चैप्टर 4 प्रभावती सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 4 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi
Chapter 4 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi
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इस बीच कुमार के स्वागत के कुल प्रबन्ध प्रभावती एक-एक याद करके कराती रही। दासियों को अभी तक यही मालूम था कि चैत की पूनो है, राजकुमारी नौका-विहार के लिए जाएँगी। किले की बगल में, घाट पर नाव लाकर लगा दी गई। दासियों ने नाव के नीचे और छत पर गद्दे बिछा दिए, कामदार चादरें लगा दीं। रेशमी तकिए, गुलाबपात्र, इत्रदान, पानदान, सोने के पात्रों में मदिरा, क्षुद्रमर्मर की पतली प्यालियाँ, हलका आसव, गन्धराज के गजरे, सजी फूलदानियाँ, मृदंग-मंजीरा, वीणा आदि वाघ, नृपूर-गुच्छ, ढाल-तलवार, तीर -कमान, बल्लम-साँग आदि अस्त्र-शस्त्र तथा अन्यान्य आवश्यक सामान यथास्थान सजा दिए। पाचक अनेक प्रकार के पक्वान्न, मिष्ठान्न, सामिष-निरामिष भोजन, चबेना, अचारादि रख आया। मल्लाहों को खबर कर दी गई कि नाव खाली बहती हुई जाएगी; पतवार दासियाँ सँभालेंगी, वे लोग पिछली रात दूसरी नाव लेकर आठ-दस कोस का रास्ता जल्द तय करें, वहाँ विश्राम होगा, फिर गुन खींचकर ले आवेंगे।
दासियाँ प्रभावती को सजाने लगीं। प्रति अंग नीलमों, हीरों और मोतियों से जगमग हो गया। वसन्ती रंग की, सच्चे कामवाली, रत्निजटित साड़ी तथा आभरणों की झुलसती स्निग्ध द्युति के बीच पृथ्वीं की प्रभावती आकाश की शशिकला से अधिक सुन्दरी, अधिक शोभना हो गई। मस्तक पर अर्द्ध-चन्द्राकृति, सोने के लता-भुजों से आयत, ललित चूड़ामणि-ऊपर श्वेत कोमल पक्ष, मध्य में नीलम, दोनों ओर कन्नियों पन्नों के फूलों में, बड़े से छोटे, क्रमानुसार हीरे, नाक में एक ओर मणि बिन्दु; पद्यराग की कंठी; ऊँचे पुष्ट वक्ष पर शुभ्र मुक्ताओं की हारावलि; हाथों में मणियुक्त विविध भुज-बन्ध, कंकणादि, कटि में रिणिन्- कारिका, सप्तावृत्ति, श्लथ किंकिणी; पदों में नूपुर, पायल आदि; मुक्त केश, वासित; अधरों में ताम्बूल-रक्त राग; आयत सलज्ज आँखो में क्षीण प्रलम्ब कज्जल-रेखाएँ। पुतलियों में चपल रहस्य-हास्य; प्राणों में मृदु-मृदु प्रणय-स्पन्द।
अभ्र की सजी नाव की सहस्रों लता-पुष्पाकृति बत्तियाँ जल गई। जल में मुक्त-पुच्छ मयूर लहरों में हिलता सचल दिखने लगा। खिड़कियों के रंगीन रेशमी द्वितीय-बन्धनी-रूप में कटे पर्दे चमकने लगे, उनकी जरी की लहरें और सच्ची झालरें चकाचौंध करने लगीं। बीच-बीच मालाकृति मोतियों की लड़ियाँ, तरुणी के वक्ष पर, ज्योतिश्चुम्बिनी, साभरणा सद्यःपरिणीता तरुणी की कलिमालाएँ बन गईं। जगह-जगह लाल, नीलम और हीरे रंगीन द्युति की रेखाओं से आकाश के तारों से भले लगने लगे।
प्रभा के पिता कान्यकुब्जेश के कार्य से बाहर थे। माता की आज्ञा वह ले चुकी थी। मुकुर देखकर अपने कक्ष में बैठी हुई यमुना के सन्देश का पथ देख रही थी। दो दासियाँ यमुना की सहायता के लिए और दी गई थीं।
यमुना भी जल्दी कर रही थी। राजकुमार के अस्त्र खोलवाकर वस्त्र बदलवा दिए। घोड़े के लिए प्रबन्ध कर दिया। फिर लाए हुए वासितवसन उत्तरीय, चन्दन-कुंकुम और पुष्प-माल्यादि दासी से लिवाकर महाराज को साथ लेकर गंगातट पर गई। कुमार को सविधि स्नान-पूजन से निवृत्त कर गंगाजी को पुनः माला चढ़ाने की ध्वनि-पूर्ण सलाह दी। साथ लिया अर्थ महाराज को दान करा वहीं प्रसाद-रूप किंचित जल-पान करा दिया। फिर दासियों को इशारा करके भेज दिया और महाराज को भी, प्रतीक्षा में कष्ट होगा, समझाकर, सरल स्वर से कल तक लौटने की बात सुझा दी-क्योंकि समागत यजमान को अपर मित्रों से मिलना होगा, सम्भव, वहीं रह जाना हो। फिर अपनी बात की याद दिला दी कि भूलने से भला न होगा। महाराज भक्तिपूर्वक स्वीकार करके, आशीर्वाद देते हुए चले गए।
प्रभावती को खबर मिली कि यमुना तैयार हो चुकी है। इन दो दासियों के साथ अपने मन की तीन और दासियों को लेकर प्रभावती उतरने के लिए चली।
राजकुमार साधारण पहनावे में थे-पट्टवास और उत्तरीय। चाँदनी में भी रंग नहीं खुला। प्रभा की इच्छानुसार यमुना उनके लिए भी वासन्ती वस्त्र ले गई थी, जो नहाकर पहने थे। कुमार खड़े-खड़े एकान्त ज्योत्स्नाकाश के नीचे जाह्नवी की विपुल शोभा देखते हुए देश के पुण्य-श्लोक महात्माओं की शान्त महिमा में लीन हो रहे थे, फिर बाहरी संसार में आ तरुणी की लघु मनोहर शोभा देखकर अनेक काल्पनिक छवियों में भूलते हुए वृहत् और लघु के उदार और चपल सौन्दर्य की एक ही निरुपमता एक-एक बार तौलते थे, कभी अपने दुर्ग से द्विगुण उच्च आकाशचुम्बी इस दुर्ग की दुरा-रोहता पर सोचने लगते थे। यमुना प्रभावती की प्रतीक्षा कर रही थी। इच्छा थी, इन प्रत्यक्ष सभी सौन्दर्यों से आकर्षक उन्हें दूसरा दृश्य दिखाएगी।
गंगा के ठीक किनारे उच्च दुर्ग ऊपर खुला हुआ है। नीचे से साफ देख पड़ता है। वहीं से गंगा-वक्ष पर उतरने की सीढ़ियाँ हैं। प्रभावती वहीं, सोपानमूल पर, धीरे-धीरे आकर खड़ी हो गई। रात का पहला पहर बीत चुका है। सारी प्रकृति स्तब्ध हो चली है। कुमार को सोचते हुए समझकर यमुना ने कहा, “कुमार देखो, दुर्ग पर सखी उतरनेवाली हैं-खड़ी तुम्हारी तरह कुछ सोच रही हैं।”
राजकुमार ने देखा। यह दूसरी छवि थी। सर्वेश्वर्यमयी स्वर्ग की लक्ष्मी भक्त पर प्रसन्न होकर स्वर्ग से उतरना चाहती हैं; मौन हिमाद्रि किरण-विच्छुरितच्छवि गौरी को परिचारिकाओं के संग बढ़ाकर आकाश-रूप शंकर को समर्पित करना चाहता है, विश्वप्लाविनी इस मौन ज्योत्स्नारागिनी की साकार प्रतिमा अपनी मूर्त्त झंकारों के साथ निस्पन्द खड़ी जीवन-रहस्य को ध्यान कर रही है।
प्रभा उतरने लगी। अकूल ज्योस्त्ना के शुभ्र समुद्र में आकुल पदों की नुपूर ध्वनि-तरंगें कितने प्रिय अर्थों से दिगन्त के उर में गूँजने लगीं। प्रभा का हृदय अनेक सार्थक कल्पनाओं से द्रवीभूत होने लगा। बार-बार पुलक में पलकों तक डूबती रही। सोपान-सोपान पर सुरंजिता, शिंजिता चरण उतरती हुई, प्रतिपद क्षेत्र-झंकार कम्प-कमल पर, चापल्य से लज्जित कमल-सी रुकती रही। उरोजों से गुण-चिह्न जैसे आए झीने चित्रित समीर-चंचल उत्तरीय को दोनों हाथों से पकड़े उड़ते आँचलों से, प्रिय के लिए स्वर्ग से उतरती अप्सरा हो रही थी।
यमुना मुस्कुराती रही। राजकुमार देखते रहे। स्वप्न और जागृति के छाया-लोक में प्रति प्रतिमा पंचेन्द्रिग्राह्य संसार में अत्यन्त निकट होकर भी जिस तरह दूर-बहुत दूर है, उसी तरह परिचिता प्रभा का यह दूर सौन्दर्य प्राणों की दृष्टि में बँधा हुआ निकट-बहुत ही निकट है। उस स्वप्न को वे उतने ही सुन्दर रूप से देख रहे हैं, जितने से संज्ञा के अन्तिम प्रान्त में पहुँचकर भक्त और कवि अपनी दैवी-प्रतिमा को प्रत्यक्ष करते हैं। अल्पदृश्य प्रभावती कितनी विशिष्टता से, प्रति अंग की कितनी कुशलता से, कितनी स्पष्टता से प्रिय कुमार की ईप्सित दृष्टि में उतर रही है।
प्रभा नाव पर बैठ गई। नाव खोलकर सेविकाएँ चढ़ गईं। एक ने पतवार सँभाली, दोरंगी बल्लियाँ लेकर बीच की ओर ले चलने का उपक्रम करने लगी। प्रभा वीणा सँभालकर स्वर मिलाने लगी। इस रूप में साक्षात् शारदा को देखकर राजकुमार की भाषा अपनी ही हद में बँधकर रह गई।
क्रमश:
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