चैप्टर 40 मैला आँचल फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास | Chapter 40 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Ka Upanyas, Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel
Chapter 40 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu
जोतखी ठीक कहते थे-गाँव में चील-काग उड़ेंगे और पुलिस-दारोगा गली-गली में घूमेगा ।
पुलिस-दारोगा, हवलदार और मलेटरी, चार हवागाड़ी में भरकर आए हैं। दुहाई माँ काली !
इसपी, कलक्टर, हाकिम अभी आनेवाला है।
लहास ! …लहास ! …बाप रे-कौन कहता था कि अँगरेज बहादुर का अब राज नहीं रहेगा ?
“तहसीलदार हरगौरी भी मर गए ? …ऐं ! कोई घर से मत निकलो ! पाखाना-पेसाब सब घर के ही अंदर करो | घर से निकले कि गिरिफ्फ कर लेगा। “दुहाई काली माई !” “बालदेव जी को दारोगा साहेब ने बुलाया है ? कलिया “कालीचरन जी को भी ? “देखें, ये दोनों तो किसी से डरनेवाले नहीं हैं, क्या होता है ? “दो लीडर तो हैं।”
“ओ ! आप ही यहाँ के लीडर हैं” दारोगा साहब बालदेव जी से पूछते हैं। इसपिताल के फालतू घर में दारोगा साहब कचहरी लगाकर बैठे हैं, मलेयद्वी ने संथालों को गिरिफ्फ कर लिया है। जखमी, घायल और बूढ़े-बच्चों को भी !’ सबको गिरफ्तार किया है ? नहीं, जखमी लोगों को मरहम-पट्टी तो कल ही डाक्टर साहब ने कर दी है। दो संथाल और चौदह गैर-संथाल घायलों को पुरैनियाँ के बड़े इसपिताल भेजा गया है। सबों की लहास भी चली गई है। सिंघ जी, शिवशक्करसिंघ और हरेक टोला से दो-चार आदमी लहास के साथ गए हैं। न जाने कब लहास मिले ? ऊँह, चीर-फाड़कर मिलेगी ! हे भगवान !…
बालदेव जी क्या जवाब दें ?… लीडर हैं। किसके लीडर ? संथालों के या गैर-संथालों के ?…खखारकर गले को साफ करते हुए बालदेव जी के मुँह से बस वही पुराना जवाब निकलता है, जो उसने हरगौरी को दिया था जिस दिन कलिया पगला गया था।
“नहीं हुजूर ! हम तो मूर्ख और गरीब ठहरे। मूरख आदमी, चाहे गरीब आदमी, कभी लीडर हुआ है हूजूर ? “
दारोगा साहब बालदेव जी को पास की कुर्सी पर बैठने को कहते हैं, “अरे, हम आपको जानते हैं। बालदेव जी, बैठिए ?”
बासुदेव और सुंदर एक-दूसरे का मुँह देखते हैं। “कालीचरन जी को कुछ पूछा भी नहीं ?” लो, तहसीलदार साहब सँभाल लेते हैं।
“दारोगा साहब यही हैं, कालीचरनबाबू, यहाँ के सोशलिस्टों के लीडर ! बहादुर हैं ! लेकिन सिर्फ बहादुर ही नहीं, मगज भी हैं !”
“ओ हो ! कालीचरन जी हैं ? आइए साहब, आप लोग तो साहब, क्या कहते हैं, जो न करवाइए ।” दारोगा साहब मुँह में पान-जर्दा डालते हुए कहते हैं, “लेकिन यहाँ तो सुना कि आप लोगों ने बड़े दिमाग से काम लिया है। हमको तो सुबह आते ही सारी बातों का पता चल गया | तारीफ करने के काबिल ! वाह ! बैठिए ।”
कालीचरन बैठते हुए कहता है, “देखिए दारोगा साहब यदि आपस की पंचायत से सारी बात का फैसला हो जाए तो हम लोगो को पागल कुत्ते ने नहीं काटा है जो , !!
“आपस की पंचायत से ? यह खूनी केस ?” दारोगा साहब का पान भरा मुँह एकदम गोल हो जाता है।
“नहीं, यह नहीं, यही आधी बट्टेदारी का सवाल !”
“ओ !” दारोगा साहब ने पीक की कुल्ली फेंकते हुए कहा, “ओ ! सो तो ठीक है ! अरे आप ही हैं, सोशलिस्ट पार्टीवाले हैं। कहिए तो, जो काम पंचायत से चार आदमी की राय से नहीं होगा, वह क्या कहते हैं, तूल-फजूल से हो सकता है-
“हिंसा के रास्ते पर तो हरगिज जाना ही नही चाहिए ।” बालदेव जी वहुत गंभीर होकर कहते हैं।
“क्या कहते हैं !” दारोगा साहब बालदेव जी की बात में टीप का बंद लगा देते हैं, “क्या कहते हैं !” दारोगा साहब बात करते समय हाथ खूब चमकाते हैं और कनखी भी मारते हैं।
बासुदेव और सुनहरा एक-दूसरे को देखते हैं-बालदेव जी जानते ही क्या हैं जो बोलेंगे। देखा, कालीचरन जी ने कैसा गटगटाकर जवाब दे दिया।
“हिंसा-अहिंसा का सवाल नहीं है बालदेव जी, असल है बुद्धि ! यहीं पर हमारी पार्टी के कोई और कामरेड रहते तो हो सकता है, दूसरी बात होती। बुद्धि की बात है।” कालीचरन बालदेव जी को जवाब देता है।
कालीचरन और बालदेव जी ने दारोगा जी को दिखला दिया कि बुद्धि है ! उमेर देखकर मत भूलिए दारोगा साहब, अब वह बात नहीं !
“अच्छा तो बालदेव बाबू; जब यह वकूआ हुआ तो, क्या कहते हैं, आप कहाँ थे ?” दारोगा साहब पूछते हैं।
बालदेव जी फिर खखारते हैं-“ह ख जी ! हुजूर ! हम तो मठ पर थे।…जी, बात यह है कि यह वैष्णव हैं। उस दिन हमको गुरु जी कंठी देनेवाले थे। सुबह तो धान दिलाने में ही कट गई। पिछले पहर को हम जैसे ही कंठी लेकर उठे कि…ततमाटोली की रमपियरिया रोती हुई गई।”
“ओ ! आपको पहले से कुछ पता नहीं था ?” दारोगा साहब गम्भीर होकर पूछते हैं।
“जी ! इनको क्या, किसी को पता नहीं।” खेलावनसिंह यादव हिम्मत से काम लेते हैं। आखिर दारोगा साहब के लिए इतना खाने का इन्तजाम भी तो वही कर रहे हैं। यह दारोगा साहब से क्यों नहीं बालेंगे ? तहसीलदार साहब कुछ नहीं बोलते हैं।
“ओ ! खेलावन जी आइए बैठिए !”
“ठीक है। हम यहीं हैं।…जरा हुजूर, जल्दी किया जाए ! उधर ठंडा हो जाएगा।” खेलावन जी कहते हैं।
सिर्फ यहाँ के दोनों लीडर ही बुद्धिवाले नहीं। और लोग भी बुद्धि रखते हैं !…
“हुजूर ! हमारा लड़का अभी रहता तो हुजूर से अभी अंग्रेजी में बतिया लेता। रमैन जैसी एक किताब है, लाल, मोटी…उसी में देखकर वह आपसे अंग्रेजी में बतिया लेता।” खेलावनसिंह यादव कहते हैं।
“अच्छा ? आपका लड़का अंग्रेजी बोल लेता है ?”
“हाँ, डागडरबाबू से बराबर अंग्रेजी में ही बोल लेता है।”
“मोकदमा का राय भी पढ़ लेता है।” बालदेव जी कहते हैं।
“एड किलास में पढ़ता है।” कालीचरन जी कहते हैं।
“अच्छा, आप कहाँ तक पढ़े हैं कालीचरन जी ?…कोई स्कूल में नहीं ?…वाह साहब, क्या कहते हैं, आपकी बोली सुनकर तो कोई नहीं कह सकता कि आप जाहिल…ओ ! पढ़-लिख लेते हैं, अखबार भी पढ़ लेते हैं ? वाह ! रमैन भी पढ़ते हैं ? महाभारत भी? ओ, क्या कहते हैं कि…।”
“बालदेव भी अकबार” पढ़ता है,” खेलावनसिंह यादव कहते हैं, “अकबार तो हम लोग भी पढ़ लेते हैं। “लेकिन बहुत झूठ बात लिखता है अकबार में | उस बार लिखा था कि एक औरत थी, सो कुछ दिनों के बाद मर्द हो गई । कहिए भला !”
“अच्छा तो कालीचरन जी, आप कहाँ थे, जब यह वकूआ हुआ ?” दारोगा साहब कमर के बेल्ट को खोलते हुए कहते हैं।
अगमू चौकीदार को डर होता है, कहीं दारोगा जी पेटी खोलकर मारना न शुरू कर दें बालदेव और कालीचरन जी को। “जहाँ दारोगा जी पेटी खोलते हैं कि अगमू का चेहरा फक् हो जाता है। “नहीं, ऐसा नहीं कर सकते हैं दारोगा जी !
“जी, मैं तो उसी दिन सुबह को धान दिलाकर, ठीक बारह बजे दिन में ही पुरैनियाँ चला गया था | तहसीलदार हरगौरी “तहसीलदार बिस्नाथपरसाद जी जानते हैं ।”
“ओ ! आप पुरैनियाँ गए थे।” दारोगा साहब एक लंबी साँस छोड़ते हैं।
“अच्छा, तो अब उस पहर को काम कीजिएगा दारोगा साहब !” तहसीलदार साहब कहते हैं।
“नहीं तहसीलदार साहब ! एम.पी. आनेवाले हैं। हमको अभी सब काम खत्म कर रखना है। गवाहों का इजहार”
“जी, कुछ असल गवाही, दो-तीन लीजिए । और सब बाद में । “अरे कालीबाबू, बालदेवबाबू, तुम लोग तो जो सच्ची बात है, वही कहोगे। कोई झूठी गवाही तो नहीं “लिख लीजिए इन दोनों के बयान, दस्तखत करना दोनों जानते हैं।”
“आप लोगों का क्या खयाल है ?” दारोगा साहब धीरे से पूछते हैं।
“हाँ, दसखत करने में क्या है ?” कालीचरन कहता है।
“कालीचरन जी हाथ झाड़कर दस्तखत करते हैं और बालदेव जी बड़े ‘परेम’ से आस्ते-आस्ते लिखते हैं। “भाई बालदेव जी सचमुच में साधु हैं।
“बलदेव ?” दारोगा साहब कहते हैं, “बानदेव जी, जरा “ब’ में एक लाटी लगा दीजिए और ‘द’ के ऊपर, कया कहते हैं, एक तलवार-सी। और बाकलम खुद !”
“दारोगा साहब, बालदेव जी नाम में भी लाठी-तलवार नहीं लगाते हैं। हिंसाबाद-…” कालीचरन मुस्कराकर खड़ा हो जाता है।
दारोगा साहब ठठाकर हँस पड़ते हैं। इसके बाद सभी लोग हँस पड़ते हैं।
अलबत्ता जवाब दिया कालीचरन जी ने। दारोगा साहब पानी-पानी हो गए।
देखो ! बुद्धि है या नहीं ?
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