चैप्टर 35 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 35 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel
Chapter 35 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel
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असम साहस : वैशाली की नगरवधू
“तो आयुष्मान् सोम, तुम्हारी योजनाएं असफल हुईं?”
“यह क्यों, भन्ते सेनापति?”
“कल ही बैशाखी पर्व है, हम कुछ भी तो नहीं कर सके।”
“भन्ते, हमें अभी काम करने के लिए पूरे पांच प्रहर का समय है।”
“इन पांच प्रहरों में हम क्या कर लेंगे? दुर्ग पर आक्रमण के योग्य हमारे पास सेना कहां है?”
“भन्ते आर्य, इन चार दिनों में जो कुछ हम कर पाए हैं वह सब परिस्थितियों को देखते क्या सन्तोषप्रद नहीं है?”
“अवश्य है, परन्तु इससे लाभ? मेरी समझ में हमारा सर्वनाश और चार दिन के लिए टल गया। अब तो तुम आत्मसमर्पण के पक्ष में नहीं हो?”
“नहीं भन्ते सेनापति।”
“तो कल सूर्योदय के साथ हमारा सर्वनाश हो जाएगा।”
“नहीं भन्ते सेनापति, कल सूर्योदय से पूर्व हम दुर्ग अधिकृत कर लेंगे।”
“क्या तुम्हें किसी दैवी सहायता की आशा है?”
“नहीं भन्ते सेनापति, मैं अपने पुरुषार्थ पर निर्भर हूं।”
“तो तुम्हें अब भी आशा है?”
“आशा नहीं, भन्ते सेनापति, मुझे विश्वास है।”
“परन्तु आयुष्मान्, तुम करना क्या चाहते हो?”
“वह कल सूर्योदय होने पर आप देख लीजिएगा।”
“सौम्य सोम, तुम कोई असम साहस तो नहीं कर रहे। मैं तुम्हें किसी घातक योजना की अनुमति नहीं दूंगा।”
“हमारा कार्य अतिशय गुरुतर है सेनापति; और मेरी योजना भी वैसी ही गम्भीर है। परन्तु आप तनिक भी चिन्ता न कीजिए। आप केवल परिणाम को देखिए। कल सूर्योदय से पूर्व ही दुर्ग पर मागधी झंडा फहरता देखेंगे आप।”
“लेकिन कैसे आयुष्मान्?”
“भन्ते सेनापति, कृपा कर अभी आप मुझसे कुछ न पूछे। हां, आज की रात का संकेत-शब्द क्या है, कृपया यह बता दीजिए।”
“असम साहस ही सही।”
“बहुत ठीक, अब आप विश्राम कीजिए। अभी एक दण्ड रात गई है। मुझे बहुत समय है। मैं तनिक अपने आदमियों को ठीक-ठाक कर लूं।”
“तुम्हारा कल्याण हो आयुष्मान्, और कुछ?”
“कृपया याद रखिए कि रात्रि के चौथे दण्ड में ज्यों ही चम्पा दुर्ग के दक्षिण द्वार पर मागध तुरही बजे, आप ससैन्य दुर्ग में प्रविष्ट होकर दुर्ग को अधिकृत कर लें। दुर्ग-द्वार आपको उन्मुक्त मिलेगा।”
सोम ने अवनत होकर सेनापति भद्रिक को अभिवादन किया और तेज़ी के साथ पट-मण्डप से बाहर हो गए। सेनापति आश्चर्यचकित खड़े उसे देखते रह गए।
बाहर आते ही रात्रि के अन्धकार में एक वृक्ष की आड़ से निकलकर अश्वजित् उसके निकट आया। उसने आते ही सोम के कान के पास मुंह ले जाकर कहा—”सब ठीक है मित्र!”
“वह मांझी?”
“अपनी नाव-सहित वहां चन्दन के कछार में छिपा हुआ है।”
“उस पर विश्वास तो किया जा सकता है?”
“पूरा मित्र।”
“मित्र, स्मरण रखना, मगध का भाग्य इस समय उसी मांझी के हाथ में है।”
“वह पूरे विश्वास के योग्य है मित्र।”
“तब चलो उसके पास।”
दोनों व्यक्ति धीरे-धीरे निःशब्द पत्थर के छोटे-बड़े ढोंकों को पार करते हुए उसी सघन अन्धकार में चन्दन नदी के उस कछार पर पहुंचे, जहां वह मछुआ अपनी नाव एक वृक्ष से बांधे चुपचाप बैठा था। नदी के हिलोरों से नाव उथल-पुथल हो रही थी।
अश्वजित् ने संकेत किया। संकेत पाते ही मांझी कूदकर उनके निकट आ गया। निकट आकर उसने दोनों को अभिवादन किया।
सोम ने आगे बढ़कर उस अन्धकार में उसे सिर से पैर तक देखा और पूछा—”तुम्हारा क्या नाम है मित्र?”
“भन्ते आर्य, मैं सोमक मांझी हूं।”
“तो मित्र सोमक, तुम्हें मालूम है कि आज की रात तुम्हें एक जोखिम से भरा काम करना होगा, जिसमें तनिक भी असफल हुए तो बहुत भारी हानि होगी? हमें दक्षिण बुर्ज तक जाना होगा, वहां नाव को टिकाए रखना होगा। जानते हो, यह जान-जोखिम का काम है।”
“भन्ते आर्य, हम लोग तो तुच्छ मछलियों के लिए नित्य जान-जोखिम ही में रहते हैं, आप तनिक भी आशंका न करें।”
“आश्वस्त हुआ मित्र। तो कब उपयुक्त समय होगा?”
“चार दण्ड रात्रि व्यतीत होने पर भन्ते, तब चन्दना में ज्वार आएगा।”
“नहीं मित्र, तीन दण्ड रात्रि व्यतीत होने पर।”
“इसमें तनिक भय है सेनापति। किन्तु कोई हानि नहीं। ऐसा ही होगा।”
“यह तुम्हारा पारिश्रमिक है मित्र।”
“सोम ने स्वर्ण से भरी एक छोटी-सी थैली उसके हाथों में थमा दी, फिर धीरे से कहा—”हां, तुम्हारी नाव में बीस आदमी बैठ सकते हैं?”
“बहुत आराम से भन्ते सेनापति।”
“तब ठीक है। सावधानी से यहीं प्रतीक्षा करना मित्र!”
“आप निश्चिन्त रहिए, भन्ते आर्य!”
सोम ने वहां से हटकर अश्वजित् से कुछ परामर्श किया और अश्वजित् तेज़ी से किन्तु निःशब्द एक ओर को चला गया। फिर सोम भी लम्बे-लम्बे डग बढ़ाते हुए एक ओर को तेज़ी से चले।
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