चैप्टर 4 परिणीता : शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास | Chapter 4 Parineeta Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 4 Parineeta Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 4 Parineeta Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

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उस मोहल्ले में अक्सर एक दीन-दुखी बूढ़ा फकीर भीख मांगने आया करता था। उस बेचारे पर ललिता की बड़ी ममता थी। जब कभी वह भजन गाकर भिक्षा मांगता था, तो ललिता उसे एक रूपया दिया करती थी। एक रूपया प्राप्त होने पर उसके आनंद का ठिकाना न रहता था। ललिता को वह सैकड़ों आशीर्वाद देता था और वह बड़े चाव से उन आशीर्वादों को सुनती थी।

फकीर कहता था- ‘ललिता उस जन्म की मेरी माँ है!’

पहली दृष्टि पड़ते ही फकीर उसे अपनी माँ समझने लगा है। वह बड़े ही करूण स्वर में उसे अपनी माँ कहकर पुकारता है। आज भी उसने आते ही माँ को पुकार- ‘ओ माँ! मेरी माँ तुम आज कहाँ हो?’

आज इन प्रकार अपने बेटे की आवाज सुनते ही ललिता कठिनाई में पड़ गई। आखिर वह इस समय उसको रूपया दे, तो कहाँ से दे? इस समय शेखऱ घर में ही मौजूद होंगे और वह उनके सामने रूपया लाने जाए कैसे? वह उससे नाराज है। कुछ समय सोचते रहने के बाद वह अपनी मामी के पास गई। अभी-अभी उसकी मामी की झक-झक नौकरानी से हो गई थी। इस कारण मुँह लटकाए खाने की तैयारी कर रही थी। ऐसी स्थिति में ललिता को कुछ कहने की हिम्मत न हुई। वह वापस चली आई, और किवाड़ की ओट से देखा कि बूढ़ा फकीर चौंतरे पर अब भी बैठा है और भजन गाने में मस्त है। ललिता के हृदय में एक खलबली-सी मची थी। आज तक उसने इस फकीर को निराश नहीं लौटाया था, इसलिए वह आज भी लौटाना नहीं चाहती थी। उसका मन क्षुब्ध हो रहा था।

भिखारी ने फिर एक बार ‘माँ’ कहकर पुकारा।

इसी बीच अन्नाकाली दौड़ती हुई आई और उसने सूचना दी कि ‘दीदी, तुम्हारा बूढ़ा बेटा बड़ी देर से आवाज लगा रहा है!’

ललिता ने कहा- “मेरी अच्छी अन्नो! जरा सुन तो! अगर तू मेरा एक जरूरी काम कर दे तो मैं तुझे अच्छी-अच्छी चीजें दूंगी। तू जल्दी से चली जा, शेखर भैया से एक रूपया लेकर आ!”

अन्नाकाली तेजी से दौड़ती हुई गई और एक रूपया लाकर ललिता को दिया।

ललिता ने पूछा- “शेखर दादा ने देते समय कुछ कहा था?”

“कुछ भी नहीं! केवल यही कहा कि कोट की जेब से निकाल लो।“

“मेरे विषय में तो कुछ नहीं कहते थे?”

“नहीं! कुछ भी नहीं!” कहकर वह खेलने में लग गई।

रूपया लाकर ललिता ने उस बूढ़े भिखारी को दिया और चली गई। आज उसने आशीर्वाद तक न सुने। पता नहीं क्यों उसे कुछ भी अच्छा न लगता था। उसका चित्त परेशान था।

दोपहर के पश्चात् अन्नाकाली को बुलाकर पूछा- “अन्नो! आजकल तू अपने शेखर दादा से पढ़ने नहीं जाती?”

“जाती क्यों नहीं? रोज जाती हूँ!”

ललिता- “दादा मेरे बारे में कुछ नहीं पूछते?”

अन्ना- “नहीं! हाँ उन्होंने पूछा था कि ताश खेलने दोपहर को जाती हो या नहीं?”

बेचैनी के साथ ललिता ने फिर कहा- “फिर तूने क्या कहा?”

अन्नाकाली- “यही कि तुम चारू के यहाँ रोज ताश खेलने जाती हो! शेखर दादा ने पूछा- “तो खेलता कौन-कौन है?’ मैंने कहा- ‘चारू दीदी, तुम, मौसी औऱ चारू के मामा।’ अच्छा दीदी! तुम सब में अच्छा कौन खेलता है? तुम या चारू के मामा? मौसी तो कहा करती है कि तुम अच्छा खेलती हो!”

यह सुनकर ललिता में मानो आग लग गई। वह डांटकर कहने लगी- “यह सब तूने क्यों कहा? पाजिन कहीं की! तू हर बात में आधी खिचड़ी पकाया करती है! चली जा मुँहजली, अब मैं तुझे कभी कुछ न दूंगी।“ यह कहकर ललिता वहाँ से चली गई।

ललिता के इस प्रकार बदलते हुए भावों से अन्नाकाली हैरान हो गई। उसकी कच्ची बुद्धि ने यह न समझा कि ललिता क्यों एकदम बिगड़ गई।

दो दिन से ताश का अड्डा नहीं जमता। ललिता के न आने से मनोरमा का खेल बंद हो गया है। मनोरमा के हृदय में यह संदेह भावना जागृत हो चुकी थी कि गिरीन्द्र ललिता की तरफ आकर्षित हो रहा है। उस पर रीझकर गिरीन्द्र बेचैन होता जा रहा है। मनोरमा ने देखा, यह दो दिन गिरीन्द्र ने कितनी परेशानी और बेचैनी से काटे हैं। यही नहीं, उसने बाहर घूमने जाना तक बंद कर दिया है। अब वह केवल कमरे में ही इधर-उधर उठता-बैठता दिन काट देता है।

तीसरे दिन दोपहर के समय उसने बहिन से कहा- “बहिन, क्या खेल आज तीन आदमी ही खेलें।“

मनोरमा की इस बात को सुनकर गिरीन्द्र का उत्साह भंग हो गया। वह बोला- “कहीं तीन आदमी में भी खेल होता है? उस घर की लड़की-जिसका नाम ललिता है, उसे बुला लो न, जीजी!”

मनोरमा- “वह न आयेगी।“

गिरीन्द्र उमंग में तुरंत बोल उठा- “क्यों नहीं आयेगी। उसके घरवालों ने मना कर दिया है या अपने से?”

“नहीं, वह अपने आप नहीं आती! उसके मामा-मामी के ऐसे भाव नहीं है।“

गिरीन्द्र के मुँह पर प्रसन्नता की झलक दौड़ गई। वह बोला- “फिर तो तुम्हारे जाने भर की देर है! जरा जाकर कह दोगी, तुरंत आ आयेगी!” यह बात गिरीन्द्र ने कह तो दी, पर अपने मन में संकोच कर रहा था।

उसके हृदय की बात ताड़कर मनोरमा ने हँसते हुए कहा- “अच्छा अभी जाकर बुला लाती हूँ।“

यह कहकर वह ललिता के घर गई और उसे पकड़कर साथ ही ले आई।

आज फिर ताश का अड्डा जमा। आज वास्तव में ताश खूब जमा। ललिता की जीत होती रही। दो घंटे तक खेल बहुत ही बढ़िया जमा रहा और सभी लोग दत्तचित्त थे। उसी समय अन्नाकाली दौडती हुई आई और ललिता का हाथ पकड़कर घसीटते हुए बोली- “दीदी, जल्दी जलो, शेखर दादा बुलाते हैं।“

शेखर नाम सुनते ही ललिता का चेहरा पीला पड़ गया। उसने ताश छोड़ दिया और पूछा- “क्या दादा आज काम पर नहीं गए हैं?”

“मुझे क्या मालूम? शायद आज जल्दी आ गए हैं!”

ललिता ने मनोरमा की ओर कुंठित भाव से देखकर कहा, “मौसी, में जाती हूँ!”

उसका हाथ पकड़कर मनोरमा ने कहा- “नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। अभी दो-चार हाथ और खेल लो।“

परेशान होकर ललिता ने कहा- “मौसी, अब न खेल सकूंगी। यदि जरा भी देर हो गई, तो वह नाराज हो जायेंगे।“

इतना कहकर दौड़ती चली गई।

गिरीन्द्र ने पूछा- “यह शेखर दादा कौन हैं?”

मनोरमा- “वह इसी सामने वाले बड़े महल में रहते हैं।“

गर्दन हिलाते हुए गिरीन्द्र ने कहा- “वह महल? तब तो शायद नवीन बाबू के कोई रिश्तेदार हैं।“

मनोरमा ने हँसते हुए कहा- “कैसे रिश्तेदार! ललिता के मामा के मकान तक को वह बुड्ढा हड़प लेने के लिए तैयार है।“

बड़े आश्चर्य के साथ गिरीन्द्र बहिन की तरफ देखता रहा।

मनोरमा ने सारी कहानी सुनानी प्रारंभ की-किस तरह से आर्थिक कठिनाईयो के कारण गुरुचरण बाबू की मझली पुत्री की शादी रूकी हुई थी। नवीनराय ने काफी ब्याज पर उनका मकान रेहन रख लिया। अब तक भी वह रूपया अदा नहीं हुआ, और नवीनराय यह मकान हड़प ही लेंगे। वह इसी घात में हैं भी!

सारी कहानी सुना चुकने के बाद मनोरमा ने यह भी कहा कि उस बूढ़े की हार्दिक इच्छा यह है कि बेचारे गुरुचरण बाबू का मकान सत्यानाश करके, उसी स्थल पर शेकर के लिए बहुत ही सुंदर विशाल महल बनवाये। दो लड़कों के लिए अलग-अलग मकान है, परंतु तीसरे के लिए नहीं है।

सभी बातें सुनकर गिरीन्द्र को बहुत दु:ख हुआ और गुरुचरण बाबू की दशा पर बहुत तरस आया। वह बोला- “जीजी, अभी तो गुरुचरण बाबू की औऱ भी लड़कियाँ हैं न? उनका कैसे कामकाज होगा?”

मनोरमा ने उत्तर दिया – “उनकी कन्यायें तो हैं ही, उसके सिवा उनकी भांजी भी तो है। उस अनाथ ललिता का पूरा बोझ इस बेचारे उसके मामा पर है। लड़कियों. की उम्र काफ़ी हो आई है। एक दो वर्ष में ही उनका विवाह हो जाना चाहिए। फिर भी साथ ही, उन्हें अपने समाज से मदद मिलने की कोई आशा नहीं, बल्कि समाज से निकाल देने वाले अनेक हैं। प्रथा के अनुसार न चलने पर तुरंत समाज से अलग कर देते हैं। हमारा ब्रह्मसमाज तो इन सबके समाज से लाखों दर्जे अच्छा है, गिरिन्द्र।“

गिरीन्द्र चुप ही रहा। मनोरमा फिर कहने लगी – “उस दिन ललिता की मामी मेरे पास ललिता के लिए सोच-विचार कर रो रही थी। क्या होगा? कैसे होगा? कुछ भी ठिकाना नहीं है। उसके पाणिग्रहण के शोक में गुरुचरण बाबू को खाना-पीना तक नहीं हजम होता। गिरीन्द्र भैया! तेरे बहुत से जान-पहचान वाले मुंगेर में होंगे, क्या कोई तेरा मित्र ऐसा नहीं है, जो ललिता की सुंदरता और गुणों को देखकर उससे शादी करने के लिए तैयार हो जाये? वास्तव में ललिता के समान गुणी तथा विदुषी लड़की मिलना कठिन है। लाखों लड़कियों में वह एक ही रूपवती है।“

गिरीन्द्र ने दुःखपूर्ण झूठी हँसी-हँसकर कहा – “ऐसी जान-पहचान वाला कहाँ पा सका, दीदी! फिर भी, हाँ इस कार्य में धन देकर उनकी सहायता कर सकता हूँ।“

गिरीन्द्र के पिता ने डोक्टरी से अथाह धन इकट्ठा किया था। उस संपूर्ण धन का एकमात्र अधिकारी गिरीन्द्र ही था।

मनोरमा – “तो क्या तू रूपये उधार देगा?”

गिरीन्द्र ने कहा- “उधार क्या दूंगा, जीजी! पर हाँ, वह जब दे सकेगें दे देंगे, और न दे सकेंगे, तो भी कोई हर्ज नहीं!”

आश्चर्य में पड़कर मनोरमा ने कहा- “आखिर इस तरह से उन्हें रूपया दे देने से तुझे क्या लाभ होगा? यह लोग न हमारी बिरादरी के हैं और न समाज के! फिर तुम्हीं बताओ कि इस प्रकार रूपये कौन दे देता है।“

मनोरमा की ओर देखर गिरीन्द्र ने हँसते हुए कहा- “समाज के नहीं है, तो न सही, किंतु अपने देश के बंगाली तो हैं। उनके पास टके नहीं हैं और मेरे पास रूपयों में काई जम गई है। जीजी, तुम एक बार कहो तो उनसे! यदि वे रूपये लेना चाहें, तो मैं देने को तैयार हूँ। फिर ललिता न तो उनकी सगी है और न संबंधिनी है। मैं उसकी शादी का पूरा खर्च ही दे दूंगा। उस भोली लड़की के काम के लिए में पूरा भार सहन कर लूंगा।“

गिरीन्द्र की यह बातें सुनकर मनोरमा को न आनंद मिला और न संतोष ही हुआ। हालाकिं मनोरमा के घर से कोई कुछ नहीं कहता था, फिर भी स्त्रियों के स्वभावानुसार पराये आदमी को रूपये बिना प्रयोजन देते देख उसे जरा भी चैन न था, बल्कि वह तो उसमे रोड़े अटका देना चाहती थी।

चारूबाला चुपचाप यह सब बातें सुन रही थी। गिरीन्द्र की यह रूपये से मदद करने की बात सुनकर उसका हृदय खुशी से नाच उठा था। वह कहने लगी- “मामा, तुम ऐसा ही करो। मैं जाकर मौसी से कह आती हूँ।“

मनोरमा ने उसे धमकाकर कहा- “चुप बैठ, चारू। यह बातें बच्चों के मुँह से बड़ों के बीच में अच्छी नहीं लगतीं। ललिता की मामी से जो भी कहना होगा, मैं जाकर कह दूंगी।“

गिरीन्द्र – “ऐसा ही करो, दीदी। गुरुचरण बाबू तो भले आदमी हैं, ऐसा लगता है।“

कुछ देर रूककर मनोरमा ने फिर कहा- “मैं क्या, सभी लोग यह कहते हैं कि दोनों स्त्री-पुरुष बड़े सज्जन हैं। गिरीन्द्र! इस बात का हमें दुःख है। बहुत मुमकिन है कि उन लोगों को घर त्यागकर सड़क पर ही आकर खड़ा होना पड़े। इसके भय से-तूने देख ही लिया कि ललिता ने ज्यों ही शेखर का नाम सुना, तुरंत दौड़ी हुई गई। ललिता ही क्या, बल्कि उसके यहाँ के सभी लोग शेखर के बंधन में हैं। कुछ भी कोशिश क्यों न की जाये. जब एक बार नवीन राय के जाल में कोई फंसा, तो उसका निकलना कठिन ही है।“

मनोरमा की ओर देखते हुए गिरीन्द्र ने एक बार फिर कहा- “हाँ, तुम फिर उनसे जाकर कहोगी न?”

मनोरमा- “अच्छा अवश्य कहूंगी! यदि तू अपनी सहायता से किसी गरीब का उपकार कर सके, तो इससे उत्तम और क्या हो सकता है।“

“दीदी, व्यग्रता की कौन-सी बात है? यह तो हम सबका धर्म है। जब किसी मुसीबत में ग्रस्त व्यक्ति की, जिस प्रकार बन सके-मदद करें।“ यह कहकर गिरीन्द्र कुछ लज्जित-सा हो गया और आगे कुछ न कहकर वह कमरे से बाहर चला गया, परंतु कुछ ही समय बाद वह फिर लौटकर वहीं आ बैठा।

मनोरमा ने कहा- “तू फिर आ गया।“

मुस्काराते हुए गिरीन्द्र ने कहा- “मुझे ऐसा लगता है कि शायद तुम जो कुछ भी करूणा-युक्त गाथा गाती हो, उसमे सत्यता का बहुत कम अंश है।“

आश्चर्यचक्ति हो मनोरमा ने पूछा- “क्यों।“

गिरीन्द्र ने कहा- “जिस लापरवाही से मैंने ललिता को रूपये खर्च करते हुए देखा है, उससे गरीबी का कोई लक्षण नहीं जान पड़ता। दीदी, तुम्हीं देखो न, अभी उस दिन सब लोग थियेटर देखने गये थे। ललिता गई नहीं थी, फिर भी दस रूपये उसने भेजे थे। चारूबाला इसकी गवाह है! जिस प्रकार वह खर्च करती है, उससे यह अनुभव होता है कि उसका खर्च बीस-बच्चीस रूपये से कम में न चलता होगा।“

मनोरमा ने इस बात पर एकाएक यकीन नहीं किया और चारूबाला की ओर देखा।

चारूबाला ने कहा- “सच है, माँ! शेखऱ बाबू ललिता को रूपये देते हैं, यह नई बात नहीं है। वाल्यावस्ता से ही वह शेखर बाबू की अलमारी से रूपये ले आती है। शेखर बाबू कुछ नहीं कहते।“

मनोरमा ने कहा- “यह बात शेखर को ज्ञात है?”

“हाँ, उन्हे सब पता है! उसके सामने ही ताला खोलकर लाती है! पिछले महीने अन्नाकाली के गुड्डे के विवाह के समय जो धूमधाम हुई थी और इतने अधिक रूपये खर्च हुए थे, वह सब किसने दिए थे? सारा खर्च ललिता ने ही दिया था।“

लंबी सांस छोड़ते हुए मनोरमा ने कहा- “भैया, मैं इन सबके इन सबके बारे में कुछ नहीं जानती, किन्तु इतना अवश्य जानती हूँ कि नवीनराय की भांति उसके लड़के नीच नहीं हैं। सभी लड़के अपनी माँ के स्वभाव के हैं। इसीलिए उनमें दया-ममता भरी हुई है। इसके अतिरिक्त ललिता बड़ी नेक लड़की है। सभी उससे स्नेह करते हैं। बचपन से ही वह शेखर के पास रहती है। वह शेखर को भैया कहती है और शेखर का भी उस पर गहरा अनुराग है। अच्छा चारू, यह तो बता, क्या शेखर बाबू की शाद इसी माघ में होने वाली है? सुना है, इस रिश्ते से बुढ्ढे को अच्छी रकम हाथ लगेगी।“

चारूबाला ने कहा- “हाँ माँ, इसी माघ में शेखर भैया का ब्याह होगा। बात तय हो चुकी है।“

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