चैप्टर 40 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 40 Kayakalp Novel By Munshi Premchand
Chapter 40 Kayakalp Novel By Munshi Premchand
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रोहिणी के बाद राजा जगदीशपुर न रह सके। मनोरमा का भी जी वहां घबराने लगा। उसी के कारण मनोरमा को वहां रहना पड़ता था। जब वही न रही, तो किस पर रीस करती? उसे अब दुःख होता था कि मैं नाहक यहां आई। रोहिणी के कटु वाक्य सह लेती, तो आज उस बेचारी की जान पर क्यों बनती? मनोरमा इस ग्लानि को मन से न निकाल सकती थी कि मैं ही रोहिणी की अकाल मृत्यु का हेतु हुई। राजा साहब की निगाह भी अब उसकी ओर से फिरी हुई मालूम होती थी। अब खजांची उतनी तत्परता से उसकी फरमाइशें नहीं पूरी करता। राजा साहब भी अब उसके पास बहुत कम आते हैं। यहां तक कि गुरुसेवक सिंह को भी जवाब दे दिया है, और उन्हें रनिवास में आने की मनाही कर दी गई है। रोहिणी ने प्राण देकर मनोरमा पर विजय पाई है। अब वसुमती और रामप्रिया पर राजा साहब की कुछ विशेष कृपा हो गई है। दूसरे-तीसरे दिन जगदीशपुर चले जाते हैं और कभी-कभी दिन का भोजन भी यहीं करते हैं। वह अब अपने पापों का प्रायश्चित्त कर रहे हैं। रियासत में अब अंधेर भी ज्यादा होने लगा है। मनोरमा की खोली हुई शालाएं बंद होती जा रही हैं। मनोरमा सब देखती है और समझती है, पर मुंह नहीं खोल सकती। उसके सौभाग्य-सूर्य का पतन हो रहा है। वही राजा साहब, जो उससे बिना कहे, सैर करने भी न जाते थे, अब हफ्तों उसकी तरफ झांकते तक नहीं। नौकरों-चाकरों पर भी अब उसका प्रभाव नहीं रहा। वे उसकी बातों की परवाह नहीं करते। इन गंवारों को हवा का रुख पहचानते देर नहीं लगती। रोहिणी का आत्म-बलिदान निष्फल नहीं हुआ।
शंखधर को अब एक नई चिंता हो गई। राजा साहब के रूठने से छोटी नानीजी मर गईं। क्या पिताजी के रूठने से अम्मांजी का भी यही हाल होगा? अम्मांजी भी तो दिन-दिन घुलती जाती हैं। जब देखो, तब रोया करती हैं। उसका नाम स्कूल में लिखा दिया है। स्कूल से छुट्टी पाकर वह सीधे लौंगी के पास जाता है और उससे तीर्थयात्रा की बातें पूछता है। यात्री लोग कहाँ ठहरते हैं, क्या खाते हैं। जहां रेलें नहीं हैं, वहां लोग कैसे जाते हैं, चोर तो नहीं मिलते? लौंगी उसके मनोभावों को ताड़ती है, लेकिन इच्छा न होते हुए भी उसे सारी बातें बतानी पड़ती हैं। वह झुंझलाती है, घुड़क बैठती है; लेकिन जब वह किशोर आग्रह करके उसकी गोद में बैठ जाता है, तो उसे दया आ जाती है। छुट्टियों के दिन शंखधर पितृगृह के दर्शन करने अवश्य जाता है। वह घर उसके लिए तीर्थ है, वह भक्त की श्रद्धा और उपासक के प्रेम से उस घर में कदम रखता है और जब तक वहां रहता है उस पर भक्ति-गर्व का नशा-सा छाया रहता है। निर्मला की आंखें उसे देखने से तृप्त ही नहीं होतीं। उसके घर में आते ही प्रकाश-सा फैल जाता है। वस्तुओं की शोभा बढ़ जाती है, दादा और दादी दोनों उसकी बालोत्साह से भरी बातें सुनकर मुग्ध हो जाते हैं, उनके हृदय पुलकित हो उठते हैं। ऐसा जान पड़ता है, मानो चक्रधर स्वयं बालरूप धारण करके उनका मन हरने आ गया है।
एक दिन निर्मला ने कहा–बेटा, तुम यहीं आकर क्यों नहीं रहते? तुम चले जाते हो, तो यह घर काटने दौड़ता है।
शंखधर ने कुछ सोचकर गंभीर भाव से कहा–अम्मांजी तो आती ही नहीं। वह क्यों कभी यहां नहीं आती, दादीजी?
निर्मला–क्या जाने बेटा,मैं उनके मन की बात क्या जानूं? तुम कभी कहते नहीं। आज कहना, देखो क्या कहती हैं।
शंखधर–नहीं दादीजी, वह रोने लगेंगी। जब थोड़े दिनों में मैं गद्दी पर बैठेगा, तो यही मेरा राजभवन होगा। तभी अम्मांजी आएंगी।
निर्मला–जल्दी से बैठो बेटा, हम भी देख लें।
शंखधर–मैं बाबूजी के नाम से एक स्कूल खोलूंगा, देख लेना। उसमें किसी लड़के से फीस न ली जाएगी।
वज्रधर–और हमारे लिए क्या करोगे, बेटा?
शंखधर–आपके लिए अच्छे-अच्छे सितारिए बुलाऊंगा। आप उनका गाना सुना कीजिएगा। आपको गाना किसने सिखाया, दादाजी?
वज्रधर–मैंने तो एक साधु से यह विद्या सीखी, बेटा! बरसों उनकी खिदमत की, तब कहीं जाकर वह प्रसन्न हुए। उन्होंने मुझे ऐसा आशीर्वाद दिया कि थोड़े ही दिनों में मैं गाने-बजाने में पक्का हो गया। तुम भी सीख लो बेटा, मैं बड़े शौक से सिखाऊंगा। राजाओं-महाराजाओं के लिए तो यह विद्या ही है बेटा, वही तो गुणियों का गुण परखकर उनका आदर कर सकते हैं। जिन्हें यह विद्या आ गई, बस, समझ लो कि उन्हें किसी बात की कमी न रहेगी। वह जहां रहेगा, लोग उसे सिर-आंखों पर बिठाएंगे। मैंने तो एक बार इसी विद्या की बदौलत बदरीनाथ की यात्रा की थी। पैदल चलता था। जिस गांव में शाम हो जाती, किसी भले आदमी के द्वार पर चला जाता और दो-चार चीजें सुना देता। बस, मेरे लिए सभी बातों का प्रबंध हो जाता था।
शंखधर ने विस्मित होकर कहा–सच! तब तो मैं जरूर सीलूँगा।
वज्रधर–जरूर सीख लो बेटा! लाओ आज ही से आरंभ कर दूं।
शंखधर को संगीत से स्वाभाविक प्रेम था। ठाकुरद्वारे में जब गाना होता, वह बड़े चाव से सुनता। खुद भी एकांत में बैठा गुनगुनाया करता था। ताल-स्वर का ज्ञान उसे सुनने ही से हो गया था। एक बार भी कोई राग सुन लेता, तो उसे याद हो जाता। योगियों के कितने ही गीत उसे याद थे। खंजरी बजाकर वह सूर, कबीर, मीरा आदि संतों के पद गाया करता था। इस वक्त जो उसने कबीर का एक पद गाया, तो मुंशीजी उसके संगीत-ज्ञान और स्वर-लालित्य पर मुग्ध हो गए। बोले-बेटा, तुम तो बिना सिखाए ही ऐसा गा लेते हो। तुम्हें तो मैं थोड़े ही दिनों में ऐसा बना दूंगा कि अच्छे-अच्छे उस्ताद कानों पर हाथ धरेंगे। आखिर मेरे ही पोते तो हो। बस, तुम मेरे नाम पर एक संगीतालय खोल देना।
शंखधर–जी हां, उसमें यही विद्या सिखाई जाएगी।
निर्मला–अपनी बुढ़िया दादीजी के लिए क्या करोगे, बेटा?
शंखधर–तुम्हारे लिए एक डोली रख दूंगा, जिसे दो कहार ढोएंगे। उसी पर बैठकर तुम नित्य गंगास्नान करने जाना।
निर्मला–मैं डोली पर न बैलूंगी। लोग हंसेंगे कि नहीं, कि राजा साहब की दादी डोली पर बैठी जा रही है।
शंखधर–वाह ! ऐसे आराम की सवारी और कौन होगी?
इस तरह दोनों प्राणियों का मनोरंजन करके जब वह चलने लगा, तो निर्मला द्वार पर खड़ी हो गई, जहां से वह मोटर को दूर तक जाते हुए देखती रहें।
सहसा शंखधर ड्योढ़ी में खड़ा हो गया और बोला-दादीजी, आपसे कुछ मांगना चाहता हूँ।
निर्मला ने विस्मित होकर सजल नेत्रों से उसे देखा और गद्गद होकर बोली–क्या मांगते हो, बेटा?
शंखधर–मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मेरी मनोकामना पूरी हो!
निर्मला ने पोते को कंठ से लगाकर कहा–भैया, मेरा तो रोयां-रोयां तुम्हें आशीर्वाद दिया करता है ! ईश्वर तुम्हारी मनोकामनाएं पूरी करें।
शंखधर ने उनके चरणों पर सिर झुकाया और मोटर पर जा बैठा। निर्मला चौखट पर खड़ी, मोटर कार को निहारती रहीं। मोड़ पर आते ही मोटर तो आंखों से ओझल हो गई, लेकिन उस समय तक वहां से न हटीं, जब तक उसकी ध्वनि क्षीण होते-होते आकाश में विलीन न हो गई। अंतिम ध्वनि इस तरह कान में आई, मानो अनंत की सीमा पर बैठे किसी प्राणी के अंतिम शब्द हों। जब यह आधार भी न रह गया, तो निर्मला रोती हुई अंदर चली गईं।
शंखधर घर पहुंचा, तो अहिल्या ने पूछा–आज इतनी देर कहाँ लगाई, बेटा? मैं कब से तुम्हारी राह देख रही हूँ।
शंखधर–अभी तो ऐसी बहुत देर नहीं हुई, अम्मां! जरा दादीजी के पास चला गया था। उन्होंने तुम्हें आज एक संदेशा कहला भेजा है।
अहिल्या–क्या संदेशा है, सुनूं? कुछ तुम्हारे बाबूजी की खबर तो नहीं मिली है?
शंखधर–नहीं! बाबूजी की खबर नहीं मिली। तुम कभी-कभी वहां क्यों नहीं चली जातीं? अहिल्या–क्या इस विषय में कुछ कहती थीं?
शंखधर–कहती तो नहीं थीं, पर उनकी इच्छा ऐसी मालूम होती है। क्या इसमें कोई हर्ज है?
अहिल्या ने ऊपरी मन से यह तो कह दिया-हर्ज तो कुछ नहीं, हर्ज क्या है, घर तो मेरा वही है, यहां तो मेहमान हूँ, लेकिन भाव से साफ मालूम होता था कि वह वहां जाना उचित नहीं समझती। शायद वह कह सकती, तो कहती-वहां से तो एक बार निकाल दी गई, अब कौन मुंह लेकर जाऊं? क्या अब मैं कोई दूसरी हो गई हूँ? बालक से यह बात कहनी मुनासिब न थी।
अहिल्या तश्तरी में मिठाइयां और मेवे लाई और एक लौंडी से पानी लाने को कहकर बेटे से बोली-वहां तो कुछ जलपान न किया होगा, खा लो। आज तुम इतने उदास क्यों हो?
शंखधर ने तश्तरी की ओर बिना देखे ही कहा–इस वक्त तो खाने का जी नहीं चाहता, अम्मां !
एक क्षण के बाद उसने कहा–क्यों अम्मांजी, बाबूजी को हम लोगों की याद भी कभी आती होगी?
अहिल्या ने सजल नेत्र होकर कहा–क्या जाने बेटा, याद आती तो काले कोसों बैठे रहते। शंखधर–क्या वह बड़े निष्ठुर हैं, अम्मां? अहिल्या रो रही थी, कुछ न बोल सकी।
शंखधर–मुझे देखें, तो पहचान जाएं कि नहीं, अम्मांजी? अहिल्या फिर भी कुछ न बोली-उसका कंठ-स्वर अश्रुप्रवाह में डूबा जा रहा था।
शंखधर ने फिर कहा–मुझे तो मालूम होता है अम्मांजी, कि वह बहुत ही निर्दयी हैं, इसी से उन्हें हम लोगों का दुःख नहीं जान पड़ा। अगर वह भी इसी तरह रोते, तो जरूर आते। मुझे एक दफा मिल जाते, तो मैं उन्हें कायल कर देता। आप न जाने कहाँ बैठे हैं, किसी का क्या हाल हो रहा है, इसकी सुधि ही नहीं। मेरा तो कभी-कभी ऐसा चित्त होता है कि देखू तो प्रणाम तक न करूं, कह दूं-आप मेरे होते कौन हैं, आप ही ने तो हम लोगों को त्याग दिया है।
अब अहिल्या चुप न रह सकी, कांपते हुए स्वर में बोली–बेटा, उन्होंने हमें त्याग नहीं दिया है। वहां उनकी जो दशा हो रही होगी, उसे मैं ही जानती हूँ। हम लोगों की याद एक क्षण के लिए भी उनके चित्त से न उतरती होगी। खाने-पीने का ध्यान भी न रहता होगा। हाय ! यह सब मेरा ही दोष है, बेटा ! उनका कोई दोष नहीं।
शंखधर ने कुछ लज्जित होकर कहा–अच्छा अम्मांजी, यदि मुझे देखें, तो वह पहचान जाएं कि नहीं?
अहिल्या–तुझे? मैं तो जानती हूँ, न पहचान सकें। तब तू बिल्कुल जरा-सा बच्चा था। आज उनको गए दसवां साल है। न जाने कैसे होंगे। मैं तो तुम्हें देख-देखकर जीती हूँ, वह किसको देखकर दिल को ढाढ़स देते होंगे। भगवान् करें, जहां रहें, कुशल से रहें। बदा होगा, तो कभी भेंट हो ही जाएगी।
शंखधर अपनी ही धुन में मस्त था, उसने यह बातें सुनी ही नहीं। बोला-लेकिन अम्मांजी, मैं तो उन्हें देखकर फौरन पहचान जाऊं। वह जाने किसी भेष में हों, मैं पहचान लूंगा।
अहिल्या–नहीं बेटा, तुम भी उन्हें न पहचान सकोगे। तुमने उनकी तस्वीरें ही देखी हैं। ये तस्वीरें बारह साल पहले की हैं। फिर उन्होंने केश भी बढ़ा लिए होंगे।
शंखधर ने कुछ जवाब न दिया। बगीचे में जाकर दीवारों को देखता रहा। फिर अपने कमरे में आया और चुपचाप बैठकर सोचने लगा। उसका मन भक्ति और उल्लास से भरा हुआ था। क्या मैं ऐसा बहुत छोटा हूँ? मेरा तेरहवां साल है। छोटा नहीं हूँ। इसी उम्र में कितने ही आदमियों ने बड़े-बड़े काम कर डाले हैं। मुझे करना ही क्या है? दिन भर गलियों में घूमना और संध्या समय कहीं पड़ रहना। यहां लोगों की क्या दशा होगी, इसकी उसे चिंता न थी। राजा साहब पागल हो जाएंगे, मनोरमा रोते-रोते अंधी हो जाएगी, अहिल्या शायद प्राण देने पर उतारू हो जाए , इसकी उसे इस वक्त बिल्कुल फिक्र न थी। वह यहां से भाग निकलने के लिए विकल हो रहा था।
एकाएक उसे खयाल आया, ऐसा न हो कि लोग मेरी तलाश में निकलें, थाने में हुलिया लिखाएं, खुद भी परेशान हों, मुझे भी परेशान करें, इसीलिए उन्हें इतना बतला देना चाहिए कि मैं कहाँ और किस काम के लिए जा रहा हूँ। अगर किसी ने मुझे जबरदस्ती लाना चाहा, तो अच्छा न होगा। हमारी खुशी है, जब चाहेंगे आएंगे, हमारा राज्य तो कोई नहीं उठा ले जाएगा। उसने एक कागज पर यह पत्र लिखा और अपने बिस्तरे पर रख दिया–
‘सबको प्रणाम्, मेरा कहा–सुना माफ कीजिएगा। मैं आज अपनी खुशी से पिताजी को खोजने जाता हूँ। आप लोग मेरे लिए जरा भी चिंता न कीजिएगा, न मुझे खोजने के लिए ही आइएगा, क्योंकि मैं किसी भी हालत में बिना पिताजी का पता लगाए न आऊंगा। जब तक एक बार दर्शन न कर लूं और पूछ न लूं कि मुझे किस तरह से जिंदगी बसर करनी चाहिए, तब तक मेरा जीना व्यर्थ है। मैं पिताजी को अपने साथ लाने की चेष्टा करूंगा। या तो उनके दर्शनों से कृतार्थ होकर लौटंगा या इसी उद्योग में प्राण दे दूंगा। अगर मेरे भाग्य में राज्य करना लिखा है, तो राज्य करूंगा, भीख मांगना लिखा है, तो भीख मांगूंगा, लेकिन पिताजी के चरणों की रज माथे पर बिना लगाए, उनकी कुछ सेवा किए बिना मैं घर न लौटूंगा। मैं फिर कहता हूँ कि मुझे वापस लाने की कोई चेष्टा न करे, नहीं तो मैं वहीं प्राण दे दूंगा। मेरे लिए यह कितनी लज्जा की बात है कि मेरे पिताजी तो देश-विदेश मारे-मारे फिरें और मैं चैन करूं। यह दशा अब मुझसे नहीं सही जाती। कोई यह न समझे कि मैं छोटा हूँ, भूल-भटक जाऊंगा। मैंने ये सारी बातें अच्छी तरह सोच ली हैं। रुपए पैसे की भी मुझे जरूरत नहीं। अम्मांजी, मेरी आपसे यही प्रार्थना है कि आप दादाजी की सेवा कीजिएगा, और समझाइएगा कि वह मेरे लिए चिंता न करें। रानी अम्मां को प्रणाम, बाबाजी को प्रणाम।’
आधी रात बीत चुकी थी। शंखधर एक कुर्ता पहने हुए कमरे से निकला। बगल के कमरे में राजा साहब आराम कर रहे थे। वह पिछवाड़े की तरफ बाग में गया और एक अमरूद के पेड़ पर चढ़कर बाहर की तरफ कूद पड़ा। अब उसके सिर पर तारिकामंडित नीला आकाश था, सामने विस्तृत मैदान और छाती में उल्लास, शंका और आशा से धड़कता हुआ हृदय। वह बड़ी तेजी से कदम बढ़ाता हुआ चला; कुछ नहीं मालूम कि किधर जा रहा है, तकदीर कहाँ लिए जाती है।
ऐसी ही अंधेरी रात थी, जब चक्रधर ने इस घर से गुप्त रूप से प्रस्थान किया था। आज भी वही अंधेरी रात है, और भागने वाला चक्रधर का आत्मज है। कौन जानता है, चक्रधर पर क्या बीती? शंखधर पर क्या बीतेगी, इसे भी कौन जान सकता है? इस घर में उसे कौन-सा सुख नहीं था? उसके मुख से कोई बात निकलने भर की देर थी, पूरा होने में देर न थी। क्या ऐसी भी कोई वस्तु है, जो इस ऐश्वर्य, भोग-विलास और राजपाट से प्यारी है?
अभागिनी अहिल्या ! तू पड़ी सो रही है। एक बार तूने अपना प्यारा पति खोया और अभी तक तेरी आंखों में आंसू नहीं थमे। आज फिर तू अपना प्यारा पुत्र, अपना प्राणाधार, अपना दुखिया का धन खोए देती है। जिस संपत्ति के निमित्त तूने अपने पति की उपेक्षा की थी, वही संपत्ति क्या आज तुझे अजीर्ण नहीं हो रही है?
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