चैप्टर 33 आँख की किरकिरी उपन्यास (चोखेर बाली उपन्यास) रवींद्रनाथ टैगोर | Chapter 33 Aankh Ki Kirkiri (Chokher Bali) Novel By Rabindranath Tagore

चैप्टर 33 आँख की किरकिरी उपन्यास (चोखेर बाली उपन्यास) रवींद्रनाथ टैगोर (Chapter 33 Aankh Ki Kirkiri (Chokher Bali) Novel By Rabindranath Tagore)

Chapter 33 Aankh Ki Kirkiri (Chokher Bali) Novel 

Chapter 33 Aankh Ki Kirkiri

दूसरे दिन सुबह से ही घटा घुमड़ी रही। कुछ देर बेहद गर्मी थी, फिर काले-काजल से मेघों में से झुलसा आकाश जुड़ गया। आज महेंद्र समय से पहले ही कॉलेज चला गया। बदले हुए कपड़े फर्श पर पड़े थे। आशा गिन-गिन कर कपड़े धोबी को देने लगी। हिसाब लिख कर रखने लगी।

महेंद्र जरा लापरवाह है। इसी से आशा को हिदायत थी कि धोबी को कपड़े देते वक्त जेब जरूर देख लिया करे। आशा ने उसके एक कुरते की जेब में हाथ डाला कि एक चिट्ठी मिली।

वह चिट्ठी अगर जहरीला नाग बन कर उसी क्षण आशा की उँगली को काट खाती, तो अच्छा था, क्योंकि तीखा जहर शरीर में फैल जाता और कुछ ही मिनटों में शायद उसका काम तमाम कर देता; लेकिन जहर मन में फैलता है तो मौत की पीड़ा तो होती है, मौत नहीं होती।

खुली चिट्ठी। निकाल कर देखा तो विनोदिनी की लिखावट। पलक मारते आशा का चेहरा पीला पड़ गया। उस चिट्ठी को उसने बगल के कमरे में ले जा कर पढ़ा।

‘कल रात तुमने जो हरकत की, उससे भी जी न भरा? आज फिर तुमने नौकरानी के हाथ छिपा कर मुझे पत्र भेजा। छि:, उसने मन में क्या समझा होगा! दुनिया में मुझे किसी को भी मुँह दिखाने लायक नहीं रहने दोगे तुम?

‘मुझसे तुम क्या चाहते हो? प्यार! यह भिखमंगी क्यों आखिर? जन्म से तुम प्यार-ही-प्यार पाते आ रहे हो, फिर भी तुम्हारे लोभ का कोई हिसाब नहीं!

‘मेरे प्रेम करने और प्रेम पाने की संसार में कोई जगह नहीं – इसीलिए मैं खेल में प्यार के खेद को मिटाया करती हूँ। जब तुम्हें फुर्सत थी, तुमने भी उस झूठे खेल में हाथ बँटाया था। लेकिन खेल की छुट्टी क्या खत्म नहीं होती? अब गर्द-गुबार झाड़-पोंछ कर वापस जाओ। मेरा तो कोई घर नहीं, मैं अकेली ही खेला करूँगी – तुम्हें नहीं बुलाऊँगी।

‘तुमने लिखा है, तुम मुझे प्यार करते हो। खेल-कूद में यह बात मान ली जा सकती है – मगर सच कहना हो तो इस पर यकीन नहीं करती! कभी तुम यह सोचते थे कि आशा को प्यार करते हो। वह भी झूठा है। असल में तुम सिर्फ खुद को प्यार करते हो।

‘प्यार की प्यास से मेरी छाती तक सूख गई है और वह प्यास मिटाने का सहारा तुम्हारे हाथ में नहीं, यह मैं अच्छी तरह देख चुकी हूँ। मैं बार-बार कहती हूँ, मुझे छोड़ दो, मेरे पीछे मत पड़ो, बेशर्म हो कर मुझे शर्मिंदा न करो! मेरे खेल का शौक भी पूरा हो चुका, अब पुकारोगे भी तो जवाब नहीं मिलेगा। खत में तुमने मुझे निर्दयी लिखा है – शायद यह सच हो, लेकिन मुझमें थोड़ी दया भी है, इसलिए आज मैंने दया करके तुम्हें त्याग दिया। कहीं तुमने मेरे इस पत्र का जवाब कोई दिया, तो समझूँगी कि यहाँ से भागे बिना तुमसे बचने का कोई उपाय नहीं।’

चिट्ठी का पढ़ना था कि लमहे भर में आशा के चारों तरफ के सहारे टूट गिरे, शरीर की सारी शिराएँ मानो एकबारगी थम गईं, साँस लेने के लिए हवा तक मानो न रही – सूरज ने उसकी आँखों के सामने से जैसे सारी रोशनी समेट ली। आशा ने पहले दीवार थामी, फिर अलमारी, और फिर कुर्सी पकड़ते-पकड़ते जमीन पर गिर पड़ी।

अंत में कलेजा दबा कर उसाँसें भरती हुई बोल पड़ी – ‘मौसी!’

स्नेह के इस संभाषण के उमड़ते ही उसकी आँखों से आँसू छलकने लगे। रुलाई पर रुलाई, और फिर रुलाई – आखिर जब रुलाई थमी तो वह सोचने लगी – ‘लेकिन इस चिट्ठी का क्या मैं करूँगी? कहीं उन्हें पता चल जाए कि यह चिट्ठी मेरे हाथ लग गई है तो! ऐसे में उनकी शर्मिंदगी की याद करके आशा बेतरह कुंठित होने लगी। सोच कर आखिर यह तय किया कि चिट्ठी को उसी कुरते की जेब में रख कर उसे खूँटी पर लटका देगी – धोबी को न देगी।

इसी विचार से चिट्ठी लिए वह सोने के कमरे में गई। इस बीच मैले कपड़ों की गठरी से टिक कर धोबी सो गया था। वह कुरते की जेब में चिट्ठी डालने की चेष्टा कर रही थी कि आवाज सुनाई दी – ‘भई किरकिरी!’

चिट्ठी और कुरते को झट-पट पलँग पर डाल कर वह उस पर बैठ गई। विनोदिनी अंदर आ कर बोली – ‘धोबी कपड़े बहुत उलट-पुलट करने लगा है। जिन कपड़ों में निशान नहीं लगाए गए हैं, मैं उन्हें ले जाती हूँ।’

आशा विनोदिनी की ओर देख न सकी। चेहरे के भाव से सब कुछ जाहिर न हो जाए, इसलिए खिड़की की ओर मुँह करके वह आसमान ताकती रही। होंठ से होंठ दबाए रही कि आँखों से आँसू न बह आएँ।

विनोदिनी ठिठक गई। एक बार आशा को गौर से देखा। सोचा, ‘ओ, समझी, कल का वाकया मालूम हो गया है। लेकिन सारा गुस्सा मुझी पर! मानो कसूर मेरा ही है।’

उसने आशा से बात करने की कोशिश ही न की। कुछ कपड़े उठा कर जल्दी-जल्दी वहाँ से चली गई।

एक बार मिला कर देखने की इच्छा हुई।

वह खत खोलने लगी कि इतने में लपक कर महेंद्र कमरे में आया। जाने क्या उसे याद आया कि लेक्चर के बीच से ही अचानक उठ कर चला आया।

आशा ने पत्र आँचल में छिपा लिया। आशा को कमरे में देख कर महेंद्र भी सहम गया। उसके बाद व्यग्र दृष्टि से कमरे के इधर-उधर देखने लगा। आशा ताड़ गई कि महेंद्र क्या ढूँढ़ रहा है, लेकिन चिट्ठी को चुपचाप जहाँ थी, वहाँ रख कर वह कैसे भाग खड़ी हो, यह न समझ सकी।

महेंद्र एक-एक करके मैले कपड़े उठा-उठा कर देखने लगा। महेंद्र की उस बेकार कोशिश को देख कर आशा से न रहा गया। उसने कुरते और चिट्ठी को फर्श पर फेंक दिया और दाएँ हाथ से पलँग के डंडे को थाम कर मुँह गाड़ लिया। महेंद्र ने बिजली की तेजी से चिट्ठी उठाई। एक पल को आशा की ओर कुछ न बोलते हुए लेकिन कुछ कहने के अंदाज में उसने देखा मगर कुछ कहा नहीं।

फिर तुरंत आशा को ससीढ़ियों पर उसके तेज कदम की आहट मिली। इधर धोबी ने पुकरा – ‘माँ जी, कपड़े देने में और कितनी देर करेंगी? बड़ी देर हो गई, मेरा घर भी तो पास नहीं।’

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