चैप्टर 34 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 34 Kayakalp Novel By Munshi Premchand
Chapter 34 Kayakalp Novel By Munshi Premchand
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चक्रधर को रात भर नींद न आई। उन्हें बार-बार पश्चाताप होता था कि मैं क्रोध के आवेग में क्यों आ गया। जीवन में यह पहला ही अवसर था कि उन्होंने एक निर्बल प्राणी पर हाथ उठाया था। जिसका समस्त जीवन दीन जनों की सहायता में गुजरा हो, उसमें यह कायापलट नैतिक पतन से कम न था। आह! मुझ पर भी प्रभुता का जादू चल गया। इतने संयत रहने पर भी मैं उसके जाल में फंस गया। कितना चतुर शिकारी है! अब मुझे अनुभव हो गया है कि इस वातावरण में रहकर मेरे लिए अपनी मनोवृत्तियों को स्थिर रखना असंभव है। धन में धर्म है, उदारता है, लेकिन इसके साथ ही गर्व भी है, जो इन गुणों को मटियामेट कर देता है।
चक्रधर तो इस विचार में पड़े हुए थे और अहिल्या अपने सजे हुए शयनागार में मखमली गद्दों पर लेटी अंगड़ाइयां ले रही थी। चारपाई के सामने ही दीवार में एक बड़ा-सा आईना लगा हुआ था। वह उस आईने में अपना स्वरूप देख-देखकर मुग्ध हो रही थी। सहसा शंखधर एक रेशमी कुर्ता पहने लुढ़कता हुआ आकर उसके पास खड़ा हो गया। अहिल्या ने हाथ फैलाकर कहा-बेटा, जरा मेरी गोद में आ जाओ।
शंखधर अपना खोया हुआ घोड़ा ढूंढ़ रहा था। बोला-अम नई…
अहिल्या–देखो, मैं तुम्हारी अम्मां हूँ ना?
शंखधर–तुम अम्मां नईं। अम्मां लानी है।
अहिल्या–क्या मैं रानी नहीं हूँ?
शंखधर ने उसे कुतूहल से देखकर कहा–तुम लानी नईं। अम्मां लानी है।
अहिल्या ने चाहा कि बालक को पकड़ ले, पर वह तुम लानी नईं, तुम लानी नईं ! कहता हुआ कमरे से निकल गया। बात कुछ न थी, लेकिन अहिल्या ने कुछ और ही आशय समझा। यह भी उसकी समझ में मनोरमा की कूटनीति थी। वह उससे राजमाता का अधिकार भी छीनना चाहती है। वह बालक को पकड़ लाने के लिए उठी ही थी कि चक्रधर ने कमरे में कदम रखा। उन्हें देखते ही अहिल्या ठिठक गई और त्योरियां चढ़ाकर बोली–अब तो रात भर आपके दर्शन ही नहीं होते।
चक्रधर–कुछ तुम्हें खबर भी है। आध घंटे तक जगाता रहा, जब तुम न जागीं तो चला गया। यहां आकर तुम सोने में कुशल हो गईं !
अहिल्या–बातें बनाते हो। तुम रात को यहां थे ही नहीं। बारह बजे तक जागती रही। मालूम होता है, तुम्हें भी सैर-सपाटे की सूझने लगी। अब मुझे यह एक और चिंता हुई।
चक्रधर–अब तक जितनी चिंताएं हैं, उनमें तो तुम्हारी नींद का यह हाल है, यह चिंता और हुई, तो शायद तुम्हारी आंख ही न खुले।
अहिल्या–क्या मैं सचमुच बहुत सोती हूँ?
चक्रधर–अच्छा, अभी तुम्हें इसमें संदेह भी है ! घड़ी में देखो! आठ बज गए हैं। तुम पांच बजे उठकर घर का धंधा करने लगती थीं।
अहिल्या–तब की बातें जाने दो। अब उतने सवेरे उठने की जरूरत ही क्या है?
चक्रधर–तो क्या तुम उम्र-भर यहां मेहमानी खाओगी? अहिल्या ने विस्मित होकर कहा-इसका क्या मतलब?
चक्रधर–इसका मतलब यही है कि हमें आए हुए बहुत दिन गुजर गए। अब अपने घर चलना चाहिए?
अहिल्या–अपना घर कहाँ है?
चक्रधर–अपना घर वही है, जहां अपने हाथों की कमाई है। अहिल्या ने एक मिनट सोचकर कहा-लल्लू कहाँ रहेगा?
चक्रधर–लल्लू को यहीं छोड़ सकती हो। वह रानी मनोरमा से खूब हिल गया है। तुम्हारी तो शायद उसे याद भी न आए।
अहिल्या–अच्छा, तो अब समझ में आया। इसीलिए रानीजी उससे इतना प्रेम करती हैं। यह बात तुमने स्वयं सोची है, या रानीजी ने कुछ कहा है?
चक्रधर–भला, वह क्या कहेंगी? मैं खुद यहां रहना नहीं चाहता। ससुराल की रोटियां बहुत खा चुका। खाने में तो वह बहुत मीठी मालूम होती हैं, पर उनसे बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। औरों को हजम होती होंगी, पर मुझे तो नहीं पचतीं, और शायद तुम्हें भी नहीं पचतीं। इतने ही दिनों में हम दोनों कुछ के कुछ हो गए। यहां कुछ दिन और रहा, तो कम से कम मैं तो कहीं का न रहूँगा। कल मैंने एक गरीब किसान को मारते-मारते अधमरा कर दिया। उसका कसूर केवल यह था कि वह मेरे साथ आने पर राजी न होता था।
अहिल्या–यह कोई बात नहीं। गंवारों के उजड्डपन पर कभी-कभी क्रोध आ ही जाता है। मैं ही यहां दिन भर लौंडियों पर झल्लाती रहती हूँ, मगर मुझे तो कभी यह खयाल ही नहीं आया कि घर छोड़कर भाग जाऊं।
चक्रधर–तुम्हारा घर है, तुम रह सकती हो, लेकिन मैंने तो जाने का निश्चय कर लिया है।
अहिल्या ने अभिमान से सिर उठाकर कहा-तुम न रहोगे, तो मुझे यहां रहकर क्या लेना है। मेरे राज-पाट तो तुम हो, जब तुम्हीं न रहोगे, तो अकेली पड़ी-पड़ी मैं क्या करूंगी? जब चाहे, चलो! हां, पिताजी से पूछ लो। उनसे बिना पूछे तो जाना उचित नहीं, मगर एक बात अवश्य कहूँगी। हम लोगों के जाते ही यहां का सारा कारोबार चौपट हो जाएगा। रानी मनोरमा का हाल देख ही रहे हो। रुपए को ठीकरा समझती हैं। दादाजी उनसे कुछ कह नहीं सकते। थोड़े दिनों में रियासत जेरबार हो जाएगी और एक दिन बेचारे लल्लू को ये सब पापड़ बेलने पड़ेंगे।
अहिल्या के मनोभाव इन शब्दों से साफ टपकते थे। कुछ पूछने की जरूरत न थी। चक्रधर समझ गए कि अगर मैं आग्रह करूं, तो यह मेरे साथ जाने पर राजी हो जाएगी। जब ऐश्वर्य और पति-प्रेम, दो में से एक को लेने और दूसरे को त्याग करने की समस्या पड़ जाएगी, तो अहिल्या किस ओर झुकेगी, इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं था, लेकिन वह उसे इस कठोर धर्म संकट में डालना उचित न समझते थे। आग्रह से विवश होकर वह उनके साथ चली गई तो क्या? जब उसे कोई कष्ट होगा, मन ही मन झुंझलाएगी और बात-बात पर कुढ़ेगी, तब लल्लू को यहां छोड़ना ही पड़ेगा। मनोरमा उसे एक क्षण के लिए भी नहीं छोड़ सकती। राजा साहब तो शायद वियोग में प्राण ही त्याग दें। पुत्र को छोड़कर अहिल्या कभी जाने पर तैयार न होगी और गई भी, तो बहुत जल्द लौट आएगी।
चक्रधर बड़ी देर तक इन्हीं विचारों में मग्न बैठे रहे। अहिल्या पति के साथ जाने पर सहमत तो हो गई थी, पर दिल में डर रही थी कि कहीं सचमुच न जाना पड़े। वह राजा साहब को पहले ही सचेत कर देना चाहती थी, जिसमें वह चक्रधर की नीति और धर्म की बातों में न आ जाएं! उसे इसका पूरा विश्वास था कि चक्रधर राजा साहब से बिना पूछे कदापि न जाएंगे! वह क्या जानती थी कि जिन बातों से उसके दिल पर जरा भी असर नहीं होता, वही बातें चक्रधर के दिल पर तीर की भांति लगती हैं। चक्रधर ने अकेले, बिना किसी से कुछ कहे-सुने चले जाने का संकल्प किया। इसके सिवा उन्हें गला छुड़ाने का कोई उपाय ही न सूझता था।
इस वक्त वह उस मनहूस घड़ी को कोस रहे थे, जब मनोरमा की बीमारी की खबर पाकर अहिल्या के साथ वह यहां आए थे। वह अहिल्या को यहां लाए ही क्यों थे? अहिल्या ने आने के लिए आग्रह न किया था। उन्होंने खुद गलती की थी। उसी का यह भीषण परिणाम था कि आज उनको अपनी स्त्री और पुत्र दोनों से हाथ धोना पड़ता था। उन्होंने लाठी के सहारे से दीपक का काम लिया था, लेकिन हा दुर्भाग्य ! आज वह लाठी भी उनके हाथ से छीनी जाती थी। पत्नी और पुत्र के वियोग की कल्पना ही से उनका जी घबराने लगा। कोई समय था, जब दाम्पत्य जीवन से उन्हें उलझन होती थी। मृदुल हास्य और तोतले शब्दों का आनंद उठाने के बाद अब एकांतवास असा प्रतीत होता था, कदाचित् अकेले घर में वह कदम ही न रख सकेंगे, कदाचित् वह उस निर्जन वन को देखकर रो पड़ेंगे।
मनोरमा इस वक्त शंखधर को लिए हुए बगीचे की ओर जाती हुई इधर से निकली। चक्रधर को देखकर वह एक क्षण के लिए ठिठक गई। शायद वह देखना चाहती थी कि अहिल्या है या नहीं। अहिल्या होती, तो वह यहां दम भर भी न ठहरती, अपनी राह चली जाती। अहिल्या को न पाकर वह कमरे के द्वार पर आ खड़ी हुई और बोली-बाबूजी, रात को सोए नहीं क्या? आंखें चढ़ी हुई हैं!
चक्रधर–नींद ही नहीं आयी। इसी उधेड़बुन में पड़ा था कि रहूँया जाऊं? अंत में यही निश्चय किया कि यहां और रहना अपना जीवन नष्ट करना है।
मनोरमा–क्यों लल्लू! यह कौन हैं?
शंखधर ने शरमाते हुए कहा–बाबूजी।
मनोरमा–इनके साथ जाएगा?
बालक ने आंचल से मुंह छिपाकर कहा–लानी अम्मां छाथ?
चक्रधर हंसकर बोले–मतलब की बात समझता है। रानी अम्मां को छोड़कर किसी के साथ न जाएगा।
शंखधर ने अपनी बात का अनुमोदन किया-अम्मां लानी।
चक्रधर–जभी तो चिमटे हो-बैठे-बिठाए मुफ्त का राज्य पा गए। घाटे में तो हमीं रहे कि अपनी सारी पूंजी खो बैठे।
मनोरमा ने कहा–कब तक लौटिएगा?
चक्रधर–कह नहीं सकता, लेकिन बहुत जल्द लौटने का विचार नहीं है। इस प्रलोभन से बचने के लिए मुझे बहुत दूर जाना पड़ेगा।
रानी ने मुस्कराकर कहा–मुझे भी लेते चलिए। यह कहते-कहते रानी की आंखें सजल हो गईं।
चक्रधर ने गंभीर भाव से कहा–यह तो होना ही नहीं था, मनोरमा रानी। जब तुम बालिका थीं, तब भी मेरे लिए देवी की प्रतिमा थीं, और अब भी देवी की प्रतिमा हो।
मनोरमा–बातें न बनाओ, बाबूजी! तुम मुझे हमेशा धोखा देते आए हो और अब भी वही नीति निभा रहे हो! सच कहती हूँ, मुझे भी लेते चलिए। अच्छा, मैं राजा साहब को राजी कर लूं, तब तो आपको कोई आपत्ति न होगी?
चक्रधर–मनोरमा, दिल्लगी कर रही हो, या दिल से कहती हो?
मनोरमा–दिल से कहती हूँ, दिल्लगी नहीं।
चक्रधर–मैं आपको अपने साथ न ले जाऊंगा।
मनोरमा-क्यों?
चक्रधर–बहुत-सी बातों का अर्थ बिना कहे ही स्पष्ट होता है।
मनोरमा–तो आपने, मुझे अब भी नहीं समझा। मुझे भी बहुत दिनों से कुछ सेवा करने की इच्छा है। मैं भोग-विलास करने के लिए यहां नहीं आई थी। ईश्वर को साक्षी देकर कहती हैं, मैं कभी भोग-विलास में लिप्त न हुई थी। धन से मुझे प्रेम है, लेकिन केवल इसलिए कि उससे मैं कुछ सेवा कर सकती, और सेवा करने वालों की कुछ मदद कर सकती। सच कहा है, पुरुष कितना ही विद्वान और अनुभवी हो, पर स्त्री को समझने में असमर्थ ही रहता है। खैर, न ले जाइए। अहिल्या देवी ने तप किया है।
चक्रधर–वह तो साथ जाने को कहती है।
मनोरमा–कौन ! अहिल्या ! वह आपके साथ नहीं जा सकती, और आप ले भी गए तो आज के तीसरे दिन यहां पहुंचाना पड़ेगा। मैं वही हूँ जो तब थी, किंतु वह अपने दिन भूल गई। यह कहते हुए मनोरमा ने बालक को गोद में उठा लिया और मंद गति से बगीचे की ओर चली गई। चक्रधर खड़े सोच रहे थे, क्या वास्तव में मैंने इसे नहीं समझा? अवश्य ही मेरा इसे विलासिनी समझना भ्रम है। हम क्यों ऐसा समझते हैं कि स्त्रियों का जन्म केवल भोग-विलास के लिए ही होता है? क्या उनका ह्रदय ऊंचे और पवित्र भावों से शून्य होता है? हमने उन्हें कामिनी, रमणी, सुंदरी आदि विलास-सूचक नाम दे-देकर वास्तव में उन्हें वीरता, त्याग और उत्सर्ग से शून्य कर दिया है। अगर सभी पुरुष वासना प्रिय नहीं होते, तो सभी स्त्रियां क्यों वासनाप्रिय होने लगीं। अगर मनोरमा जो कुछ कहती है, वह सत्य है, तो मैंने उसे हकीकत में नहीं समझा ! हा, मंदबुद्धि !
सहसा चक्रधर को एक बात याद आ गई तुरंत मनोरमा के पास जाकर बोले–मैं आपसे एक विनय करने आया हूँ ! धन्नासिंह के साथ मैंने जो अत्याचार किया है, उसका कुछ प्रायश्चित करना आवश्यक है।
मनोरमा ने मुस्कराकर कहा–बहुत देर में इसकी सुधि आई ! मैंने उसकी कुल जोत मुआफी कर दी है।
चक्रधर ने चकित होकर कहा–आप सचमुच देवी हैं ! तो मैं जाकर उन सबों को इसकी इत्तिला दे दूं?
मनोरमा–आपका जाना आपकी शान के खिलाफ है। इस जरा-सी बात की सूचना देने के लिए भला, आप क्या जाइएगा? तो आपने कब जाने का विचार किया है?
चक्रधर–आज ही रात को।
मनोरमा ने मुस्कराते हुए कहा–हां, उस वक्त अहिल्या देवी सोती भी होंगी।
एक क्षण के बाद फिर बोली–मैं अहिल्या होती, तो सब कुछ छोड़कर आपके साथ चलती।
यह कहते-कहते मनोरमा ने लज्जा से सिर झुका लिया। जो बात वह ध्यान में भी न लाना चाहती थी, वह उसके मुंह से निकल गई। उसने उसी वक्त शंखधर को उठा लिया और बाग के दूसरी तरफ चली गई, मानो उनसे पीछा छुड़ाना चाहती है, या शायद डरती है कि कहीं मेरे मुंह से कोई और असंगत बात न निकल जाए।
चक्रधर कुछ देर वहां खड़े रहे, फिर बाहर चले गए। किसी काम में जी न लगा। सोचने लगे, जरा शहर चलकर अम्मांजी से मिलता जाऊं, मगर डरे कि कहीं अम्मां शिकायतों का दफ्तर न खोल दें। निर्मला एक बार यहां आई थी, मगर एक ही सप्ताह में ऊबकर चली गई थी। अहिल्या की रुखाई से उसका दिल खट्टा हो गया था। जो अहिल्या शील और विनय की पुतली थी, वह यहां सीधे मुंह बात भी न करती थी।
ज्यों-ज्यों संध्या निकट आती थी, उनका जी उचाट होता जाता था। पहले कहीं बाहर जाने में जो उत्साह होता था, उसका अब नाम भी न था। जानते थे कि छलके हुए दूध पर आंसू बहाना व्यर्थ है, किंतु इस वक्त बार-बार स्वर्गवासी मुंशी यशोदानंदन पर क्रोध आ रहा था। अगर उन्होंने मेरे गले में फंदा न डाला होता, तो आज मुझे क्यों हर विपत्ति झेलनी पड़ती? मैं तो राजा की लड़की से विवाह न करना चाहता था। मुझे तो धनी कुल की कन्या से भी डर लगता था। विधाता को मेरे ही साथ यह क्रीड़ा करनी थी!
संध्या समय वह राजा साहब से पूछने गए। राजा साहब ने आंखों में आंसू भरकर कहा-बाबूजी, आप धुन के पक्के आदमी हैं, मेरी बात आप क्यों मानने लगे, मगर मैं इतना कहता हूँ कि अहिल्या रो-रोकर प्राण दे देगी और आपको बहुत जल्द लौटकर आना पड़ेगा। अगर आप उसे ले गए, तो शंखधर भी जाएगा और मेरी सोने की लंका धूल में मिल जाएगी। आखिर आपको यहां क्या कष्ट है?
चक्रधर को बार-बार एक ही बात का दुहराना बुरा मालूम होता था। कुछ झुंझलाकर बोले-इसी से तो मैं जाना चाहता हूँ कि यहां मुझे कोई कष्ट नहीं है। विलास में पड़कर अपना जीवन नष्ट नहीं करना चाहता।
राजा–और इस राज्य को कौन संभालेगा?
चक्रधर–राज्य संभालना मेरे जीवन का आदर्श नहीं है। फिर आप तो हैं ही।
राजा–तुम समझते हो, मैं बहुत दिन जीऊंगा? सुखी आदमी बहुत दिन नहीं जीता, बेटा! यह सब मेरे मरने के समान है। मैं मिथ्या नहीं कहता। मुझे ऐसा आभास हो रहा है कि मेरे दिन निकट आ गए हैं। शंखधर मेरा शत्रु बनकर आया है। यह लो, वह तलवार लिए दौड़ा भी आ रहा है। क्यों शंखधर, तलवार क्यों लाए हो?
शंखधर–तुमको मालेंगे।
राजा–क्यों भाई, मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?
शंखधर–अम्मां लानी लोती हैं, तुमने उनको क्यों माला है?
राजा–लो साहब, यह नया अपराध मेरे सिर पर मढ़ा जा रहा है। चलो, जरा दे तो तुम्हारी लानी अम्मां को किसने मारा है। क्या सचमुच रोती हैं?
शंखधर–बली देल से लोती हैं।
राजा साहब तो तुरंत अंदर चले गए। मनोरमा के रोने की खबर सुनकर वह व्याकुल हो उठे। अंदर जाकर देखा, तो मनोरमा सचमुच रो रही थी। कमल पुष्प में ओस की बूंदें झलक रही थीं। राजा साहब ने आतुर होकर पूछा-क्या बात है, नोरा? कैसा जी है?
मनोरमा ने आंसू पोंछते हुए कहा–अच्छी तो हूँ।
राजा–तो आंखें क्यों लाल हैं?
मनोरमा–आंखें तो लाल नहीं हैं। (जरा रुककर) अहिल्या देवी बाबूजी के साथ जा रही हैं। लल्लू को भी ले जाएंगी।
राजा–यह तुमसे किसने कहा?
मनोरमा-अहिल्या देवी ने।
राजा–अहिल्या नहीं जा सकती।
मनोरमा–आप बाबूजी को क्यों नहीं समझाते?
राजा–वह मेरे समझाने से न मानेंगे। किसी के समझाने से न मानेंगे।
मनोरमा–तो फिर?
राजा-तो उन्हें जाने दो। वह बहुत दिन बाहर नहीं रहेंगे। उन्हें थोड़े ही दिनों में लौटकर आना पड़ेगा।
मनोरमा की आंखों से अश्रुवर्षा होने लगी। उसने अवरुद्ध कंठ से कहा–वह अब यहां न आएंगे। आप उन्हें नहीं जानते?
राजा–मेरा मन कहता है, वह थोड़े ही दिनों में आएंगे। शंखधर उन्हें खींच लाएगा। अभी माया ने उन पर केवल एक अस्त्र चलाया है।
चक्रधर ने सोचा, इस तरह तो शायद मैं यहां से मरकर भी छुट्टी न पाऊं। इनसे पूछू, उनसे पूछू। मुझे किसी से पूछने की जरूरत ही क्या है। जब अकेले ही जाना है, तो क्यों यह सब झंझट करूं? अपने कमरे में जाकर दो-चार कपड़े और किताबें समेटकर रख दीं। कुल इतना ही सामान था, जिसे एक आदमी आसानी से हाथ में लटकाए लिए जा सकता था। उन्होंने रात को चुपके से बकुचा उठाकर चले जाने का निश्चय किया।
आज उन्हें भोजन से जरा भी रुचि न हुई। वह अहिल्या से भी न मिलना चाहते थे। उसे संपत्ति प्यारी है, तो संपत्ति लेकर रहे। मेरे साथ वह क्यों जाने लगी? मेरा मन रखने को मीठी-मीठी बातें करती है। जी में मनाती होगी, किसी तरह यहां से टल जाएं। अगर मुझे पहले मालूम होता कि वह इतनी विलास-लोलुप है, तो उससे कोसों दूर रहता। लेकिन फिर दिल को समझाया, मेरा अहिल्या से रूठना अन्याय है। वह अगर अपने पुत्र को छोड़कर नहीं जाना चाहती, तो कोई अनुचित बात नहीं करती! ऐसे क्षुद्र विचार मेरे मन में क्यों आ रहे हैं? मैं यदि अपना कर्त्तव्य पालन करने जा रहा हूँ, तो किसी पर एहसान नहीं कर रहा हूँ।
यात्रा की तैयारी करके और अपने मन को अच्छी तरह समझाकर चक्रधर ने संदेह को दूर करने के लिए अपने शयनागार में विश्राम किया। अहिल्या ने कहा-दादाजी तो राजी न हुए।
चक्रधर–न जाऊंगा, और क्या ! उनको नाराज भी तो नहीं करना चाहता।
अहिल्या प्रसन्न होकर बोली-यही उचित भी है। सोचो, उन्हें कितना बड़ा दुःख होगा। मैंने तुम्हारे साथ जाने का निश्चय कर लिया था। शंखधर को भी अपने साथ ले ही जाती। फिर बेचारे किसका मुंह देखकर रहते?
चक्रधर ने इसका कुछ जवाब न दिया। वह चुप साध गए। नींद का बहाना करने लगे। वह चाहते थे कि यह सो जाए, तो मैं चुपके से अपना बकुचा उठाऊं और लंबा हो जाऊं, मगर निद्राविलासिनी अहिल्या की आंखों से आज नींद कोसों दूर थी। वह कोई न कोई प्रसंग छेड़कर बातें करती जाती थी। यहां तक कि जब आधी रात से अधिक बीत गई, तो चक्रधर ने कहा-भाई, अब मुझे सोने दो, आज तुम्हारी नींद कहाँ भाग गई?
उन्होंने चादर ओढ़ ली और मुंह फेर लिया। गर्मी के दिन थे। कमरे में पंखा चल रहा था। फिर भी गर्मी मालूम होती थी। रोज किवाड़ खुले रहते थे। जब अहिल्या को विश्वास हो गया कि चक्रधर सो गए, तो उसने दरवाजे अंदर से बंद कर दिए और बिजली की बत्ती ठंडी करके सोयी। आज वह न जाने क्यों इतनी सावधान हो गई थी। पगली! जाने वालों को किसने रोका है?
रात भीग ही चुकी थी। अहिल्या को नींद आते देर नलगी। चक्रधर का प्रेमकातर हृदय अहिल्या के यों सावधान होने पर एक बार विचलित हो उठा। वह अपने आंसुओं के वेग को न रोक सके। यह सोचकर उनका कलेजा फटा जाता था कि जब प्रात:काल यह मुझे न पाएगी, तो इसकी क्या दशा होगी। इधर कुछ दिनों से अहिल्या को विलास-प्रमोद में मग्न देखकर चक्रधर समझने लगे कि इसका प्रेम अब शिथिल हो गया है। यहां तक कि शंखधर को भी गोद में उठाकर प्यार न करती थी, पर आज उसकी व्यग्रता देखकर उनका भ्रम जाता रहा, उन्हें ज्ञात हुआ कि इसका विलासी हृदय अब भी प्रेम में रत है ! जब कोई वस्तु हमारे हाथ से जाने लगती है, तभी उसके प्रति हमारे सच्चे मनोभाव प्रकट होते हैं। नि:शंक दशा में सबसे प्यारी वस्तुओं की भी हमें सुध नहीं रहती, हम उनकी ओर से उदासीन-से रहते हैं।
चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। सारा राजभवन शांति में विलीन हो रहा था। चक्रधर ने उठकर द्वारों को टटोलना शुरू किया, पर ऐसा दिशा-भ्रम हो गया था कि कभी सपाट दीवार हाथ में आती कभी कोई खिड़की, कभी कोई मेज। याद करने की चेष्टा करते थे कि मैं किस तरफ मुंह करके सोया था। द्वार ठीक चारपाई के सामने था, पर बुद्धि कुछ काम न देती थी। उन्होंने एक क्षण शांत चित्त होकर विचार किया, पर द्वार का ज्ञान फिर भी न हुआ। यहां तक कि अपनी चारपाई भी न मिलती थी। आखिर उन्होंने दीवारों को टटोल-टटोलकर बिजली का बटन खोज निकाला और बत्ती जला दी। देखा, अहिल्या सुख-निद्रा में मग्न है ! क्या छवि थी, मानो उज्ज्वल पुष्प राशि पर कमल-दल बिखरे पड़े हों, मानो हृदय में प्रेम स्मृति विश्राम कर रही हो।
चक्रधर के मन में एक बार यह आवेश उठा कि अहिल्या को जगा दें और उसे गले लगाकर कहें-प्रिये ! मुझे प्रसन्न मन से विदा करो, मैं बहुत जल्द-जल्द आया करूंगा। इस तरह चोरों की भांति जाते हुए उन्हें असीम मर्मवेदना हो रही थी, किंतु जिस भांति किसी बूढ़े आदमी को फिसलकर गिरते देख, हम अपनी हंसी के वेग को रोकते हैं, उसी भांति उन्होंने मन की इस दुर्बलता को दबा दिया और आहिस्ता से किवाड़ खोला। मगर प्रकृति को गुप्त व्यापार से कुछ बैर है। किवाड़ को उन्होंने कुछ रिश्वत तो दी नहीं थी, जो वह अपनी जबान बंद करता, खुला, पर प्रतिरोध की एक दबी हुई ध्वनि के साथ। अहिल्या सोई थी, पर उसे खटका लगा हुआ था। यह आहट पाते ही उसकी संचित निद्रा टूट गई। वह चौंककर उठ बैठी और चक्रधर को पास की चारपाई पर न पाकर घबराई हुई कमरे के बाहर निकल आई। देखा तो चक्रधर दबे पांव उस जीने पर चढ़ रहे थे, जो रानी मनोरम के शयनागार को जाता था।
उसने घबराई हुई आवाज में पुकारा–कहाँ भागे जाते हो?
चक्रधर कमरे से निकले, तो उनके मन में बलवती इच्छा हुई कि शंखधर को देखते चलें, इस इच्छा को वह संवरण न कर सके। वह तेजस्वी बालक मानो उनका रास्ता रोककर खड़ा हो गया हो। वह ऊपर कमरे में रानी मनोरमा के पास सोया हुआ था। इसीलिए चक्रधर ऊपर जा रहे थे कि उसे आंख भरके देख लूं। यह बात उनके ध्यान में न आई कि रानी को इस वक्त कैसे जगाऊंगा। शायद वह बरामदे ही में खड़े खिड़की से उसे देखना चाहते हों। इच्छा वेगवती होकर विचार-शून्य हो जाती है। सहसा अहिल्या की आवाज सुनकर वह स्तंभित-से हो गए। ऊपर न जाकर नीचे उतर आए और अत्यंत सरल भाव से बोले-क्या तुम्हारी भी नींद खुल गई?
अहिल्या–मैं सोयी कब थी ! मैं जानती थी कि तुम आज जाओगे। तुम्हारा चेहरा कहे देता था कि तुमने आज मुझे छलने का इरादा कर लिया है, मगर मैं कहे देती हूँ कि मैं तुम्हारा साथ न छोडूंगी। अपने शंखधर को भी साथ ले चलूंगी। मुझे राज्य की परवा नहीं है। राज्य रहे या जाए। तुम मुझे छोड़कर नहीं जा सकते। तुम इतने निर्दयी हो, यह मुझे न मालूम था। तुम तो छल करना न जानते थे। यह विद्या कब से सीख ली? बोलो, मुझे छोड़कर जाते हुए जरा भी दया नहीं आती?
चक्रधर ने लज्जित होकर कहा–तुम्हें मेरे साथ बहुत कष्ट होगा, अहिल्या ! मुझे प्रसन्नचित्त जाने दो। ईश्वर ने चाहा तो जल्द ही लौटूंगा।
अहिल्या–क्यों प्राणेश, मैंने तुम्हारे साथ कौन-से कष्ट नहीं झेले और वह ऐसा कौन-सा कष्ट है, जो मैं झेल नहीं चुकी हूँ। अनाथिनी क्या पान-फूल से पूजी जाती है? मैं अनाथिनी थी, तुमने मेरा उद्धार किया। क्या वह बात भूल जाऊंगी? मैं विलास की चेरी नहीं हूँ। हां, यह सोचती थी कि ईश्वर ने जो सुख अनायास दिया है, उसे क्यों न भोगूं? लेकिन नारी के लिए पुरुष-सेवा से बढ़कर और कोई श्रृंगार, कोई विलास, कोई भोग नहीं है।
चक्रधर–और शंखधर?
अहिल्या–उसे भी ले चलूंगी।
चक्रधर–रानीजी उसे जाने देंगी? जानती हो, राजा साहब का क्या हाल होगा?
अहिल्या–यह सब तो तुम भी जानते हो। मुझ पर क्यों भार रखते हो?
चक्रधर–सारांश यह है कि तुम मुझे न जाने दोगी !
अहिल्या–हां, मुझे छोड़कर तुम नहीं जा सकते, और न मैं ही लल्लू को छोड़ सकती हूँ। किसी को दु:ख हो, तो हुआ करे।
इन बातों की कुछ भनक मनोरमा के कानों में भी पड़ी। वह भी अभी तक न सोयी थी। उसने दरबान से ताकीद कर दी थी कि रात को चक्रधर बाहर जाने लगें, तो मुझे इत्तला देना। वह अपने मन की दो-चार बातें चक्रधर से कहना चाहती थी। यह बोलचाल सुनकर नीचे उतर आई। अहिल्या के अंतिम शब्द उसके कानों में पड़ गए। उसने देखा कि चक्रधर बड़े हतबुद्धि-से खड़े हैं, अपने कर्त्तव्य का निश्चय नहीं कर सकते, कुछ जवाब भी नहीं दे सकते। उसे भय हुआ कि इस दुविधा में पड़कर कहीं वह अपने कर्त्तव्य मार्ग से न हट जाएं, मेरा चित्त दुखी न हो जाए, इस भय से वह विरक्त होकर कहीं बैठ न रहें। वह चक्रधर को आत्मोत्सर्ग की मूर्ति समझती थी। उसे निश्चय था कि चक्रधर इस राज्य की तृण बराबर भी परवाह नहीं करते, उन्हें तो सेवा की धुन लगी हुई है, यहां रहकर अपने ऊपर बड़ा जब्र कर रहे हैं। वह यह भी जानती थी कि चक्रधर किसी तरह रुकने वाले नहीं, अब यह दशा उनके लिए असह्य हो गई है। तो क्या वह शंखधर के मोह में पड़कर उनकी स्वतंत्रता में बाधक होगी? अपनी पुत्रतृष्णा को तृप्त करने के लिए उनके पैर की बेड़ी बनेगी? नहीं, वह इतनी स्वार्थिनी नहीं है। जिस बालक से उसे नाम का नाता होने पर इतना प्रेम है, उसे वह कितना चाहते होंगे, इसका वह भली-भांति अनुमान कर सकती थी। वह शंखधर के लिए रोएगी, तड़पेगी, लेकिन अपने पास रखकर चक्रधर को पुत्र-वियोग का दु:ख न देगी। यह उनके दीपक से अपना घर न उजाला करेगी। यही उसने स्थिर किया। बाबूजी, आप मेरा खयाल न कीजिए, शंखधर को ले जाइए। आखिर आपका दिल वहां कैसे लगेगा? मुझे कौन, जैसे पहले रहती थी, वैसे ही फिर रहने लगूंगी। हां, इतनी दया कीजिएगा कि कभी-कभी उसे लाकर मुझे दिखा दिया कीजिएगा, मगर अभी तो दो-चार दिन रहिएगा! बेटियां क्या यों रातोंरात विदा हुआ करती हैं? दो-चार दिन तो शंखधर को प्यार कर लेने दीजिए।
यह कहते-कहते मनोरमा की आंखें डबडबा आईं। चक्रधर ने गद्गद कंठ से कहा-वह भला आपको छोड़, मेरे साथ क्यों जाने लगा? आपके बगैर तो वह एक दिन भी न रहेगा।
मनोरमा–यह मैं कैसे कहूँ? माता-पिता बालक के साथ जितना प्रेम कर सकते हैं, उतना दूसरा कौन कर सकता है?
अहिल्या यह बात सुनकर तिलमिला उठी। पति को रोकने का उसके पास यही एक बहाना था। वह न यहां से जाना चाहती थी, न पति को जाने देना चाहती थी। शंखधर की आड़ में वह अपने मनोभाव को छिपाए हुए थी। उसे विश्वास था कि रानी शंखधर को कभी न जाने देंगी और न चक्रधर उनसे इस विषय में कुछ कह सकेंगे, पर जब रानी ने यह शस्त्र उसके हाथ से छीन लिया, तो उसे शंका हुई कि इसमें जरूर कोई न कोई रहस्य है, उसने तीव्र स्वर से कहा-तो क्या वह सब दिखावे ही का प्रेम था? आप तो कहती थीं, यह मेरा प्राण है, यह मेरा जीवन-आधार है, क्या वह सब केवल बातें थीं? क्या हमारी आंखों में धूल डालने के लिए ही सारा स्वांग रचा था? आप हम लोगों को दूध की मक्खी की भांति निकालकर अखंड राज्य करना चाहती हैं? यह न होगा। दादाजी को आप कोई दूसरा मंत्र न पढ़ा सकेंगी। मेरे पुत्र का अहित आप न कर सकेगी। मैं अब यहां से टलने वाली नहीं। यह समझ लीजिएगा। अगर आपने समझ रखा हो कि इन सबों को भगाकर अपने भाई-भतीजे को यहां ला बिठाऊंगी, तो उस धोखे में न रहिएगा!
यह कहते-कहते अहिल्या उसी क्रोध से भरी हुई राजा साहब के शयनगृह की ओर चली। मनोरमा स्तंभित-सी खड़ी रह गई। उसकी आंखों से टप-टप आंसू गिरने लगे।
चक्रधर मनोरमा को क्या मुंह दिखाते? अहिल्या के इन वज्रकठोर शब्दों ने मनोरमा को इतनी पीड़ा नहीं पहुंचाई थी, जितनी उनको। मनोरमा दो-एक बार और भी ऐसी ही बातें अहिल्या के मुख से सुन चुकी थी और उसके स्वभाव से परिचत हो गई थी। चक्रधर को ऐसी बातें सुनने का यह पहला अवसर था। वही अहिल्या, जिसे वह नम्रता, मधुरता, शालीनता की देवी समझते थे, आज पिशाचिनी के रूप में उन्हें दिखाई दी। मारे ग्लानि के उनकी ऐसी इच्छा हुई कि धरती फट जाए और मैं समा जाऊं, फिर न इसका मुंह देखू, न अपना मुंह दिखाऊं। जिस रमणी के उपकारों से उनका एक-एक रोयां आभारी था, उसके साथ यह व्यवहार ! उसके उपकारों का यह उपहार ! यह तो नीचता की चरम सीमा है ! उन्हें ऐसा मालूम हुआ, मेरे मुंह में कालिख लगी हुई है। वह मनोरमा की ओर ताक भी न सके। उनके मन में विराग की एक तरंग-सी उठी। मन ने कहा-यही तुम्हारी भोग-लिप्सा का दण्ड है, तुम इसी के भूखे थे। जिस दिन तुम्हें मालूम हुआ कि अहिल्या राजा की पुत्री है, क्यों न उसी दिन यहां से मुंह में कालिख लगाकर चले गए? इस विचार से क्यों अपनी आत्मा को धोखा देते रहे कि जब मैं जाने लगूंगा, अहिल्या अवश्य साथ चलेगी? तुम समझते थे कि स्त्री की दृष्टि में पति-प्रेम ही संसार की सबसे अमूल्य वस्तु है? यह तुम्हारी भूल थी। आज उसी स्त्री ने पति-प्रेम को कितनी निर्दयता से ठुकरा दिया, तुम्हारे हवाई किलों को विध्वंस कर दिया और तुम्हें कहीं का न रखा।
मनोरमा अभी सिर झुकाए खड़ी ही थी कि चक्रधर चुपके से बाहर के कमरे में आए, अपना हैंडबैग उठाया और बाहर निकले। दरबान ने पूछा-सरकार इस वक्त कहाँ जा रहे हैं?
चक्रधर ने मुस्कराकर कहा–जरा मैदान की हवा खाना चाहता हूँ। भीतर बड़ी गर्मी है, नींद नहीं आती।
दरबान–मैं भी सरकार के साथ चलूं?
चक्रधर–नहीं, कोई जरूरत नहीं।
बाहर आकर चक्रधर ने राजभवन की ओर देखा। असंख्य खिड़कियों और दरीचों से बिजली का दिव्य प्रकाश दिखाई दे रहा था। उन्हें वह दिव्य भवन सहस्र नेत्रों वाले पिशाच की भांति जान पड़ा, जिसने उनका सर्वनाश कर दिया था। उन्हें ऐसा जान पड़ा कि वह मेरी ओर देखकर हंस रहा है और कह रहा है, तुम क्या समझते हो कि तुम्हारे चले जाने से यहां किसी को दुःख होगा? इसकी चिंता न करो। यहां यही बहार रहेगी, यों ही चैन की वंशी बजेगी। तुम्हारे लिए कोई दो बूंद आंसू भी न बहाएगा। जो लोग मेरे आश्रय में आते हैं, उनका मैं कायाकल्प कर देता हूँ, उनकी आत्मा को महानिद्रा की गोद में सुला देता हूँ।
अभी चक्रधर सोच ही रहे थे कि किधर जाऊं,सहसा उन्हें राजद्वार से दो-तीन आदमी लालटेन लिए निकलते दिखाई दिए। समीप आने पर मालूम हुआ कि मनोरमा है। वह दो सिपाहियों के साथ लपकी हुई सड़क की ओर चली आ रही थी। चक्रधर समझ गए, यह मुझे ढूंढ़ रही है। उनके मी में एक बार प्रबल इच्छा हुई कि उसके चरणों पर गिर कर कहे-देवी, मैं तुम्हारी कृपाओं के योग्य नहीं हूँ। मैं नीच, पामर, अभागा हूँ। मुझे जाने दो, मेरे हाथों तुम्हें सदा कष्ट मिला है और मिलेगा।
मनोरमा अपने आदमियों से कह रही थी-अभी कहीं दूर न गए होंगे। तुम लोग पूर्व की ओर जाओ, मैं एक आदमी के साथ इधर जाती हूँ। बस इतना ही कहना कि रानीजी ने कहा है, जहां चाहें जाएं, पर मुझसे मिलकर जाएं।
राजभवन के सामने एक मनोहर उद्यान था। चक्रधर एक वृक्ष की आड़ में छिप गए। मनोरमा सामने से निकल गई। चक्रधर का कलेजा धड़क रहा था कि कहीं पकड़ न लिया जाऊं। दोनों तरफ के रास्ते बंद थे। बारे उन्हें ज्यादा देर तक न रहना पड़ा। मनोरमा कुछ दूर जाकर लौट आई। उसने निश्चय किया कि इधर-उधर खोजना व्यर्थ है। रेलवे स्टेशन पर जाकर रोकना चाहिए। स्टेशन के सिवा और कहाँ जा सकते हैं? चक्रधर की जान में जान आई,ज्यों ही रानी इधर आई, वह कुंज से निकलकर कदम बढ़ाते हुए आगे चले। वह दिन निकलने से पहले इतनी दूर निकल जाना चाहते थे कि फिर कोई उन्हें पा न सके। दिन निकलने में अब बहुत देर भी न थी। तारों की ज्योति मंद पड़ चली थी-चक्रधर ने और तेजी से कदम बढ़ाया।
सहसा उन्हें सड़क के किनारे एक कुएं के पास कई आदमी बैठे दिखाई दिए। उनके बीच में एक लाश रखी हुई थी। कई आदमी लकड़ी के कुंदे लिए पीछे आ रहे थे। चक्रधर पूछना चाहते थे-कौन मर गया है? धन्नासिंह की आवाज पहचानकर सड़क ही पर ठिठक गए। इसने पहचान लिया तो मुश्किल पड़ेगी।
धन्नासिंह कह रहा था–कजा आ गई, तो कोई क्या कर सकता है। बाबूजी के हाथ कोई डंडा भी तो न था। दो-चार घूसे मारे होंगे और क्या? मगर उस दिन से फिर बेचारा उठा नहीं।
दूसरे आदमी ने कहा–ठांव-कुठांव की बात है। एक बूंसा पीठ पर मारो, तो कुछ न होगा, केवल ‘धम्म’ की आवाज होगी। लेकिन वही चूंसा पसली में या नाभि के पास पड़ जाए , तो गोली का काम कर सकता है। ठांव-कुठांव की बात है। मन्ना को कुठांव चोट लग गई।
धन्नासिंह–बाबूजी सुनेंगे, तो उन्हें बहुत रंज होगा। उस दिन न जाने उनके सिर कैसे क्रोध का भूत सवार हो गया था। बड़े दयावान हैं, किसी को कड़ी निगाह से देखते तक नहीं। जेहल में हम लोग उन्हें भगतजी कहा करते थे। सुनेंगे तो बहुत पछताएंगे।
एक बूढ़ा आदमी बोला–भैया, जेहल की बात दूसरी थी। तब दयावान रहे होंगे। तब राजा ठाकुर तो नहीं थे। राज पाकर दयावान रहें, तो जानो।
धन्नासिंह–दादा, वह राज पाकर फूल उठने वाले आदमी नहीं हैं। तुमने देखा, यहां से जाते ही जाते माफी दिला दी।
बूढ़ा–अरे पागल, जान का बदला कहीं माफी से चुकता है? जान का बदला जान है, मन्ना की अभागिनी विधवा माफी लेकर चाटेगी, उसके अनाथ बालक माफी की गोद में खेलेंगे, या माफी को दादा कहेंगे? तुम बाबूजी को दयावान कहते हो। मैं उन्हें सौ हत्यारों का एक हत्यारा कहता हूँ, राजा हैं, इससे बचे जाते हैं, दूसरा होता, तो फांसी पर लटकाया जाता। मैं तो बूढा हो गया हूँ, लेकिन उन पर इतना क्रोध आ रहा है कि मिल जाएं, तो खून चूस लूं।
चक्रधर को ऐसा मालूम हुआ कि मन्नासिंह की लाश कफन में लिपटी हुई उन्हें निगलने के लिए दौड़ी चली आती है। चारों ओर से दानवों की विकराल ध्वनि सुनाई देती थी-यह हत्यारा है! सौ हत्यारों का एक हत्यारा है ! समस्त आकश मंडल में, देह के एक-एक अणु में, यही शब्द गूंज रहे थे-यह हत्यारा है ! सौ हत्यारों का हत्यारा है !
चक्रधर वहां एक क्षण भी और खड़े न रह सके। उन आदमियों के सामने जाने की हिम्मत न पड़ी। मन्नासिंह की लाश सामने हड्डी की एक गदा लिए उनका रास्ता रोके खड़ी थी। नहीं, वह उनका पीछा करती थी। वह ज्यों-ज्यों पीछे खिसकते थे, लाश आगे बढ़ती थी। चक्रधर ने मन को शांत करके विचार का आह्वान किया, जिसे मन की दुर्बलता ने एक क्षण के लिए शिथिल कर दिया था। वाह ! यह मेरी क्या दशा है? मृतदेह भी कहीं चल सकती है? यह मेरी भय-विकृत कल्पना का दोष है। मेरे सामने कुछ नहीं है, अब तक तो मैं डर ही गया होता। मन को यों दृढ़ करते ही उन्हें फिर कुछ न दिखाई दिया। वह आगे बढ़े, लेकिन उनका मार्ग अब अनिश्चित न था, उनके रास्ते में अब अंधकार न था, वह किसी लक्ष्यहीन पथिक की भांति इधर-उधर भटकते न थे। उन्हें अपने कर्तव्य का मार्ग साफ नजर आने लगा।
सहसा उन्होंने देखा कि पूर्व दिशा प्रकाश से आच्छन्न होती चली जाती है।
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