चैप्टर 4 नकली नाक : इब्ने सफ़ी का उपन्यास हिंदी में | Chapter 4 Nakli Naak Ibne Safi Novel In Hindi

Chapter 4 Nakli Naak Ibne Safi Novel In Hindi

Chapter 4 Nakli Naak Ibne Safi Novel In Hindi

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कुंवर जफ़र अली खां

इधर उधर की बातचीत के बाद गज़ाला पूछी ही बैठी।

“मगर तुम्हें यह नहीं बताया कि कुंवर साहब कौन है? जहाँ तक मेरा ख़याल है, इससे पहले मैंने कभी उनको तुम्हारे यहाँ नहीं देखा और ना ही अख्तर भाई के दोस्तों में ऐसे कोई कुंवर साहब थे।”

सईदा सुनती रही और थोड़ी देर खामोश रहकर बोली।

“यह तुम्हारे उनके बहुत पुराने दोस्तों में से हैं। मैं नहीं चाहती थी कि इतनी जल्दी तुम से उन्हें मिला दूं। वे कुछ झक्की आदमी है। शायद तुम उससे मिलकर ख़ुश  भी ना हो सको। शाकिर भाई मरहूम और साहब से एक मामूली-सी किताब का झगड़ा हो गया था।”

आखिर जुमला कहते-कहते उसे लगा कि जैसे वह कोई ऐसी बात कह गई है, जो  उसे ना कहना चाहिए थी।

अपने साथ गज़ाला को लिए हुए वह बढ़ी। नौकर से मालूम हुआ कि कुंवर साहब उसकी आठ साल की बच्ची रेहाना के साथ बाग़ खेल रहे हैं।

गज़ाला और सईदा बाग में पहुँची….कुंवर साहब रेहाना को गोद में उठाए हुए नाच रहे थे। उन्होंने कई तितलियाँ और भौरे पकड़ रखे थे और उन सबको डोरों से बांध रखा था और सब डोरों का आखिरी सिरा उनकी गर्दन से बंधा हुआ था। उनके नाचने के साथ-साथ तितलियाँ भी इधर-उधर घूम रही थी। मासूम रिहाना इस खेल से बहुत ख़ुश थी।

सईदा अब तक ख़ामोश थी। उसने मुस्कुराकर कहा, “गजाला….आओ, तुम्हें कुंवर साहब से मिलवाऊं।”

“कुंवर साहब…आपसे मिलिये। आप मेरी प्यारी सहेली गज़ाला खानम और आप है कुंवर ज़फ़र अली खां। उनके पुराने जिगरी दोस्त और मेरे बहुत बड़े हमदर्द सहारा।” कहते कहते उसकी आँखें छलक उठी।

कुंवर साहब ने सईदा और गज़ाला की तरफ देखा और कुछ सूखी और दु:खी आवाज में बोले, “चलिए घर में चल कर बैठे। शाम को आपके कुछ मेहमान भी शायद आयेंगे।”

शाम के खाने पर हमीद और फ़रीदी को दावत दी गई थी। वादे के मुताबिक उनके रात 7:00 बजे पहुँच जाना चाहिए था, मगर 8:30 बज चुके थे और उनका कहीं पता ना था। मजबूर होकर नवाब साहब ने सईदा से कहा, “अब इंतज़ार करना बेकार है… खाना लगवा दो…ख़ुद अपने हाथ से मुर्ग पकाया था। मगर उन लोगों की किस्मत ही में ना था। फंस गए कहीं।”

खाना मेज पर लगा दिया गया था। नवाब रशीदुज्जमा…मुर्ग की टांग काट कर अलग ही करना चाहते थे कि झन्न की आवाज के साथ कमरे के सब बल्ब टूटकर जमीन पर आ गिरे। एक बल्ब नवाब साहब को बेहद पसंद शाही दाल में गिरा और गरम-गरम दाल उनके चेहरे पर पड़ी।

फायर की पहली छः आवाजों के बाद एक सेकेंड के लिए बिल्कुल सन्नाटा हो गया। नवाब साहब ने देखा कि दो लोगों ने सईदा और गज़ाला के मुँह बंद कर रखे थे और उन्हें उठाये लिए जा रहे थे। वे चीखे, मगर चीख निकलने से पहले ही इतने ज़ोर का वार उनके ऊपर पड़ा कि वे टकराकर गिर पड़े। हल्की-हल्की, धुंधली-धुंधली शक्लें उनके सामने से गुजरी। उनमें से एक फ़रीदी भी था। उनका हाथ उठा और फिर गिर पड़ा।

कुंवर साहब इस हादसे के लिए बिल्कुल तैयार ना थे। बिजली के जाते ही वे हड़बड़ा कर उठे और इससे पहले कि वह कुछ कर पाते, उनके सीने पर पिस्तौल लगा हुआ था। पिस्तौल धारी ने गरज कर कहा, “खबरदार अगर एक लफ्ज़ भी मुँह से निकाला….चुपचाप खड़े रहो।”

आवाज उन्हें जानी-पहचानी मालूम हुई। उन्होंने आकर बढ़कर देखा। सुबह वाला इंस्पेक्टर फ़रीदी उन्हें घूर रहा था।

इतने में उनके साथी ने आकर कहा, “उस्ताद काम हो गया। अब चलना चाहिए।”

अच्छा…कुंवर साहब ऐसे ही खड़े रहिये। अगर ज़रा सा भी जिले, तो न सिर्फ़ आप खत्म हो जायेंगे, बल्कि यह लड़की भी इस दुनिया में ना रहेगी।” फ़रीदी ने रेहाना की गर्दन पकड़ रखी थी। मासूम लड़की की आँखों से आँसू बह रहे थे। उसका भोला चेहरा इस अंधेरे में भी चमक रहा था। उस आदमी ने धीरे से कहा, “कुंवर साहब अपने अंदर के जेब में रखा हुआ कागज मुझे दे दीजिये। नवाबजादा शाकिर की मौत के सिलसिले में यह कागज बहुत अहमियत रखता है। अगर आप वह कागज़ मुझे दे दें, तो मैं वादा करता हूँ कि क़ीमिया बनाने वाली किताब नवाबजादा की कब्र से निकाल लाऊंगा। आप नवाबजादा के कातिल है। आपने उनके खून से  हाथ रंगे हैं। अच्छा है कि आप कागज मुझे दे दें। ये सब राज मेरे सीने में दफ्न रहेंगे।”

“वह कागज मेरे पास नहीं है।” कुंवर साहब ने हकला कर जवाब दिया।

“अच्छी बात है…मैं ख़ुद ही निकाले लेता हूँ।” अपने साथी की तरफ इशारा करते हुए बढ़ा। कुंवर साहब की जेब से एक सुनहरा चाकू, एक रुमाल और एक रबड़ की बिल्ली निकली। कागज का पता ना था। मायूसी जाहिर करते हुए उसने अपने साथी को इशारा किया। वह गायब हो गया। उसने आखरी बार कहा –

“कुंवर साहब…नवाबजादा शाकिर के सौतेले भाई…लेफ्टिनेंट बाकिर आ गए हैं। आपकी सईदा को कुछ भी नहीं मिलेगा। खैर, फिलहाल वह मेरे साथ जा रही है। मेरे असिस्टेंट हमीद ने उसे पसंद कर लिया है। आप ख़ुद ही समझदार हैं, मगर आपको बताना मेरा फ़र्ज़ है। अगर मेरे या हमीद का नाम कभी आपकी ज़ुबान पर आया या मेरे आज के वाकये का ज़िक्र छेड़ा…तो क़ीमिया की किताब की दफ्ती पर लिखी हुई तहरीर अदालत में पेश कर दी जायेगी और खुदकुशी का यह केस कत्ल का मुकदमा बन जाएगा…ख़ुदा हाफ़िज़।”

वह जा चुका था। कमरे में अब बिल्कुल सन्नाटा था। कुंवर साहब कुछ बेहोश से थे। काफी देर बाद उन्होंने हाथ आगे बढ़ाया। फ़रीदी का कहीं पता ना था और भयानक पिस्तौल सामने से हट चुका था। रेहाना बेहोश पड़ी थी। कमरे में अंधेरा वैसा ही था। उन्होंने नौकरों को आवाजें दी, मगर उनमें से कोई ना बोला। वे दो कदम आगे बढ़े और धायं…ठिठक कर उन्होंने दूसरी तरफ़ कदम बढ़ाया और फिर वैसे ही आवाज सुनाई थी।

“मालूम होता है, पटाखे बिछाए गए हैं।” वे बड़बड़ाये। फूंक-फूंक कर कदम रखते वे किसी तरह के दरवाजे तक पहुँचे। दरवाजा अंदर से बंद था…सिटकनी खोल कर भी बाहर आ गये.

उजाले में आते ही उन्होंने चीख कर नौकरों को बुलाया। मगर कोई ना बोला…तंग आकर उनके कमरों की तरफ गये। हर एक मीठी नींद के मजे ले रहा था। लाख जगाने पर भी कोई नौकर ना जागा। मजबूरन उन्हें नौकरों का ख़याल छोड़ देना पड़ा। उनका ख़याल था कि शायद कनेक्शन काट दिया गया है। फिर भी उन्होंने बरामदे का स्विच दबाया। बरामदे में रोशनी फैल गई। किसी रोशनी के सहारे भी फिर कमरे में आये। नवाब साहब और यहाँ ना को वहाँ से उठाने के बाद उन्होंने फोन उठाया।

पुलिस ऑफिस में सब इंस्पेक्टर ने पूछा, “हलो कौन है?”

कुंवर साहब ने कहा, “मैं कुंवर ज़फ़र अली खां हूँ, अख्तर ब्लॉक से बोल रहा हूँ। क्या माथुर साहब हैं?”

जवाब मिला, “नहीं…”

“अच्छा सुनिए, आप फौरन यहाँ चले आइए और अगर फ़रीदी साहब और हमीद साहब हों, तो उन्हें भी लेते आइयेगा।”

“मगर वह लोग 7:00 बजे से गायब है।”

“ठीक है फिर आप ही आ जाइये।” यह कहकर कुंवर साहब ने फोन रख दिया।

सब इंस्पेक्टर विमल मुखर्जी के आने पर कुंवर साहब अपनी दिमागी उलझनों पर काबू पा चुके थे। वे बार-बार यही सोच रहे थे कि कहीं उन्होंने धोखा तो नहीं खाया। मगर वह शक्ल बिल्कुल इंस्पेक्टर फ़रीदी की थी और अगर मान भी लिया जाए कि वह इंस्पेक्टर फ़रीदी नहीं था, तो आखिर मुझे वह मना क्यों कर गया… अगर फ़रीदी ना होता तो…वह मुझे मना ना करता…अगर फ़रीदी था, तो उसने ऐसा क्यों किया…इंस्पेक्टर फ़रीदी एशिया का मशहूर जासूस और…लूटेरा…? यह नहीं हो सकता।”

आखिरकार उन्होंने यह तय किया कि वे सब इंस्पेक्टर को यह बता दें कि उस शक्स की शक्ल बिल्कुल फ़रीदी से मिलती थी।

मिस्टर मुखर्जी को पूरा बयान लिखवाने के बाद उन्होंने कहा, “मैंने उसे देखा था। उसका हुलिया और सूरत…” उनका जुमला पूरा भी ना हो पाया था कि गोली चलने की आवाज आई और सामने की कार्नस से एक कबूतर फड़फड़ा कर गिरा और मर गया। कुंवर साहब रुक गए। उनके लिए यह खतरे का सिग्नल था।

“अभी तक वह मौजूद है।” दिल ही में उन्होंने फ़रीदी को एक मोटी सी गाली दी। सामने तड़प कर मरने वाले कबूतर में उन्हें खतरे की झलक दिखी। इंस्पेक्टर मुखर्जी गोली की आवाज ही के साथ सिपाही भेज चुका था और अब सिपाहियों ने आकर यह रिपोर्ट दी कि कोई नहीं है, तो उन्होंने सिपाही चारों तरफ फैला दिए और कुंवर साहब की तरफ मुखातिब हुए, “आप बयान जारी रखें…मगर ठहरिए… यह कबूतर…? मगर यह पालतू नहीं जंगली है।”

“जी हाँ…इन कबूतरों को शगुन के ख़याल से रहने दिया था।” कुंवर साहब बोले।

इंस्पेक्टर मुखर्जी ने फिर कहा, “हाँ आप बयान लिखा रहे थे। उस आदमी का हुलिया…!”

उन्होंने कलम उठाया।

“जी वह लंबा सा तंदुरुस्त आदमी था। भयानक और नाक के पास एक तिल था।” अनजाने में कुंवर साहब के मुँह से निकल गया।

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