चैप्टर 43 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 43 Kayakalp Novel By Munshi Premchand
Chapter 43 Kayakalp Novel By Munshi Premchand
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अभागिनी अहिल्या के लिए संसार सूना हो गया। पति को पहले ही खो चुकी थी। जीवन का एकमात्र आधार पुत्र रह गया था, उसे भी खो बैठी। अब वह किसका मुंह देखकर जिएगी। वह राज्य उसके लिए किसी ऋषि का अभिशाप हो गया। पति और पुत्र को पाकर अब वह टूटे-फूटे झोंपड़े में कितने सुख से रहेगी। तृष्णा का उसे बहुत दंड मिल चुका। भगवान्, इस अनाथिनी पर दया करो! अहिल्या को अब वह राजभवन फाड़े खाता था। वह अब उसे छोड़कर कहीं चली जाना चाहती थी। कोई सड़ा-गला झोंपड़ा, किसी वृक्ष की छांह, पर्वत की गुफा, किसी नदी का तट उसके लिए इस भवन से सहस्रों गुना अच्छा था। वे दिन कितने अच्छे थे, जब वह अपने स्वामी के साथ पुत्र को हृदय से लगाए एक छोटे से मकान में रहती थी। वे दिन फिर न आएंगे। वह मनहूस घड़ी थी, जब उसने इस भवन में कदम रखा था। वह क्या जानती थी कि इसके लिए उसे अपने पति और पुत्र से हाथ धोना पड़ेगा? आह ! जब उसका पति जाने लगा, तो वह भी उसके साथ ही क्यों न चली गई? रह-रहकर उसको अपनी भोग-लिप्सा पर क्रोध आता था, जिसने उसका सर्वनाश कर दिया था। क्या उस पाप का कोई प्रायश्चित नहीं है? क्या इस जीवन में स्वामी के दर्शन न होंगे? अपने प्रिय पुत्र की मोहिनी मूर्ति फिर वह न देख सकेगी? कोई ऐसी युक्ति नहीं है?
राजभवन अब भूतों का डेरा हो गया है। उसका अब कोई स्वामी नहीं रहा। राजा साहब अब महीनों नहीं आते। वह अधिकतर इलाके ही में घूमते रहते हैं। उनके अत्याचार की कथाएं सुनकर लोगों के रोएं खड़े हो जाते हैं। सारी रियासत में हाहाकार मचा हुआ है। कहीं किसी गांव में आग लगाई जाती है, किसी गांव में कुएं भ्रष्ट किए जाते हैं। राजा साहब को किसी पर दया नहीं। उनके सारे सद्भाव शंखधर के साथ चले गए। विधाता ने अकारण ही उन पर इतना कठोर आघात किया है। वह उस आघात का बदला दूसरों से ले रहे हैं। जब उनके ऊपर किसी को दया नहीं आती, तो वह किसी पर क्यों दया करें? अगर ईश्वर ने उनके घर में आग लगाई है, तो वह भी दूसरों के घर में आग लगाएंगे। ईश्वर ने उन्हें रुलाया है, तो वह दूसरों को रुलाएंगे। लोगों को ईश्वर की याद आती है, तो उनकी धर्मबुद्धि जागृत हो जाती है, लेकिन किन लोगों की? जिनके सर्वनाश में कुछ कसर रह गई हो, जिनके पास रक्षा करने के योग्य कोई वस्तु रह गई हो, लेकिन जिसका सर्वनाश हो चुका है, उसे किस बात का डर?
अब राजा साहब के पास जाने का किसी को साहस नहीं होता। मनोरमा को देख-देखकर तो वह जामे से बाहर हो जाते हैं। अहिल्या भी उनसे कुछ कहते हुए थर-थर कांपती है। अपने प्यारों को खोजने के लिए वह तरह-तरह के मनसूबे बांधा करती है, लेकिन कहे किससे? उसे ऐसा विदित होता है कि ईश्वर ने उसकी भोग-लिप्सा का यह दंड दिया है। यदि वह अपने पति के घर जाकर इसका प्रायश्चित करे, तो कदाचित् ईश्वर उसका अपराध क्षमा कर दें। उसका डूबता हुआ हृदय इस तिनके के सहारे को जोरों से पकड़े हुए है, लेकिन हाय रे मानव हृदय ! इस घोर विपत्ति में भी मान का भूत सिर से नहीं उतरता। जाना तो चाहती है, लेकिन उसके साथ यह शर्त है कि कोई बुलाए। अगर राजा साहब मुंशीजी से इस विषय में कुछ संकेत कर दें, तो उसके लिए अवश्य बुलावा आ जाए, पर राजा साहब से तो भेंट ही नहीं होती और भेंट भी होती है, तो कुछ कहने की हिम्मत नहीं पड़ती।
इसमें संदेह नहीं कि वह अपने मन की बात मनोरमा से कह देती, तो बहुत आसानी से काम निकल जाता, लेकिन अहिल्या का मन मनोरमा से न पहले कभी मिला था, न अब मिलता था। उससे यह बात कैसे कहती? जो मनोरमा अब गाने-बजाने और सैर-सपाटे में मग्न रहती है, उससे वह अपनी व्यथा कैसे कह सकेगी? वह कहे भी, तो मनोरमा क्यों उसके साथ सहानुभूति करने लगी? वह दिन के दिन और रात की रात पड़ी रोया करती है। मनोरमा कभी भूलकर भी उसकी बात नहीं पूछती, अपने रंग में मस्त रहती है। वह भला, अहिल्या की पीर क्या जानेगी?
तो मनोरमा सचमुच राग-रंग में मस्त रहती है? हां, देखने में तो यही मालूम होता है। लेकिन उसके हृदय पर क्या बीत रही है, यह कौन जान सकता है? वह आशा और नैराश्य, शान्ति और अशान्ति, गंभीरता और उच्छृखलता, अनुराग और विराग की एक विचित्र समस्या बन गई है! अगर वह सचमुच हंसती और गाती है, तो उसके मुख की वह कांति कहाँ है, जो चंद्र को लजाती थी, वह चपलता कहाँ है, जो हिरन को हराती थी ! उसके मुख और उसके नेत्रों को जरा सूक्ष्म दृष्टि से देखो, तो मालूम होगा कि उसकी हंसी उसका आर्तनाद है और उसका राग-प्रेम, मर्मान्तक व्यथा का चिह्न। वह शोक की उस चरम सीमा को पहुँच गई है, जब चिंता और वासना दोनों ही का अंत हो जाता है, लज्जा और आत्मसम्मान का लोप हो जाता है, जब शोक रोग का रूप धारण कर लेता है। मनोरमा ने कच्ची बुद्धि में यौवन जैसा अमूल्य रत्न देकर जो सोने की गुड़िया खरीदी थी, वह अब किसी पक्षी की भांति उसके हाथों से उड़ गई थी। उसने सोचा था, जीवन का वास्तविक सुख धन और ऐश्वर्य में है, किंतु अब बहुत दिनों से उसे ज्ञात हो रहा था कि जीवन का वास्तविक सुख कुछ और ही है, और वह उससे आजीवन वंचित रही। सारा जीवन गुड़िया खेलने ही में कट गया और अंत में वह गुड़िया भी हाथ से निकल गई। यह भाग्य-व्यंग्य रोने की वस्तु नहीं, हंसने की वस्तु है। हम उससे कहीं ज्यादा हंसते हैं, जितना परम आनंद में हंस सकते हैं। प्रकाश जब हमारी सहन-शक्ति से अधिक हो जाता है, तो अंधकार बन जाता है, क्योंकि हमारी आंखें ही बंद हो जाती हैं।
एक दिन अहिल्या का चित्त इतना उद्विग्न हुआ कि वह संकोच और झिझक छोड़कर मनोरमा के पास आ बैठी। मनोरमा के सामने प्रार्थी के रूप में आते हुए उसे जितनी मानसिक वेदना हुई, उसका अनुमान इसी से किया जा सकता है, कि अपने कमरे से यहां तक आने में उसे कम-सेकम दो घंटे लगे। कितनी ही बार द्वार तक आकर लौट गई। जिसकी सदैव अवहेलना की, उसके सामने अब अपनी गरज लेकर जाने में उसे लज्जा आती थी, लेकिन जब भगवान् ने ही गर्व तोड़ दिया था, तो अब झूठी ऐंठ से क्या हो सकता था?
मनोरमा ने उसे देखकर कहा–क्या, रो रही थी, अहिल्या? यों कब तक रोती रहोगी?
अहिल्या ने दीन-भाव से कहा–जब तक भगवान् रुलावें!
कहने को तो अहिल्या ने यह कहा, पर इस प्रश्न से उसका गर्व जाग उठा और वह पछताई कि यहां नाहक आई। उसका मुख तेज से आरक्त हो गया।
मनोरमा ने उपेक्षा-भाव से कहा–तब तो और हंसना चाहिए। जिसमें दया नहीं, उसके सामने रोकर अपना दीदा क्यों खोती हो? भगवान् अपने घर का भगवान् होगा। कोई उसके रुलाने से क्यों रोए? मन में एक बार निश्चय कर लो कि अब न रोऊंगी, फिर देखू कि कैसे रोना आता है !
अहिल्या से अब जब्त न हो सका, बोली–तुम तो जले पर नमक छिड़कती हो, रानीजी! तुम्हारा जैसा हृदय कहाँ से लाऊं? और फिर रोता भी वह है, जिस पर पड़ती है। जिस पर पड़ी ही नहीं, वह क्यों रोएगा?
मनोरमा हंसी–वह हंसी, जो या तो मूर्ख ही हंस सकता है या ज्ञानी ही। बोली-अगर भगवान् किसी को रुलाकर ही प्रसन्न होता है, तब तो वह विचित्र ही जीव है। अगर कोई माता या पिता अपनी संतान को रोते देखकर प्रसन्न हों, तो तुम उसे क्या कहोगी-बोलो? तुम्हारा जी चाहेगा कि ऐसे प्राणी का मुंह न देखू क्या ईश्वर हमसे और तुमसे भी गया-बीता है? आओ, बैठकर गावें। इससे ईश्वर प्रसन्न होगा। वह जो कुछ करता है, सबके भले के लिए करता है। इसलिए जब वह देखता है कि उसे लोग अपना शत्रु समझते हैं, तो उसे दु:ख होता है। तुम अपने पुत्र को इसीलिए तो ताड़ना देती हो कि वह अच्छे रास्ते पर चले। अगर तुम्हारा पुत्र इस बात पर तुमसे रूठ जाए और तुम्हें अपना शत्रु समझने लगे, तो तुम्हें कितना दु:ख होगा? आओ, तुम्हें एक भैरवी सुनाऊं। देखो, मैं कैसा अच्छा गाती हूँ।
अहिल्या ने गाना सुनने के प्रस्ताव को अनसुना करके कहा–माता-पिता संतान को इसीलिए तो ताड़ना देते हैं कि वह बुरी आदतें छोड़ दे, अपने बुरे कामों पर लज्जित हो और उसका प्रायश्चित करे? हमें भी जब ईश्वर ताड़ना देता है, तो उसकी भी यही इच्छा होती है। विपत्ति ताडना ही तो है। मैं भी प्रायश्चित करना चाहती हूँ और आपसे उसके लिए सहायता मांगने आई हूँ। मुझे अनुभव हो रहा है कि यह सारी विडंबना मेरे विलास-प्रेम का फल है, और मैं इसका प्रायश्चित करना चाहती हूँ। मेरा मन कहता है कि यहां से निकलकर मैं अपना मनोरथ पा जाऊंगी। यह सारा दंड मेरी विलासांधता का है। आप जाकर अम्मांजी से कह दीजिए, मुझे बुला लें। इस घर में आकर मैं अपना सुख खो बैठी और इस घर से निकलकर ही उसे पाऊंगी।
मनोरमा को ऐसा मालूम हुआ, मानो उसकी आंखें खुल गईं। क्या वह भी इस घर से निकलकर सच्चे आनंद का अनुभव करेगी? क्या उसे भी ऐश्वर्य-प्रेम ही का दंड भोगना पड़ रहा है? क्या वह सारी अंतर्वेदना इसी विलास प्रेम के कारण है?
उसने कहा–अच्छा, अहिल्या, मैं आज ही जाती हूँ।
इसके चौथे दिन मुंशी वज्रधर ने राजा साहब के पास रुखसती का संदेशा भेजा। राजा साहब इलाके पर थे। संदेशा पाते ही जगदीशपुर आए। अहिल्या का कलेजा धक-धक करने लगा कि राजा साहब कहीं आ न जाएं। इधर-उधर छिपती-फिरती थी कि उनका सामना न हो जाए । उसे मालूम होता था कि राजा साहब ने रुखसती मंजूर कर ली है, पर अब जाने के लिए वह बहुत उत्सुक न थी। यहां से जाना तो चाहती थी, पर जाते दुःख होता था। यहां आए उसे चौदह साल हो गए। वह इसी घर को अपना घर समझने लगी थी। ससुराल उसके लिए बिरानी जगह थी। कहीं निर्मला ने कोई बात कह दी तो वह क्या करेगी? जिस घर से मान करके निकली थी, वहीं अब विवश होकर जाना पड़ रहा था। इन बातों को सोचते-सोचते आखिर उसका दिल इतना घबराया कि वह राजा साहब के पास जाकर बोली-आप मुझे क्यों विदा करते हैं? मैं नहीं जाना चाहती।
राजा साहब ने हंसकर कहा–कोई लड़की ऐसी भी है, जो खुशी से ससुराल जाती हो? और कौन पिता ऐसा है, जो लड़की को खुशी से विदा करता हो? मैं कब चाहता हूँ कि तुम जाओ, लेकिन मुंशी वज्रधर की आज्ञा है; और यह मुझे शिरोधार्य करनी पड़ेगी। वह लड़के के बाप हैं, मैं लड़की का बाप हूँ, मेरी और उनकी क्या बराबरी? और बेटी, मेरे दिल में भी अरमान हैं, उसके पूरा करने का और कौन अवसर आएगा? शंखधर होता, तो उसके विवाह में वह अरमान पूरा होता। अब वह तुम्हारे गौने में पूरा होगा।
अहिल्या इसका क्या जवाब देती?
दूसरे दिन से राजा साहब ने विदाई की तैयारियां करनी शुरू कर दीं। सारे इलाके के सुनार पकड़ बुलाए गए और गहने बनने लगे। इलाके ही के दर्जी कपड़े सीने लगे। हलवाइयों के कढ़ाह चढ़ गए और पकवान बनने लगे। घर की सफाई और रंगाई होने लगी। राजाओं, रईसों और अफसरों को निमंत्रण भेजे जाने लगे। सारे शहर की वेश्याओं को बयाने दे दिए गए। बिजली की रोशनी का इंतजाम होने लगा। ऐसा मालूम होता था, मानो किसी बड़ी बारात के स्वागत और सत्कार की तैयारी हो रही है। अहिल्या यह सामान देख-देखकर दिल में झुंझलाती और शरमाती थी। सोचाती-कहाँ से कहाँ मैंने यह विपत्ति मोल ले ली। अब इस बुढ़ापे में मेरा गौना ! मैं मरने की राह देख रही हं, यहां गौने की तैयारी हो रही है। कौन जाने, यह अंतिम विदाई ही हो। राजा साहब ऐसे व्यस्त थे कि किसी से बात करने की भी फुर्सत उन्हें न थी। कहीं सुनारों के पास बैठे अच्छी नक्काशी करने की ताकीद कर रहे हैं। कहीं जौहरियों के पास बैठे जवाहरात परख रहे हैं। उनके अरमानों का पारावार ही न था। मन की मिठाई घी-शक्कर की मिठाई से कम स्वादिष्ट नहीं होती।
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