चैप्टर 4 दीवाने होके हम रोमांटिक सस्पेंस नॉवेल | Chapter 4 Deewane Hoke Hum Romantic Suspense Novel In Hindi Read Online

चैप्टर 4 दीवाने होके हम रोमांटिक सस्पेंस नॉवेल | Chapter 4 Deewane Hoke Hum Romantic Suspense Novel In Hindi Read Online

Chapter 4 Deewane Hoke Hum Romantic Suspense Novel In Hindi 

Chapter 4 Deewane Hoke Hum Romantic Suspense Murder Mystery Book

झमाझम बारिश अब भी जारी थी। रूपल ने कार की खिड़की का शीशा नीचे गिराया और बाहर हाथ निकालकर हथेली पसार ली। उसकी नज़र हथेली पर थिरकती बारिश की पारदर्शी बूंदों पर टिक गई। वे बूंदें जब उसकी हथेली पर फ़िसलती, तो वह छटपटा कर रह जाती। वह मुठ्ठी भींचकर उन्हें समेट लेना चाहती। मगर…

हर चीज़ पर उसका इख़्तियार कहाँ था?

काश हर चीज़ पर उसका इख़्तियार होता। काश हर चीज़ मुमकिन होती। काश बात सिर्फ़ बारिश की बूंदों की होती। मगर ऐसा नहीं था। यहाँ तो ज़िंदगी भी बारिश की बूंदों सरीखी हाथ से फ़िसलने को आमादा थी और रूपल चाहकर भी उसे समेट नहीं पा रही थी। शायद इसलिए वह बेबसी का आँचल ओढ़े अपने भीतर की छटपटाहट अपने भीतर ही दबाना सीख रही थी।

बारिश की बूंदों से रूपल की ख़ामोश गुफ़्तगू अभी जारी ही थी कि देवेन्द्र ड्राइविंग सीट पर आकर बैठ गया। देवेन्द्र की आहट पाकर रूपल ने झट से अपना हाथ अंदर खींचा और खिड़की का शीशा चढ़ा लिया।

देवेन्द्र पेशे से दांतों का डॉक्टर था। रोज़ की तरह वह अपने क्लिनिक जा रहा था और रास्ते में रूपल को एम०पी० नगर कॉफ़ी हाउस में ड्राप करने वाला था। उम्र में वह रूपल से दस साल बड़ा था। उम्र के इस फ़ासले ने दोनों के दरमियान कभी दोस्ताना रिश्ता पनपने ही नहीं दिया। पिता का साया सिर से उठ जाने के बाद घर की ज़िम्मेदारियों का बोझ देवेन्द्र के कंधों पर क्या आया, वह उम्र से पहले ही परिपक्व हो गया। उसका बर्ताव और रवैया भाई सरीखा न रहकर पिता सरीखा हो गया।

वह बेहद संज़ीदा किस्म का इंसान था। ये संज़ीदगी कभी-कभी उसे रूखा और ख़ुश्क बना देती थी। उसके सख्त चेहरे को देखकर अंदाज़ा लगा पाना मुश्किल था कि वो चेहरा कभी मुस्कुराता भी होगा। मगर सिर्फ़ मुस्कराहट ही तो ख़ुशी की निशानी नहीं होती। वह अपनी ज़िन्दगी में ख़ुश था और संतुष्ट भी।   

भगवान का दिया सब कुछ था उसके पास। किसी चीज़ की कमी न थी। बेहद प्यार करने वाली, उसकी हर बात की परवाह करने वाली और तो और उसका हर हुक्म बजाने वाली ख़ूबसूरत बीवी निशि उसे ख़ुश रखने में अपनी ज़िन्दगी न्यौछावर कर रही थी। दोनों की बेटी प्यारी और चंचल ‘जिया’ अपनी खट्टी-मीठी शरारतों से घर को गुलज़ार किये हुए थी। साथ ही बंगला, गाड़ी, पैसा, ऐशो-आराम की हर चीज़ की ज़िन्दगी में मौज़ूदगी। 

ख़ुशहाली की हर वजह थी उसकी ज़िन्दगी में। मगर ख़ुशहाल इंसान की ज़िन्दगी में भी परेशानियाँ दस्तक देती हैं और वहाँ अपना आशियाना बना लेती हैं। देवेन्द्र की ज़िन्दगी में भी परेशानी थी और वो थी – रूपल और रूपल को उसकी ज़िन्दगी में परेशानी का सबब बनाने वाली थी उन दोनों की माँ – सावित्री देवी, जो हर वक़्त उसे यह अहसास दिलाया करती थी कि बहन की शादी कर घर से रुखसत करना हर भाई का फर्ज़ होता है और जब तक वह अपना फर्ज़ निभा न ले, तब तक उस पर से माँ का कर्ज़ नहीं उतरता।

उनका ये कर्ज़ और फ़र्ज़ का कांसेप्ट रूपल को कभी समझ नहीं आया। हाँ, ये ज़रूर था कि इसके चक्कर में वह पिसी चली जा रही थी। ज़िन्दगी की जो डोर वह ख़ुद थामना चाहती थी, वह धीमे-धीमे उसके हाथ से छूटकर उसकी माँ और भाई के हाथों में कसती चली जा रही थी। वह पिंजरे में कैद उस पंछी की तरह थी, जो पिंजरे का दरवाज़ा खुला देखकर भी ख़ामोशी से आँख मूंद लेता है और स्वीकार लेता है कि बाहरी दुनिया से कैद की ये ज़िन्दगी ही भली! 

“सीट बेल्ट बांधों।” अपनी सीट बेल्ट बांधते हुए देवेन्द्र ने रूपल से कहा और कार स्टार्ट कर दी। रूपल जब तक अपनी सीट बेल्ट बांधती, कार चल पड़ी।

बारिश की पारदर्शी बूंदों को चीरती हुई कार तेज़ रफ़्तार से बढ़ी चली जा रही थी। उनकी कार के पीछे एक दूसरी कार भी फुल स्पीड में भागी चली जा रही थी। काले दस्ताने पहने हाथों ने कार की स्टीयरिंग थाम रखी थी। काले चश्मे के पीछे छुपी आँखें सामने भाग रही कार पर जमी हुई थी। 

अपना पीछा किये जाने से बेखबर रूपल और देवेन्द्र अपने ही ख़यालों में गुम थे। दोनों के दरमियान एक अजीब सी ख़ामोशी पसरी हुई थी। रूपल जब कभी देवेन्द्र के साथ अकेले पड़ जाती, हालात बड़े ही अजीब हो जाते। उस वक़्त का हाल भी जुदा न था। वह बांट जोह रही थी कि कब कॉफ़ी हाउस आये और वह इस अजीबोगरीब हालात की कैद से आज़ाद हो जाये।

बचपन से ही रूपल और देवेन्द्र के बीच बातचीत का सिलसिला कुछ लफ़्ज़ों तक ही सिमटा रहा था। बड़े होते-होते कब और कैसे उनके दरमियान ख़ामोशी की दीवार खड़ी हो गई, दोनों को अहसास ही नहीं हुआ। अब तो एक-दूसरे तक अपनी बात पहुँचाने उन्हें मध्यस्थ की ज़रूरत पड़ती थी। जब तक आस-पास लोगों का जमवाड़ा न हो, कंठ से बोल ही नहीं फूटते थे। वैसे हमेशा उन दोनों की कोशिश यही रहती कि ऐसा कोई मौका आये ही ना, जब उन्हें एक-दूसरे का सीधा सामना करना पड़े। मगर इन सबके बावज़ूद यदि कभी वे ऐसे हालात की गिरफ़्त में फंस जाते, जहाँ से बच निकलने की कोई गुंजाइश ना होती, तब यही ख़ामोशी की दीवार उनका सहारा होती, जिसे तोड़ना नामुमकिन तो नहीं, पर मुश्किल ज़रूर होता था। 

रूपल खिड़की से बाहर देख रही थी। देवेन्द्र कार ड्राइव करते-करते थोड़ी-थोड़ी देर में तिरछी नज़र से उसकी तरफ देखता, मानो कुछ पूछना चाह रहा हो, मगर हिचकिचाहट के कारण पूछ न पा रहा हो। आखिरकार उसने अख़बार में छपी ख़बर का ज़िक्र छेड़ दिया, जो पूरे शहर में चर्चा का विषय बना हुआ था, “जो न्यूजपेपर में ख़बर छपी है, तुम कल उसी शादी में गई थी ना?“

“हाँ!” रूपल ने अपना चेहरा देवेन्द्र की तरफ घुमाकर धीरे से जवाब दिया। देवेन्द्र सामने देखने लगा।

“तुम जानती थी उस लड़की को…क्या नाम था…” देवेन्द्र ने दिमाग पर ज़ोर डालने की कोशिश की।

“मौसम!”

“हाँ…मौसम!”

“गेस्ट लेक्चरर थी कॉलेज में!” रूपल ने बताया।

“दोस्त थी तुम्हारी?”

“नहीं!”

“उसकी फोटो है तुम्हारे पास?” देवेन्द्र का ये पूछना था कि रूपल ने हैरानी से उसे देखा। 

“न्यूजपेपर में उसका चेहरा साफ़ समझ नहीं आ रहा था। पर जाने क्यों, ऐसा लगा कि मैंने उसे कहीं देखा है।“

रूपल मोबाइल स्क्रॉल कर तस्वीर ढूंढने लगी। एक तस्वीर पर वह ठिठकी और हाथ बढ़ाकर मोबाइल की तस्वीर देवेन्द्र को दिखाने लगी। तस्वीर देखकर देवेन्द्र के माथे पर बल पड़ गये, “ये वही है।“

रूपल ने सवालिया नज़रों से देवेन्द्र को देखा।

“परसो ही फिलिंग करवाने मेरे क्लिनिक आई थी।“ देवेन्द्र ने कहा, “देखकर तो ऐसा लग नहीं रहा था कि वो ऐसा कुछ कर जायेगी। आई मीन परेशान नहीं लग रही थी। इनफैक्ट काफ़ी ख़ुश लग रही थी।“

रूपल क्या कहती? कई बार चेहरे की ख़ुशी दिल का दर्द छुपाने का एक नक़ाब भर होती है। ये उससे बेहतर कौन जानता था।

“जाते-जाते उसका पाउच छूट गया था मेरे केबिन में। किसी काम से शायद उसने अपने बैग से निकला होगा। अगर उसकी फैमिली से कॉन्टेक्ट हो, तो दे देना। मैं क्लिनिक से लेता आऊंगा उसका पाउच।“

रूपल ने ‘हाँ’ में सिर हिला दिया। दोनों के बीच फिर ख़ामोशी पसर गई। रूपल नहीं चाहती थी कि देवेन्द्र और कुछ कहे, क्योंकि वह जानती थी कि अब वह कुछ कहेगा, तो क्या कहेगा। 

कुछ देर में वे एम०पी० नगर कॉफ़ी हाउस पहुँच गये। जैसे ही देवेन्द्र ने रोड किनारे कार की रफ़्तार धीमी की, रूपल कार का दरवाज़ा खोलकर उतरने लगी। उसने अपना एक पैर बाहर सड़क पर रखा ही था कि देवेन्द्र की आवाज़ उसके कानों में पड़ी, “वो अच्छा लड़का है।”

रूपल ठिठक गई और सिर घुमाकर कंधे के ऊपर से पीछे देखने लगी। देवेन्द्र की नज़र कार की स्टीयरिंग पर थी। अपनी बात कहते हुए उसने रूपल की ओर नज़र उठाकर देखने की ज़हमत फिर नहीं उठायी थी। ऐसे पलों में वह अक्सर सोचा करती कि उन दोनों के लिए बात करते वक़्त एक-दूसरे की आँखों में देख पाना इतना मुश्किल क्यों है?

कोई जवाब दिए बगैर वह कार से उतर गई और उसके उतरते साथ कार चल पड़ी। बारिश अब भी जारी थी, बस बड़ी-बड़ी बूंदों ने छोटी-छोटी बूंदों का रूप ले लिया था। खुद को भीगने से बचाने की कोशिश में छाता तानकर लंबे-लंबे डग भरते हुए वह कॉफ़ी हाउस की ओर बढ़ने लगी।

हर बढ़ते कदम के साथ उसके ज़ेहन में कई बातें तैर रही थी – ‘पता नहीं क्या होने वाला है आज? जाने क्यों चली आई मैं यहाँ? नहीं आना चाहिए था मुझे? लेकिन करती भी तो क्या? और कोई चारा भी तो नहीं था…’ 

इन बातों में खोई हुई जैसे ही वह कॉफ़ी हाउस के एंट्री गेट पर पहुँची, पीछे से आते एक शख्स का कंधा उससे टकराया और उसके कदम लड़खड़ा गये। गनीमत ये थी कि गेट के सामने बैठे गार्ड ने उसे थाम लिया और वह गिरने से बच गई।

“मैडम! आप ठीक हैं ना!” गार्ड ने उससे पूछा।

“अ…अ….हाँ….थैंक्स!” कहते हुए रूपल ने सिर उठाकर गार्ड को देखा, फिर ख़ुद से टकराने वाले शख्स की तरफ नज़र घुमा ली। वह जल्दी-जल्दी कॉफ़ी हाउस में दाखिल हो रहा था। रूपल उसकी पीठ ही देख पाई। वह शख्स काले लिबास में था – काला कोट, काली पेंट, काला हैट, काले जूते।

रूपल की आँखों में हैरत और परेशानी के भाव तैर गये। ‘सॉरी कहना तो शायद कुछ लोगों को आता ही नहीं!’ बुदबुदाते हुए वह पीछे देखने लगी। इस आपाधापी में छाता उसके हाथ से छिटककर उड़ चुका था।

“मैडम! आप अंदर जाइये। मैं आपका छाता लाकर अपने पास रख लूंगा। वापस जाते समय ले लीजियेगा।” कहते हुए गार्ड छाते के पीछे भागा और रूपल कॉफ़ी हाउस में दाखिल हो गई।

अंदर दाखिल होने के बाद रूपल की नज़र बैठने के लिए एक वाज़िब जगह तलाशने लगी। क़िस्मत से, उस दिन कॉफ़ी हाउस में वैसी भीड़ नहीं थी, जैसी आमतौर पर हुआ करती थी और करीने से सजी टेबल-कुर्सियों में से कई खाली पड़ी हुई थीं। रूपल को एक ऐसे कोने की तलाश थी, जहाँ वह इत्मिनान से बैठ सके और उस शख्स के आने पर, जिससे मिलने वह वहाँ उस वक़्त मौज़ूद थी, सहज़ता से बातचीत हो सके। कोने में खिड़की के पास की एक खाली टेबल उसे मुनासिब लगी और उसने उस ओर कदम बढ़ा दिये। दिल धड़क रहा था उसका, ज़ेहन में बार-बार एक ही ख़याल कौंध रहा था, ‘पता नहीं आज क्या होगा? यहाँ पर भी और उसके बाद घर पर भी।’ इस तरह का दिन उस पर हमेशा भारी गुज़रता था।  

उसी समय कॉफ़ी हाउस के म्यूजिक सिस्टम में यश चोपड़ा की फिल्म “चाँदनी” का ये गीत बज उठा –

“लगी आज सावन में फिर वो झड़ी है,

वही आग सीने में फिर जल पड़ी है,

लगी आज सावन में फिर वो झड़ी है.”

गीत के बोल रूपल के कानों से क्या टकराये, वह ठिठक गई, दिल बेचैन हो उठा। हर बोल नश्तर बनकर उसके दिल में चुभने लगे, शायद इसलिए, क्योंकि वे कहीं न कहीं उसकी ही ज़िन्दगी की दास्तां बयां कर रहे थे। गला रूंध गया उसका, आँखें भर आई। आँखों के समंदर के मोती आँसू बनकर छलकने लगे। एक पल को उसका जी चाहा कि वो बाहर भाग जाये, कम से कम वहाँ बारिश में अपने आँसुओं को छुपा तो पायेगी। मगर अगले ही पल उसने इरादा बदल लिया और सारी हिम्मत जुटाकर आँसुओं को काबू कर फिर से चलने लगी। वह कोने की टेबल के पास पहुँची और कुर्सी खींचकर बैठ गई।

सामने दीवार पर लगी घड़ी में दस बजकर पैंतालीस मिनट हुए थे। तयशुदा वक़्त से आधा घंटा पहले ही वह कॉफ़ी हाउस में मौज़ूद थी। वजह और कोई नहीं भाई देवेन्द्र था, जिसने सुबह-सुबह ही उसे अपना फ़रमान सुना दिया था – ‘तैयार रहना। मैं क्लिनिक जाते हुए तुम्हें कॉफ़ी हाउस में ड्राप कर दूंगा।’

चाहकर भी वह इंकार न कर सकी थी। कैसे करती? वह इसके पीछे की देवेन्द्र की सोच से अच्छी तरह वाकिफ़ थी। ज़ाहिर था कि देवेन्द्र को उस पर रत्ती भर भी यकीन नहीं था। उसे शक था कि शायद वह यहाँ आये ही ना। ऐसा बर्ताव रूपल को चुभता था, मगर वह अपनी ज़ुबान पर ताला डाले रखती थी।

गुलाबी रंग का सलवार सूट और उस पर सफ़ेद रंग का नेट का दुपट्टा डाले वह खिड़की के बाहर नज़रें गड़ाये बैठी थी। बारिश में हल्के भीग चुके कमर तक लंबे बाल उसने खुले रख छोड़े थे। गेहुँआ रंग, गोल चेहरा, बड़ी-बड़ी काली आँखें, पतली सी नाक, भरे-भरे होंठ और होंठ के ऊपर एक किनारे पर छोटा सा तिल। कहने को वह कोई हूर की परी नहीं थी। पर एक सादगी थी उसमें, जो आकर्षित करती थी। उस दिन भी अपने सादे लिबास में वह सादगी की मूरत लग रही थी।

सजना-संवारना, ख़ूबसूरत दिखना, इन सबका उसके लिए कोई मायने नहीं था। इस बात की परवाह करना तो वह कब का छोड़ चुकी थी कि वह कैसी दिख रही है। उसके चेहरे पर मेकअप की कोई परत न थी, न ही आँखों में काजल की लकीरें। फिर भी बिना मेकअप के उस चेहरे पर एक अजीब सी कशिश थी और ख़ामोश आँखों में समुंदर सी गहराई। कोई उस चेहरे को पढ़ना चाहे, तो शायद उदासी के सिवाय कुछ भी न मिले। कोई उन आँखों की गहराई में उतरना चाहे, तो दर्द की गर्त में समाता ही चला जाये। वक़्त ने ज़ख्म दिया था उसे, जिसका मरहम वक़्त के ही पास था।

अपने ही ख़यालों में गुम रूपल इस बात बेख़बर थी कि ऊपरी फ्लोर पर बैठे एक शख्स की निगाहें उस पर जमी हुई है। फ़ूड मेन्यू की आड़ में अपना चेहरा छुपाये वह शख्स बड़े ही गौर से रूपल को देख रहा था। हालांकि, उसे मेन्यू में अपना चेहरा छुपाने की ज़रूरत नहीं थी। सिर पर काले हैट, आँखों में काले चश्मे और मुँह पर काले मास्क में उसे पहचानना नामुमकिन था।  

बाहर अब भी बारिश हो रही थी। 

‘पता नहीं, इतनी बारिश में वो आयेगा या नहीं?’ सोचते हुए रूपल ने फिर से निगाह घड़ी पर जमा दी। ग्यारह बज रहे थे, उसे पंद्रह मिनट और इंतज़ार करना था। गहरी साँस भरकर अपने खुले बालों पर उंगलियाँ फ़िराते हुए उसने इर्द-गिर्द सजी मेज़ों की तरफ़ नज़र घुमाई, जो आखिर में करीब की ही एक मेज़ पर बैठे नौजवान प्रेमी जोड़े पर जा टिकी। कुछ ऐसा घट रहा था उनके दरमियान, जिसने रूपल का ध्यान अपनी ओर खींच लिया था और चाहते हुए भी वह उन दोनों से अपनी नज़र हटा नहीं पा रही थी।

उस प्रेमी जोड़े के सामने मेज़ पर एक प्याला रखा हुआ था। उस प्याले को न तो लड़का हाथ लगा रहा था, न ही लड़की। दोनों एक-दूसरे की आँखों में डूबे मोहब्बत का ज़ाम पी रहे थे। कॉफ़ी उन्हें क्या सुहाती? उन्हें देखकर रूपल के होठों पर हल्की-सी मुस्कान तैर गई। मुस्कान ऊपर के फ्लोर पर बैठे शख्स के मास्क के पीछे छुपे होंठों पर भी तैर गई। वह बुदबुदाया –

“मोहब्बत का नशा भी क्या नशा है, अच्छे-भले इंसान को दीवाना कर देता है। इस दीवानगी से बचकर रहना रूपल। किसी का दीवानापन तुम्हारी जान ले लेगा।” 

क्रमश:

कौन आने वाला है कॉफ़ी हाउस में रूपल से मिलने? मास्क वाला आदमी किस दीवानगी की बात कर रहा है? क्या इसका इरादा रूपल की जान लेना है? जानने के लिए पढ़ें अगला भाग। 

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Author  – Kripa Dhaani

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