चैप्टर 41 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 41 Kayakalp Novel By Munshi Premchand
Chapter 41 Kayakalp Novel By Munshi Premchand
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पांच वर्ष व्यतीत हो गए! पर न शंखधर का कहीं पता चला, न चक्रधर का। राजा विशालसिंह ने दया और धर्म को तिलांजलि दे दी है और खूब दिल खोलकर अत्याचार कर रहे हैं। दया और धर्म से जो कुछ होता है, उसका अनुभव करके अब वह यह अनुभव करना चाहते हैं कि अधर्म और अविचार से क्या होता है। रियासत में धर्मार्थ जितने काम होते थे, वे सब बंद कर दिए गए हैं। मंदिरों में दिया नहीं जलता, साधु-संत द्वार से खड़े-खड़े निकाल दिए जाते हैं और प्रजा पर नाना प्रकार के अत्याचार किए जा रहे हैं। उनकी फरियाद कोई नहीं सुनता। राजा साहब को किसी पर दया नहीं आती। अब क्या रह गया है, जिसके लिए वह धर्म का दामन पकड़ें? वह किशोर अब कहाँ है, जिसके दर्शन मात्र से हृदय में प्रकाश का उदय हो जाता था? वह जीवन और मृत्यु की सभी आशाओं का आधार कहाँ चला गया? कुछ पता नहीं। यदि विधाता ने उनके ऊपर यह निर्दय आघात किया है, तो वह भी उसी के बनाए हुए मार्ग पर चलेंगे। इतने प्राणियों में केवल एक मनोरमा है, जिसने अभी तक धैर्य का आश्रय नहीं छोड़ा, लेकिन उसकी अब कोई नहीं सुनता। राजा साहब अब उसकी सूरत भी नहीं देखना चाहते। वह उसी को सारी विपत्ति का मूल कारण समझते हैं। वही मनोरमा, जो उनकी हृदयेश्वरी थी, जिसके इशारे पर रियासत चलती थी, अब भवन में भिखारिन की भांति रहती है, कोई उसकी बात तक नहीं पूछता। वह इस भीषण अंधकार में अब भी दीपक की भांति जल रही है। पर उसका प्रकाश केवल अपने ही तक रह जाता है, अंधकार में प्रसारित नहीं होता।
आह अबोध बालक ! अब तूने देखा कि जिस अभीष्ट के लिए तूने जीवन की सभी आकांक्षाओं का परित्याग कर दिया, वह कितना असाध्य है ! इस विशाल प्रदेश में जहां तीस करोड़ प्राणी बसते हैं, तू एक प्राणी को कैसे खोज पाएगा? कितना अबोध साहस था, बालोचित सरल उत्साह की कितनी अलौकिक लीला !
संध्या हो गई। सूर्यदेव पहाड़ियों की आड़ में छिप गए हैं, इसीलिए संध्या से पहले ही अंधेरा हो चला है। रमणियां जल भरने के लिए कुएं पर आ गई हैं। इसी समय एक युवक हाथ में एक खंजरी लिए, आकर कुएं की जगत पर बैठ गया। यही शंखधर है। उसके वर्ण, रूप और वेश में इतना परिवर्तन हो गया है कि शायद अहिल्या भी उसे देखकर चौंक पड़ती। यह वह तेजस्वी किशोर नहीं, उसकी छाया मात्र है। उसका मांस गल गया है, केवल अस्थिपंजर मात्र रह गया है, मानो किसी भयंकर रोग से ग्रस्त रहने के बाद उठा हो। मानसिक ताप, वेदना और विषाद की उसके मुख पर एक ऐसी गहरी रेखा है कि मालूम होता है, उसके प्राण अब निकलने के लिए अधीर हो रहे हैं। उसकी निस्तेज आंखों में आकांक्षा और प्रतीक्षा की झलक की जगह अब घोर नैराश्य प्रतिबिंबित हो रहा था-वह नैराश्य जिसका परितोष नहीं। वह सजीव प्राणी नहीं, किसी अनाथ का रोदन या किसी वेदना की प्रतिध्वनि मात्र है। पांच वर्ष के कठोर जीवन-संग्राम ने उसे इतना हताश कर दिया है कि कदाचित् इस समय अपने उपास्यदेव को सामने देखकर भी उसे अपनी आंखों पर विश्वास न आएगा।
एक रमणी ने उसकी ओर देखकर पूछा–कहाँ से आते हो परदेशी, बीमार मालूम होते हो?
शंखधर ने आकाश की ओर अनिमेष नेत्रों से देखते हुए कहा–बीमार तो नहीं हूँ माता, दूर से आते-आते थक गया हूँ।
यह कहकर उसने अपनी खंजरी उठा ली और उसे बजाकर यह पद गाने लगा-
बहुत दिनों तक मौन-मंत्र
मन-मंदिर में जपने के बाद।
पाऊंगी जब उन्हें प्रतीक्षा
के तप में तपने के बाद।
ले तब उन्हें अंक में नयनों
के जल से नहलाऊंगी।
सुमन चढ़ाकर प्रेम पुजारिन
“मैं उनकी कहलाऊंगी।
ले अनुराग आरती उनकी
तभी उतारूंगी सप्रेम।
स्नेह सुधा नैवेद्य रूप में
सम्मुख रक्खूगी कर प्रेम।
ले लूंगी वरदान भक्ति-वेदी
पर बलि हो जाने पर।
साध तभी मन की साधूंगी
प्राणनाथ के आने पर।
इस क्षीणकाय युवक के कंठ में इतना स्वर-लालित्य, इतना विकल अनुराग था कि रमणियां चित्रवत् खड़ी रह गईं। कोई कुएं में कलसा डाले हुए उसे खींचना भूल गई, कोई कलसे से रस्सी का फंदा लगाते हुए उसे कुएं में डालना भूल गई और कोई कूल्हे पर कलसा रखे आगे बढ़ना भूल गई-सभी मंत्र-मुग्ध-सी हो गईं। उनकी हृदय वीणा से भी वही अनुरक्त ध्वनि निकलने लगी।
एक युवती ने पूछा–बाबाजी, अब तो बहुत देर हो गई है; यहीं ठहर जाओ न। आगे तो बहुत दूर तक कोई गांव नहीं है।
शंखधर–आपकी इच्छा है माता, तो यहीं ठहर जाऊंगा। भला, माताजी, यहां कोई महात्मा तो नहीं रहते?
युवती–नहीं, यहां तो कोई साधु-संत नहीं हैं। हां, देवालय है।
दूसरी रमणी ने कहा–अभी कई दिन हुए, एक महात्मा आकर टिके थे, पर वह साधुओं के वेश में न थे। वह यहां एक महीने भर रहे। तुम एक दिन पहले यहां आ जाते, तो उनके दर्शन हो जाते।
एक वृद्धा बोली–साधु-संत तो बहुत देखे, पर ऐसा उपकारी जीव नहीं देखा। तुम्हारा घर कहाँ है, बेटा?
शंखधर–कहाँ बताऊं माता, यों ही घूमता-फिरता हूँ।
वृद्धा–अभी तुम्हारे माता-पिता हैं न, बेटा?
शंखधर–कुछ मालूम नहीं, माता ! पिताजी तो बहुत दिन हुए, कहीं चले गए। मैं तब दो-तीन वर्ष का था। माताजी का हाल नहीं मालूम।
वृद्धा–तुम्हारे पिता क्यों चले गए? तुम्हारी माता से कोई झगड़ा हुआ था?
शंखधर–नहीं माताजी, झगड़ा तो नहीं हुआ। गृहस्थी के माया-मोह में नहीं पड़ना चाहते
थे।
वृद्धा–तो तुम्हें घर छोड़े कितने दिन हुए?
शंखधर–पांच साल हो गए, माता ! पिताजी को खोजने निकल पड़ा था, पर अब तक कहीं पता नहीं चला।
एक युवती ने अपनी सहेली के कंधे से मुंह छिपाकर कहा–इनका ब्याह तो हो गया होगा?
सहेली ने उसे कुछ उत्तर न दिया। वह शंखधर के मुंह की ओर ध्यान से देख रही थी। सहसा उसने वृद्धा से कहा–अम्मां, इनकी सूरत महात्मा से मिलती है कि नहीं, कुछ तुम्हें दिखाई देता है?
वृद्धा–हां रे, कुछ-कुछ मालूम तो होता है। (शंखधर से) क्यों बेटा, तुम्हारे पिताजी की क्या अवस्था होगी?
शंखधर–चालीस वर्ष के लगभग होगी और क्या।
वृद्धा–आंखें खूब बड़ी-बड़ी हैं?
शंखधर–हां, माताजी, उतनी बड़ी आंखें तो मैंने किसी की देखी ही नहीं।
वृद्धा–लंबे-लंबे गोरे आदमी हैं?
शंखधर का हृदय धक-धक करने लगा। बोला–हां माताजी, उनका रंग बहुत गोरा है। वृद्धा–अच्छा, दाहिनी ओर माथे पर किसी चोट का दाग है?
शंखधर–हो सकता है, माताजी मैंने तो केवल उनका चित्र देखा है। मुझे तो वह दो वर्ष का छोड़कर घर से निकल गए थे।
वृद्धा–बेटा, जिन महात्मा की मैंने तुमसे चर्चा की है, उनकी सूरत तुमसे बहुत मिलती है। शंखधर–माता, कुछ बता सकती हो, वह यहां से किधर गए?
वृद्धा–यह तो कुछ नहीं कह सकती, पर वह उत्तर ही की ओर गए हैं। तुमसे क्या कहूँ बेटा, मुझे तो उन्होंने प्राणदान दिया है, नहीं तो अब तक मेरा न जाने क्या हाल होता! नदी में स्नान करने गई थी। पैर फिसल गया। महात्माजी तट पर बैठे ध्यान कर रहे थे। डुबकियां खाते देखा, तो चट पानी में तैर गए और मुझे निकाल लाए। वह न निकालते, तो प्राण जाने में कोई संदेह न था। महीने भर यहां रहे। इस बीच में कई जानें बचाईं। कई रोगियों को तो मौत के मुंह से निकाल लिया !
शंखधर ने कांपते हुए हृदय से पूछा–उनका नाम क्या था, माताजी?
वृद्धा–नाम तो उनका था भगवानदास, पर यह उनका असली नाम नहीं मालूम होता था, असली नाम कुछ और ही था।
एक युवती ने कहा–यहां उनकी तस्वीर भी तो रखी हुई है!
वृद्धा–हां बेटा, इसकी तो हमें याद ही नहीं रही थी। इस गांव का एक आदमी बंबई में तस्वीर बनाने का काम करता है। वह यहां उन दिनों आया हुआ था। महात्माजी तो नहीं-नहीं करते रहे, पर उसने झट से अपनी डिबिया खोलकर उनकी तस्वीर उतार ही ली। न जाने उस डिबिया में क्या जादू है कि जिसके सामने खोल दो, उसकी तस्वीर उसके भीतर खिंच जाती है। शंखधर का हृदय शतगुण वेग से धड़क रहा था। बोले-जरा वह तस्वीर मुझे दिखा दीजिए, आपकी बड़ी कृपा होगी।
युवती लपकी हुई घर गई और एक क्षण में तस्वीर लिए हुए लौटी ! आह ! शंखधर की इस समय विचित्र दशा थी ! उसकी हिम्मत न पड़ी कि तस्वीर देखे। कहीं यह चक्रधर की तस्वीर न हो ! अगर उन्हीं की तस्वीर हुई, तो शंखधर क्या करेगा? वह अपने पैरों पर खड़ा रह सकेगा? उसे मूर्छा तो न आ जाएगी। अगर यह वास्तव में चक्रधर ही का चित्र है, तो शंखधर के सामने एक नई समस्या खड़ी हो जाएगी। उसे अब क्या करना होगा? अब तक वह एक निश्चित मार्ग पर चलता आया था, लेकिन अब उसे एक ऐसे मार्ग पर चलना पड़ेगा, जिससे वह बिल्कुल परिचित न था। क्या वह चक्रधर के पास जाएगा? जाकर क्या कहेगा? उसे देखकर वह प्रसन्न होंगे या सामने से दतकार देंगे? उसे वह पहचान भी सकेंगे? कहीं पहचान लिया और उससे अपना पीछा छुड़ाने के लिए कहीं और चले गए तो?
सहसा वृद्धा ने कहा–देखो बेटा ! यह तस्वीर है।
शंखधर ने दोनों हाथों से हृदय को संभालते हुए तस्वीर पर एक भय-कपित दृष्टि डाली और पहचान गया। हां, चक्रधर ही की तस्वीर थी। उसकी देह शिथिल पड़ गई, हृदय का धड़कना शांत हो गया। आशा, भय, चिंता और अस्थिरता से व्यग्र होकर वह हतबुद्धि-सा खडा रह गया, मानो किसी पुरानी बात को याद कर रहा है।
वृद्धा ने उत्सुकता से पूछा–बेटा कुछ पहचान रहे हो?
शंखधर ने कुछ उत्तर न दिया।
वृद्धा ने फिर पूछा–चुप कैसे हो भैया, तुमने अपने पिताजी की जो सूरत देखी है, उससे यह तस्वीर कुछ मिलती है?
शंखधर ने अब भी कुछ उत्तर न दिया, मानो उसने कुछ सुना ही नहीं।
सहसा उसने निद्रा से जागे हुए मनुष्य की भांति पूछा–वह उधर उत्तर ही की ओर गए हैं? आगे कोई गांव पड़ेगा?
वृद्धा–हां, बेटा, पांच कोस पर गांव है! भला-सा उसका नाम है, हां साईंगंज, साईंगंज, लेकिन आज तो तुम यहीं रहोगे?
शंखधर ने केवल इतना कहा–नहीं माता, आज्ञा दीजिए, और खंजरी उठाकर चल खड़ा हुआ। युवतियां ठगी-सी खड़ी रह गईं। जब तक वह निगाहों से छिप न गया, सबकी सब उसकी ओर टकटकी लगाए ताकती रहीं, लेकिन शंखधर ने एक बार भी पीछे फिरकर न देखा।
सामने गगनचुंबी पर्वत अंधकार में विशालकाय राक्षस की भांति खड़ा था। शंखधर बड़ी तीव्र गति से पतली पगडंडी पर चला जा रहा था। उसने अपने आपको उसी पगडंडी पर छोड़ दिया है। वह कहाँ ले जाएगी, वह नहीं जानता। हम भी इस जीवन रूपी पतली मिटी-मिटी पगडंडी पर क्या उसी भांति तीव्र गति से दौड़े नहीं चले जा रहे हैं? क्या हमारे सामने उनसे भी ऊंचे अंधकार के पर्वत नहीं खड़े हैं?
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