चैप्टर 4 गुनाहों का देवता : धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 4 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

Chapter 4 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti

Chapter 4 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti

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सुधा का कॉलेज बड़ा, एकांत और खूबसूरत जगह बना हुआ था। दोनों ओर ऊँची-सी मेड़ और बीच में से कंक्रीट की खूबसूरत घुमावदार सड़क। दाईं ओर चने और गेहूं के खेत, बेर और शहतूत के झाड़ और बाईं ओर ऊँचे-ऊँचे टीले और ताड़ के लंबे-लंबे पेड़। शहर से काफ़ी बाहर देहात का सा नज़ारा और इतना शांत वातावरण कि लगता था कि यहाँ कोई उथल-पुथल, कोई शोरगुल है ही नहीं। जगह इतनी हरी-भरी कि दर्जों के कमरों के पीछे ही महुआ चूता था और लंबी-लंबी घास में दुपहरिया के नीले फूलों की जगली लतरें उलझी रहती थी।

और इस वातावरण अगर किसी पर सब से ज्यादा प्रभाव डाला था, तो वह थी गेसू। उसे अच्छी तरह मालूम था कि बाँस के झाड़ के पीछे किस चीज के फूल हैं। पुराने पीपल पर गिलोय की लतर चढ़ी है और करोंदे के झाड़ के पीछे एक साही की मांद है। नागफनी की झाड़ी के पास एक बार उसने एक लोमड़ी भी देखी थी। शहर के एक मशहूर रईस साबिर हुसैन काज़मी की वह सब से बड़ी लड़की थी। उसकी माँ जिन्हें उसके पिता अदन से ब्याह कर लाये थे, शहर की मशहूर शायरा थी। हालांकि उनका दीवान छपकर मशहूर हो चुका था, मगर वह किसी भी बाहरी आदमी से कभी नहीं मिलती-जुलती थी, उनकी सारी दुनिया अपने पति और अपने बच्चों तक सीमित थी। उन्हें शायराना नाम रखने का बहुत शौक़ था। अपनी दोनों लड़कियों का नाम उन्होंने गेसू और फूल रखा था और अपने छोटे बच्चे का नाम हसरत। हाँ, वह अपने पतिदेव साबिर साहब के हुक्के से बेहद चिढ़ती थी और उसका नाम उन्होंने रखा था, ‘आतिश-फ़िज़ां।’

घास, फूल, लतर ओर शायरी का शौक गेमू ने अपनी माँ मे विरासत में पाया था। क़िस्मत से उसका कॉलेज भी ऐसा मिला, जिसमें दर्जे को खिड़कियों से आम की शाखें झांका करती थी। इसलिए हमेशा जब कभी मौका मिलता था, क्लास से भाग कर गेसू घास पर लेटकर सपने देखने की आदी हो गयी थी। क्लास के इस महाभिनिष्क्रमण और उसके बाद लतरो की छाँह मे जाकर ध्यान-योग की साधना में उसकी एक मात्र साथिन थी – सुधा। आम की घनी छाँह मे हरी-हरी दूब में दोनों सर के नीचे हाथ रखकर लेट रहतीं और दुनिया भर की बातें करती रहतीं। बातों में छोटी से छोटी और बड़ी सी बड़ी किस तरह की बातें रहती थी, यह वही समझ सकता है, जिसने कभी दो अभिन्न सहेलियों की एकांत र्ता सुनी है। गालिब की शायरी से लेकर, उन के छोटे भाई हसरत ने एक कुत्ते का पिल्ला पाला है, यह गेसू सुनाया करती थी और शरत के उपन्यासों से लेकर यह कि उसकी मालिन ने गिलट का कड़ा वनवाया है, यह सुधा बताया करती थी। दोनों अपने-अपने मन की एक-दूसरे को बता डालती थी और जितना भावुक, प्यारा, अनजान और सुकुमार दोनों का मन था, उतनी ही भावुक और सुकुमार दोनों की बातें। हाँ, भावुक, सुकुमार दोनों ही थीं, लेकिन दोनो में एक अंतर था। गेसू शायर होते हुए भी इसी दुनिया की थी और सुधा शायर न होते हुए भी कल्पनालोक की थी। गेसू अगर झाड़ियों में से कुछ फूल चुनती, तो उन्हें सुँघती, उन्हें अपनी चोटी में सजाती और उन पर चंद शेर कहने के बाद भी उन्हें माला में पिरोकर अपनी कलाई में लपेट लेती। सुधा लतरों के बीच में सर रखकर लेट जाती और निर्निमेष पलकों से फूलों को देखती रहती और आँखो से न जाने क्या पीकर उन्हें उनीं की डालों पर फूलता हुआ छोड़ देती। गेसू हर चीज का उचित इस्तेमाल जानती थी, किसी भी चीज को पसंद करने या प्यार करने के बाद अब उनका क्या उपयोग है, क्रियात्मक यथार्थ जीवन में उस क्या स्थान है, यह गेसू खूब समझती थी। लेकिन सुधा किसी भी फूल के जादू मे बँध जाना चाहती थी, उसी की कल्पना में डूब जाना जानती थी, लेकिन उसके बाद सुधा को कुछ नहीं मालूम था। गेसू की कल्पना और भावुक सूक्ष्मता शायरी में व्यक्त हो जाती थी, अतः उसकी ज़िन्दगी में काफ़ी व्यावहारिकता और यथार्थ था, लेकिन सुधा जो शायरी लिख नहीं सकती थी, अपने स्वभाव और गठन में खुद ही एक आम शायरी बन गयी थी। वह भी पिछले दो सालों में तो सचमुच ही यह इतनी गंभीर, सुकुमार और भावनामयी बन गयी थी कि लगता था कि सूर के गीतों से उसके व्यक्तित्व के रेशे बुने गये हैं।

लडकियाँ, गेसू और सुधा के इस स्वभाव और उनकी अभिन्नता से वाकिफ़ थी। और इलिए जब आज सुधा की मोटर आकर सायबान में रुकी और उसमें से सुधा और गेसू हाथ में फाइल लिये उतरी, तो कामिनी ने हँसकर प्रभा से कहा – “लो, चंदा-सूरज की जोड़ी आ गयी!” सुधा ने सुन लिया। मुस्कुराकर गेसू की ओर, फिर कामिनी और प्रभा की ओर देख कर हँस दी। सुधा बहुत कम बोलती थी, लेकिन उसकी हँसी ने उसे खुशमिजाज़ साबित कर रखा था और वह सभी की प्यारी थी। प्रभा ने आकर सुधा के गले मे बांह डालकर कहा – “गेसू बानो, थोड़ी देर के लिए सुधा रानी को हमें दे दो। ज़रा कल के नोट्स उतारने हैं इनसे पूछकर।”

गेसू हँस कर बोली – “उसके पापा से तय कर ले, फिर तू ज़िन्दगी भर सुधा को पाल-पोस, मुझे क्या करना है।”

जब सुधा प्रभा के साथ चली गयी, तो गेमू ने कामिनी के कंधे पर हाथ रखा और कहा – “कम्मो रानी, अब तो तुम्हीं हमारे हिस्से में पड़ी, आओ। चलो देखें, लतर में कुन्दरू हैं?”

“कुन्दरू तो नहीं, अब चने का सेत हरिया आया है।” कम्मो बोली ।

गृह विज्ञान का पीरियड था और मिस उमालकर पढा रही थी। बीच की क़तार की एक बेंच पर कामिनी, प्रभा, गेसू और सुधा बैठी थीं।

हिस्साबाट अभी तक कायम था, अतः कामिनी के बगल में गेसू, गेसू के बगल में प्रभा और प्रभा के बाद बेंच के कोने पर सुधा बैठी थी। मिस उमालकर रोगियों के खान-पान के बारे में समझा रही थी। मेज़ के बगल में खड़ी हुई, हाथ में एक किताब लिये हुए उसी पर निगाह लगाये वह बोलती जा रही थी। शायद अंग्रेजी  की किताब में जो कुछ लिखा हुआ था, उसी का हिन्दी में अनुवाद करते हुए वह बोलती जा रही थी “बालू एक नुकसानदेह तरकारी है, रोग की हालत में। वह खुश्क होता है, गरम होता है और हजम मुश्किल से होता है।”

सहता गेसू ने एकदम बीच में पूछा- “गुरुजी, गाँधीजी आलू खाते हैं या नहीं?” सभी हँस पड़े।

मिस उमालकर ने बहुत गुत्ते से गेसू की ओर देखा और डाँटकर कहा – “व्हाई टॉक ऑफ़ गाँधी? आई वांट नो पॉलिटिकल डिस्कशन इन क्लास ( “गाँधी से क्या मतलब? मैं दर्जे में राजनीतिक बहस नही चाहती”।) इस पर तो सभी लड़कियों की दबी हुई हँसी फूट पड़ी। मिस उमालकर झल्ला गयी और मेज पर किताब पटकते हुए बोली – “साईलेंस ( खामोश )!” सभी चुप हो गये। उन्होंने फिर पढ़ाना शुरू किया।

“जिगर के रोगियों के लिए हरी तरकारियाँ बहुत फायदेमंद होती हैं। लौकी, पालक और हर किस्म के हरे साग तन्दुरुस्ती के लिए बहुत फ़ायदेमंद होते हैं।”

सहसा प्रभा ने कुहनी मारकर गेसू से कहा – “ले फिर क्या है, निकाल चने का हरा साग, खा-खाकर मोटे हों मिस उमालकर के घण्टे में।” गेसू ने अपने कुरते की जेब से बहुत-ना साग निकाल कर कामिनी और प्रभा को दिया।

मिस उमालकर अब शक्कर के हानि-लाभ बता रही थी – “लंबे रोग के बाद रोगी को शक्कर कम देनी चाहिए। दूध या साबूदाने में ताड़ की मिश्री मिला सकते हैं। दूध तो ग्लूकोज़ के साथ बहुत स्वादिष्ठ लगता है।”

इतने में जब तक सुधा के पास साग पहुँचा कि फौरन मिम उमालकर ने देख लिया। वह समझ गयी यह शरारत गेमू की होगी – “मिस गेसू, बीमार हालत में दूध काहे के साथ स्वादिष्ठ लगता है?”

इतने में सुधा के मुँह से निकला — “साग काहे के साथ खायें?”

और गेसू ने कहा- “नमक के साथ।”

“हूँ! नमक के साथ?” मिस उमालकर ने कहा – “बीमारी में दूढ नमक के साथ अच्छा लगता है। खड़ी हो! कहाँ था ध्यान तुम्हारा।”

गेसू सन्न!

मिस उमालकर का चेहरा मारे गुस्से के लाल हो रहा था। “क्या बात कर रही थी, तुम और सुधा…”

गेसू सन्न!

“अच्छा तुम लोग क्लास के बाहर जाओ, और आज हम तुम्हारे गार्जियन को खत भेजेंगे। चलो, जाओ बाहर।”

सुधा ने कुछ मुस्कुराते हुए प्रभा की ओर देखा और प्रभा हँस दी। गेसू ने देखा कि मिस उमालकर का पारा और भी चढ़ने वाला है, तो वह चुपचाप किताबी उठाकर चल दी। सुधा भी पीछे-पीछे चल दी।

कामिनी ने कहा – “खत-वत भेजती रहना सुधा!” और क्लास ठठाकर हँस पड़ी। मिस उमालकर गुस्से से नीली पड़ गयी – “क्लास अब खत्म होगी।” और रजिस्टर उठाकर चल दी । गेमू अभी अंदर ही थी कि वह बाहर चली गयी और उनके जरा दूर पहुँचते ही गेसू ने बड़ी अदा से कहा – “बड़े बेआवरू होकर तेरे कूचे से हम निकले।” और सारी क्लास फिर हँसी से गूंज उठी। लड़कियाँ चिड़ियों की तरह फुर्र हो गयी और थोड़ी ही देर में सुधा और गेसू बैंडमिंटन फील्ड के पास वाले छतनार पाकड़ के नीचे लेटी हुई थी।

बड़ी खुशनुमा दोपहरी थी। खुशबू से लदे हल्के-हल्के झोंके गेसू की ओढ़नी और गरारे की सिलवटों से आँख-मिचौली खेल रहे थे। आसमान में कुछ हल्के रुपहले बादल उड़ रहे थे और जमीन पर बादलों की साँवली छायायें दौड़ रही थी। घास के लंबे-चौड़े मैदान पर बादलों की छायाओं का खेल बड़ा मासूम लग रहा था। जितनी दूर तक छांह रहती थी, उतनी दूर तक घास का रंग गहरा काही हो जाता था, और जहाँ-जहाँ बादलों से छनकर धूप बरसने लगती थी, वहाँ-वहाँ घास सुनहरे धानी रंग की हो जाती थी। दूर कहीं पर पानी बरसा था और बादल हल्के होकर खरगोश के मासूम स्वच्छन्द बच्चों की तरह दौड़ रहे थे। सुधा आँखो पर फाइल की छाँह किये हुए बादलों की ओर एकटक देख रही थी। गेसू ने उसकी ओर करवट बदली और उस की वेणी में लगे हुए रेशमी फीते को उँगली में उमेठते हुए एक लंबी-सी सांस भर कर कहा-

“बादशाहों की मुअत्तर ख्वाबगाहों में कहाँ वह मजा,

जो भीगी-भीगी घास पर सोने में है,

मुतमइन बेफिक्र लोगों की हँसी में भी कहाँ लुत्फ़,

जो एक-दूसरे को देख कर रोने में है।”

सुधा ने बादलों से अपनी निगाह नहीं हटायी, बस एक करुण सपनीली मुस्कराहट बिखेर कर रह गयी।

“क्या देख रही है सुधी?” गेसू ने पूछा ।

“बादलों को देख रही हूँ।” सुधा ने बेहोश आवाज में जवाब दिया। गेसू उठी और सुधा को छाती पर सिर रखकर बोली –

“कैफ़ बरदोश, बादलों को न देख,

बेखबर, तू न कुचल जाये कहीं।”

और सुधा के गाल में जोर की चुटकी काट ली।

“हाय रे!” सुधा ने चीखकर कहा और उठ बैठी, “वाह! वाह! कितना अच्छा शेर है। किसका है?”

“पता नहीं किसका है।” गेसू बोली, “लेकिन बहुत सच है सुधी, आसमान के बादलों के दामन में अपने ख्वाब टाँक लेना और उनके सहारे ज़िन्दगी बसर करने का खयाल है तो बड़ा नाजुक, मगर रानी बड़ा खतरनाक भी है। आदमी बड़ी ठोकरें खाता है। इससे तो अच्छा है कि आदमी को नाजुकखयाली से साबिक़ा ही न पड़े। खाते-पीते, हँसते-बोलते आदमी की ज़िन्दगी कट जाये।”

सुधा ने अपना आंचल ठीक किया, और लटो में से घास के तिनके निकालते हुए कहा – “गेसू, अगर हम लोगों को भी शादी ब्याह की झंझट में न फंसना पड़े और इसी तरह दिन कटते जायें, तो कितना मजा आये। हँसते-बोलते, पढ़ते-लिखते, घास में लेटकर बादलों में प्यार करते हुए कितना अच्छा लगता है, लेकिन हम लड़कियों की ज़िन्दगी भी क्या? मैं तो सोचती हूँ गेसू, कभी ब्याह ही न करूं। हमारे पापा का ध्यान कौन रखेगा?”

गेसू थोड़ी देर तक सुधा की आँखों में आँखें डालकर शरारत-भरी निगाहों से देखती रही और मुस्कुरा कर बोली- “अरे अब ऐसी भोली नहीं हो रानी तुम! ये शवाब, ये उठान और ब्याह नहीं करेंगी, जोगन बनेंगी।”

“अच्छा चल हट बेशरम कहीं की, खुद ब्याह करने की ठान चुकी है, तो दुनिया भर को क्यों तोहमत लगाती है!”

“मैं तो ठान ही चुकी हूँ, मेरा क्या! फिक्र तो तुम लोगों की है कि ब्याह नहीं होता, तो लेटकर बादल देखती हैं।” गेसू ने मचलते हुए कहा।

“अच्छा, अच्छा,” गेमू की ओढ़नी खींचकर सिर के नीचे रखकर सुधा ने कहा – “क्या हाल है तेरे अख्तर मियाँ का? मंगनी कब होगी तेरी?”

मंगनी क्या किसी दिन हो जाये, बस फूफीजान के यहाँ आने-भर की क़सर है। वैसे अम्मी तो फूल की बात उनसे चला रही थी, पर उन्होंने मेरे लिए इरादा जाहिर किया। बड़े अच्छे हैं, आते हैं, तो घर भर में रोशनी छा जाती है।” गेसू ने बहुत भोलेपन से गोद में सुधा का हाथ रखकर उसकी उँगलियाँ चटखाते हुए कहा।

“वे तो तेरे चाचाजात भाई है ना? तुझसे तो पहले उनसे बोल-चाल रही होगी।” सुधा ने पूछा ।

“हाँ हाँ, खूब अच्छी तरह से। मौलवी साहब हम लोगों को साथ-साथ पढ़ाते थे और जब हम दोनों सबक भूल जाते थे, तो एक-दूसरे का कान पकड़ कर साथ-साथ उठते-बैठते थे।” गेसू कुछ झेंपते हुए बोली।

सुधा हँस पडी – “वाह रे! प्रेम की इतनी विचित्र शुरूआत मैंने कहीं नहीं सुनी थी। तब तो तुम लोग एक-दूसरे का कान पकड़ने के लिए अपने आप सबक़ भूल जाते होगे?”

“नहीं जी! एक बार फिर पढ़कर कौन सबी भूलता है और एक बार सबक याद होने के बाद जानती हो इश्क में क्या होता है –

“मकतबे इश्क़ में इक ढंग निराला देखा,

उसको छुट्टी न मिली, जिसको सबक़ याद हुआ।”

खैर, यह सव बात जाने दे सुधा, अब तू कब ब्याह करेगी?”

“जल्दी ही करूंगी।” सुधा बोली।

“किससे?”

“तुझसे।” और दोनों खिलखिलाकर हँस पड़ी। बादल हट गये थे और पाकड की छाँह को चीरते हुए एक सुनहली रोशनी का तार झिलमिला उठा। हँसते वक्त गेसू के कान के टॉप चमक उठे और सुधा का ध्यान उधर खिंच गया।

 “ये कब बनवाया तूने?”

“बनवाया नही।”

“तो उन्होंने दिये होंगे, क्यों?”

गेसू ने शरमाकर सर हिला दिया। सुधा ने उठकर हाथ से छूते हुए कहा – “कितने सुंदर कमल हैं! वाह! क्यों, गेसू, तूने सचमुच के कमल देखे हैं?”

“न।”

“मैंने देखे हैं।”

“कहाँ?”

“असल मे पाँच-छह साल पहले तक मैं गाँव में रहती थी न। ऊँचाहार के पास एक गाँव में मेरी बुआ रहती है न, बचपन से मैं उन्हीं के पास रहती थी। पढ़ाई की शुरूआत मैंने वहीँ की और सातवीं तक वहीँ पढ़ी। तो वहाँ मेरे स्कूल के पीछे के पोखरे में बहुत से कमल थे। रोज शाम को मैं भाग जाती थी, और तालाब में घुस कर कमल तोड़ती थी और घर से बुआ एक लंबा-सा सोंटा लेकर गालियाँ देती हुई आती थी मुझे पकड़ने के लिये। जहाँ वह किनारे पर पहुँचती, तो मैं कहती अभी डूब जायेंगे बुआ, अभी डूबे, तो बहुत रबड़ी-मलाई की देकर वह मिन्नत करती निकल आओ, तो मैं निकलती थी। तुमने तो कभी देखा नहीं होगा हमारी बुआ को?”

“न, तूने कभी दिखाया ही नहीं।”

“इढर बहुत दिनों से आयी ही नहीं वो, आयेंगी तो दिमाऊंगी तुझे। और उनकी एक लड़की है। बड़ी प्यारी, बहुत मजे की है। उसे देखकर तो तुम उसे बहुत प्यार करोगी। वो तो अब यहीं आने वाली है। अब यही पढ़ेगी।”

“किस दर्जे में पढ़ती है?”

“प्राइवेट विदुषी मे बैठेगी इस साल। खूब गोल-मटोल और हँसमुख है।” सुधा बोली।

इतने में घण्टा बोला और गेसू ने सुधा के पैर के नीचे दबी हुई अपनी ओढ़नी खींची।

“अरे, अब आखिरी घण्टे में जाकर क्या पढ़ोगी। हाजिरी तो कट ही गयी। अब बैठो यही बातचीत करें, आराम करें।” सुधा ने अलसाये स्वर में कहा और खड़ी होकर एक मदमाती हुई अँगडाई ल। गेसू ने हाथ पकड़ कर उसे बिठा लिया और बड़ी गंभीरता से कहा –

“देखो ऐसी असौहीं अंगडाई न लिया करो, इससे लोग समझ जाते हैं कि अब बचपन करवट बदल रहा है।”

“घत्।” बेहद झेंप कर और फ़ाइल मे मुँह छिपाकर सुधा बोली।

 “लो तुम मजाक समझती हो, एक शायर ने तुम्हारी अंगडाई के लिए कहा है –

“कौन ये ले रहा है अंगड़ाई।

आसमानों को नींद आती है”

“वाह” सुधा बोली, “अच्छा गेसू आाज बहुत से शेर सुनाओ।”

“सुनो –

“इक रिदायेतीरगी है और खाबेकायनात

डूबते जाते हैं तारे, भीगती जाती है रात !”

“पहली लाइन के क्या मतलब है।“ सुधा ने पूछा।

“रिदायतीरी के माने हैं अधेरे की चादर और खाबेक़ायनात के माने है ज़िन्दगी का सपना – अब फिर सुनो शेर

“इक रिदायेतीरगी है और खाबेकायनात

डूबते जाते है तारे, भीगती जाती है रात !”

“वाह! कितना अच्छा है – अंधकार की चादर है, जीवन का स्वप्न है, तारे डूबते जाते हैं, रात भीगती जाती है गेसू, उर्दू की शायरी बहुत अच्छी है।”

“तो तू खुद उर्दू क्यों नहीं पढ़ लेती है?” गेसू ने कहा।

“चाहती तो बहुत हूँ, पर निभ नहीं पाता।”

“किसी दिन शाम को आओ सुधा, तो अम्मीजान से तुझे शेर सुनवाये। यह ले तेरी मोटर तो आ गयी।”

सुधा उठी, अपनी फाइल उठायी। गेसू ने अपनी ओढ़नी झाड़ी और चली। पास आकर उचककर उसने प्रिंसिपल का रूम देका\। वह खाली था। उसने दाई को खबर दी और मोटर पर बैठ गयी।

गेसू बाहर खड़ी थी।

“चल तू भी न!”

“नहीं, मैं गाड़ी पर चली जाऊंगी।”

“अरे चलो, गाड़ी साढ़े चार बजे आयेगी। अभी घण्टा भर है। घर पर चाय पियेंगे, फिर मोटर पहुँचा देगी। जब तक पापा नहीं हैं, तब तक जितना चाहो कार घिसो।”

गेसू भी आ बैठी ओर कार चल दी।

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