चैप्टर 36 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 36 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

चैप्टर 36 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 36 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 36 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 36 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

इधर कुछ दिनों से लौंगी तीर्थ करने चली गई थी। गुरुसेवक सिंह ही के कारण उसके मन में यह धर्मोत्साह हुआ था। इस यात्रा के शुभ फल में उनको भी कुछ हिस्सा मिलेगा, यह तो नहीं कहा जा सकता, पर उनके पिता को अवश्य मिलने की संभावना थी। जब से वह गई थी, दीवान साहब दीवाने हो गए थे। यहां तक कि गुरुसेवक को भी कभी-कभी यह मानना पड़ता था कि लौंगी का घर में होना पिताजी की रक्षा के लिए जरूरी है। घर में अब कोई नौकर एक सप्ताह से ज्यादा न टिकता था, कितने ही पहली ही फटकार में छोड़कर भागते थे। रियासत से पकड़कर भेजे जाते थे, तब कहीं जाकर काम चलता था। गुरुसेवक के सद्व्यवहार और मिष्ट भाषण का कोई असर न होता था। शराब की मात्रा भी दिनों-दिन बढ़ती जाती थी, जिससे भय होता था कि कोई भयंकर रोग न खड़ा हो जाए। भोजन वह अब बहुत थोड़ा करते थे। लौंगी दिन भर में दो-ढाई सेर दूध उनके पेट में भर दिया करती थी, आध पाव के लगभग घी भी किसी-न-किसी तरह पहुंचा ही देती थी। इस कला में वह निपुण थी। पति-सेवा का वह अमर सिद्धांत, जो चालीस साल की अवस्था के बाद भोजन की योजना ही पर विशेष आग्रह करता है, सदैव उसकी आंखों के सामने रहता था। वह कहा करती थी, घोड़े और मर्द कभी बूढ़े नहीं होते, केवल उन्हें रातिब मिलना चाहिए।

ठाकुर साहब लौंगी की अब सूरत भी नहीं देखना चाहते थे, इसी आशय के पत्र उसको लिखा करते हैं। लिखते हैं, तुमने मेरी जिंदगी चौपट कर दी। मेरा लोक और परलोक दोनों बिगाड़ दिया। शायद लौंगी को जलाने ही के लिए ठाकुर साहब सभी काम उसकी इच्छा के विरुद्ध करते थे-खाना कम, शराब अधिक, नौकरों पर क्रोध, नौ बजे दिन तक सोना। सारांश यह कि जिन बातों को वह रोकती थी, वही आजकल की दिनचर्या बनी हुई थी। दीवान साहब इसकी सूचना भी दे देते और पत्र के अंत में यह भी लिख देते थे-अब तुम्हारे यहां आने की बिल्कुल जरूरत नहीं। मेरी बहू तुमसे कहीं अच्छी तरह मेरी सेवा कर रही है। उसने मासिक खर्च में से कोई दो सौ रुपए की बचत निकाल दी है। तुम्हारे लिए वही आमदनी पूरी न पड़ती थी। हर एक पत्र में वह अपने स्वास्थ्य का विवरण अवश्य करते थे। उनकी पाचन-शक्ति अब बहुत अच्छी हो गई थी, रुधिर के बढ़ जाने से जितने रोग उत्पन्न होते हैं, उनकी अब कोई संभावना न थी।

दीवान साहब की पाचन-शक्ति अच्छी हो गई हो, पर विचार-शक्ति तो जरूर क्षीण हो गई थी। निश्चय करने की अब उनमें सामर्थ्य ही न थी। ऐसी-ऐसी गलतियां करते थे कि राजा साहब को उनका बहुत लिहाज करने पर भी बार-बार एतराज करना पड़ता था। वह कार्यदक्षता, वह तत्परता, वह विचारशीलता, जिसने उन्हें चपरासी से दीवान बनाया था, अब उनका साथ छोड़ गई थी। वह बुद्धि भला जगदीशपुर का शासन-भार क्या संभालती? लोगों को आश्चर्य होता था कि इन्हें क्या हो गया है। गुरुसेवक को भी शायद मालूम होने लगा कि पिताजी की आड़ में कोई दूसरी शक्ति रियासत का संचालन करती थी।

एक दिन उन्होंने पिता से कहा–लौंगी कब तक आएगी?

दीवान साहब ने उदासीनता से कहा–उसका दिल जाने? यहां आने की तो कोई खास जरूरत नहीं मालूम होती। अच्छा है, अपने कर्मों का प्रायश्चित ही कर ले। यहां आकर क्या करेगी?

उसी दिन भाई-बहिन में भी इसी विषय पर बातें हुईं। मनोरमा ने कहा-भैया, क्या तुमने लौंगी अम्मां को भुला ही दिया? दादाजी की दशा देख रहे हो कि नहीं? सूखकर कांटा हो गए है।

गुरुसेवक–भोजन तो करते ही नहीं। कोई क्या करे? बस, जब देखो, शराब-शराब।

मनोरमा–उन्हें लौंगी अम्मां ही कुछ ठीक रख सकती हैं। उन्हीं कों किसी तरह बुलाओ और बहुत जल्द ! दादाजी की दशा देखकर मुझे तो भय हो रहा है। राजा साहब तो कहते हैं, तुम्हारे पिताजी सठिया गए हैं।

गुरुसेवक–तो मैं क्या करूं? बार-बार कहता हूँ कि बुला लीजिए, पर वह सुनते ही नहीं। उलटे उसे चिढ़ाने को और लिख देते हैं कि यहां तुम्हारे आने की जरूरत नहीं। वह एक हठिन है। भला, इस तरह क्यों आने लगी?

मनोरमा–नहीं भैया, वह लाख हठिन हो, पर दादाजी पर जान देती है। वह केवल तुम्हारे भय से नहीं आ रही हैं। तीर्थयात्रा में उसकी श्रद्धा कभी न थी। वहां रो-रोकर उसके दिन कट रहे होंगे। पिताजी जितना ही उसे आने के लिए रोकते हैं, उतना ही उसे आने की इच्छा होती है, पर तुमसे डरती है।

गुरुसेवक-नोरा, मैं सच कहता हूँ, मैं दिल से चाहता हूँ कि वह आ जाए, पर सोचता हूँ कि जब पिताजी मना करते हैं, तो मेरे बुलाने से क्यों आने लगी। रुपए-पैसे की कोई तकलीफ है ही नहीं।

मनोरमा–तुम समझते हो, दादाजी उसे मना करते हैं? उनकी दशा देखकर भी ऐसा कहते हो! जब से अम्मां जी का स्वर्गवास हुआ, दादाजी ने अपने को उसके हाथों बेच दिया। लौंगी ने न संभाला होता, तो अम्मांजी के शोक में दादाजी प्राण दे देते। मैंने किसी विवाहित स्त्री में इतनी पति-भक्ति नहीं देखी। अगर दादाजी को बचाना चाहते हो, तो जाकर लौंगी अम्मां को अपने साथ लाओ!

गुरुसेवक–मेरा जाना तो बहुत मुश्किल है, नोरा !

मनोरमा–क्यों? क्या इस में आपका अपमान होगा?

गुरुसेवक–वह समझेगी, आखिर इन्हीं को गरज पड़ी। आकर और भी सिर चढ़ जाएगी। उसका मिजाज और भी आसमान पर जा पहुंचेगा।

मनोरमा–भैया, ऐसी बातें मुंह से न निकालो। लौंगी देवी है, उसने तुम्हारा और मेरा पालन किया है। उस पर तुम्हारा यह भाव देखकर मुझे दुःख होता है।

गुरुसेवक–मैं अब उससे कभी न बोलूंगा, उसकी किसी बात में भूलकर भी दखल न दूंगा, लेकिन उसे बुलाने न जाऊंगा।

मनोरमा–अच्छी बात है, तुम न जाओ, लेकिन मेरे जाने में तो कोई आपत्ति नहीं है। गुरुसेवक–तुम जाओगी?

मनोरमा क्यों, मैं क्या हूँ! क्या मैं भूल गई हूँ कि लौंगी अम्मां ही ने मुझे गोद में लेकर पाला है? अगर वह इस घर में आकर रहती, तो मैं अपने हाथों से उसके पैर धोती और चरणामत आंखों से लगाती। जब मैं बीमार पड़ी थी, तो वह रात की रात मेरे सिरहाने बैठी रहती थी। क्या मैं इन बातों को कभी भूल सकती हूँ? माता के ऋण से उऋण होना चाहे संभव हो, उसके ऋण से मैं कभी उऋण नहीं हो सकती, चाहे ऐसे-ऐसे दस जन्म लूं। आजकल वह कहाँ है?

गुरुसेवक लज्जित हुए। घर आकर उन्होंने देखा कि दीवान साहब लिहाफ ओढ़े पडे हए हैं। पूछा-आपका जी कैसा है?

दीवान साहब की लाल आंखें चढ़ी हुई थीं। बोले-कुछ नहीं जी, जरा सर्दी लग रही थी।

गुरुसेवक–आपकी इच्छा हो, तो मैं जाकर लौंगी को बुला लाऊं?

हरिसेवक–तुम ! नहीं, तुम उसे बुलाने क्यों जाओगे! कोई जरूरत नहीं। उसका जी चाहे, आए या न आए। हुंह ! उसे बुलाने जाओगे! ऐसी कहाँ की अमीरजादी है?

गुरुसेवक–यह आप कहें। हम तो उसकी गोद में खेले हुए हैं, हम ऐसा कैसे कह सकते हैं। नोरा आज मुझ पर बहुत बिगड़ रही थी, वह खुद उसे बुलाने जा रही है। उसकी जिद तो आप जानते ही हैं। जब धुन सवार हो जाती है, तो उसे कुछ नहीं सूझता।

हरिसेवक सजल नेत्र होकर बोले–नोरा जाने को कहती है? नोरा जाएगी? नहीं, मैं, उसे न जाने दूंगा। लौंगी को बुलाने नोरा नहीं जा सकती। मैं उसे समझा दूंगा।

गुरुसेवक क्या जानते थे, इन शब्दों में कोई गूढ आशय भरा हुआ है। वहां से चले गए।

दूसरे दिन दीवान साहब को ज्वर हो आया। गुरुसेवक ने थर्मामीटर लगाकर देखा, तो ज्वर एक सौ चार डिग्री का था। घबराकर डॉक्टर को बुलाया। मनोरमा यह खबर पाते ही दौड़ी हुई आई। उसने आते ही गुरुसेवक से कहा-मैंने आपसे कल ही कहा था, जाकर लौंगी अम्मां को बुला लाइए, लेकिन आप न गए। अब तक तो आप हरिद्वार से लौटते होते।

गुरुसेवक–मैं तो जाने को तैयार था, लेकिन जब कोई जाने भी दे। दादाजी से पूछा, तो वह मुझको बेवकूफ बनाने लगे। मैं कैसे चला जाता?

मनोरमा–तुम्हें उनसे पूछने की क्या जरूरत थी? इनकी दशा देख नहीं रहे हो। अब भी मौका है। मैं इनकी देखभाल करती रहूँगी, तुम इसी गाड़ी से चले जाओ और उसे साथ लाओ। वह इनकी बीमारी की खबर सुनकर एक क्षण भी न रुकेगी। वह केवल तुम्हारे भय से नहीं आ रही है।

दीवान साहब मनोरमा को देखकर बोले–आओ नोरा, मुझे तो आज ज्वर आ गया। गुरुसेवक कह रहा था कि तुम लौंगी को बुलाने जा रही हो। बेटी, इसमें तुम्हारा अपमान है। उसकी हजार दफा गरज हो आए, या न आए। भला, तुम उसे बुलाने जाओगी, तो दुनिया क्या कहेगी! सोचो, कितनी बदनामी की बात है!

मनोरमा–दुनिया जो चाहे कहे, मैंने भैयाजी को भेज दिया है। वह तो स्टेशन पहुँच गए होंगे। शायद गाड़ी पर सवार भी हो गए हों।

हरिसेवक–सच! यह तुमने क्या किया? लौंगी कभी न आएगी।

मनोरमा-आएगी क्यों नहीं। न आएगी, तो मैं जाऊंगी और उसे मना लाऊंगी।

हरिसेवक–तुम उसे मनाने जाओगी? रानी मनोरमा लौंगी कहारिन को मनाने जाएगी?

मनोरमा–मनोरमा लौंगी कहारिन का दूध पीकर बड़ी न होती, तो आज रानी मनोरमा कैसे होती?

हरिसेवक का मुरझाया हुआ चेहरा खिल उठा, बुझी हुई आंखें जगमगा उठीं, प्रसन्नमुख होकर बोले-नोरा, तुम सचमुच दया की देवी हो। देखो, अगर लौंगी आए और मैं न रहूँ, तो उसकी खबर लेती रहना। उसने मेरी बड़ी सेवा की है। मैं कभी उसके एहसानों का बदला नहीं चुका सकता। गुरुसेवक उसे सताएगा, उसे घर से निकालेगा, लेकिन तुम उस दुखिया की रक्षा करना। मैं चाहूँ, तो अपनी सारी संपत्ति उसके नाम लिख सकता हूँ। यह सब जायदाद मेरी पैदा की हुई है। मैं अपना सब कुछ लौंगी को दे सकता हूँ, लेकिन लौंगी कुछ न लेगी। वह दुष्टा मेरी जायदाद का एक पैसा भी न छुएगी। वह अपने गहने-पाते भी काम पड़ने पर इस घर में लगा देगी। बस, वह सम्मान चाहती है। कोई उससे आदर के साथ बोले और उसे लूट ले। वह घर की स्वामिनी बनकर भूखों मर जाएगी, लेकिन दासी बनकर सोने का कौर भी न खाएगी। यह उसका स्वभाव है। गुरुसेवक ने आज तक उसका स्वभाव न जाना। नोरा, जिस दिन से वह गई है, मैं कुछ और ही हो गया हूँ। जान पड़ता है, मेरी आत्मा कहीं चली गई है। मुझे अपने ऊपर जरा भी भरोसा नहीं रहा। मुझमें निश्चय करने की शक्ति ही नहीं रही! अपने कर्त्तव्य का ज्ञान ही नहीं रहा। तुम्हें अपने बचपन की याद आती है, नोरा?

मनोरमा-बहुत पहले की बातें तो नहीं याद हैं, लेकिन लौंगी अम्मां का मुझे गोद में खिलाना खूब याद है। अपनी बीमारी भी याद आती है, जब लौंगी अम्मां मुझे पंखा झला करती थीं।

हरिसेवक ने अवरुद्ध कंठ से कहा–उससे पहले की बात है, नोरा, जब गुरुसेवक तीन वर्ष का था और तुम्हारी माता तुम्हें साल भर का छोड़कर चल बसी थी। मैं पागल हो गया था। यही जी में आता था कि आत्महत्या कर ली नोरा, जैसे तुम हो वैसी ही तुम्हारी माता भी थी। उसका स्वभाव भी तुम्हारे जैसा था। मैं बिल्कुल पागल हो गया था। उस दशा में इसी लौंगी ने मेरी रक्षा की। उसकी सेवा ने मुझे मुग्ध कर दिया। उसे तुम लोगों पर प्राण देते देखकर उस पर मेरा प्रेम हो गया। मैं उसके स्वरूप और यौवन पर न रीझा ! तुम्हारी माता के बाद किसका स्वरूप और यौवन मुझे मोहित कर सकता था? मैं लौंगी के हृदय पर मुग्ध हो गया। तुम्हारी माता भी तुम लोगों का लालन-पालन इतना तन्मय होकर न कर सकती थी। गुरुसेवक की बीमारी की याद तुम्हें क्या आएगी ! न जाने उसे कौन-सा रोग हो गया था। खून के दस्त आते थे और तिल-तिल पर। छः महीने तक उसकी दशा यही रही। जितनी दवा-दारू उस समय कर सकता था, वह सब करके हार गया। झाड़-फूंक, दुआ-ताबीज सब कुछ कर चुका। इसके बचने की कोई आशा न थी। गलकर कांटा हो गया। रोता तो इस तरह, मानो कराह रहा है। यह लौंगी ही थी, जिसने उसे मौत के मुंह से निकाल लिया। कोई माता अपने बालक की इतनी सेवा नहीं कर सकती। जो उसके त्यागमय स्नेह को देखता, दांतों तले उंगली दबाता था। क्या वह लोभ के वश अपने को मिटाए देती थी? लोभ में भी कहीं त्याग होता है? और आज गुरुसेवक उसे घर से निकाल रहा है, समझता है कि लौंगी मेरे धन के लोभ से मुझे घेरे हुए है। मूर्ख यह नहीं सोचता कि जिस समय लौंगी उसका पंजर गोद में लेकर रोया करती थी, उस समय धन कहाँ था? सच पूछो, तो यहां लक्ष्मी लौंगी के समय ही आई, बल्कि लक्ष्मी ही लौंगी के रूप में आई। लौंगी ही ने मेरे भाग्य को रचा। जो कुछ किया, उसी ने किया, मैं तो निमित्त मात्र था। क्यों नोरा, मेरे सिरहाने कौन खड़ा है? कोई बाहरी आदमी है? कह दो, यहां से जाए ।

मनोरमा–यहां तो मेरे सिवा कोई नहीं है। आपको कोई कष्ट हो रहा है? फिर डॉक्टर को

बुलाऊं?

हरिसेवक–मेरा जी घबरा रहा है, रह-रहकर डूबा जाता है। कष्ट कोई नहीं, कोई पीडा नहीं। बस, ऐसा मालूम होता है कि दीपक में तेल नहीं रहा। गुरुसेवक शाम तक पहुँच जाएगा?

मनोरमा–हां, कुछ रात जाते-जाते पहुँच जाएंगे।

हरिसेवक–कोई तेज मोटर हो, तो मैं शाम तक पहुँच जाऊं

मनोरमा–इस दशा में इतना लंबा सफर आप कैसे कर सकते हैं?

हरिसेवक–हां, यह ठीक कहती हो, बेटी! मगर मेरी दवा लौंगी के पास है। उस सती का कैसा प्रताप था ! जब तक वह रही, मेरे सिर में कभी दर्द भी न हुआ। मेरी मूर्खता देखो कि जब उसने तीर्थयात्रा की बात कही तो, मेरे मुंह से एक बार भी न निकला-तुम मुझे किस पर छोड़कर जाती हो? अगर मैं यह कह सकता, तो वह कभी न जाती। एक बार भी नहीं रोका। मैं उसे निष्ठुरता का दंड देना चाहता था। मुझे उस वक्त यह न सूझ पड़ा कि…

यह कहते-कहते दीवान साहब फिर चौंक पड़े और द्वार की ओर आशंकित नेत्रों से देखकर बोले-यह कौन अंदर आया, नोरा? ये लोग क्यों मुझे घेरे हुए हैं?

मनोरमा ने घबराते हुए हृदय से उमड़ने वाले आंसुओं को दबाकर पूछा-क्या आपका जी फिर घबरा रहा है?

हरिसेवक–वह कुछ नहीं था, नोरा ! मैंने अपने जीवन में अच्छे काम कम किए, बुरे काम बहुत किए। अच्छे काम जितने किए वे लौंगी ने किए। बुरे काम जितने किए, वे मेरे हैं। उनके दंड का भागी मैं हूँ। लौंगी के कहने पर चलता, तो आज मेरी आत्मा शांत होती। एक बात तुमसे पूछूं, नोरा, बताओगी?

मनोरमा–खुशी से पूछिए।

हरिसेवक–तुम अपने भाग्य से संतुष्ट हो?

मनोरमा–यह आप क्यों पूछते हैं? क्या मैंने आपसे कभी कोई शिकायत की है?

हरिसेवक–नहीं नोरा, तुमने कभी शिकायत नहीं की और न करोगी, लेकिन मैंने तुम्हारे साथ जो घोर अत्याचार किया है, उसकी व्यथा से आज मेरा अंत:करण पीड़ित हो रहा है। मैंने तुम्हें अपनी तृष्णा की भेंट चढ़ा दिया, तुम्हारे जीवन का सर्वनाश कर दिया। ईश्वर ! तुम मुझे इसका कठिन से कठिन दंड देना ! लौंगी ने कितना विरोध किया, लेकिन मैंने एक न सुनी। तुम निर्धन होकर सुखी रहतीं। मुझे तृष्णा ने अंधा बना दिया था। फिर जी डूबा जाता है! शायद उस देवी के दर्शन न होंगे। तुम उससे कह देना नोरा कि वह स्वार्थी, नीच, पापी जीव अंत समय तक उसकी याद में तडपता रहा…

मनोरमा–दादाजी, आप ऐसी बातें क्यों करते हैं? लौंगी अम्मां कल शाम तक आ जाएंगी।

हरिसेवक हंसे, वह विलक्षण हंसी, जिसमें समस्त जीवन की आशाओं और अभिलाषाओं का प्रतिवाद होता है। फिर संदिग्ध भाव से बोले-कल शाम तक? हां शायद।

मनोरमा आंसुओं के वेग को रोके हुए थी। उसे उस चिर परिचित स्थान में आज एक विचित्र शंका का आभास हो रहा था। ऐसा जान पड़ता था कि सूर्य-प्रकाश कुछ क्षीण हो गया है, मानो संध्या हो गई है। दीवान साहब के मुख की ओर ताकने की हिम्मत न पड़ती थी।

दीवान साहब छत की ओर टकटकी लगाए हुए थे, मानो उनकी दृष्टि अनंत के उस पार पहुँच जाना चाहती हो। सहसा उन्होंने क्षीण स्वर में पुकारा-नोरा!

मनोरमा ने उनकी ओर करुण नेत्रों से देखकर कहा–खड़ी हूँ, दादाजी!

दीवान–जरा कलम-दवात लेकर मेरे समीप आ जाओ। कोई और तो यहां नहीं है? मेरे दानपत्र लिख लो। गुरुसेवक की लौंगी से न पटेगी। मेरे पीछे उसे बहुत कष्ट होगा। मैं अपनी सब जायदाद लौंगी को देता हूँ। जायदाद के लोभ से गुरुसेवक उससे दबेगा। तुम यह लिख लो और तुम्हीं इसकी साक्षी देना। जरा बहू को बुला लो, मैं उसे भी समझा दूं। यह वसीयत तुम अपने ही पास रखना। जरूरत पड़ने पर इससे काम लेना।

मनोरमा अंदर जाकर रोने लगी। आंसुओं का वेग उसके रोके न रुका। उसकी भाभी ने पूछा-क्या है, दीदी ! दादाजी का जी कैसा है?

यह कहते हुए वह घबराई हुई दीवान साहब के सामने आकर खड़ी हो गई। उसका आँखों में आंसू भर आए। कमरे में वह निस्तब्धता छाई हुई थी, जिसका आशय सहज ही समझ में आ जाता है। उसने दीवान साहब के पैरों पर सिर रख दिया और रोने लगी।

दीवान साहब ने उसके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देते हुए कहा-बेटी? यह मेरा अंतिम समय है। यात्रा के सामान कर रहा हूँ? गुरुसेवक के आने तक क्या होगा, नहीं जानता। मेरे पीछे लौंगी बहुत दिन न रहेगी। उसका दिल न दुखाना। मेरी तुमसे यही याचना है। तुम बड़े घर की बेटी हा। जो कुछ करना, उसकी सलाह से करना। इसी में वह प्रसन्न रहेगी। ईश्वर तुम्हारा सौभाग्य अमर करें!

यह कहते-कहते दीवान साहब की आंखें बंद हो गईं। कोई आध घंटे के बाद उन्होंने आंखें खोली और उत्सुक नेत्रों से इधर-उधर देखकर बोले-अभी नहीं आई? अब भेंट न होगी।

मनोरमा ने रोते हुए कहा–दादाजी, मुझे भी कुछ कहते जाइए। मैं क्या करूं?

दीवान साहब ने आंखें बंद किए हुए कहा–लौंगी को देखो !

थोड़ी देर में राजा साहब आ पहुंचे। अहिल्या भी उनके साथ थी। मुंशी वज्रधर को भी उड़ती हुई खबर मिली। दौड़े आए। रियासत के सैकड़ों कर्मचारी जमा हो गए। डॉक्टर भी आ पहुंचा। किंतु दीवान साहब ने आंखें न खोली।

संध्या हो गई थी। कमरे में सन्नाटा छाया हुआ था। सब लोग सिर झुकाए बैठे थे, मानो श्मशान में भूतगण बैठे हों। सबको आश्चर्य हो रहा था कि इतनी जल्द यह क्या हो गया। अभी कल तक तो मजे में रियासत का काम करते रहे। दीवान साहब अचेत पड़े हुए थे, किंतु आंखों से आंसू की धारें बह-बहकर गालों पर आ रही थीं। उस वेदना का कौन अनुमान कर सकता है!

एकाएक द्वार पर एक बग्घी आकर रुकी और उसमें से एक स्त्री उतरकर घर में दाखिल हुई। शोर मच गया-आ गई, आ गई। यह लौंगी थी।

लौंगी आज ही हरिद्वार से चली थी। गुरुसेवक से उसकी भेंट न हुई थी। इतने आदमियों को जमा देखकर उसका हृदय दहल उठा। उसके कमरे में आते ही और लोग हट गए। केवल मनोरमा, उसकी भाभी और अहिल्या रह गईं।

लौंगी ने दीवान साहब के सिर पर हाथ रखकर भर्रायी हुई आवाज में कहा–प्राणनाथ ! क्या मुझे छोड़कर चले जाओगे?

दीवान साहब की आंखें खुल गईं। उन आंखों में कितनी अपार वेदना थी, किंतु कितना अपार प्रेम!

उन्होंने दोनों हाथ फैलाकर कहा–लौंगी और पहले क्यों न आईं?

लौंगी ने दोनों फैले हुए हाथों के बीच में अपना सिर रख दिया और उस अंतिम प्रेमालिंगन के आनंद में विह्वल हो गई। इस निर्जीव, मरणोन्मुख प्राणी के आलिंगन में उसने उस आत्मबल, विश्वास और तृप्ति का अनुभव किया, जो उसके लिए अभूतपूर्व था। इस आनंद में वह शोक भूल गई। पच्चीस वर्ष के दाम्पत्य जीवन में उसने कभी इतना आनंद न पाया था। निर्दय अविश्वास रह-रहकर उसे तड़पाता रहता था। उसे सदैव यह शंका बनी रहती थी कि यह डोंगी पार लगाती है या मंझधार ही में डूब जाती है। वायु का हल्का-सा वेग, लहरों का हल्का-सा आंदोलन, नौका का हल्का-सा कंपन उसे भयभीत कर देता था। आज उन सारी शंकाओं और वेदनाओं का अंत हो गया। आज उसे मालूम हुआ कि जिसके चरणों पर मैंने अपने को समर्पित किया था, वह अंत तक मेरा रहा। यह शोकमय कल्पना भी कितनी मधुर और शांतिदायिनी थी।

वह इसी विस्मृति की दशा में थी कि मनोरमा का रोना सुनकर चौंक पड़ी और दीवान साहब के मुख की ओर देखा। तब उसने स्वामी के चरणों पर सिर रख दिया और फूट-फूटकर रोने लगी। एक क्षण में सारे घर में कुहराम मच गया। नौकर-चाकर भी रोने लगे। जिन नौकरों को दीवान के मुख से नित्य घुड़कियां मिलती थीं, वह भी रो रहे थे। मृत्यु में मानसिक प्रवृत्तियों को शांत करने की विलक्षण शक्ति होती है। ऐसे विरले ही प्राणी संसार में होंगे, जिनके अंत:करण मृत्यु के प्रकाश से आलोकित न हो जाएं। अगर कोई ऐसा मनुष्य है, तो उसे पशु समझो। हरिसेवक की कृपणता, कठोरता, संकीर्णता, धूर्तता एवं सारे दुर्गुण, जिनके कारण वह अपने जीवन में बदनाम रहे, इस विशाल प्रेम के प्रवाह में बह गए।

आधी रात बीत चुकी थी। लाश अभी तक गुरुसेवक के इंतजार में पड़ी हुई थी। रोने वाले रो-धोकर चुप हो गए थे। लौंगी शोकगृह से निकलकर छत पर गई और सड़क की ओर देखने लगी। सैर करने वालों की सैर तो खत्म हो चुकी थी, मगर मुसाफिरों की सवारियां कभी-कभी बंगले के सामने से निकल जाती थीं। लौंगी सोच रही थी, गुरुसेवक अब तक लौटे क्यों नहीं? गाड़ी तो यहां दो बजे आ जाती है। क्या अभी दो नहीं बजे? आते ही होंगे। स्टेशन की ओर से आने वाली हर सवारी गाड़ी को वह उस वक्त तक ध्यान से देखती थी, जब तक वह बंगले के सामने से न निकल जाती। तब वह अधीर होकर कहती, अब भी नहीं आए!

और मनोरमा बैठी दीवान साहब के अंतिम उपदेश का आशय समझने की चेष्टा कर रही थी। उसके कानों में ये शब्द गूंज रहे थे लौंगी को देखो!

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