Chapter 4 Chattanon Mein Aag Ibne Safi Novel In Hindi
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दूसरी सुबह
सोफिया की हैरत की कोई सीमा न रही, जब उसने देखा कि कर्नल उस खब्ती आदमी की ज़रूरत से ज़्यादा खातिर मदारत कर रहा है।
अनवर और आरिफ़ अपने कमरों ही में नाश्ता करते थे। वजह यह थी कि कर्नल को विटामिनों का खब्त था। उसके साथ उन्हें भी नाश्ते में कुछ तरकारियाँ और भिगोये हुए चने खाने पड़ते थे। उन्होंने देर से सोकर उठना शुरू कर दिया था। आज कल तो एक अच्छा ख़ासा बहाना हाथ आया था कि वे काफ़ी रात गए तक रायफलें लिए टहला करते थे।
आज नाश्ते की मेज़ पर सिर्फ़ सोफिया, इमरान और कर्नल थे। इमरान कर्नल से भी कुछ ज्यादा विटामिन-ज़दा नज़र आ रहा था। कर्नल तो भीगे हुए चने ही चबा रहा था, मगर इमरान ने यह हरकत की कि चनों को छील-छील कर छिलके अलग और दाने अलग रखता गया। सोफिया उसे हैरत से देख रही थी। जब छिलकों की मिकदार ज्यादा हो गई, तो इमरान ने उन्हें चबाना शुरू कर दिया।
सोफिया को हँसी आ गई। कर्नल ने शायद उधर ध्यान नहीं दिया था। सोफिया के हँसने पर वह चौंका और फिर उसके होंठों पर भी हल्की-सी मुस्कुराहट फैल गई।
इमरान बेवकूफों की तरह बारी-बारी से उन दोनों की ओर देखने लगा, लेकिन उसका छिलके उतारकर खाना अब भी जारी था।
“शायद आप कुछ ग़लत खा रहे हैं।” सोफिया ने हँसी रोकने की कोशिश करते हुए कहा।
“हांय!” इमरान आँखें फाड़कर बोला, “गलत खा रहा हूँ।”
फिर वह घबराकर उसी तरह अपने दोनों कान झाड़ने लगा, जैसे वह अब तक सारे निवाले कानों ही में रखता रहा हो। सोफिया की हँसी तेज हो गई।
“मेरा मतलब…ये है कि आप छिलके खा रहे हैं।” उसने कहा।
“ओह…अच्छा अच्छा!” इमरान हँसकर सिर हिलाने लगा। फिर उसने संजीदगी से कहा, “मेरी सेहत रोज़-ब-रोज़ खराब होती जा रही है, इसलिए मैं गिजा का वह हिस्सा इस्तेमाल करता हूँ, जिसमें सिर्फ़ विटामिन पाये जाते हैं। ये छिलके विटामिनों से भरे हैं। मैं सिर्फ़ छिलके खाता हूँ। आलू का छिलका…प्याज का छिलका….गेहूं की भूसी…वगैरह…वगैरह…”
“तुम शैतान ही।” कर्नल हँसने लगा, “मेरा मज़ाक उड़ा रहे हो।”
इमरान अपना मुँह पीटने लगा, “अरे तौबा तौबा…यह आप क्या कह रहे हैं।”
कर्नल का बदस्तूर हँसता रहा।
सोफिया हैरत में पड़ गई। अगर यह हरकत किसी और ने की होती, तो कर्नल शायद झल्लाहट में राइफल निकाल लेता। कभी वह इमरान को घूरती थी और कभी कर्नल को, जो बार-बार तश्तरियाँ इमरान की तरफ बढ़ा रहा था।
“क्या वे दोनों गधे अभी सो रहे हैं?” अचानक कर्नल ने पूछा।
“जी हना!”
“मैं तंग आ गया हूँ उनसे। मेरी समझ में नहीं आता कि आगे चलकर उनका क्या बनेगा!”
सोफिया कुछ न बोली। कर्नल बड़बड़ाता रहा।
नाश्ते से निबटकर इमरान बाहर आ गया।
पहाड़ियों में धूप फैली हुई थी। इमरान किसी सोच में डूबा हुआ दूर की पहाड़ियों की तरफ देख रहा था। सोनागिरी की शादाब पहाड़ियाँ गर्मियों में काफ़ी आबाद हो जाती हैं। नजदीक और दूर के मैदानी इलाकों की तपिश से घबराये हुए पैसे वाले लोग आमतौर पर यहीं पनाह लेते हैं। होटल आबाद हो जाते हैं और स्थानीय लोगों के छोटे-छोटे मकान भी जन्नत सरीखे बन जाते हैं। वे प्रायः गर्मियों में उन्हें किराए पर उठा देते हैं और ख़ुद छोटी छोटी झोपड़ियाँ बना कर रहते हैं। अपने किराएदारों की खिदमत भी करते हैं, जिसके बदले में उन्हें अच्छी ख़ासी आमदनी भी हो जाती है और फिर सर्दियों का ज़माना इसी कमाई के बलबूते पर थोड़े बहुत आराम के साथ गुज़र जाता है।
कर्नल ज़रगाम का स्थाई निवास यहीं था। उसकी गिनती यहाँ के सम्मानित लोगों में होती थी। सोफिया उसकी इकलौती लड़की थी। अनवर और आरिफ़ भतीजे थे, जो गर्मियाँ अक्सर उसी के साथ गुज़ारते थे।
इमरान ने एक लंबी अंगड़ाई ली और सामने से नज़रें हटा कर इधर-उधर देखने लगा। शहतूतों की मीठी-मीठी गंध चारों तरफ फैली हुई थी। इमरान जहाँ खड़ा था, उसे पाईं बाग तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन था बाग ही। आडू, खूबानी, सेब और शहतूत के दरख़्त इमरान के चारों तरफ फैले हुए थे। जमीन पर गिर हुए शहतूत न जाने कबसे सड़ रहे थे और उनकी मीठी-मीठी गंध ज़ेहन पर बुरी लगती थी।
इमरान अंदर जाने के लिए मुड़ा ही था कि सामने से सोफिया आती दिखाई दी। अंदाज़ से मालूम हो रहा था कि वह इमरान ही के पास आ रही है। इमरान रुक गया।
“क्या आप प्राइवेट जासूस हैं?” सोफिया ने आते ही सवाल किया।
“जासूस!” इमरान ने हैरत से दोहराया, “नहीं तो…हमारे मुल्क में तो प्राइवेट जासूस किस्म की कोई चीज़ नहीं पाई जाती।”
“फिर आप क्या हैं?”
“मैं..!” इमरान ने संजीदगी से कहा, ” मैं क्या हूँ…मिर्ज़ा गालिब ने मेरे लिए शेर कहा था –
हैरां हूँ दिल को रोऊं कि पीटूं जिगर की मैं।
मजदूर हो तो साथ रखूं नौहागर को मैं!!
मैं हकीकतन किराये का एक नौहागार (शोक गीत गाने वाला) हूँ। बड़े लोग दिल या जिगर को पिटवाने के लिए मुझे किराये पर हासिल करते हैं। और फिर मैं उन्हें हैरान होने का भी…वो नहीं देता, क्या कहते हैं उस…हाँ, मौक़ा, मौक़ा…”
सोफिया ने नीचे से ऊपर तक उसे घूरकर देखा। इमरान के चेहरे पर बरसने वाली बेवकूफी कुछ और ज्यादा हो गई।
“आप दूसरों को उल्लू क्यों समझते हैं?” सोफिया भन्नाकर बोली।
“मुझे नहीं याद पड़ता कि मैंने कभी किसी उल्लू को भी उल्लू समझा हो।”
“आप आज जा रहे थे!”
“च्च…च्च…मुझे अफसोस है…कर्नल साहब ने तसल्ली के लिए मेरी खिदमात हासिल की है…मेरा साइड बिजनेस तसल्ली और दिलासा देना भी है।”
सोफिया कुछ देर खामोश रही। फिर उसने कहा, “तो इसका मतलब यह है कि आपने सारे मामलात समझ लिए हैं।”
“मैं अक्सर कुछ समझे-बूझे बगैर भी तसल्लियाँ देता रहता हूँ।” इमरान ने गंभीर होकर कहा, “एक बार का ज़िक्र है कि एक आदमी ने मेरी खिदामत हासिल की… मैं रात भर उसे तसल्लियाँ देता रहा, लेकिन जब सुबह हुई, तो मैंने देखा कि उसकी खोपड़ी में दो सुराख हैं और वो न दिल को रो सकता है, न जिगर को पीट सकता है।”
“मैं नहीं समझी।”
“इन सुराखों से बाद को रिवॉल्वर की गोलियाँ बरामद हुए थी…चमत्कार था जनाब, चमत्कार…! सचमुच यह चमत्कारों का ज़माना है। परसों ही अख़बार पढ़ा था कि ईरान में एक हाथी ने मुर्गी के अंडे दिये।”
“आप बहुत सैडिस्ट मालूम होते हैं।” सोफिया मुँह बिगाड़कर बोली।
“आपकी कोठी बड़ी शानदार है।” इमरान ने मौजू बदल दिया।
“मैं पूछती हूँ, आप डैडी के लिए क्या कर सकेंगे?” सोफिया झुंझला गई।
“दिलासा दे सकूंगा।”
सोफिया कुछ कहने ही वाली थी कि बरामदे की तरफ से कर्नल की आवाज़ आई, “अरे…तुम यहाँ हो…!” फिर वह करीब आकर बोला, “ग्यारह बजे ट्रेन आती है। वो दोनों गधे कहाँ हैं? तुम लोग स्टेशन चले जाओ…मैं न जा सकूंगा।”
“क्या ये वापस नहीं जायेंगे।” सोफिया ने इमरान की तरफ देखकर कहा।
“नहीं!” कर्नल ने कहा, “जल्दी करो। साढ़े नौ बज गए हैं।”
सोफिया कुछ देर खड़ी इमरान को घूरती रही। फिर अंदर चली गई।
“क्या आपके यहाँ मेहमान आ रहे हैं?” इमरान ने कर्नल से पूछा।
“हाँ…मेरे दोस्त हैं।” कर्नल बोला, “कर्नल डिक्सन…वे एक अंग्रेज हैं, मिस डिक्सन उनकी लड़की और मिस्टर बारतोश।”
“बारतोश!” इमरान बोला, “क्या चेकोस्लोवाकिया का बाशिंदा है?”
“हाँ क्यों? तुम कैसे जानते हो?”
“इस किस्म के नाम सिर्फ़ उधर ही पाए जाते हैं।”
“बारतोश डिक्सन का दोस्त है। मैंने उसे पहले कभी नहीं देखा है। वह तस्वीर बनाता है।”
“क्या वे कुछ दिन ठहरेंगे?”
“हाँ शायद गर्मियाँ यहीं गुजारें।”
“क्या आप उन लोगों से ली यूंका वाले मामले का ज़िक्र करेंगे।”
“हरगिज़ नहीं!” कर्नल ने कहा, “लेकिन तुम्हें इसका खयाल कैसे आया?”
“यूं ही! अलबत्ता, मैं एक ख़ास बात सोच रहा हूँ।”
“क्या?”
“वे लोग आप पर अभी तक करीब-करीब सारे तरीके इस्तेमाल कर चुके हैं, लेकिन काग़ज़ात हासिल करने में नाकाम रहे हैं। काग़ज़ात हासिल किए बगैर वे आपको क़त्ल भी नहीं कर सकते, क्योंकि हो सकता है कि उसके बाद कागज़ात किसी और के हाथ लग जायें… अब मैं सोच रहा हूँ कि क्या आप लड़की या भतीजी की मौत बर्दाश्त कर सकेंगे।”
“क्या बक रहे हो?” कर्नल कांपकर बोला।
“मैं ठीक कह रहा हूँ।” इमरान ने सिर हिलाकर कहा, “मान लीजिए, वे सोफिया को पकड़ लें…फिर आपसे कागजात की मांग करें…इस सूरत में आप क्या करेंगे?”
“मेरे ख़ुदा!” कर्नल ने आँखें बंद करके एक खंभे से तेज़ी लगा ली।
इमरान खामोश खड़ा रहा। कर्नल आँखें खोलकर मुर्दा सी आवाज़ में बोला, “तुम ठीक कहते हो। मसिबी क्या करूं? मैंने इसके बारे में कभी नहीं सोचा था।”
“सोफिया को स्टेशन न भेजिये।”
“अब मैं अनवर और आरिफ़ को भी नहीं भेज सकता।’
“ठीक है! आप ख़ुद क्यों नहीं जाते?”
“मैं उन लोगों को तन्हा नहीं छोड़ सकता।”
“इसकी फ़िक्र न कीजिये। मैं मौजूद रहूंगा।”
“तुम!” कर्नल ने उसे इस तरह देखा, जैसे वह बिल्कुल पागल हो, “तुम…क्या तुम किसी खतरे का मुकाबला कर सकोगे।”
“हाँ हाँ क्यों नहीं! क्या आपने मेरी हवाई बंदूक नहीं देखी?”
“संजीदगी! मेरे लड़के…संजीदगी।” कर्नल अधीरता से हाथ उठाकर बोला।
“क्या आप कैप्टन फैयाज़ को भी बेवकूफ समझते हैं?”
“आ…नहीं!”
“तब फिर आप बेखटके जा सकते हैं। मेरे हवाई बंदूक एक चिड़े से लेकर हिरण तक का शिकार कर सकती है।”
“तुम मेरा रिवॉल्वर पास रखो।”
“अरे तौबा तौबा!” इमरान अपना मुँह पीटने लगा, “अगर यह सचमुच ही चल गया, तो क्या होगा?”
कर्नल कुछ देर इमरान को घूरता रहा। फिर बोला, “अच्छा मैं उन्हें रोके देता हूँ।”
“ठहरिए! एक बात और सुनिये।“ इमरान ने कहा और फिर आहिस्ता-आहिस्ता कुछ कहता रहा। कर्नल के चेहरे की रंगत कभी पीली पड़ जाती थी और कभी वह फिर अपनी असल हालत पर आ जाता था।
“मगर!” थोड़ी देर बाद अपने खुश्क होंठों पर ज़ुबान फेरकर बोला, “मैं नहीं समझ सकता।”
“आप सब कुछ समझ सकते हैं। अब जाइए…!”
“ओह…मगर!”
“नहीं कर्नल…मैं ठीक कह रहा हूँ।”
“तुमने मुझे उलझन में डाल दिया है।”
“कुछ नहीं…बस आप जाइये।”
कर्नल अंदर चला गया। इमरान वहीं खड़ा कुछ देर तक अपने हाथ मलता रहा। फिर उसके होठों पर फीकी-सी मुस्कुराहट फैल गई।
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