चैप्टर 33 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 33 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

चैप्टर 33 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 33 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Chapter 33 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Chapter 33 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

शत्रुपुरी में मित्र : वैशाली की नगरवधू

सोम बहुत-से गली-कूचों का चक्कर लगाते, वीथी और राजपथ को पार करते तंग गली में छोटे-से मकान पर पहुंचे। वहां उन्होंने द्वार पर आघात किया। अधेड़ वय के एक बलिष्ठ पुरुष ने द्वार खोला। सोम भीतर गए। वह पुरुष भी द्वार बन्द कर भीतर गया।

भीतर आंगन में एक भारी भट्ठी जल रही थी। वहां बहुत-से शस्त्रास्त्र बन रहे थे। अनेक कारीगर अपने-अपने काम में जुटे थे। जिसने द्वार खोला था, वह कोई चालीस वर्ष की आयु का पुरुष था। उसका शरीर बलिष्ठ और दृढ़ पेशियों वाला था। चेहरे पर घनी दाढ़ी-मूंछ थी। उसने कहा—

“कहो मित्र, सेनापति का क्या विचार रहा?”

“वे सब निराशा में डूब रहे थे, पर अब उत्साहित हैं। किन्तु मित्र अश्वजित् अब सब-कुछ तुम्हारी ही सहायता पर निर्भर है। कहो, क्या करना होगा?”

“बहुत सीधी बात है। दक्षिण बुर्ज पर बैशाखी के दिन तीन पहर रात गए मेरे भाई का पहरा है।”

“अच्छा फिर?”

“अब यह आपका काम है कि आप चुने हुए भटों को लेकर ठीक समय पर बुर्ज पर चढ़ जाएं।”

“ठीक है, परन्तु तुम कितने आदमी चाहते हो?”

“बीस से अधिक नहीं। परन्तु मित्र, दक्षिण बुर्ज नदी के मुहाने पर है और चट्टान अत्यन्त ढालू है। उधर से बुर्ज पर चढ़ना मृत्यु से खेलना है।”

“हम मृत्यु से तो खेल ही रहे हैं मित्र। यही ठीक रहा। हम ठीक समय पर पहुंच जाएंगे।”

“इसके बाद की योजना वहीं बन जाएगी।”

“ठीक है। और कुछ?”

“अजी, बहुत-कुछ मित्र। हमारे पास यथेष्ट शस्त्र तैयार हैं। मैंने मागध नागरिकों को बहुत-से शस्त्र बांट दिए हैं। बैशाखी के प्रातः ज्यों ही दुर्ग-द्वार पर आक्रमण होगा, नगर में विद्रोह हो जाएगा।”

“अच्छी बात है, परन्तु मुझे अभी आवश्यकता है।”

“किस चीज की?”

“सौ सशस्त्र सैनिकों की, जिनके पास पांच दिन के लिए भोजन भी हो।”

“वे मिल जाएंगे।”

“थोड़ी रसद और। सेनापति भूखों मर रहे हैं।”

“रसद और सैनिक आज रात को पहुंच जाएंगे।”

“परन्तु किस प्रकार मित्र?”

“उसी दक्षिण बुर्ज के नीचे से। उधर पहरा नहीं है और एक मछुआ मेरा मित्र है। मेरे आदमी शिविर में तीन पहर रात गए तक पहुंच जाएंगे। कोई कानों-कान न जान पाएगा।”

“वाह मित्र, यह व्यवस्था बहुत अच्छी रहेगी। परन्तु तुम्हारे पास मछुआ मित्र की मुझे भी आवश्यकता होगी।”

“कब?”

“उस बैशाखी की रात को।”

“ओह, समझ गया। सैनिकों को पहुंचाकर वह अपनी डोंगी-सहित वहीं कहीं कछार में चार दिन छिपा रहेगा। फिर समय पर आप उससे काम ले सकते हैं।”

“धन्यवाद मित्र! तो अब मैं आर्य को यह सुसंवाद दे दूं?”

“और मेरा अभिवादन भी मित्र!”

सोमप्रभ ने लुहार का आलिंगन किया और वहां से चल दिए।

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