चैप्टर 43 मैला आँचल फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास | Chapter 43 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel

चैप्टर 43 मैला आँचल फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास, Chapter 43 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Ka Upanyas, Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel 

Chapter 43 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu

Chapter 43 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel

लछमी दासिन आज मन के सभी दुआर खोल देगी। एक लक्ष दुआर !

“बालदेव जी !”

“जी!”

“रामदास फिर बौरा गया है। कल भंडारी से कह रहा था, लछमी से कहो एक दासी रखने की आज्ञा दे।…कहिए तो भला !”

बालदेव जी क्या जवाब दें। दासी रखना धरम के खिलाफ है, यह उनको नहीं मालूम।…दो-तीन महीने ही हुए, उन्होंने कंठी ली है। मठ के नियम-धरम, नेम-टेम के बारे में वे क्या कह सकते हैं ! लेकिन महन्थ सेवादास ने भी तो… ।

लछमी कहती है-“आप उसे समझाइए बालदेव जी ! वह बौरा गया है। आजकल ततमाटोली में आना-जाना शुरू कर दिया है। भगवान भगत ने कल हिसाब किया है, रमपियरिया की माँ को चार सेर चावल दिलवा दिया है रामदास ने। मैंने पूछा तो बोला-“मठ का पुराना नौकरान है, भूख से मरेंगे वे लोग ? जब दिन-भर बैठकर सिरिफ बीजक बाँचनेवाला दूध-मलाई खाता है तो…।” लछमी कहते-कहते रुक जाती है।

बालदेव जी आजकल कुछ “मतिसून्न’ हो गए हैं। सीधी बात भी समझ् में नहीं आती। …कुछ नहीं समझते हैं। कितने सीधे-सूधे हैं !

“आपका मठ पर रहना उसको पसंद नहीं ।” लछमी बालदेव की ओर देखती है।

“तो हम चले जाते हैं। यदि हमारे रहने से मठ का नियम भंग होता है तो हम चले जाते हैं।”

“कहाँ जाइएगा ?”

“चन्ननपट्टी !”

लछमी का कलेजा धड़क उठता है-धक्‌! इधर कई दिनों से बालदेव जी बहुत उदास रहते हैं। खाना-पीना भी बहुत कम हो गया है। कहीं घूमने-फिरने भी नहीं जाते। आसन पर पड़े बीजक पाठ करते रहते हैं। तहसीलदारसाहब कह गए हैं-‘बालदेव जी की गवाही पर ही मुकदमे की सारी बात है।” वालदेव जी सुनकर बोले, गवाही के लिए हम कठघरा में नहीं चढ़ सकते। महतमा जी कहिन हैं-झगड़ू न जाहू कचहरिया, बेइमनवाँ के ठाठ जहाँ | …आज मठ सूना है, आज ही लछमी सबकुछ कह देगी बालदेव जी से।

“आप चन्नपट्टी चले, जाइएगा” और मैं ?”

“आप ?”

लछमी बालदेव जी की आँखों में आँखें डालकर देखती है। लछमी जब-जब इस तरह देखती है, बालदेव जी न जाने कहाँ खो जाता है ! …एक मनोहर सुगंध हवा में फैल जाती है। पवित्र सुगंध ! बीजक से जैसी सुगंधी निकलती है।

“हाँ ! मैं कहाँ जाऊँगी ? मेरा क्या होगा ? महंथ की दासी बनकर ही मैं मठ पर रह सकती हूँ।” लछमी की आँखें भर आती हैं।

“नहीं लछमी, तुम रामदास की दासी नहीं। मैं- तुम… आप… ।”

“बालदेव जी !” लछमी पागल की तरह बालदेव जी से लिपट जाती है, “रच्छा करो बालदेव जी ! तुम कह दो एक बार-तुम्हें रामदास की दासी नहीं बनने दूँगा ! तुम बोलो-चन्ननपट्टी नहीं जाऊँगा। मुझे छोड़कर मत जाओ बालदेव ! दुहाई !”

“लछमी !” बालदेव जी लछमी को सँभालते हुए कहते हैं, “कोई देख लेगा ।”

लछमी बालदेव जी के गले से हाथ छुड़ाकर अलग बैठ जाती है। सिर नीचा करके सिसकती है।

बालदेव जी की सारी देह झन्‍न-झन्‍न कर रही है। कनपट्टी के पास, लगता है, तपाए हुए नमक की पोटली है। …एक बार आसरम में उसके कान में दर्द हुआ था। गाँगुली जी ने नमक की पोटली से सेंकने के लिए कहा था। …कलेजा धड़-धड़ कर रहा है। लछमी की बाँह ठीक बालदेव के नाक से सट गई थी। लछमी के रोम-रोम से पवित्र सुगन्धी निकलती है। चन्दन की तरह मनोहर शीतल गन्ध निकल रही है। बालदेव का मन इस सुगन्ध में हेलडूब (डूबना-तरना) कर रहा है। वह लछमी को छोड़कर चन्ननपट्टी में कैसे रह सकेगा ?…रूपमती, मायजी, लछमी !..

“महतमा जी के पन्थ को मत छोड़िए, बालदेव जी ! महतमा जी अवतारी पुरुष हैं। आजकल उदास क्यों रहते हैं ? महतमा जी पर भरोसा रखिए। जिस नैन से महतमा जी का दरसन किया है उसमें पाप को मत पैसने दीजिए। जिस कान से महतमा जी के उपदेस को सरबन किया है, उसमें माया की मीठी बोली को मत जाने दीजिए। महतमा जी सतगुरु के भगत हैं।” लछमी आँखें मूंदकर ध्यान की आसनी पर बैठ गई है। सफेद मलमल की साड़ी पर बिखरे हुए लम्बे-लम्बे, काले बाल !…और गोरा मुख-मंडल ! ध्यान-आसन पर इस तरह बैठकर उपदेश देनेवाली यह लछमी कोई और है !…बालदेवजी के हाथ स्वयं ही जुड़ जाते हैं।

लछमी की पवित्र आत्मा की वाणी फिर मुखरित होती है-“दुनिया के दोख-गुन को देखने के पहले अपनी काया की ओर निहारो ! मन मैला तन सूथरो, उलटी जग की रीत !…पहले मन को साफ करो। मन पवित्र नहीं, इसलिए वह दुखी होता है, निरास होता है। तुम पन्थ पर उदास होकर क्यों बैठ रहे हो ? डरते क्यों हो ?” ……

चलते-चलते पगु थका

नगर रहा नौ कोस,

बीचहिं में डेरा परां

कहह कौन का दोख!

बालदेव को लगता है, खुद भारथमाता बोल रही है। यही रूप है ! ठीक यही रूप. है जिसके पैर खून से लथपथ हैं। जिनके बाल बिखरे हुए हैं।…बावनदास कहता था, भारथमाता जार-बेजार रो रही हैं। नहीं, माँ रो नहीं रही। अब पन्थ बता रही है। उचित पन्थ पर अनुचित करम करनेवालों को चेता रही है। बावनदास ‘भरम’ गया है।…और खुद बालदेव, महतमा जी के पन्थ पर निरास और उदास होकर चल रहा है।

“…भारथमाता की जै ! महतमा जी की जै ! भारथमाता, भारथमाता !”

”महन्थ रामदास बहुत देर से कनैल गाछ की आड़ में खड़े होकर देख-सुन रहे थे।…ध्यान-आसन पर बैठी हुई लछमी उपदेश दे रही है और बालदेव जी हाथ जोड़े एकटक से लछमी को देख रहे हैं। अचानक बालदेव जी लछमी के चरन पड़कर हल्ला करने लगे-भारथमाता की जै!

– “भंडारी ! भंडारी !” महन्थ रामदास पिछवाड़े की ओर भागते हुए चिल्लाते हैं, “भंडारी ! बालदेव पागल हो गया ! दौड़ो !”

मठ पर तुरन्त भीड़ लग गई। डाक्टर साहब, तहसीलदार साहब, कालीचरन और खेलावनसिंह यादव भी आए हैं। बालदेव की बूढ़ी मौसी बीच-बीच में गा-गाकर रोने-रोने की सुरखुर (तैयारी) करती है, किन्तु एक ही साथ इतने लोग डाँट देते हैं कि वह चुप हो जाती है और बारी-बारी से सबके मुँह की ओर देखती है। कुछ देर के बाद ही वह फिर शुरू करती है-“बाबू रे !…”

“ऐ बूढ़ी ! ठहर !…चुप !”

डाक्टर साहब बालदेव के बाँह में रबड़ की पट्टी बाँधकर, मुट्ठी से एक छोटे-से गेंद को दबाते हैं।…ओ ! इसी मीसीन से तो तहसीलदार की बेटी कमली का भी जाँच होता है ! ओ!

बालदेव जी रह-रहकर बाँहें ऐंठकर, हाथ छुड़ाकर उठ खड़े होते हैं, “आप लोग क्या समझते हैं मैं पागल हो गया हूँ ? कभी नहीं, हरगिस नहीं।…हमको पागल कहते हैं ? इस गाँव में क्या था ? कोई जानता भी था इस गाँव का नाम ? इसको हौल इंडिया में मशहर कौन किया ? हमको छोड़ दीजिए ! हम महतमा जी के पन्थ से नहीं हट सकते।”

भीड़ में कोई कहता है-“मठ पर रहने से गाँजा पीने की आदत हो जाती है।”

“कौन कहता है हम गाँजा पीते हैं ? दारू-गाँजा-भाँग की दूकान में पिकेटिन किया है हम, और हम गाँजा पीयेंगे ? छिः छिः ! हम महतमा जी के पन्थ को कभी नहीं छोड़ सकते। साच्छी हैं महतमा जी !”

बालदेव की बुढ़िया मौसी अब नहीं मानती। वह गा-गाकर रोती है-“डागडर ने तहसीलदार की बेटी कमला की बेमारी को उतारकर बालदेव पर चढ़ा दिया है। यह भले आदमी का काम नहीं। तहसीलदार की बेटी अभी तक कुमारी है। हे भगवान ! अब बालदेव का बिहा नहीं होगा ! दैबा रे दैबा।”

“बालदेव जी !” लछमी कहती है, “चित्त को सांत कीजिए।”

“ओ ! लछमी !…लछमी दासिन ! साहेब बन्दगी !…ठीक है, कोई बात नहीं। हम पर कभी-कभी महतमा जी का भर (देवी-देवता का सवार होना) होता है। चुन्नी गुसाईं को तो रोज भोर को होता है।” बालदेव जी चुपचाप बैठ जाते हैं।

“डाकडर साहेब ! बालदेव जी इधर कई दिनों से बहुत उदास रहा करते थे। रात में नींद, पता नहीं, आती थी या नहीं। एक सप्ताह पहले, एक दिन बोखार लगा था। बोखार की पीली गोली एक ही साथ सात ठो खा गए।” ।

“पीली गोली ? सातों एक ही बार ?” डाक्टर आश्चर्य से पूछता है।

“जी ! बोखार की पीली गोली बाँटने के लिए मिली थी न ? उसी में से सात ठो एक ही बार खा गए। बोले कि रोज कौन खाए ! एक ही साथ सात दिनों का खोराक ले लेते हैं !”

डाक्टर ठठाकर हँस पड़ता है, “कितना बढ़िया हिसाब है। बालदेव जी, दस दिनों तक घोल का शर्बत पीजिए। ठीक हो जाएगा। कुछ नहीं है, दवा की गर्मी ही है।”

रामकिरपालसिंह कहते हैं, “बिहदाना, अनार, संतोला का रस तो ठंडा होता है, गरमी को सांती करेगा।…जेहल में हम सिरिफ बिहदाना-संतोला खाकर रहते थे। दो बिहदाना मेरे पास अभी भी हैं।”

बालदेव और कालीचरन के बयान पर ही सबकुछ है-जिसको चाहे फँसा दें, चाहें बचा दें। खुद दरोगा साहब कहते थे कि बालदेव की गवाही की बहुत कीमत है !

खेलावनसिंह यादव आजकल कालीचरन का आग-पीछा खब करते हैं। पार्टी आफिस के बगल में एक चौखड़ा घर बनवा देंगे, सुनते हैं, ‘साथी निवास’ घर ! जैसा घर जिला पाटी आफिस में है। मीटिंग के दिन जितने साथी आते हैं, उसी घर में रहते हैं। जो सिकरेटरी होगा, वह आफिस घर में रहेगा।…कालीचरन ने खेलावनसिंह से कहा तो वे तुरन्त तैयार हो गए।

जोतखी काका ने कालीचरन का हाथ देखा है-“खूब नक्छत्तरबली है कालीचरन ! राजसभा में जश है। बेटा-बेटी भी है। धन भी है। मगर एक गरह बड़ा ‘जब्बड़’ है…।”

सिंहजी बालदेव जी को बिहदाना-संतोला खाने के लिए मना रहे हैं- “खा लो बालदेव जी ! बड़ा पूस्टीकारी चीज है। दवा की गरमी दूर हो जाएगी।”

गवाही ने बालदेव जी की खोई हुई कीमत को फिर बहुत तेजदर कर दिया है।

बालदेव जी कहते हैं, “महतमा जी का रस्ता हम कभी छोड़ नहीं सकते। झगड़ न जाहू कचहरिया, दललवा के ठाठ जहाँ।”

लेकिन बालदेव जी को तो कुछ भी कहना नहीं पड़ेगा। उनसे पूछा जाएगा कि यह दसखत आपका ही है ? ये कहेंगे कि-हाँ। बस, और कुछ कहना ही नहीं है। दसखत तो बालदेव जी ने किया था। यह तो झूठ बात नहीं। कालीचरन ने भी किया था।

…चाहे जैसे भी हो, बालदेव जी को गवाही के लिए राजी करना ही होगा, नहीं तो सारे गाँव पर आफत है।…कोठारिन लछमी दासिन को तहसीलदार साहेब समझाकर कह दें तो बात बैठ जाएगी।

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