चैप्टर 4 मैला आँचल फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास | Chapter 4 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel

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Chapter 4 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu

सतगुरु हो ! सतगुरु हो !

महंथ साहेब सदा ब्रह्म बेला में उठते हैं। “हो रामदास। आसन त्यागो जी ! लक्ष्मी को जगाओ !…सतगुरु हो ! ये कभी जो बिना जगाए जागें। रामदास ! हो जी रामदास !”

रामदास आँखें मलते हुए उठता है, बाहर निकलकर आसमान में भुरूकुआ (भोर का तारा) को देखता है, फिर रामडंडी (तीन-तरवा) को खोजता है।…अभी तो बहुत रात बाकी है। महंथ साहब आज बहुत पहले ही जग गए हैं…“माघ का जाड़ा तो बाघ को भी ठंडा कर देता है।…सरकार, रात तो अभी बहुत बाकी है।”

“रात बहुत बाकी है तो क्या हुआ ? एक दिन जरा सवेरे ही सही। सोओ मत। धूनी में लकड़ी डाल दो। कोठारिन को जगा दो।…सतगुरु साहेब ने सपना दिया है।”

लछमी उठी। उठकर महंथसाहब के आसन के पास आई। हाथ जोड़कर ‘साहेब बन्दगी’ किया और आँखें मलते हुए कुएँ की ओर चली गई।

…लछमी के रग-रग में अब साधु-सुभाव, आचार-विचार और नियम-धरम रम गया है। साहेब की दया है। और यह रामदास ? गुरु जाने, इसकी मति-गति कब बदलेगी ! बचपन से ही साधु की संगति में रहकर भी जो नहीं सुधरा, वह अब कब सुधरेगा ?…भक्ति-भाव ना जाने भोंदू पेट भरे से काम ! बस, दो ही गुण हैं-सेवा अच्छी तरह करता है और खंजड़ी बजाने में बेजोड़ है। “अरे हो रामदास !…फिर सो गए क्या ?…गंगाजली में जल भर दो।”

जागहु सतगुरुसाहेब, सेवक तुम्हरे दरस को आया जी

जागहु सतगुरुसाहेब…।

…डिम-डिमिक-डिमिक, डिम-डिमिक-डिमिक !

भोर भयो भव भरम भयानक भानु देखकर भागा जी,

ज्ञान नैन साहेब के खुलि गयो, थर-थर काँपत माया जी।

जागहु सतगुरुसाहेब…

माघ के ठिठुरते हुए भोर को मठ से प्रातकी (प्रभाती) की निर्गुणवाणी निकलकर शून्य में मँडरा रही है। बूढ़े महंथ साहब पहला पद कहते हैं। दन्तहीन मुँह से प्रातकी के शब्द स्पष्ट नहीं निकलते। गले की थरथराहट सुर में बाधा डालती है, बेसुरा राग निकलता है। दमे से जर्जर शरीर में दम कहाँ !…लेकिन लछमी सब सँभाल लेती है। पाँच साल पहले प्रातकी गाने के समय उसकी आँखों की पलकें नींद से लदी रहती थीं। महन्थ साहब जब गीत की दूसरी पंक्ति ‘भोर भयो भव भरम’ गाते थे तो वह बहुत मुश्किल से अपनी हँसी रोक पाती थी-भोर भयो भव भरम…! लेकिन अब नहीं। उसकी बोली मीठी है। उसका सुर मीठा है। वह तन्मय होकर गाती है। उसकी सुरीली तान के साथ महन्थ साहब के बेसुरे और मोटे राग का मेल नहीं खाता, फिर भी संगीत की निर्मल धारा में कहीं विरोध नहीं उत्पन्न होता। महन्थ साहब का मोटा राग लछमी के कोमल लय को सहारा देता है। शहनाई के साथ सुर देनेवाली शहनाई की तरह-भों ओं ओं ओं ओं…!

रामदास की खंजड़ी की गमक निःशब्द वातावरण में तरंगें पैदा करती है। खंजड़ी में लगी हुई छोटी-छोटी झुनुकियों की हल्की झुनुक ! मानो किसी का पालतू हिरन नाच रहा हो, दौड़ रहा हो ! डिम डिमिक ! रुन झुनुक-झुनुक !

प्रातकी के बाद बीजक ‘शबद’ । ‘रामुरा झीं-झी जंतर बाजे। करचर्ण बिहुना नाचे। रामुरा झीं-झी…।’

और तब सत्संग ! रोज इसी वेला में सत्संग होता है। प्रातकी सुनते ही मठ के अन्य साधु-संन्यासी, अतिथि-अभ्यागत तथा अधिकारी-भंडारी वगैरह जग जाते हैं। प्रातकी और बीजक में कोई सम्मिलित हो या नहीं, सत्संग में भाग लेना अनिवार्य है। मठ का भंडारी इस समय रोज की हाज़िरी लेता है। इस समय जो अनुपस्थित रहे उसकी चिप्पी (राशन) बन्द हो जाती है। सत्संग में महन्थसाहब साधुओं और शिष्यों को उपदेश देते हैं, प्रश्नों के उत्तर देते हैं, अज्ञान अन्धकार को अपनी वाणी से दूर करते हैं।

…सतगुरु सेवा सत्य करि माने सत्य विचार।

सेवक चेला सत्य सो जो गुरु वचन निहार॥…

फिर सातचक्र परिचय !

प्रथम चक्र आधार कहावे गुद स्थल के माँही

द्वितीय चक्र अधिष्ठान कहिए लिंगस्थल के माँही।

तृतीय चक्र मणिपूरण जानो नाभी स्थल…

सत्संग समाप्त होते ही भंडारी उपरिथत ‘मूर्तियों’ की गिनती लेता है-“रानीगंज के तीन गो मुरती तो आज सात दिन से धरना देले हथुन । जाए ला कहै हियेन्ह त कहै हथिन बलु सरकार से आज्ञाँ ले ली है। बेला मठ के एक मुरती के बुखार लगलैन्ह है, दोकान में सबुरदाना न भेटाई है…”

कोठारिन लक्ष्मी दासिन का रोज इसी समय बक-बक झक-झक बहुत बुरा लगता है, सत्संग से प्राप्त की हुई मन की पवित्रता नष्ट हो जाती है। लेकिन क्या करे ? मठ के इस नियम को यदि जरा भी ढीला कर दिया जाए तो साधु-वैरागी एक महीने में ही मठ को उजाड़ देंगे। बाहर के साधुओं के लिए चार ही दिन रहने का नियम है, मगर…। “रानीगंज के मूर्तियों को खुद सोचना चाहिए। यहाँ कोई कुबेर का भंडार तो नहीं…”

“लक्ष्मी,” महन्थसाहब कहते हैं, “आज-भर रहने दो। भंडारी, जितने मुरती आज हैं, सबों का बालभोग (जलपान) और प्रसाद (भात) आज लगेगा। सभी मुरती बैठ जाइए। आज सतगुरु साहेब सपना दीहिन हैं।”

धूनी में फिर सूखी लकड़ियों के छोटे-छोटे टुकड़े डाल दिए गए। सभी मुरती फिर धूनी के चारों ओर अर्धवृत्ताकार पंक्ति में बैठ गए। लछमी की महन्थसाहब के आसन के पास ही लगती है…। सभी महन्थसाहब की ओर उत्सुकता से देख रहे हैं।

“आज मध्य रात्रि में, सतगुरु साहेब सपने में मेरे आसन के पास आए। हम जल्दी से उठके साहेब बन्दगी किया। हमको ‘दयाभाव’ देके साहेब कहिन-सेवादास, तुम नेत्रहीन हो, लेकिन तुम्हारे अन्तर के नैनों का जोत बड़ा विलच्छन्न है। हम भेख बदल करके आए और तूं पहचान लिया ? तुम्हारे ज्ञान-नेत्र में दिब्बजोत है। सो तुम्हारे गाँव में परमारथ का कारज हो रहा है और तुमको मालूम नहीं ? गाँधी तो मेरा ही भगत है। गाँधी इस गाँव में इसपिताल खोलकर परमारथ का कारज कर रहा है। तुम सारे गाँव को एक भंडारा दे दो। कहके साहब अन्तरधियान हो गए। हमारी निद्रा भंग हो गई। सतगुरु के विरह में चित्त चंचल हो गया। विरह अगिन तक कैसे बूझे, गृहबन अन्धकार नहीं सूझे। आखिर, सतगुरु आज्ञा शब्द विचारकर चित्त को शान्त किया।”

और यादव सेना के अचानक हमले ने गाँव की दलबन्दी को नया जीवन प्रदान कर दिया था। जोतखी जी की राय है, “यादव लोग बार-बार लाठी-भाला दिखाते हैं; राजपूतों के लिए यह. डूब मरने की बात है। फौजदारी में यतलाय (इत्तला) देकर इन लोगों का मोचिलका करवा लिया जाए। लेकिन सिंघजी थाना-फौजदारी से घबराते हैं। बात-बात में गाली और डेग-डेग पर डाली ! कानूनी-कचहरी की शरण जाना तो अपनी कमजोरी को जाहिर करना है। समय आने पर बदला ले लिया जाएगा। अकेले यादवों की बात रहती तो कोई बात नहीं थी, इसमें कायस्त समाया हुआ है। मरा हुआ कायस्त भी बिसाता है। फिर, वह बदमाशी हरगौरी की ही है। मेरे दरवाजे पर किसी को उठ जाने के लिए कहना, मेरे दरवाजे पर किसी को मारने के लिए उठना, यह तो अच्छी बात नहीं।”

यादवटोली में अब दोपहर से ही ढोल बजने लगता है-ढाक-ढिन्ना ढाक-ढिन्ना ! शोभन मोची को एक नया गमछा और नई गंजी मिली है। कालीथान के बड़ के पास गाय-भैंस बथान करके दोपहर से ही कुश्ती खेलने लगते हैं यादव सन्तान। बालदेव जी ने जिस दिन अनसन किया था, शाम को खेलावन यादव के दरवाजे पर कीर्तन हुआ था। बालदेव जी का सिखाया हुआ सुराजी कीर्तन ‘धन-धन गाँधी जी महराज, ऐसा चरखा चलानेवाले’ कीर्तन के बाद बालदेव जी ने भैंस का कच्चा दूध पीकर व्रत तोड़ा था। कहते थे, अब हिंसाबात करने से फिर अनसन करेंगे, अब के दो दिनों का ! सुराजी कीर्तन, लहसन का बेटा सुनरा खूब गाता है। बालदेव जी जबकि फिर उपवास करेंगे तो सुनना। अभी और सीख रहा है।…सिपैहियाटोला में तो अब दिन में ही उल्लू बोलता है। तहसीलदार कह रहे थे-राजपूतों की सिट्टी गुम हो गई है। हल्दी बोला (चित्त कर देना) दिया है। कालीचरन बहादुर है !

इसपिताल के सभी घर बनकर तैयार हो गए हैं। सिर्फ मिट्टी साटना बाकी है। बिरसा माँझी ने कहा है-संथालटोली की सभी औरतें आकर मिट्टी लगा देंगी आज। अलबत्त मिट्टी लगाती हैं संथालिने ! पोखता मकान भी मात ! अगले सनिचर को डागडरबाबू ने बालदेव जी से दसखत करा लिया है। भैंसचरमनबाबू (वाइस चेयरमैन) जरूर यादव ही होंगे। किसी दूसरी जाति का ऐसा नाम क्यों होगा-भैंसचरमनबाबू ! तहसीलदार के यहाँ जाकर देखो-खुरसी, ब्रींच, बड़े-बड़े बक्से में दवा, बाल्टी, कठौत, लोटा। पानी का कल गाड़ा जाएगा, जैसे रौतहट के मेला में गड़ता है। सनिच्चर को ही महन्थसाहेब का भंडारा है-पूड़ी-जिलेबी का भोज। सारे गाँव के औरत-मरद बूढ़े बच्चे और अमीर-गरीब को महन्थसाहेब खिलावेंगे। सपनौती हुआ है।

यादवटोली का किसनू कहता है, “अन्धा महन्त अपने पापों का प्राच्छित कर रहा है। बाबाजी होकर जो रखेलिन रखता है, वह बाबाजी नहीं। ऊपर बाबाजी भीतर दगाबाजी ! क्या कहते हो ? रखेलिन नहीं, दासिन है ? किसी और को सिखाना। पाँच बरस तक मठ में नौकरी किया है; हमसे बढ़कर और कौन जानेगा मठ की बात ? और कोई देखे या नहीं देखे, ऊपर परमेसर तो है। महन्थ जब लछमी दासिन को मठ पर लाया था तो वह एकदम अबोध थी, एकदम नादान। एक ही कपड़ा पहनती थी। कहाँ वह बच्ची और कहाँ पचास बरस का बूढ़ा गिद्ध ! रोज रात में लछमी रोती थी-ऐसा रोना कि जिसे सुनकर पत्थर भी पिघल जाए। हम तो सो नहीं सकते थे। उठकर भैंसों को खोलकर चराने चले जाते थे। रोज सुबह लछमी दूध लेने बथान पर आती थी, उसकी आँखें कदम के फूल की तरह फूली रहती थीं। रात में रोने का कारण पूछने पर चुपचाप टुकुर-टुकुर मुँह देखने लगती थी…ठीक गाय की बाछी की तरह, जिसकी माँ मर गई हो…! वैसा ही चंडाल है यह रमदसवा। वह साला भी अन्धा होगा, देख लेना।…महन्थ एक बार चार दिन के लिए पुरैनिया गया था। हमने सोचा कि चार रात तो लछमी चैन से सो सकेगी। ले बलैया। बाघ में मुँह से छूटी तो बिलार के मुँह में गई। उसके बाद लछमी ऐसी बीमार पड़ी कि मरते-मरते बची। पाप भला छिपे ? रामदास को मिरगी आने लगी और महन्थ सेवादास सूरदास हो गए। एकदम चौपट !…हमारा तीन साल का दरमाहा बाकी रखा है। भंडारा करता है ! हम उन लोगों को साधू नहीं समझते हैं।”

महन्थ सेवादास इस इलाके के ज्ञानी साधु समझे जाते थे-सभी सास्तर-पुरान के पंडित ! मठ पर आकर लोग भूख-प्यास भूल जाते थे। बड़ी पवित्र जगह समझी जाती थी। लेकिन जब महन्थ दासिन को लाया, लोगों की राय बदल गई। बसुमतिया मठ के महन्थ से इसी दासिन को लेकर कितने लड़ाई-झगड़े और मुकदमे हुए। बसुमतिया का महन्थ कहता था, लछमी दासिन का बाप हमारा गुरु-भाई था इसलिए बाप के मरने के बाद उस पर मेरा हक है। सेवादास की दलील थी, लछमी पर हमारा अधिकार है। अन्त में लछमी कानूनन सेवादास की ही हुई। सेवादास के वकील साहब ने समझाकर कहा था-महन्थसाहब ! इस लड़की को पढ़ा-लिखाकर इसकी शादी करवा दीजिएगा। महन्थसाहब ने वकीलसाहब को विश्वास दिलाया था-वकीलसाहब, लछमी हमारी बेटी की तरह रहेगी…लेकिन आदमी की मति को क्या कहा जाए ! मठ पर लाते ही किशोरी लछमी को उन्होंने अपनी दासी बना लिया। लछमी अब जवान हुई है, लेकिन लछमी के जवान होने से पहले ही महन्त सेवादास की आँखें अपनी ज्योति खो चुकी थीं। पता नहीं, लछमी की जवानी को देखकर उसकी क्या हालत होती ! अब तो महन्थ सेवादास को बहुत लोग प्रणाम-बन्दगी भी नहीं करते।…धर्म-भ्रष्ट हो गया है। बगुलाभगत है। ब्रह्मचारी नहीं, व्यभिचारी है।

पूड़ी-जिलेबी और दही-चीनी के भंडारे की घोषणा के बाद जनमत बदल रहा है।…कैसा भी हो, आखिर साधु है ! किसने आज तक इतना बड़ा भोज किया ! , तहसीलदार ने अपने बाप के श्राद्ध में जाति-बिरादरीवालों को भात और गैर जाति के लोगों को दही-चूड़ा खिलाया था। सिंघजी ने अपनी सास के श्राद्ध में अपनी जाति के लोगों को पूरी-मिठाई और अन्य जाति के लोगों को दही-चूड़ा खिलाया था। खेलावन के यहाँ, पिछले साल, माँ के श्राद्ध में जैसा भोज हुआ सो तो सबों ने देखा ही है। फिर, सारे गाँव के लोगों को, औरत-मरद बच्चों को, आज तक किसने खिलाया है ? चीनी मिलती नहीं। भगमान भगत ने कहा है कि बिलेक में एक बोरा चीनी का दाम है एक नमरी। (सौ रुपए का नोट) चर मन चीनी-दो नमरी !

तन्त्रिमा, गहलोत और पोलियाटोली के अधिकांश लोगों ने पूड़ी-जिलेबी कभी चखी भी नहीं। बिरंची एक बार राज की गवाही देने के लिए कचहरी गया तो तहसीलदार ने पूड़ी-जिलेबी खिलाई थी। गाँव में, न जाने कैसे, यह हल्ला हो गया कि बिरंची ने तहसीलदार का जूठा खाया है।…जनेऊ देने के लिए जाति के पंडित जी आए थे। बिरंची के सिर पर सात घंटे तक पैला-सुपाड़ी रखने की सजा दी गई थी-पाँच सुपारी पर पैला भर पानी ! ज़रा भी धैला हिला, एक बूंद भी पानी गिरा कि ऊपर से झाड़ की मार ! तहसीलदार साहब क्या कर सकते हैं ! जाति-बिरादरी का मामला है, इसमें वे कुछ नहीं बोल सकते। आखिर पाँच रुपैया जुरमाना और जाति के पंडित जी को एक जोड़ा धोती देकर बिरंची ने अपना हुक्का-पानी खुलवाया था।…पूड़ी-जिलेबी का स्वाद याद नहीं !

“जीवनदास !”

“बालदेव जी आए हैं। बनगी बालदेवबाबू !”

“बनगी नहीं, जाय हिन्द बोलो, जाय हिन्द !…हाँ जी, इस टोले में कितने लोग हैं, हिसाब करके बताओ तो। औरत-मरद, बच्चों का भी जोड़ना। क्या गिनना नहीं जानते ? बिरंची कहाँ है ?”

बालदेव जी घर-घर घूमकर मर्दुमशुमारी कर रहे हैं। बड़ा झंझट का काम है। सिर्फ पोलियाटोले में सात कोड़ी (एक कोड़ी में बीस संख्या होती है।) चार, नहीं…चार कोड़ी सात; ततमाटोली में पूरे पाँच कोड़ी, दुसाधटोली में दो कोड़ी, कोयरीटोले में छः कोड़ी तीन।…यादवटोली का हिसाब कालीचरन कर रहा है। भगवान जाने, सिपैहियाटोली के लोग इसमें भी मीनमेख निकालकर बखेड़ा न खड़ा कर दें। क्या ठिकाना है ! बाभनों ने तो साफ इनकार कर दिया है। यदि बाभनों के लिए अलग प्रबन्ध न हुआ तो सरब संघटन में नहीं खाएंगे। बाभन-भोजन ही नहीं हुआ तो फिर भोज क्या ! महन्थ जी से कहना होगा। बाभन हैं ही कितने, सब मिलाकर दस घर।

महन्थ साहब ने सब सुनकर कहा, “सतगुरु हो ! सतगुरु हो ! बाभन लोगों का अलग इन्तजाम कर दो बालदेवबाबू ! इसमें हर्ज ही क्या है ! नहीं हो, तो उन लोगों का प्रबन्ध मठ पर ही कर दो।”

इसी समय लछमी दासिन ने आकर खबर दी, “सिपैहियाटोला के लोग भी नहीं खाएँगे। हिबरनसिंघ का बेटा आकर कह गया है, ग्वाला लोगों के साथ एक पंगत में नहीं खाएँगे। हम लोगों के गाँव का आटा-घी-चीनी अलग दे दिया जाए, हम लोग अलग बनवा लेंगे।”

“सतगुरु हो ! यह तो अच्छा बखेड़ा खड़ा हुआ। अब यादव लोग कहेंगे कि धानुक लोगों के साथ एक पंगत में नहीं खाएँगे।”

“हिबरनसिंघ के बेटे ने तो यह भी कहा कि बालदेव यदि इन्तजामकार रहेगा तो महन्थ साहेब का भंडारा भंडुल होगा।”

“गुरु हो ! गुरु हो!”

“तो महन्थ साहेब, हमारे रहने से लोग विरोध करते हैं तो हम खुसी-खुसी…”

“वाह रे ! यह भी कोई बात है ! महन्थ साहेब, मैं कह देती हूँ, यदि बालदेव जी को छोड़कर और किसी को प्रबन्ध करने का भार दिया तो समझ लीजिए कि भंडारा चौपट हुआ। मैं इस गाँव के एक-एक आदमी को पहचानती हूँ।”

बालदेव ने पहली बार लछमी की ओर गरदन उठाकर देखने की हिम्मत की। निगाहें ऊपर उठीं और लछमी की बड़ी-बड़ी आँखों में वह खो गया।…आँखों में समा गया बालदेव शायद।

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