चैप्टर 37 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 37 Kayakalp Novel By Munshi Premchand
Chapter 37 Kayakalp Novel By Munshi Premchand
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जगदीशपुर के ठाकुरद्वारे में नित्य साधु-महात्मा आते रहते थे। शंखधर उनके पास जा बैठता और उनकी बातें बड़े ध्यान से सुनता। उसके पास चक्रधर की जो तस्वीर थी, उससे मन-ही-मन साधुओं की सूरत का मिलान करता, पर उस सूरत का साधु उसे न दिखाई देता था। किसी की भी बातचीत से चक्रधर की टोह न मिलती थी।
एक दिन मनोरमा के साथ शंखधर भी लौंगी के पास गया। लौंगी बड़ी देर तक अपनी तीर्थयात्रा की चर्चा करती रही। शंखधर उसकी बातें गौर से सुनने के बाद बोला-क्यों दाई, तुम्हें तो साधु-संन्यासी बहुत मिले होंगे?
लौंगी ने कहा–हां बेटा, मिले क्यों नहीं। एक संन्यासी तो ऐसा मिला था कि हूबहू, तुम्हारे बाबूजी से सूरत मिलती थी। बदले हुए भेस में ठीक तो न पहचान सकी, लेकिन मुझे ऐसा मालूम होता था कि वही हैं।
शंखधर ने बड़ी उत्सुकता से पूछा–जटा बड़ी-बड़ी थीं?
लौंगी–नहीं, जटा-सटा तो नहीं थी, न वस्त्र ही गेरुआ रंग के थे। हां, कमंडल अवश्य लिए हुए थे। जितने दिन मैं जगन्नाथपुरी में रही, वह एक बार रोज मेरे पास आकर पूछ जाते-क्यों माताजी, आपको किसी बात का कष्ट तो नहीं है? और यात्रियों से भी वह यही बात पूछते थे। जिस धर्मशाला में मैं टिकी थी, उसी में एक दिन एक यात्री को हैजा हो गया। संन्यासी जी उसे उठवाकर अस्पताल ले गए और दवा कराई। तीसरे दिन मैंने उस यात्री को फिर देखा। वह घर लौटता था। मालूम होता था, संन्यासी जी अमीर हैं। दरिद्र यात्रियों को भोजन करा देते और जिनके पास किराए के रुपए न होते, उन्हें रुपए भी देते थे। वहां तो लोग कहते थे कि यह कोई बड़े राजा संन्यासी हो गए हैं। नोरा, तुमसे क्या कहूँ, सूरत बिल्कुल बाबूजी से मिलती थी। मैंने नाम पूछा, तो सेवानन्द बताया। घर पूछा, तो मुस्कराकर बोले-सेवानगर। एक दिन मैं मरते-मरते बची। सेवानन्द न पहुँच जात, तो मर ही गई थी। एक दिन मैंने उनको नेवता दिया। जब वह खाने बैठे, तो मैंने यहां का जिक्र छेड़ दिया। मैं देखना चाहती थी कि इन बातों से उनके दिल पर क्या असर होता है, मगर उन्होंने कुछ भी न पूछा। मालूम होता था, मेरी बातें उन्हें अच्छी नहीं लग रही थीं। आखिर मैं चुप रही। उस दिन से वह फिर न दिखाई दिए। जब लोगों से पूछा, तो मालूम हुआ कि रामेश्वर चले गए। एक जगह जमकर नहीं रहते, इधर-उधर विचरते ही रहते हैं। क्यों नोरा, बाबूजी होते, तो जगदीशपुर का नाम सुनकर कुछ तो कहते?
मनोरमा ने तो कुछ उत्तर न दिया, न जाने क्या सोचने लगी थी, पर शंखधर बोला-दाई, तुमने यहां तार क्यों न दे दिया? हम लोग फौरन पहुँच जाते।
लौंगी–अरे तो कोई बात भी तो हो बेटा, न जाने कौन था, कौन नहीं था। बिना जाने-बूझे क्यों तार देती?
मनोरमा ने गंभीर भाव से कहा–मान लो वही होते, तो क्या तुम समझते हो कि वह हमारे साथ आते? कभी नहीं। आना होता, तो जाते ही क्यों?
शंखधर–किस बात पर नाराज होकर चले गए थे, अम्मां? कोई-न-कोई बात जरूर हई होगी? अम्मांजी से पूछता हूँ, तो रोने लगती हैं, तुमसे पूछता हूँ, तो तुम बताती ही नहीं।
मनोरमा–मैं किसी के मन की बात क्या जानूं? किसी से कुछ कहा-सुना थोडे ही।
शंखधर–मैं यदि उन्हें एक बार देख पाऊं, तो फिर कभी साथ ही न छोडूं। क्यों दाई आजकल वह संन्यासीजी कहाँ होंगे?
मनोरमा–अब दाई यह क्या जाने? संन्यासी कहीं एक जगह रहते हैं, जो वह बता दे। शंखधर–अच्छा दाई, तुम्हारे खयाल में संन्यासीजी की उम्र क्या रही होगी?
लौंगी–मैं समझती हूँ, उनकी उम्र कोई चालीस वर्ष की होगी।’
शंखधर ने कुछ हिसाब करके कहा–रानी अम्मां, यही तो बाबूजी की भी उम्र होगी। मनोरमा ने बनावटी क्रोध से कहा–हां, हां, वही संन्यासी तुम्हारे बाबूजी हैं। बस, अब माना। अभी उम्र चालीस वर्ष की कैसे हो जाएगी?
शंखधर समझ गए कि मनोरमा को यह जिक्र बुरा लगता है। इस विषय में फिर मुंह से एक शब्द न निकाला; लेकिन वहां रहना अब उसके लिए असंभव था। रामेश्वर का हाल तो उसने भूगोल में पढ़ा था, लेकिन अब उस अल्पज्ञान से उसे संतोष न हो सकता था। वह जानना चाहता था कि रामेश्वर को कौन रेल जाती है, वहां लोग जाकर ठहरते कहाँ हैं? घर के पुस्तकालय में शायद कोई ऐसा ग्रंथ मिल जाए , यह सोचकर वह बाहर आया और शोफर से बोला–मुझे घर पहुंचा दो।
शोफर–महारानीजी न चलेंगी?
शंखधर–मुझे कुछ जरूरी काम है, तुम पहुंचाकर लौट आना। रानी अम्मां से कह देना, वह चले गए।
वह घर आकर पुस्तकालय में जा ही रहा था कि गुरुसेवक सिंह मिल गए। आजकल वह महाशय दीवानी के पद के लिए जोर लगा रहे थे, हर एक काम बड़ी मुस्तैदी से करते, पर मालूम नहीं, राजा साहब क्यों उन्हें स्वीकार न करते थे। मनोरमा कह चुकी थी, अहिल्या ने भी सिफारिश की, पर राजा साहब अभी तक टालते जाते थे। शंखधर उन्हें देखते ही बोला-गुरुजी, जरा कृपा करके मुझे पुस्तकालय से कोई ऐसी पुस्तक निकाल दीजिए, जिसमें तीर्थस्थानों का पूरा-पूरा हाल लिखा हो।
गुरुसेवक ने कहा–ऐसी तो कोई किताब पुस्तकालय में नहीं है।
शंखधर–अच्छा, तो मेरे लिए कोई ऐसी किताब मंगवा दीजिए।
यह कहकर वह लौटा ही था कि कुछ सोचकर बाहर चला गया और एक मोटर को तैयार कराके शहर चला। अभी उसका तेरहवां ही साल था, लेकिन चरित्र में इतनी दृढ़ता थी कि जो बात मन में ठान लेता, उसे पूरा ही करके छोड़ता। शहर जाकर उसने अंग्रेजी पुस्तकों की कई दुकानों से तीर्थयात्रा संबंधी पुस्तकें देखीं और किताबों का एक बंडल लेकर घर आया।
राजा साहब भोजन करने बैठे, तो शंखधर वहां न था। अहिल्या ने जाकर देखा, तो वह अपने कमरे में बैठा कोई किताब देख रहा था।
अहिल्या ने कहा–चलकर खाना खा लो, दादाजी बुला रहे हैं।
शंखधर–अम्मांजी, आज मुझे बिल्कुल भूख नहीं है।
अहिल्या–कोई नई किताब लाए हो क्या? अभी भूख क्यों नहीं है? कौन-सी किताब है? शंखधर–नहीं अम्मांजी, मुझे भूख नहीं लगी।
अहिल्या ने उसके सामने से खुली हुई किताब उठा ली और दो-चार पंक्तियां पढ़कर बोली-इसमें तो तीर्थों का हाल लिखा हुआ है–जगन्नाथ, बद्रीनाथ,काशी और रामेश्वर। यह किताब कहाँ से लाए?
शंखधर–आज ही तो बाजार से लाया हूँ। दाई कहती थी कि बाबूजी की सूरत का एक संन्यासी उन्हें जगन्नाथ में मिला था और वह वहां से रामेश्वर चला गया।
अहिल्या ने शंखधर को दया–सजल नेत्रों से देखा, पर उसके मुख से कोई बात न निकली। आह ! मेरे लाल ! तुझमें इतनी पितृभक्ति क्यों है? तू पिता के वियोग में क्यों इतना पागल हो गया है? तुझे तो पिता की सूरत भी याद नहीं। तुझे तो इतना भी याद नहीं कि कब पिता की गोद में बैठा था, कब उनकी प्यार की बातें सुनी थीं। फिर भी तुझे उन पर इतना प्रेम है? और वह इतने निर्दयी हैं कि न जाने कहाँ बैठे हुए हैं, सुधि ही नहीं लेते। वह मुझसे अप्रसन्न हैं, लेकिन तूने क्या अपराध किया है? तुझसे क्यों रुष्ट हैं? नाथ ! तुमने मेरे कारण अपने आंखों के तारे पुत्र को क्यों त्याग दिया? तुम्हें क्या मालूम कि जिस पुत्र की ओर से तुमने अपना हृदय पत्थर कर लिया है, वह तुम्हारे नाम की उपासना करता है, तुम्हारी मूर्ति की पूजा करता है। आह ! यह वियोगाग्नि उसके कोमल हृदय को क्या जला डालेगी? क्या इस राज्य को पाने का यह दंड है? इस अभागे राज्य ने हम दोनों को अनाथ कर दिया।
अहिल्या का मातृहृदय करुणा से पुलकित हो उठा। उसने शंखधर को छाती से लगा लिया और आंसुओं के वेग को दबाती हुई बोली-बेटा, तुम्हारा उठने को जी न चाहता हो, तो यहीं लाऊ? बैठे-बैठे कुछ थोड़ा-सा खा लो।
शंखधर–अच्छा खा लूंगा अम्मां, किसी से खाना भिजवा दो, तुम क्यों लाओगी।
अहिल्या एक क्षण में छोटी-सी थाली में भोजन लेकर आई और शंखधर के सामने रखकर बैठ गई।
शंखधर को इस समय खाने की रुचि न थी, यह बात नहीं थी। अब तक उसे निश्चित रूप से अपने पिता के विषय में कुछ न मालूम था। वह जानता था कि वह किसी दूसरी जगह आराम से होंगे। आज उसे यह मालूम हुआ था कि संन्यासी हो गए हैं, अब वह राजसी भोजन कैसे करता? इसीलिए उसने अहिल्या से कहा था कि भोजन किसी के हाथ भेज देना, तुम न आना। अब यह थाल देखकर वह बड़े धर्मसंकट में पड़ा। अगर नहीं खाता, तो अहिल्या दुःखी होती है और खाता है, तो कौर मुंह में नहीं जाता। उसे खयाल आया, मैं यहां चांदी के थाल में मोहनभोग उड़ाने बैठा हूँ और बाबूजी पर इस समय न जाने क्या गुजर रही होगी। बेचारे किसी पेड़ के नीचे पड़े होंगे, न जाने आज कुछ खाया भी है या नहीं। वह थाली पर बैठा, लेकिन कौर उठाते ही फूट-फूटकर रोने लगा। अहिल्या उसके मन का भाव ताड़ गई और स्वयं रोने लगी। कौन किसे समझाता?
आज से अहिल्या को हरदम यही संशय रहने लगा कि शंखधर पिता की खोज में कहीं भाग न जाए । वह उसे अकेले कहीं खेलने तक न जाने देती, बाजार भी आना-जाना बंद हो गया। उसने सबको मना कर दिया कि शंखधर के सामने उसके पिता की चर्चा न करें। यह भय किसी भयंकर जंतु की भांति उसे नित्य घूरा करता था कि कहीं शंखधर अपने पिता के गृहत्याग का कारण न जान ले, कहीं वह यह न जान जाए कि बाबूजी को राजपाट से घृणा है, नहीं तो फिर इसे और रोकेगा?
उसे अब हरदम यही पछतावा होता रहता कि मैं शंखधर को लेकर स्वामी के साथ कों न चली गई? राज्य के लोभ में वह पति को पहले ही खो बैठी थी, कहीं पत्र को भी नोकर बैठेगी? सुख और विलास की वस्तुओं से शंखधर की दिन-दिन बढ़ने वाली उदासीनता देख-देखकर वह चिंता के मारे और भी घुली जाती थी।
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