चैप्टर 4 विपात्र गजानन माधव मुक्तिबोध का उपन्यास | Chapter 4 Vipatra Gajanan Madhav Muktibodh Ka Upanyas
Chapter 4 Vipatra Gajanan Madhav Muktibodh Ka Upanyas
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मेरे व्यक्तिगत इतिहास का यह एक सबसे विचित्र रहस्य है कि मुझे अपने जीवन में ऐसे ही लोग प्राप्त हुए जो किसी-न-किसी प्रकार से आहत थे। इन आहतों को पहचानने में मुझे तकलीफ होती। आहतों का भी अपना एक अहंकार होता जिसे मैं खूब पहचानता था और वह अहंकार बहुत दृढ़ होता है। वह उस मुंड-हीन कबंध के समान है, जो पराजय के बावजूद रणक्षेत्र में खून के फव्वारे छोड़ते हुए लड़ता रहता है। उसमें मात्र आवेग और गति होती है जो कि सिर न होने के सबब शून्य में चारों ओर तलवार चलाता रहता है। क्या जगत वैसा है? मेरे ख्याल से वह ऐसा हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है।
दूसरी ओर, राव साहब किसी विश्वविख्यात, विश्वपूजित स्तूप के चपटे तल पर, हाँ, किसी प्राचीन गौरव-स्तूप पर, कोई चाय-पार्टी जमा रहे थे – अभिमान सहित, शालीनतापूर्वक, नम्रता और गौरव के साथ। लोगों का अभिवादन करते हुए वह एक-एक टुकड़ा और सैंडविच खाने का अनुरोध कर रहे हैं। उनके गदबदे और पृथुल शरीर के श्यामल मुखमंडल पर प्राचीन गौरव की सम्मानपूर्ण आभा के साथ ही स्वयं के प्रति गहरा संतोष व्यक्त हो रहा था।
मैं इन दोनों को इसी रूप में अपनी आँखों के सामने पाता हूँ। जगत नि:संदेह बेवकूफ था। लेकिन वह इसलिए बेवकूफ नहीं था कि उसके पास यूरोपीय साहित्य का ज्ञान था। यह सच है कि न हम, न हमारा शहर, न हमारा प्रांत, उसके ज्ञान का उपयोग कर पाता था, न उसका मूल्य समझता था। लेकिन इसमें जगत का स्वयं का दोष नहीं था। यदि वह ऐसा ज्ञान रखता है और उस ज्ञान में रमा रहता है जिसका हम मूल्य नहीं समझते या जिसे प्राप्त करने की हममें इच्छा नहीं है तो हमारे लेखे वह ज्ञान निरर्थक है, उसी से निर्मित और विकसित व्यक्तित्व को हम यदि आदर प्रदान न करें, उपेक्षा ही करें, मगर उस पर दया तो न करें। सच बात तो यह है कि उनके लेखे जगत की बड़ी भूल यह थी कि वह उनके समान नहीं था, उनके ढाँचे में जमता नहीं था और ऐसे निरर्थक ज्ञान में व्यर्थ ही डूबा रहता था जिससे फिजूल ही वक्त बरबाद होता, ऊँचा ओहदा न मिल पाता और उनके लेखे जिंदगी अकारथ हो कर बरबाद हो जाती।
जगत बेवकूफ इसलिए था कि यद्यपि वह कैरियर नहीं बना सकता था (थाली में परसे लड्डू को उठाने की भाँति भले ही वह ऑक्सफोर्ड या हॉवर्ड से डिग्री ले आए) लेकिन उसके बारे में सोचा करता था। उसमें सामाजिक क्षेत्र में घुसने और पैठने की शक्ति बिल्कुल नहीं थी। उसे विभिन्न प्रकार के, विभिन्न स्वभाव और विभिन्न व्यक्तिगत इतिहास रखनेवाले लोगों का अनुभव नहीं था। वह अभी बच्चा ही था। उसकी उम्र तेईस-चौबीस साल की थी। उसके दिल और दिमाग का चमड़ा अभी मजबूत नहीं था। वह अभी मनुष्यता का सहज विश्वास कर जाता था और उसे मालूम ही नहीं हो पाता था कि आखिर लोग उस पर क्यों हँस रहे हैं!
जगत में बड़ी-बड़ी खामियाँ थीं जिनमें से एक यह थी कि उसके अंत:करण में नफीस लेकिन सादे और कीमती पोशाक पहनने वाले उन गंभीर मुद्राओं के प्रोफेसरों और अध्यापकों की कॉलर में उच्चतर ज्ञान के हीरे-मोती लगे हुए थे जो युनिवर्सिटी और कॉलेजों की बड़ी बिल्डिंगों के कॉरिडरों और कमरों में घूमते रहते हैं। यह बिल्कुल सही है कि हमारे यहाँ धन वह सुविधा उत्पन्न करता है जिसके आधार पर लोग ऊँचा ज्ञान प्राप्त करते हैं और बड़ी सफाई के साथ ऊँची बातचीत करते हैं। लेकिन ज्ञान के आलोक को धन के आलोक में मिला करके और फिर ज्ञान की उद्दीप्त मनोमूर्ति खड़ी करके देखने से अपनी बौनी परिस्थितियों से और उन परिस्थितियों से घूमनेवाले लोगों से अजीब फासले पैदा हो जाते हैं।
जगत अपने बचपन में ईसाई कॉनवेंट स्कूलों में पढ़ा था। इसीलिए उसकी अंगरेजी बड़ी सरल और स्वाभाविक हो गई थी। उसने ईसाइयत के उत्तमोत्तम नैतिक गुणों को आत्मसात करना चाहा था और साथ ही उन्हें अपने निज की भारतीय संस्कृति से मिला लिया था। ‘सर्मन ऑफ द माउंट’ से ले कर ‘पृथ्वी सूक्त’ तक में वह रस लेता था।।
जगत बेवकूफ इसलिए भी था कि अमरीकी जनता की महान उपलब्धियों को अमरीकी सरकार और उसकी विदेश-नीति से मिला कर देखता। परिणामत:, जब डलेस कोई गलती करता या ऑइजनहॉवर कुछ गड़बड़ कर जाता तो उसे अपार दु:ख होता! उसके पास कोई राजनीतिक दृष्टिकोण नहीं था और उस अभाव के रिक्त स्थान पर अमरीका या यूरोप तथा भारत के भयानक दक्षिणपंथी राजनीतिज्ञ उसके हृदय में आसन जमाए बैठे थे। यहाँ तक कि बंबई-चुनाव में मेनन की जीत भी उसे अच्छी लगी नहीं। उसका ख्याल था कि बंबई अमरीका में भारतीय दोस्तों ने जितना काम किया, वह काम आधे दिल से किया होगा। वह साम्यवाद से और रूस-चीन से भयानक दुश्मनी रखता था और वह इस संभावना से डरता रहता था कि कहीं ऐसा न हो कि अमरीका से पहले रूस चाँद पर पहुँच जाए।
हमारे बॉस जगत के इस राजनीतिक रुख से बहुत खुश थे। लेकिन वे जनता से डरते थे क्योंकि अमरीका-परस्ती जनता में न केवल लोकप्रिय नहीं थी वरन सामने का पानवाला और उसके आस-पासवाले गंदी और बौनी होटल में बैठे हुए मैले-कुचैले लोग भी अमरीका को गाली देते थे। अमरीका पर किसी का विश्वास नहीं था।
इस भावना को जगत भी जानता था। इसलिए उड़ते-उड़ते ही वह मुझसे राजनीतिक बात-चीत करता और उस बात-चीत के दौरान में भारतीय अखबारों में प्रकाशित समाचारों का एक ढाँचा बनाते हुए लेकिन कोई आलोचना न करते हुए, मैं उसकी बात का खंडन कर देता, किसी विरोधी तथ्य पर उसका ध्यान खींचता। यही कारण है कि क्रमश: उसकी ज्ञान-ग्राही बुद्धि मेरी अवहेलना न कर सकी और मेरी ओर खिंचती चली गई। इसका श्रेय मैं अवश्य लूँगा कि मैंने उसे किसी भी देश के शासक और जनता – इन दो के बीच की एकता और मित्रता पहचानने की युक्तियाँ सिखलाईं।
यह निश्चित था कि मैं और वह दोनों आपस में टकरा जाते।
व्यक्तियों की टकराहट बहुत बुरी होती है, जहर पचने से फैलता है, कीचड़ उछालने से उछालनेवाले के और झेलनेवाले के – दोनों के चेहरे बदसूरत हो जाते हैं। मैं हमेशा दो प्रकार के परस्पर-विरोधों में भेद करता आया हूँ। एक वे जो सही हैं, जहाँ वे तेज होते रहने चाहिए;ा्रभ्ज्ञ
और एक वे जो गलत हैं, जहाँ वे होने ही नहीं चाहिए। जैसे राजनीति में वैसे ही मानव-संबंधों के क्षेत्र में भी हमें सही विरोधों को, उनके सही-सही अनुपात में, सही-सही जगह और सही-सही ढंग से जरूर बनाए रखना चाहिए – यहाँ तक कि तेज करना चाहिए। यहाँ झुकने की जरूरत नहीं है। लेकिन कुछ ऐसे परस्पर-विरोध होते हैं, जो हम हमारी नासमझी, कम समझी अथवा क्षुद्र अहंमूलक स्वार्थ से उत्पन्न होते हैं। मानव-संबंध उलझ इसीलिए जाते हैं कि हम गलत जगह झगड़ा कर लेते हैं और गलत जगह झुक जाते हैं।
अगर कोई दूसरा शहर होता तो शायद जगत का और मेरा यदि परिचय होता तो भी पट नहीं सकता था, जम नहीं सकता था। लेकिन परिस्थिति दोनों को एक साथ ले आई। मैं लोगों में उठता-बैठता। उनसे फिजूल टकराने की कोई कोशिश न करता और सारे समाज में रह कर भी एक अत्यंत तीव्र नि:संगता और अजनबीपन महसूस करता। लगभग दो वर्षों के क्रमश: बढ़ते हुए प्रारंभिक परिचय के अनंतर मैंने जगत की आपेक्षिक निकटता प्राप्त की। और ज्यों ही हमने एक-दूसरे के सामीप्य अनुभव किया और साथ रहने लगे, त्यों ही लोगों की नजरों में आ गए और अखरने लगे। इस तरह मानो हममें से कोई-न-कोई व्यक्ति आपत्तिजनक हो और दूसरे को अपनी सुहबत से बिगाड़ रहा हो।
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