चैप्टर 4 सेवासदन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद

Chapter 4 Sevasadan Novel By Munshi Premchand

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कृष्णचन्द्र अपने कस्बे में सर्वप्रिय थे। यह खबर फैलते ही सारी बस्ती में हलचल मच गई। कई भले आदमी उनकी जमानत करने आये, लेकिन साहब ने जमानत न ली।

इसके एक सप्ताह बाद कृष्णचन्द्र पर रिश्वत लेने का अभियोग चलाया गया। महन्त रामदास भी गिरफ्तार हुए।

दोनों मुकदमे महीने भर तक चलते रहे । हाकिम ने उन्हें दीरे सुपुर्द कर दिया।

वहाँ भी एक महीना लगा। अंत में कृष्णचन्द्र को पाँच वर्ष की कैद हुई। महन्त जी सात वर्ष के लिए गये और दोनों चेलों को कालेपानी का दण्ड मिला।

गंगाजली के एक सगे भाई पण्डित उमानाथ थे। कृष्णचन्द्र की उनसे जरा भी न बनती थी। वह उन्हें धूर्त और पाखंडी कहा करते, उनके लंबे तिलक की चुटकी लेते। इसलिए उमानाथ उनके यहाँ बहुत कम आते थे।

लेकिन इस दुर्घटना का समाचार पाकर उमानाथ से न रहा गया। वह आकर अपनी बहन और भांजियों को अपने घर ले गए। कृष्णचन्द्र को सगा भाई न था। चाचा के दो लड़के थे, पर वह अलग रहते थे। उन्होंने बात तक न पूछी।

कृष्णचन्द्र ने चलते-चलते गंगाजली को मना किया था कि रामदास के रुपयों में से एक कौड़ी भी मुकदमे में न खर्च करना। उन्हें निश्चय था कि मेरी सजा अवश्य होगी। लेकिन गंगाजली का जी न माना। उसने दिल खोलकर रुपये खर्च किए। वकील लोग अंत समय तक यही कहते रहे कि वे छूट जायेंगे।
जज के फैसले की हाईकोर्ट में अपील हुई। महन्तजी की सजा में कमी न हुई। पर कृष्णचन्द्रजी की सजा घट गई। पाँच के चार वर्ष रह गए।

गंगाजली आने को तो मैके आई, पर अपनी भूल पर पछताया करती थी। यह वह मैका न था, जहाँ उसने अपनी बालकपन की गुड़ियाँ खेली थीं, मिट्टी के घरौंदे बनाये थे, माता पिता की गोद में पली थी। माता पिता का स्वर्गवास हो चुका था, गाँव में वह आदमी न दिखाई देते थे। यहाँ तक कि पेड़ों की जगह खेत और खेतों की जगह पेड़ लगे हुए थे। वह अपना घर भी मुश्किल से पहचान सकी और सबसे दुःख की बात यह थी कि वहाँ उसका प्रेम या आदर न था। उसकी भावज जाह्नवी उससे मुँह फुलाये रहती। जाह्नवी अब अपने घर बहुत कम रहती। पड़ोसियों के यहाँ बैठी हुई गंगाजली का दुखड़ा रोया करती। उसके दो लड़कियाँ थीं। वह भी सुमन और शांता से दूर-दूर रहतीं।

गंगाजली के पास रामदास के रुपयों में से कुछ न बचा था। यही चार पाँच सौ रुपये रह गये थे, जो उसने पहले काट-काटकर जमा किए थे। इसलिए वह उमानाथ से सुमन के विवाह के विषय में कुछ न कहती। यहाँ तक कि छः महीने बीत गये। कृष्णचंद्र ने जहाँ पहला संबंध ठीक किया था, वहाँ से साफ जवाब आ चुका था।

लेकिन उमानाथ को यह चिंता बराबर लगी रहती थी। उन्हें जब अवकाश मिलता, तो दो-चार दिन के लिए वर की खोज में निकल जाते। ज्योंही वह किसी गाँव में पहुँचते, वहाँ हलचल मच जाती। युवक गठरियों से वह कपड़े निकालते, जिन्हें वह बारातों में पहना करते थे। अंगूठियाँ और मोहनमाले मंगनी मांग कर पहन लेते। मातायें अपने बालकों को नहला-धुलाकर आँखों में काजल लगा देती और धुले हुए कपड़े पहनाकर खेलने को भेजतीं। विवाह के इच्छुक बूढ़े नाइयों से मूंछ कंटवाते और पके हुए बाल चुनवाने लगते| गाँव के नाई और कहार खेतों से बुला लिए जाते, कोई अपना बड़प्पन दिखाने के लिए उनसे पैर दबवाता, कोई धोती छंटवाता। जब तक उमानाथ वहाँ रहते, स्त्रियाँ घरों से न निकलती, कोई अपने हाथ से पानी न भरता, कोई खेत में न जाता। पर उमानाथ की आँखों में यह घर न जंचते थे। सुमन कितनी रूपवती, कितनी गुणशील, कितनी पढ़ी-लिखी लड़की है, इन मूर्खों के घर पड़कर उसका जीवन नष्ट हो जायेगा।

अंत में उमानाथ ने निश्चय किया कि शहर में कोई वर ढूंढना चाहिए। सुमन के योग्य वर देहात में नहीं मिल सकता। शहरवालों की लंबी-चौड़ी बातें सुनीं, तो उनके होश उड़ गये, बड़े आदमियों का तो कहना ही क्या, दफ्तरों में मुसद्दी और क्लर्क भी हजारों का राग अलापते थे। लोग उनकी सूरत देखकर भड़क जाते। दो-चार सज्जन उनकी कुल-मर्यादा का हाल सुनकर विवाह करने को उत्सुक हुए, पर कहीं तो कुंडली न मिली और कहीं उमानाथ का मन ही न भरा। वह अपनी कुल-मर्यादा से नीचे न उतरना चाहते थे।

इस प्रकार पूरा एक साल बीत गया। उमानाथ दौड़ते-दौड़ते तंग आ गये, यहाँ तक कि उनकी दशा औषधियों के विज्ञापन बांटने वाले उस मनुष्य की-सी हो गयी, जो दिन भर बाबू संप्रदाय को विज्ञापन देने के बाद संध्या को अपने पास विज्ञापनों का एक भारी पुलिंदा पड़ा हुआ पाता है और उस बोझ से मुक्त होने के लिए उन्हें सर्वसाधारण को देने लगता है। उन्होंने मान, विद्या, रूप और गुण की ओर से आँखे बंद करके कुलीनता को पकड़ा। इसे वह किसी भांति न छोड़ सकते थे।

माघ का महीना था। उमानाथ स्नान करने गये। घर लौटे, तो सीधे गंगाजली के पास जाकर बोले – “लो बहन, मनोरथ पूरा हो गया। बनारस में विवाह ठीक हो गया।“

गंगा० – “भला, किसी तरह तुम्हारी दौड़-धूप तो ठिकाने लगी। लड़का पढ़ता है न?”

उमानाथ – “पढ़ता नहीं, नौकर है। एक कारखाने में १५/- का बाबू है।“

गंगा० – “घर-द्वार है न?”

उमा० – “शहर में किसके घर होता है। सब किराये के घर में रहते हैं।“

गंगा० – “भाई-बंद, माँ-बाप हैं?”

उमा० – “माँ-बाप दोनों मर चुके हैं और भाई-बंद शहर में किसके होते है?”

गंगा० – “उमर क्‍या है?”

उमा० -“ यही, कोई तीस साल के लगभग होगी।“

गंगा० – “देखने-सुनने में कैसा है?”

उमा०- “सौ में एक। शहर में कोई कुरूप तो होता ही नहीं। सुंदर बाल, उजले कपड़े सभी के होते हैं और गुण, शील, बातचीत का तो पूछना ही क्‍या है? बात करते मुँह से फूल झड़ते हैं। नाम गजाधर प्रसाद है।“

गंगा० – “तो दुआह होगा?”

उमा० – “हाँ, है तो दुआह, पर इससे क्या? शहर में कोई बुड्ढा तो होता ही नहीं। जवान लड़के होते हैं और बुड्ढे जवान; उनकी जवानी सदाबहार होती है। वही हँसी-दिललगी, वही तेल-फुलेल का शौक। लोग जवान ही रहते हैं और, जवान ही मर जाते हैं।“

गंगा – “कुल कैसा है?”

उमा – “बहुत ऊँचा। हमसे भी दो विश्वे बड़ा है। पसंद है न?”

गंगाजली ने उदासीन भाव से कहा – “ जब तुम्हें पसंद है, तो मुझे भी पसंद ही है।“

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