चैप्टर 44 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 44 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

चैप्टर 44 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 44 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 44 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 44 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

शंखधर को होश आया, तो अपने को मंदिर के बरामदे में चक्रधर की गोद में पड़ा हुआ पाया। चक्रधर चिंतित नेत्रों से उसके मुंह की ओर ताक रहे थे। गांव के कई आदमी आस-पास खड़े पंखा झल रहे थे। आह ! आज कितने दिनों के बाद शंखधर को यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है। वह पिता की गोद में लेटा हुआ है! आकाश के निवासियो, तुम पुष्प की वर्षा क्यों नहीं करते?

शंखधर ने फिर आंखें बंद कर लीं। उसकी चिर सन्तप्त आत्मा एक अलौकिक शीतलता, एक अपूर्व तृप्ति, एक स्वर्गीय आनंद का अनुभव कर रही थी। इस अपार सुख को वह इतनी जल्द न छोड़ना चाहता था। उसे अपनी वियोगिनी माता की याद आई। वह उस दिन का स्वप्न देखने लगा, जब वह अपनी माता को भी इस परम आनंद का अनुभव कराएगा, उसका जीवन सफल करेगा।

चक्रधर ने स्नेह-मधुर स्वर में पूछा–क्यों बेटा, अब कैसी तबीयत है?

कितने स्नेह-मधुर शब्द थे। किसी के कानों ने कभी इतने कोमल शब्द सुने हैं? भगवान् इन्द्र भी आकर उससे बोलते, तो क्या वह इतना गौरवान्वित हो सकता था?

‘क्यों बेटा, कैसी तबीयत है’ वह इसका क्या जबाव दे ? अगर कहता है–अब मैं अच्छा हूँ, तो इस सुख से वंचित होना पड़ेगा। उसने कोई उत्तर नहीं दिया। देना भी चाहता, तो उसके मुंह से शब्द न निकलते। उसका जी चाहा, इन चरणों पर सिर रखकर खूब रोए। इससे बढ़कर और किसी सुख की वह कल्पना ही न कर सकता था। संसार की कोई वस्तु कभी इतनी सुंदर थी? वायु और प्रकाश, वृक्ष और वन, पृथ्वी और पर्वत कभी इतने प्यारे न लगते थे। उनकी छटा ही कुछ और हो गई थी, उनमें कितना वात्सल्य था, कितनी आत्मीयता।

चक्रधर ने फिर पूछा–क्यों बेटा, कैसी तबीयत है?

शंखधर ने कातर स्वर से कहा-अब तो अच्छा हूँ। आप ही का नाम बाबा भगवानदास है? चक्रधर–हां मुझी को भगवानदास कहते हैं।

शंखधर–मैं आप ही के दर्शनों के लिए आया हूँ। बहुत दूर से आया हूँ। मैंने बेंदों में आपकी खबर पाई थी। वहां मालूम हुआ कि आप साईंगंज चले गए हैं। वहां से साईंगंज चला। सारी रात चलता रहा, पर साईंगंज न मिला। एक दूसरे गांव में जा पहुंचा-वह जो पर्वत के ऊपर बसा हुआ है। वहां मालूम हुआ कि मैं रास्ता भूल गया था। उसी वक्त इधर चला।

चक्रधर–रात को कहीं ठहरे नहीं?

शंखधर–यही भय था कि शायद आप कहीं और आगे न बढ़ जाएं?

चक्रधर–कुछ भोजन भी न किया होगा?

शंखधर–भोजन की तो ऐसी इच्छा न थी। आपके दर्शन हुए, मैं कृतार्थ हो गया। अब मेरे संकट कट जाएंगे। मैं आपका यश सुनकर आया हूँ। आप ही मेरा उद्धार कर सकते हैं।

चक्रधर–बेटा, संकट काटने वाला ईश्वर है, मैं तो उनका क्षुद्र सेवक हूँ, लेकिन पहले कुछ भोजन कर लो और आराम से सो रहो। मुझे कई रोगियों को देखने जाना है। मैं शाम को लौटूंगा, तो तुमसे बातें होंगी। क्या कहूँ, मेरे कारण तुम्हें इतना कष्ट उठाना पड़ा।

शंखधर ने मन में कहा–इस परम आनंद के लिए मैं क्या नहीं सह सकता था! अगर मुझे मालूम हो जाता कि अग्नि-कुंड में जाने से आपके दर्शन होंगे, तो क्या मैं एक क्षण का भी विलंब करता? कदापि नहीं। प्रकट में उसने कहा-मुझे तो यह स्वर्ग यात्रा-सी मालूम होती थी। भूख, प्यास, थकान कुछ भी नहीं थी।

चक्रधर का चित्त अस्थिर हो गया। उस युवक के रूप में और वाणी में न जाने कौन-सी बात थी, जो उनके मन में उससे बातचीत करने की प्रबल इच्छा हो रही थी। रोगियों को देखने न जाना चाहते थे, मन बहाना खोजने लगा। रोगियों को दवा तो दे ही आया हूँ, उनकी चेष्टा भी कुछ ऐसी चिंताजनक नहीं। जाना व्यर्थ है। जरा पूछना चाहिए कि यह युवक कौन है? क्यों मुझसे मिलने के लिए उत्सुक है? कितना सुशील बालक है ! इसकी वाणी में कितना विनय है और स्वरूप तो देवकुमारों का-सा है। किसी उच्च कुल का युवक है।

लेकिन फिर उन्होंने सोचा–मेरे न जाने से रोगियों को कितनी निराशा होगी? कौन जाने, उनकी दशा बिगड़ गई हो। जाना ही चाहिए। तब तक यह बालक भी तो आराम कर लेगा ! बेचारा सारी रात चलता रहा। मैं जानता, तो बेंदों में टिक गया होता।

एक आदमी पानी लाया। शंखधर ने मुंह-हाथ धोया और चाहता था कि खाली पेट पानी पी ले, लेकिन चक्रधर ने मना किया-हां-हां, यह क्या? अभी पानी न पियो। रात भर कुछ खाया नहीं और पानी पीने लगे। आओ, कुछ भोजन कर लो।

शंखधर–बड़ी प्यास लगी है।

चक्रधर–पानी कहीं भागा तो नहीं जाता। कुछ खाकर पीना, और वह भी इतना नहीं कि पेट में पानी डोलने लगे।

शंखधर–दो ही चूंट पी लूं। नहीं रहा जाता।

चक्रधर ने आकर उसके हाथ से लोटा छीन लिया और कठोर स्वर में कहा–अभी तुम एक बूंद भी पानी नहीं पी सकते। क्या जान देने पर उतारू हो गए हो?

शंखधर को इस भर्त्सना में जो आनंद मिल रहा था, वह कभी माता की प्रेम-भरी बातों में भी न मिला था। पांच वर्ष हुए, जब से वह अपने मन की करता आया है। वह जो पाता है, खाता है, जब चाहता है, पानी पीता है, जहां जगह पाता है, पड़ रहता है। किसी को इसकी कुछ परवा नहीं होती। लोटा हाथ से न छीना गया होता तो वह बिना दो-चार घुड़कियां खाए न मानता।

मंदिर के पीछे छोटा-सा बाग और कुआं था। वहीं एक वृक्ष के नीचे चक्रधर की रसोई बनी थी। चक्रधर अपना भोजन आप पकाते थे, बर्तन भी आप ही धोते थे, पानी भी खुद खींचते थे। शंखधर उनके साथ भोजन करने गया, तो देखा कि रसोई में पूरी, मिठाई, दूध, दही सब कुछ है। उसकी राल टपकने लगी। इन पदार्थों का स्वाद चखे हुए उसे एक युग बीत गया था, मगर उसे कितना आश्चर्य हुआ, जब उसने देखा कि ये सारे पदार्थ उसी के लिए मंगवाए गए हैं। चक्रधर ने उसके लिए तो खाना एक पत्तल में रख दिया और आप कुछ मोटी रोटियां और भाजी लेकर बैठे, जो खुद उन्होंने बनाई थीं।

शंखधर ने कहा–आप तो सब मुझी को दिए जाते हैं, अपने लिए कुछ रखा ही नहीं? चक्रधर–मेरे लिए तो यह रोटियां हैं। मेरा भोजन यही है।

शंखधर–तो फिर मुझे भी रोटियां ही दीजिए।

चक्रधर–मैं तो बेटा, रोटियों के सिवा और कुछ नहीं खाता। मेरी पाचन-शक्ति अच्छी नहीं है। दिन में एक बार खा लिया करता हूँ।

शंखधर–मेरा भोजन तो थोड़ा-सा सत्तू या चबेना है। मैंने तो बरसों से इन चीजों की सूरत तक नहीं देखी। अगर आप न खाएंगे, तो मैं भी न खाऊंगा।

आखिर शंखधर के आग्रह से चक्रधर को अपना नियम तोड़ना पड़ा। सोलह वर्षों का पाला हुआ नियम, बड़े-बड़े रईसों और राजाओं का भक्तिमय आग्रह भी न तोड़ सका, आज इस अपिरिचित बालक ने तोड़ दिया। उन्होंने झुंझलाकर कहा-भाई, तुम बड़े जिद्दी मालूम होते हो। अच्छा, लो, मैं भी खाता हूँ। अब तो खाओगे, या अब भी नहीं?

उन्होंने सब चीजों में से जरा-जरा-सा निकालकर अपनी पत्तल में रख लिया और बाकी चीजें शंखधर के आगे रख दीं। शंखधर ने अब भी भोजन में हाथ नहीं लगाया।

चक्रधर ने पूछा–अब क्या बैठे हो, खाते क्यों नहीं? तुम्हारे मन की बात हो गई? या अब भी कुछ बाकी है?

शंखधर–आपने तो केवल उलाहना छुड़ाया है। लाइए, मैं परस दूं।

चक्रधर–अगर तुम इस तरह जिद करोगे, तो मैं तुम्हारी दवा न करूंगा। तुम्हें अपने साथ रखूगा भी नहीं।

शंखधर–मुझे क्या, न दवा कीजिएगा, तो यहीं पड़ा-पड़ा मर जाऊंगा। कौन कोई रोने वाला बैठा हुआ है?

यह कहते-कहते शंखधर की आंखें सजल हो गईं। चक्रधर ने विकल होकर कहा–अच्छा लाओ, तुम्हीं अपने हाथ से दे दो। अपशब्द क्यों मुंह से निकालते हो? लाओ, कितना देते हो? अब से मैं तुम्हें अलग भोजन मंगवा दिया करूंगा।

शंखधर ने सभी चीजों में से आधी से अधिक उनके सामने रख दी और आप एक पंखा लेकर उन्हें झलने लगा। चक्रधर ने वात्सल्यपूर्ण कठोरता से कहा–मालूम होता है, आज तुम मुझे बीमार करोगे। भला, इतनी चीजें मैं खा सकूँगा?

शंखधर–इसीलिए तो मैंने थोड़ी-थोड़ी दी हैं।

चक्रधर–यह थोड़ी-थोड़ी हैं। तो क्या तुम सबकी सब मेरे ही पेट में लूंस देना चाहते हो? अब भी बैठोगे या नहीं? मुझे पंखे की जरूरत नहीं।

शंखधर–आप खाएं, मैं पीछे से खा लूंगा।

चक्रधर–भाई, तुम विचित्र जीव हो। तीन दिन के भूखे हो और मुझसे कहते हो, आप खाइए, मैं फिर खा लूंगा।

शंखधर–मैं तो आपका जूठन खाऊंगा।

उसकी आंखें फिर सजल हो गईं ! चक्रधर ने तिरस्कार के भाव से कहा–क्यों भाई, मेरा जूठन क्यों खाओगे? अब तो सब बातें तुम्हारे ही मन की हो रही हैं।

शंखधर–मेरी बहुत दिनों से यही आकांक्षा थी। जब से आपकी कीर्ति सुनी, तभी से यह अवसर खोज रहा था।

चक्रधर–तुम न आप खाओगे, न मुझे खाने दोगे।

शंखधर–मैं तो आपका जूठन ही खाऊंगा।

चक्रधर को फिर हार माननी पड़ी। वह एकांतवासी, संयमी, व्रतधारी योगी आज इस अपरिचित दीन बालक के दुराग्रहों को किसी भांति न टाल सकता था।

शंखधर को आज खड़े होकर पंखा झलने में जो आनंद, जो आत्मोल्लास, जो गर्व हो रहा था, उसका कौन अनुमान कर सकता है। इस आनंद के सामने वह त्रिलोक के राज्य पर भी लात मार सकता था। आज उसे यह सौभग्य प्राप्त हुआ कि अपने पूज्य पिता की कुछ सेवा कर सके। कठिन तपस्या के बाद आज उसे यह वरदान मिला है। उससे बढ़कर सुखी और कौन हो सकता है। आज उसे अपना जीवन सार्थक मालूम हो रहा है-वह जीवन, जिसका अब तक कोई उद्देश्य न था। आनंद के आंसू उसकी आंखों से बहने लगे।

चक्रधर जब भोजन करके उठ गए तो उसने उसी पत्तल में अपनी पत्तल की चीजें डाल ली और भोजन करने बैठा। ओह ! इस भोजन में कितना स्वाद था ! क्या सुधा में इतना स्वाद हो सकता है? उसने आज से कई साल पहले उत्तम से उत्तम पदार्थ खाए थे, लेकिन उनमें यह अलौकिक स्वाद कहाँ था?

चक्रधर हाथ–मुंह धोकर गद्गद कंठ से बोले-तुमने आज मेरे दो नियम भंग कर दिए। बिना जाने-बुझे किसी को मेहमान बना लेने का यही फल होता है। अब मैं आज कहीं न जाऊंगा। तुम भोजन कर लो और मुझसे जो कुछ कहना हो, कहो। मैं ऐसे जिद्दी लड़के को अपने साथ और न रखूगा। तुम्हारा पर कहाँ है? यहां से कितनी दूर है?

शंखधर–मेरे तो कोई घर ही नहीं।

चक्रधर–माता-पिता तो होंगे? वह किस गांव में रहते हैं?

शंखधर–यह मुझे कुछ नहीं मालूम। पिताजी तो मेरे बचपन ही में घर से चले गए और माताजी का पांच साल से मुझे कोई समाचार नहीं मिला।

चक्रधर को ऐसा मालूम हुआ, मानो पृथ्वी नीचे खिसकी जा रही है, मानो वह जल में बहे जा रहे हैं। पिता बचपन ही में घर से चले गए और माताजी का पांच साल से कुछ समाचार नहीं मिला? भगवान्, क्या यह वही नन्हा-सा बालक है ! वही, जिसे अपने हृदय से निकालने की चेष्टा करते हुए आज सोलह वर्षों से अधिक हो गए।

उन्होंने हृदय को संभालते हुए पूछा–तुम पांच साल तक कहाँ रहे बेटा, जो घर नहीं गए?

शंखधर–पिताजी को खोजने निकला था और अब जब तक वह न मिलेंगे, लौटकर घर न जाऊंगा।

चक्रधर को ऐसा मालूम हुआ, मानो पृथ्वी डगमगा रही है, मानो समस्त ब्रह्मांड एक प्रलयंकारी भूचाल से आंदोलित हो रहा है। वह सायबान के स्तम्भ के सहारे बैठ गए और एक ऐसे स्वर में बोले, जो आशा और भय के वेगों को दबाने के कारण क्षीण हो गया था। यह प्रश्न न था, बल्कि एक जानी हुई बात का समर्थन मात्र था। तुम्हारा नाम क्या है बेटा? इस प्रश्न का उत्तर क्या वही होगा, जिसकी संभावना चक्रधर को विकल और पराभूत कर रही थी? संसार में क्या ऐसा एक ही बालक है, जिसे उसका बाप बचपन में छोड़कर चला गया हो? क्या ऐसा एक ही किशोर है, जो अपने बाप को खोजने निकला हो? यदि उसका उत्तर वही हुआ, जिसका उन्हें भय था, तो वह क्या करेंगे? उनके सामने एक कठिन समस्या उपस्थित हो गई। वह धड़कते हुए हृदय से उत्तर की ओर कान लगाए थे, जैसे कोई अपराधी अपना कर्मदंड सुनने के लिए न्यायाधीश की ओर कान लगाए खड़ा हो ।

शंखधर ने जवाब दिया-मेरा तो नाम शंखधर सिंह है।

चक्रधर–और तुम्हारे पिता का क्या नाम है?

शंखधर–मुंशी चक्रधर कहते हैं।

चक्रधर–घर कहाँ है?

शंखधर–जगदीशपुर!

सर्वनाश ! चक्रधर को ऐसा ज्ञात हुआ कि उनकी देह से प्राण निकल गए हैं, मानो उनके चारों ओर शून्य है ! ‘शंखधर’ बस यही एक शब्द उस प्रशस्त शून्य में किसी पक्षी की भांति चक्कर लगा रहा था। ‘शंखधर !’ यही एक स्मृति थी, जो उस प्राण-शून्य दशा में चेतना को संस्कारों में बांधे हुई थी।

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