चैप्टर 38 आँख की किरकिरी उपन्यास (चोखेर बाली उपन्यास) रवींद्रनाथ टैगोर | Chapter 38 Aankh Ki Kirkiri (Chokher Bali) Novel By Rabindranath Tagore

चैप्टर 38 आँख की किरकिरी उपन्यास (चोखेर बाली उपन्यास) रवींद्रनाथ टैगोर | Chapter 38 Aankh Ki Kirkiri (Chokher Bali) Novel By Rabindranath Tagore

Chapter 38 Aankh Ki Kirkiri (Chokher Bali) NovelChapter 38 Aankh Ki Kirkiri

रेल के औरतों वाले सूने डिब्बे में बैठी विनोदिनी ने खिड़की में से जब जुते हुए खेत और बीच-बीच में छाया से घिरे गाँव देखे, तो मन में सूने शीतल गाँव की जिंदगी ताजा हो आई। उसे लगने लगा, पेड़ों की छाया के बीच अपने-आप बनाए कल्पना के बसेरे में अपनी किताबों से उलझ कर कुछ दिनों के इस नगर-प्रवास के दु:ख-दाह और जख्म से उसे शांति मिलेगी।

प्यासी छाती में चैन की वह उम्मीद ढोती हुई विनोदिनी अपने घर पहुँची। मगर हाय, चैन कहाँ! वहाँ तो केवल शून्यता थी, थी गरीबी। बहुत दिनों से बंद पड़े सीले घर के भाप से उसकी साँस अटकने लगी। घर में जो थोड़ी-बहुत चीजें थीं, उन्हें कीड़े चाट गए थे, चूहे कुतर गए थे, गर्द से बुरा हाल था। वह शाम को घर पहुँची – और घर में पसरा था बाँह-भर अँधेरा। सरसों के तेल से किसी तरह रोशनी जलाई- उसके धुएँ और धीमी जोत से घर की दीनता और भी साफ झलक उठी। पहले जिससे उसे पीड़ा नहीं होती थी, वह अब असह्य हो उठी| उसका बागी हृदय अकड़ कर बोल उठा – ‘यहाँ तो एक पल भी नहीं कटने का। ताक पर दो-एक पुरानी पत्रिकाएँ और किताबें पड़ी थीं, किन्तु उन्हें छूने को जी न चाहा। बाहर सन्न पड़े-से आम के बगीचे में झींगुर और मच्छरों की तानें अंधेरे में गूंजती रहीं।

विनोदिनी की जो बूढ़ी अभिभाविका वहाँ रहती थी, वह घर में ताला डाल कर अपनी बेटी से मिलने उसकी ससुराल चली गई थी। विनोदिनी अपनी पड़ोसिन के यहाँ गई। वे तो उसे देख कर दंग रह गईं। उफ, रंग तो खासा निखर आया है, बनी-ठनी, मानो मेम साहब हो। इशारे से आपस में जाने क्या कह कर विनोदिनी पर गौर करती हुई एक-दूसरे का मुँह ताकने लगीं।

विनोदिनी पग-पग पर यह महसूस करने लगी कि अपने गाँव से वह सब तरह से बहुत दूर हो गई है। अपने ही घर में निर्वासित-सी। कहीं पल भर आराम की जगह नहीं।

डाक खाने का बूढ़ा डाकिया विनोदिनी का बचपन से परिचित था। दूसरे दिन वह पोखर में डुबकी लगाने जा रही थी कि डाक का थैला लिए उसे जाते देख विनोदिनी अपने आपको न रोक सकी। अँगोछा फेंक जल्दी से बाहर निकल कर पूछा – ‘पंचू भैया, मेरी चिट्ठी है?’

बुड्ढे ने कहा – ‘नहीं।’

विनोदिनी उतावली हो कर बोली – ‘हो भी सकती है। देखूं तो जरा।’

यह कह कर उसने चिट्ठियों को उलट-पलट कर देखा। पाँच-छ: ही तो चिट्ठियाँ थीं। मुहल्ले की कोई न थी। उदास-सी जब घाट पर लौटी तो उसकी किसी सखी ने ताना दिया- ‘क्यों री बिन्दी, चिट्ठी के लिए इतनी परेशान क्यों?’

दूसरे एक बातूनी ने कहा – ‘अच्छी बात है, अच्छी! डाक के जरिये चिट्ठी आए, ऐसा भाग कितनों का होता है? हमारे तो पति, देवर, भाई परदेस में काम करते हैं, मगर डाकिए की मेहरबानी तो कभी नहीं होती।’

बातों-ही-बातों में मजाक साफ चकोटी गहरी होने लगी। विनोदिनी बिहारी से निहोरा कर आई थी – निहायत ही रोज-रोज लिखते न बने, तो कम-से-कम हफ्ते में दो बार तो दो पंक्तियाँ जरूर लिखे। आज ही बिहारी की चिट्ठी आए, यह उम्मीद नहीं के बराबर ही थी, लेकिन आकांक्षा ऐसी बलवती हो कि वह दूर-संभावना की आशा भी विनोदिनी न छोड़ सकी। उसे लगने लगा, जाने कब से कलकत्ता छूट गया है!

गाँव में महेंद्र को ले कर किस कदर उसकी निंदा हुई थी, दोस्त-दुश्मन की दया से यह उसकी अजानी न रही। शांति कहाँ!

गाँव के लोगों से उसने अपने को अछूता रखने की कोशिश की। लोग-बाग इससे और भी बिगड़ उठे। पापिनी को पास पा कर घृणा और पीड़न के विलास सुख से अपने को वे वंचित नहीं रखना चाहते।

छोटा-सा गाँव – अपने को सबसे छिपाए रखने की कोशिश बेकार है। यहाँ जख्मी हृदय को किसी कोने में दुबका कर अँधेरे में सेवा-जतन की गुंजाइश नहीं – जहाँ-तहाँ से कौतूहल-भरी निगाह जख्म पर आ कर पड़ने लगी। उसका अंतर टोकरी में बंद पड़ी ज़िंदा मछली-सा तड़पने लगा। यहाँ आज़ादी के साथ पूरी तरह दु:ख भोग सकने की भी जगह नहीं।

दूसरे दिन जब चिट्ठी का समय निकल गया तो कमरा बंद करके विनोदिनी पत्र लिखने बैठी –

‘भाई साहब, डरो मत, मैं तुम्हें प्रेम-पत्र लिखने नहीं बैठी हूँ। तुम मेरे विचारक हो, तुम्हें प्रणाम करती हूँ। मैंने जो पाप किया, तुमने उसकी बड़ी सख्त सजा दी। तुम्हारा हुक्म होते ही मैंने उस सजा को माथे पर रख लिया है। अफसोस इसी बात का है कि तुम देख नहीं सके कि यह सजा कितनी कड़ी है। देख पाते, कहीं जान पाते, तो तुम्हारे मन में जो दया होती, मैं उससे भी वंचित रही। तुम्हें याद करके, मन-ही-मन तुम्हारे पाँवों के पास माथा टेके मैं उसे भी बर्दाश्त करूंगी। लेकिन प्रभु, कैदी को क्या खाना भी नसीब नहीं होता? व्यंजन न सही, जितना-भर न मिलने से काम नहीं चल सकता, उतना भोजन तो उसका बंधा होता है? मेरे इस निर्वासन का आहार है तुम्हारी दो पंक्तियाँ – वह भी न बदा हो तो वह निर्वासन-दंड नहीं, प्राण-दंड है। सजा देने वाले मेरी इतनी बड़ी परीक्षा न लो। मेरे पापी मन में दंभ की हद न थी – स्वप्न में भी मुझे यह पता न था कि किसी के आगे मुझे इस कदर सिर झुकाना पड़ेगा। जीत तुम्हारी हुई प्रभो, मैं बगावत न करूँगी। मगर मुझ पर रहम करो, मुझे जीने दो। इस सूने जंगल में रहने का थोड़ा-बहुत सहारा मुझे दिया करना। फिर तो तुम्हारे शासन से मुझे कोई भी किसी भी हालत में डिगा न सकेगा। यही दुखड़ा रोना था। और जो बातें जी में हैं, कहने को कलेजा मुँह को आता है। पर वे बातें तुम्हें न बताऊंगी, मैंने शपथ ली है। उस शपथ को मैंने पूरा किया।

– तुम्हारी विनोदिनी।’

विनोदिनी ने पत्र डाक में डाल दिया। मुहल्ले के लोग छि:-छि: करने लगे। कमरा बंद किए रहती है, चिट्ठी लिखा करती है, चिट्ठी के लिए डाकिए को जा कर तंग करती है – दो दिन कलकत्ता रहने से क्या लाज-धरम को इस तरह घोल कर पी जाना चाहिए!

उसके बाद के दिन भी चिट्ठी न मिली। विनोदिनी दिन-भर गुमसुम रही।

बिहारी का उसके पास कुछ भी न था – एक पंक्ति की चिट्ठी तक नहीं। कुछ भी नहीं। वह शून्य में मानो कोई चीज खोजती फिरने लगी। बिहारी की किसी निशानी को अपने कलेजे से लगा कर सूखी आँखों में वह आँसू लाना चाहती थी। आँसुओं में मन की सारी कठिनता को गला कर, विद्रोह की भभकती आग को बुझा कर, वह बिहारी के कठोर आदेश को अंतर के कोमलतम प्रेम-सिंहासन पर बिठाना चाहती थी। लेकिन सूखे के दिनों की दोपहरी के आसमान-जैसा उसका कलेजा सिर्फ जलने लगा।

विनोदिनी ने सुन रखा था, हृदय से जिसे पुकारो, उसे आना ही पड़ता है। इसीलिए हाथ बाँधे आँखें मूँद कर वह बिहारी को पुकारने लगी – ‘मेरा जीवन सूना पड़ा है, हृदय सूना है, चारों ओर सुनसान है – इस सूनेपन के बीच तुम एक बार आओ। घड़ी-भर को ही सही – तुम्हें आना पड़ेगा। मैं तुम्हें हर्गिज नहीं छोड़ सकती।’ हृदय से इस तरह पुकारने से विनोदिनी को मानो सच्चा बल मिला। उसे लगा, प्रेम की पुकार का यह बल बेकार नहीं जाने का।

साँझ का दीप-विहीन अंधेरा कमरा जब बिहारी के ध्यान से घने तौर पर परिपूर्ण हो उठा, जब दीन-दुनिया, गाँव-समाज, समूचा त्रिभुवन प्रलय में खो गया तो अचानक दरवाजे पर थपकी सुन कर विनोदिनी झट-पट जमीन पर से उठ खड़ी हुई और दृढ़ विश्वास के साथ दौड़ कर दरवाजा खोलती हुई बोली – ‘प्रभु, आ गए?’ उसे पक्का विश्वास था कि इस घड़ी दूसरा कोई उसके दरवाजे पर नहीं आ सकता।

महेंद्र ने कहा – ‘हाँ, आ गया विनोद!’

विनोदिनी बेहद खीझ से बोल उठी- ‘चले जाओ, चले जाओ, चले जाओ यहाँ से। अभी चल दो तुरंत।’

महेंद्र को मानो काठ मार गया।

‘हाँ री बिन्दी, तेरी ददिया सास अगर कल…’ कहते-कहते कोई प्रौढ़ा पड़ोसिन विनोदिनी के दरवाजे पर आ कर सहसा ‘हाय राम!’ कहती हुई लंबा घूँघट काढ़ कर भाग गई।

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