा, मैं नहीं जानती, कैसा कंडाल था। घर में है, तो कहाँ जा सकता है?

अहिल्या–जब घर में हो तब न?

निर्मला–घर में से कहाँ गायब हो जाएगा?

अहिल्या–घर की चीज घर के आदमियों के सिवा और कौन छू सकता है?

निर्मला–तो क्या इस घर में सब चोर ही बसते हैं?

अहिल्या–यह तो मैं नहीं कहती, लेकिन चीज का पता तो लगना ही चाहिए।

निर्मला–तुम चीजें लादकर ले जाओगी, तुम्हीं पता लगाती फिरो। यहां चीजों को लेकर क्या करना है? इना चीजों को देखकर मेरी तो आंखें फूटती हैं। इन्हीं के लिए तो तुमने मेरे बच्चे को बनवास दे दिया। इन्हीं के पीछे अपने बेटे से हाथ धो बैठी। तुम्हें ये सारी चीजें प्यारी होंगी। मुझे तो नहीं प्यारी हैं।

बात कड़वी थी, पर यथार्थ थी। अगर धन-मद ने अहिल्या की बुद्धि पर पर्दा न डाल दिया होता तो आज उसे क्यों यह दिन देखना पड़ता? दरिद्र रहकर भी सुखी होती। मोह ने उसका सर्वनाश कर दिया। फिर भी वह मोह को गले लगाए हुए है। नैहर से उसकी आई हुई चीज अपनी न थी, सब कुछ अपना होते हुए भी उसका कुछ न था। जो कुछ अधिकार था, वह पुत्र के नाते। जब पुत्र की कोई आशा न रही, तो अधिकार भी न रहा, पर यहां की सब चीजें उसी की थीं। उन पर उसका नाम खुदा हुआ था। अधिकार में स्वयं एक आनंद है, जो उपयोगिता की परवा नहीं करता। उन वस्तुओं को देख-देखकर उसे गर्व होता था।

लेकिन आज निर्मला के कठोर शब्दों ने उसमें ग्लानि और विवेक का संचार कर दिया। उसने निश्चय किया, अब इन चीजों के लिए कभी न बोलूंगी। अगर अम्मांजी को किसी चीज का मोह नहीं है, तो मैं ही क्यों करूं? कोई आग लगा दे, मेरी बला से।

जब घर में कोई किसी चीज की चौकसी करने वाला न रहा, तो चारों ओर लूट मच गई। कुछ मालूम न होता कि घर में कौन लुटेरा आ बैठा है, पर चीजें एक-एक करके निकलती जाती थीं। अहिल्या देखकर अनदेखी और सुनकर अनसुनी कर जाती थी, पर अपनी चीजों को तहस-नहस होते देखकर उसे दुःख होता था। उसका विराग मोह का दूसरा रूप था-वास्तविक रूप से भी भयंकर और दाहक।

इस तरह कई महीने गुजर गए, अहिल्या का आशा-दीपक दिन-दिन मंद होता गया। वह कितना ही चाहती थी कि मोह-बंधन से अपने को छुड़ा ले, पर मन पर कोई वश न चलता था। उसके मन में बैठा हुआ कोई नित्य कहा करता था-जब तक मोह में पड़ी रहोगी, पति-पुत्र के दर्शन न होंगे। पर इसका विश्वास कौन दिला सकता था कि मोह टूटते ही उसके मनोरथ पूरे हो जाएंगे? तब क्या वह भिखारिणी होकर जीवन व्यतीत करेगी? संपत्ति के हाथ से निकल जाने पर फिर उसके लिए कौन आश्रय रह जाएगा? क्या वह फिर अपने पिता के घर जा सकती थी? कदापि नहीं। पिता ने इतनी धूमधाम से उसे विदा किया, इसका अर्थ ही यह था कि अब तुम इस घर से सदा के लिए जा रही हो।

अहिल्या बार-बार व्रत करती कि अब अपने सारे काम अपने हाथ से करूंगी, अब सदा एक ही जून भोजन किया करूंगी, मोटा से मोटा अन्न खाकर जीवन व्यतीत करूंगी, लेकिन उसमें किसी व्रत पर स्थिर रहने की शक्ति न रह गई थी। जब उसके स्नान कर चुकने पर लौंडी उसकी साड़ी छांटने चलती, तो वह उसे मना न कर सकती थी। जो काम आज सोलह वर्षों से करती आ रही थी, उसके विरुद्ध आचरण करना उसे अब अस्वाभाविक जान पड़ता था, मोटा अनाज खाने का निश्चय रहते हुए भी वह स्वादिष्ट भोजन को सामने से हटा न सकती थी। विलासिता ने उसकी क्रिया-शक्ति को निर्बल कर दिया था।

यहां रहकर वह अपने उद्धार के लिए कुछ न कर सकेगी, यह बात शनैः-शनैः अनुभव से सिद्ध हो गई।

लेकिन अब कहाँ जाए? जब तक मन की वृत्ति न बदल जाए, तीर्थयात्रा पाखंड-सी जान पड़ती थी। किसी दूसरी जगह अकेले रहने के लिए कोई बहाना न था, पर यह निश्चय था कि अब वह यहां न रहेगी, यहां तो वह बंधन में और भी जकड़ गई थी।

अब उसे वागीश्वरी की याद आई। सुख के दिन वही थे, जो उसके साथ कटे। असली मौका न होने पर भी जीवन का जो सुख वहां मिला, वह फिर न नसीब हुआ। अब उसे याद आता था कि मैं वहां से दुःख झेलने के लिए आई थी। वह स्नेह-सुख स्वप्न हो गया। सास मिली वह इस तरह की, ननद मिली वह इस ढंग की। मां थी ही नहीं, केवल बाप को पाया; मगर उसके बदले में क्या-क्या देना पड़ा। जिस दिन मालूम हुआ कि वह राजा की बेटी है, वह फूली न समाई थी। उसके पांव जमीन पर न पड़ते थे, पर आह ! क्या मालूम था कि उस क्षणिक आनंद के लिए उसे सारी उम्र रोना पड़ेगा।

अब अहिल्या को रात-दिन यही धुन रहने लगी कि किसी तरह वागीश्वरी के पास चलूं, मानो वहां उसके सारे दुःख दूर हो जाएंगे। इधर कई महीनों से वागीश्वरी का पत्र न आया था; पर मालूम हुआ कि वह आगरे ही में है। अहिल्या ने कई बार बुलाया था; पर वागीश्वरी ने लिखा था-मैं बड़े आराम से हूँ, मुझे अब यहीं पड़ी रहने दो। अब अहिल्या का मन वागीश्वरी के पास जाने के लिए अधीर हो उठा। वागीश्वरी भी उसी की भांति दुःखिनी है। सारी आशाओं एवं सारे माया-मोह से मुक्त हो चुकी है। वही उसके साथ सच्ची सहानुभूति कर सकती है, वही अपने मातृस्नेह से उसका क्लेश हर सकती है।

आखिर एक दिन अहिल्या ने सास से यह चर्चा कर ही दी। निर्मला ने कुछ भी आपत्ति नहीं की। शायद वह खुश हुई कि किसी तरह यहां से टले। मंगला तो उसके जाने का प्रस्ताव सुनकर हर्षित हो उठी। जब वह चली जाएगी, तो घर में मंगला का राज हो जाएगा। जो चीज चाहेगी, उठा ले जाएगी, कोई हाथ पकड़ने वाला या टोकने वाला न रहेगा। दो महीने भी अहिल्या वहां रह गई तो मंगला अपना घर भर लेगी। ज्यादा नहीं, तो आधी संपदा तो अपने घर पहुंचा ही देगी।

अहिल्या जब यात्रा की तैयारियां करने लगी, तो मंगला ने कहा–भाभी तुम चली जाओगी, तो यहां बिल्कुल अच्छा न लगेगा। वहां कब तक रहोगी?

अहिल्या–अभी क्या कहूँ बहिन, यह तो वहां जाने पर मालूम होगा।

मंगला–इतने दिनों के बाद जा रही हो, दो-तीन महीने तो रहना ही पड़ेगा। तुम चली जा रही हो, तो मैं भी चली जाऊंगी। अब तो रानी साहिबा से भी भेंट नहीं होती, अकेले कैसे रहा जाएगा। तुम्हीं दोनों जनों से मिलने तो आई थी। रानी साहिबा ने तो भुला ही दिया, तुम छोड़े चली जाती हो।

यह कहकर मंगला रोने लगी।

दूसरे दिन अहिल्या यहां से चली। अपने साथ कोई साज-सामान न लिया। साथ की लौंडियां चलने को तैयार थीं, पर उसने किसी को साथ न लिया। केवल एक बुड्ढे कहार को पहुंचाने के लिए ले लिया। और उसे भी आगरे पहुँचने के दूसरे ही दिन विदा कर दिया।

आज बीस साल के बाद अहिल्या ने इस घर में फिर प्रवेश किया था, पर आह ! इस घर की दशा ही कुछ और थी। सारा घर गिर पड़ा था। न आंगन का पता था, न बैठक का। चारों ओर मलवे का ढेर जमा हो रहा था। उस पर मदार और धतूरे के पौधे उगे हुए थे। एक छोटी-सी कोठरी बच रही थी। वागीश्वरी उसी में रहती थी। उसकी सूरत भी उस घर के समान ही बदल गई थी। न मुंह में दांत, न आंखों में ज्योति, सिर के बाल सन हो गए थे, कमर झुककर कमान हो गई थी। दोनों गले मिलकर खूब रोईं। जब आंसुओं का वेग कम हुआ तो वागीश्वरी ने कहा-बेटी, तुम अपने साथ समान नहीं लाईं-क्या दूसरी ही गाड़ी से जाने का विचार है? इतने दिनों के बाद आई भी, तो इस तरह ! बुढ़िया को बिल्कुल भूल ही गई! खंडहर में तुम्हारा जी क्यों लगेगा?

अहिल्या–अम्मां, महल में रहते-रहते जी ऊब गया, अब कुछ दिन इस खंडहर में ही रहूँगी और तुम्हारी सेवा करूंगी। जब से तुम्हारे घर से गई, तब से एक दिन भी सुख नहीं पाया। तुम समझती होगी कि मैं वहां बड़े आनंद से रहती हूँगी, लेकिन अम्मां, मैने वहां दुःख ही दुःख पाया, आनंद के दिन तो इसी घर में बीते थे।

वागीश्वरी–लड़के का अभी कुछ पता न चला?

अहिल्या किसी का पता नहीं चला, अम्मां! मैं राज्य-सुख पर लटू हो गई थी। उसी का दंड भोग रही हूँ। राज्य-सुख भोगकर तो जो कुछ मिलता है, वह देख चुकी, अब उसे छोड़कर देखूगी कि क्या जाता है, मगर तुम्हें तो बड़ा कष्ट हो रहा है, अम्मां?

वागीश्वरी–कैसा कष्ट बेटी? जब तक स्वामी जीते रहे, उनकी सेवा करने में सुख मानती थी। तीर्थ, व्रत, पुण्य, धर्म सब कुछ उनकी सेवा ही में था। अब वह नहीं हैं, तो उनकी मर्यादा की सेवा कर रही हूँ। आज भी उनके कितने ही भक्त मेरी मदद करने को तैयार हैं, लेकिन क्यों किसी की मदद लूं। तुम्हारे दादाजी सदैव दूसरों की सेवा करते रहे। इसी में अपनी उम्र काट दी। तो फिर मैं किस मुंह से सहायता के लिए हाथ फैलाऊं?

यह कहते-कहते वृद्धा का मुखमंडल गर्व से चमक उठा। उसकी आंखों में एक विचित्र स्फूर्ति झलकने लगी! अहिल्या का सिर लज्जा से झुक गया। माता, तुझे धन्य है ! तू वास्तव में सती है, तू अपने ऊपर जितना गर्व करे, वह थोड़ा है।

वागीश्वरी ने फिर कहा–ख्वाजा महमूद ने बहुत चाहा कि मैं कुछ महीना ले लिया करूं। मेरे मैके वाले कई बार मुझे बुलाने आए। यह भी कहा कि महीने में कुछ ले लिया करो। भैया बड़े भारी वकील हैं, लेकिन मैंने किसी का एहसान नहीं लिया। पति की कमाई को छोड़कर और किसी की कमाई पर स्त्री का अधिकार नहीं होता। चाहे कोई मुंह से न कहे, पर मन में जरूर समझेगा कि मैं इन पर एहसान कर रहा हूँ। जब तक आंखें थीं, सिलाई करती रही। जब से आंखें गईं, दलाई करती हूँ। कभी-कभी उन पर जी झुंझलाता है। जो कुछ कमाया, उड़ा दिया। तुम तो देखती ही थीं। ऐसा कौन-सा दिन जाता था कि द्वार पर चार मेहमान न आ जाते हों? लेकिन फिर दिल को समझाती हूँ कि उन्होंने किसी बुरे काम में तो धन नहीं उड़ाया ! जो कुछ किया, दूसरों के उपकार ही के लिए किया। यहां तक कि अपने प्राण भी दे दिए। फिर मैं क्यों पछताऊं और क्यों रोऊँ यश सेंत में थोड़े ही मिलता है, मगर मैं तो अपनी बातों में लग गई। चल, हाथ-मंह धो डालो कुछ खा-पी लो, फिर बातें करूं।

लेकिन अहिल्या हाथ-मुंह धोने न उठी। वागीश्वरी की आदर्श पति-भक्ति देखकर उसकी आत्मा उसका तिरस्कार कर रही थी। अभागिनी ! इसे पति-भक्ति कहते हैं ! सारे कष्ट झेलकर स्वामी की मर्यादा का पालन कर रही है। नैहर वाले बुलाते हैं और नहीं जाती, हालांकि इस दशा में मैके चली जाती, तो कोई बुरा न कहता। सारे कष्ट झेलती है और खुशी से झेलती है। एक तू है कि मैके की संपत्ति देखकर फूल उठी, अंधी हो गई। राजकुमारी और पीछे चलकर राजमाता बनने की धुन में तुझे पति की परवाह ही न रही, तूने संपत्ति के सामने पति को कुछ न समझा, उसकी अवहेलना की। वह तुझे अपने साथ ले जाना चाहते थे, तू न गई, राज्य-सुख तुझसे न छोड़ा गया! रो, अपने कर्मों को।

वागीश्वरी ने फिर कहा–अभी तक तू बैठी ही है। हां, लौंडी पानी नहीं लाई न, कैसे उठेगी! ले, मैं पानी लाए देती हूँ, हाथ-मुंह धो डाल। तब तक मैं तेरे लिए गरम रोटियां सेकती हूँ। देखू, तुझे अभी भी भाती हैं कि नहीं। तू मेरी रोटियों का बहुत बखान करके खाती थी।

अहिल्या स्नेह में सने ये शब्द सुनकर पुलकित हो उठी। इस ‘तू’ में जो सुख था वह आप और सरकार में कहाँ? बचपन के दिन आंखों में फिर गए। एक क्षण के लिए उसे अपने सारे दुःख विस्मृत हो गए। बोली-अभी तो भूख-प्यास नहीं है अम्मांजी, बैठिए कुछ बातें कीजिए। मैं आपसे अपने दु:ख की कथा कहने के लिए व्याकुल हो रही हूँ। बताइए, मेरा उद्धार कैसे होगा?

वागीश्वरी ने गंभीर भाव से कहा–पति-प्रेम से वंचित होकर स्त्री के उद्धार का कौन उपाय है, बेटी? पति ही स्त्री का सर्वस्व है। जिसने अपना सर्वस्व खो दिया, उसे सुख कैसे मिलेगा? जिसको लेकर तूने पति का त्याग किया, उसको त्याग कर ही पति को पाएगी। तू इतनी कर्त्तव्य-भ्रष्ट कैसे हो गई, यह मेरी समझ में ही नहीं आया। यहां तो धन पर इतना जान न देती थी। ईश्वर ने तेरी परीक्षा ली और तू उसमें चूक गई। जब तक धन और राज्य का मोह न छोड़ेगी, तुझे उस त्यागी पुरुष के दर्शन न होंगे।

अहिल्या–अम्मांजी, सत्य कहती हूँ, मैं केवल शंखधर के हित का विचार करके उनके साथ न गई।

वागीश्वरी–उस विचार में क्या तेरी भोग-लालसा न छिपी थी! खूब ध्यान करके सोच, तू इससे इनकार नहीं कर सकती!

अहिल्या ने लज्जित होकर कहा–हो सकता है, अम्मांजी, मैं इनकार नहीं कर सकती। वागीश्वरी–संपत्ति यहां भी तेरा पीछा करेगी, देख लेना।

अहिल्या–अब तो उससे जी भर गया, अम्मांजी !

वागीश्वरी–जभी तो वह फिर तेरा पीछा करेगी। जो उससे भागता है, उसके पीछे दौड़ती है। मुझे शंका होती है कि कहीं तू फिर लोभ में न पड़ जाए । एक बार चूकी, तो चौदह वर्ष रोना पड़ा, अब की चूकी तो बाकी उम्र ही गुजर जाएगी !

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