चैप्टर 38 मैला आँचल फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास, Chapter 38 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Ka Upanyas, Chapter 38 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel
Chapter 38 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu
दो दिन से बदली छाई हुई है। आसमान कभी साफ नहीं होता। दो-तीन घंटों के लिए बरसा रुकी, बूंदा-बाँदी हुई, फिर फुहिया। एक छोटा-सा सफेद बादल का टुकड़ा भी यदि नीचे की ओर आ गया तो हरहराकर बरसा होने लगती है। आसाढ़ के बादल… !
रात में मेंढकों की टरटराहट के साथ असंख्य कीट-पतंगों की आवाज शून्य में एक अटूट रागिनी बजा रही है-टर्र ! मेंक् टर्ररर…मेंकू !…झि-झि-चि…किर-किर्र…सि, किटिर-किटिर ! झि…टर्र…।
कोठारिन लछमी दासिन को नींद नहीं आ रही है; चित्त बड़ा चंचल है। रह-रहकर ऐसा लगता है कि उसके शरीर पर कोई पतंगा घुरघुरा रहा है। वह रह-रहकर उठती है, बिछावन झाड़ती है, कपड़े झाड़ती है। लेकिन वही सरसराहट…। वह लालटेन की रोशनी तेज कर बीजक लेकर बैठ जाती है-
जाना नहिं बूझा नहिं
समुझि किया नहीं गौन
अंधे को अंधा मिला
राह बतावे कौन ?
कौन राह बतावे ? नहीं, उसने बालदेव जी को जाना है, अच्छी तरह पहचाना है। “महंथ सेवादास जी कहते थे-“लछमी ! बालदेव साधु पुरुष है।”- लेकिन बालदेव जी तो इतने लाजुक हैं कि कभी एकांत में बात करना चाहो तो थरथर काँपने लगें; चेहरा लाल हो जाए। लाज से या डर से ? …लेकिन बिरहबाण से घायल लछमी का मन सिसक-सिसककर रह जाता है।
बिरह बाण जिहि लागिया
ओषध लगे न ताहि ।
सुसकि-सुसकि मरि-मारि जिवैं,
उठे कराहि कराहि !
किंतु बालदेव जी को क्या पता !” लछमी क्या करे ?
टर्र-र-मेंक, मेंकद, झी …ई …टिंक-टिंक-झी रिं !… नहीं । लछमी अब नहीं सह सकेगी | वह बालदेव जी के पास जाएगी। मसहरी नहीं है बालदेव जी को ! मच्छर काटता होगा। …नहीं | वह नहीं जाएगी। वह क्यों जाएगी ?“
पानी प्यावत क्या फिरो
घर-घर सायर बारि,
तृषावंत जो होयगा,
पीवेगा झख मारिं
रामदास-महंथ रामदास अब लछमी से बहुत कम बोलते हैं। वे नाम के महंथ हैं। वे कुछ नहीं जानते, कुछ नहीं समझते । उन्हें कुछ भी नहीं मालूम | कितनी आमदनी और कितना खर्च होता है-उनको क्या पता ? बीस से ज्यादा तो गिनना नहीं जानते। कोड़ी का हिसाब जानते हैं। …रामदास जी समझ गए हैं कि यदि लछमी मठ को एक दिन के लिए भी छोड़ दे तो रामदास के लिए यहाँ टिका रहना मुश्किल होगा । लछमी जादू-मंतर जानती है | क्या कागज-पत्तर, क्या खेती-बारी और क्या हाकिम-महाजन, सभी में वह अव्वल है। महंथ रामदास जी समझ गए हैं कि यदि इज्जत के साथ बैठकर दूध-मलाई भोग करना हो तो लछमी को जरा भी अप्रसन्न नहीं किया जाए। …तन का ताप मन को चंचल तो करता है, लेकिन क्या किया जाए ! …यदि एक दासिन रखने का हुकुम लछमी दे दे तो…! गडगड़ाम “गड़गड़” बादल घुमड़ा। बिजली चमकी और हरहराकर बरसा होने लगी।
हाँ, अब कल से धनरोपनी शुरू होगी।…जै इन्दर महाराज, बरसो, बरसो !…लेकिन बीचड़’ के लिए धान कहाँ से मिलेगा ? आज तो पंचायत में सभी बड़े मालिक लोग बड़ी-बड़ी बात बोलते थे, कल ही देखना कैसी बात करते हैं… ‘अपने खर्चा के जोग ही धान नहीं है’, ‘बीहन (बीहन (बीज) धान, धान का छोटा पौधा) नहीं है’ अथवा ‘पहले हमको बोने दो।’
गड़गड़ाम…गुडुम !
“बीहन का धान मालिकों को देना होगा। हमेशा देते आए हैं, इस बार क्यों नहीं देंगे ?” कालीचरन आफिस में सोए, अधसोए और लेटे लोगों से कहता है, “और बार दूना लेते थे, बीहन का दूना, इस बार सो सब नहीं चलेगा। यदि तहसीलदार मामा ने ऐसा प्रबन्ध नहीं किया तो फिर…संघर्ख।”
बिजली चमकती है। बादल झूम-झूमकर बरस रहे हैं।
मंगला अब कालीचरन के आँगन में रहती है। कालीचरन की माँ अन्धी है। कालीचरन की एक बेवा अधेड़ फूफू है। मंगला की मीठी बोली सुनकर कालीचरन की माँ की आँखें सजल हो उठती हैं और फूफू की आँखें लाल ! जब-जब बिजली चमकती है, पछवारिया घर के ओसारे पर सोई फूफू पुअरिया घर की ओर देखती है। आदमी की छाया ? नहीं। बाँस है।…पुअरिया घर में सोई मंगला भी जगी है। बादलों के गरजने और बिजली के चमकने से उसे बड़ा डर लगता है। बचपन से ही वह बादल, बिजली और आँधी से डरती है। और यहाँ की बरसा तो..। फिर, बिजली चमकी। “कौन…!” मंगला फुसफुसाकर पूछती है-“कौन ?”
भीगे हुए पैरों के छाप बिजली की चमक में स्पष्ट दिखाई देते हैं।
सोनाये यादव अपनी झोंपड़ी में बारहमासा की तान छेड़ देता है :
एहि प्रीति कारन सेत बाँधल,
सिया उदेस सिरी राम है।
सावन हे सखी, सबद सुहावन,
रिमिझिमि बरसत मेघ हे !…
रिमिझिमि बरसत मेघ !…कमली को डाक्टर की याद आ रही है। कहीं खिड़कियाँ खुली न हों। खिड़की के पास ही डाक्टर सोता है। बिछावन भींग गया होगा। कल से बुखार है। सर्दी लग गई है।…न जाने डाक्टर को क्या हो गया है ?…कहीं मौसी सचमुच में डायन तो नहीं ? डाक्टर को बादल बड़े अच्छे लगते हैं। कल कह रहा था-‘मैं वर्षा में दौड़-दौड़कर नहाना चाहता हूँ।’
छररर ! छररर !…बादल मानो धरती पर उतरकर दौड़ रहे हैं। छहर…छहर… छहर !
बिरसा माँझी अब लेटा नहीं रह सकता।…परसों गाँववालों ने मिटिन किया है-बाहरी आदमी यदि चढ़ाई करे तो सब मिलकर मुकाबला करेंगे। कालीचरन भी था और बानदेव भी !संथाल बाहरी लोग हैं।
तहसीलदार हरगौरी का सिपाही आज जमीन सब देख रहा धा-अखता भदै धान पक गया है। काटेंगे क्या ! किस खेत में कौन धान बोएँगे ? तो क्या सचमुच में संथालों की जमीन छुड़ा लेंगे तहसीलदार ? जमींदारी पर्था ख़तम हुई, लेकिन तहसीलदार जमीन से बेदखल कर रहा है। …बात समझ में नहीं आ रही है ।…क्या होगा ? कल ही देखना है। जमीन पर हल लेकर आवेगा तहसीलदार, भदे धान काटने आवेगा, तब देखा जाएगा। पहले से क्या सोच-फिकर ? …वह अब लेटा नहीं रह सकता। ‘लेटे-ही-लेटे मादल पर वह हाथ फेरता है-रिं-रिं-ता-धिन-ता ।
गुड़गुडुम …गुड़म से गुदुम |
बिजलियाँ चमकती हैं !
कल बीचड़ मिलेगा या नहीं ? …बालदेव जी को मच्छर क्यों नहीं काटता है, कालीचरन की फूफी सोती क्यों नहीं, और डाक्टर की खिड़की बंद है या खुली, इसका जवाब तो कल मिलेगा। अभी जो यह सोनाय यादव बारहमासा अलाप रहा है, इसको क्या कहा जाए ?’गाँव-घर में गाने की चीज नहीं बारहमासा’ अजीब है यह सोनाय भी। कुमर बिजैभान या लोरिक नहीं, बारहमासा ! खेत में रोपनी करते समय गानेवाला गीत बारहमासा ! धान के खेतों में पाँवों की छप-छप आवाज के साध वह गीत इतना मनोहर लगता है कि आदमी सबकुछ भूल जाए। “यह संथालटोली में माँदर क्यों बजा रहा है, बेवजह, और जब यह सोनाय बारहमासा गा ही रहा है तो चार कडी सुनने दो बाबा ! बेताल के ताल बजा रहे हो ! बरसा की छपछपाहट और बादलों को घुमड़न में माँदर की आवाज स्पष्ट नहीं सुनाई पड़ती है, गनीमत है। ओ ! सोनाय ने अब झूमर बारहमासा शुरू किया है-
अरे फ़ागन मास रे गवना मोरा होइत
कि पहिरझू बसंती रंग है,
बाट चलैत-आ केशिया सँभारि बान्ह,
अँचरा हे पवन झरे है एए ए !
डाक्टर अब गाँव की भाषा समझता ही नही, बोलता भी है। ग्राग्य गीतों को सुनकर वह केस-हिस्ट्री लिखना भी भूल जाता है। गीतों का अर्थ शायद वह ज्यादा समझता है। सोनाय से भी ज्यादा ? -अँचरा हे पवन झरे है ! आँचल उड़ि-उड़ि जाए !
गाँव के और लोग कहेंगे कि रात में रह-रहकर वर्षा होती थी । आधा घंटा बंद, फिर झर-झर ! लेकिन डाक्टर कहेगा, सारी रात बरसा होती रही, कभी बूँद रुकी नही | विशाल बड़ के तने, ‘करकट टीन’ के छप्परवाले घर पर जो बूँदें पड़ती थीं ! कोठी के बाग में झरझराहट कभी बंद नहीं हुई !…
तो सुबह हो गर्दख। सोनाय अब खेत में गीत गा रहा है। सोनाय अकेला नहीं है, सैंकड़ों कण्ठों मे एक-एक विरहिन मैथिली बैठी हुई कूक रही है-
आम जे कटहन, तुत जे बड़हल
नेबुआ अधिक सूरेब !
मास असाढ़ हो रामा ! पंथ जनि चढ़िहऽ,
दूरहि से गरजत मेघ रे मोर !
बाग में आम-कटहल, तूत और बड़हल के अलावा कागजी नीबू की डाली भी झुकी हुई है और दूर से मेघ भी गरजकर कह रहा है-आ पन्थी ! अभी राह मत चलना !…लोग दूर के साथी को अपने पास बुलाते हैं, बिरह में तड़पते हैं, मेघों के द्वारा सन्देश भेजते हैं और घर आया हुआ परदेशी बाहर लौट जाना चाहता है ? नहीं, नहीं !…बिजली की हर चमक पर मैं चौंक-चौंककर रह जाऊँगी। बादल जब गरजते हैं तो कलेजे की धड़कन बढ़ जाती है।
अऽरे मास आ सा ढ़ हे ! गरजे घन
बिजूरी-ई चमके सखि हे ए ए !
मोहे तजी कन्ता जाए पर-देसा आ…आ
कि उमड़ कमला माई हे!
…हँऽरे ! हँऽरे…
कमला में बाढ़ आ जाए तो कन्त रुक जाएँ। इसलिए कमला नदी को उमड़ने के लिए आमन्त्रित किया जाता है।…जिनके कन्त परदेश से लौट आए हैं, उनकी खुशी का क्या पूछना ! झुलनी रागिनी उन्हीं सौभाग्यवतियों के हृदय के मिलनोच्छ्वास से झूम रही है खेतों में !
मास असाढ़ चढ़ल बरसाती
घर-घर सखी सब झूलनी लगाती
झूली गावे,
झूली गावति मंगलबानी
सावन सखि अलि हे मस्त जवानी…
देखो, देखो! देखो, देखो सखि री बृजबाला
कहाँ गए जशोधाकुमार, नन्दलाला
…देखो, देखो।
घर का कन्त कहीं गाँव में ही राह न भूल जाए !…देखो, देखो, कहाँ गए ? किसी की झूलनी पर झूल तो नहीं रहे ?
“चाय !”
“कौन ? कमला !” डाक्टर अकचका जाता है।
“हाँ, चमकते हो क्यों ? तुमको भी सूई का डर लगता है ! यह मीठी दवा नहीं, मीठी चाय है डाक्टर साहब ! जब चाय पीकर ही जीना है तो आँख खुलते ही गर्म चाय की प्याली सामने रखने की जरूरत है।” कमला पास की कुर्सी पर बैठकर चाय बनाती है। प्यारू खड़ा-खड़ा मुस्करा रहा है।…प्यारू को इतना खुश बहुत कम बार देखा गया है।… अब समझें ! यह प्यारू नहीं कि हर बात में ‘नहीं’ कर टाल दिया।…चाय बनावें? तो नहीं। अंडा बनावें ? तो नहीं। खाना परोसें ? तो नहीं।…अब समझें !’
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