चैप्टर 32 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 32 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

चैप्टर 32 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 32 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 32 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 32 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

राजा विशालसिंह ने इधर कई साल से राजकाज छोड़-सा रखा था ! मुंशी वज्रधर और दीवान साहब की चढ़ बनी थी। गुरुसेवक सिंह भी अपने रागरंग में मस्त थे। सेवा और प्रेम का आवरण उतारकर अब वह पक्के विलायती हो गए थे। प्रजा के सुख-दुःख की चिंता अगर किसी को थी, तो वह मनोरमा को थी। राजा साहब के सत्य और न्याय का उत्साह ठंडा पड़ गया था। मनोरमा को पाकर उन्हें किसी चीज की सुधि न थी। उन्हें एक क्षण के लिए भी मनोरमा से अलग होना असह्य था। जैसे कोई दरिद्र प्राणी कहीं से विपुल धन पा जाए और रात-दिन उसकी की चिंता में पड़ा रहे; वह दशा राजा साहब की थी। मनोरमा उनका जीवन धन थी। उसी दृष्टि में मनोरमा फूल की पंखुड़ी से भी कोमल थी, उसे कुछ हो न जाए , यही भय उन्हें बना रहता था। अन्य रानियों की अब वह खुशामद करते रहते थे, जिसमें वे मनोरमा को कुछ कह न बैठे। मनोरमा को बात कितनी लगती है, इसका अनुभव उन्हें हो चुका था। रोहिणी के एक व्यंग्य ने उसे काशी छोड़कर इस गांव में ला बिठाया था। वैसा दूसरा व्यंग्य उसके प्राण ले सकता था। इसलिए वह, रानियों को खुश रखना चाहते थे, विशेषकर रोहिणी को, हालांकि वह मनोरमा को जलाने का कोई अक्सर हाथ से न जाने देती थी।

लेकिन इस बालक ने आकर राजा साहब के जीवन में एक नवीन उत्साह का संचार कर दिया। अब तक उनके जीवन का कोई लक्ष्य न था। मन में प्रश्न होता था, किसके लिए करूं? कौन रोने वाला बैठा हुआ है? प्रतिमा ही न थी, तो मंदिर की रचना कैसे होती? अब वह प्रतिमा आ गई थी, जीवन का लक्ष्य मिल गया था। वह राज-काज से क्यों विरत रहते? मुंशीजी अब तक दीवान साहब से मिलकर अपना स्वार्थ साधते रहते थे, पर अब वह कब किसी को गिनने लगे थे। ऐसे मालूम होता था कि वही राजा साहब हैं। दीवान साहब अगर मनोरमा के पिता थे, तो मुंशीजी राजकुमार के दादा थे। फिर दोनों में कौन दबता? कर्मचारियों पर कभी ऐसी फटकारें न पड़ी थीं, मुंशीजी को देखते ही बेचारे थर-थर कांपने लगते थे। भाग्य किसी का चमके, तो ऐसे चमके! कहाँ पेंशन के पच्चीस रुपयों पर गुजर-बसर होती थी, कहाँ अब रियासत के मालिक थे। राजा साहब भी उनका अदब करते थे। अगर कोई अमला उनके हुक्म की तामील करने में देर करता, जामे से बाहर हो जाते। बात पीछे करते, निकालने की धमकी पहले देते–यहां तुम्हारे हथकंडे एक न चलेंगे, याद रखना। जो तुम आज कह रहे हो, वह सब किए बैठा हूँ। एक-एक को निगल जाऊंगा। अब वह मुंशीजी नहीं हैं, जिनकी बात इस कान से सुनकर उस कान से उड़ा दिया करते थे। अब मुंशीजी रियासत के मालिक हैं।

इसमें भला किसको आपत्ति करने का साहस हो सकता था? हां, सुनने वालों को ये बातें जरूर बुरी मालूम होती थीं। चक्रधर के कानों में कभी ये बातें पड़ जातीं, तो वह जमीन में गड़ से जाते थे। मारे लज्जा के उनकी गर्दन झुक जाती थी। वह आजकल मुंशीजी से बहुत कम बोलते थे। अपने घर भी केवल एक बार गए थे। वहां माता की बातें सुनकर उनको फिर जाने की इच्छा न होती थी। मित्रों से मिलना-जुलना उन्होंने कम कर दिया था, हालांकि अब उनकी संख्या बहुत बढ़ गई थी। वास्तव में यहां का जीवन उनके लिए असह्य हो गया था। वह फिर अपनी शांतिकुटीर को लौट जाना चाहते थे। यहां आए दिन कोई-न-कोई बात हो ही जाती थी, जो दिन-भर उनके चित्त को व्यग्र रखने को काफी होती थी। कहीं कर्मचारियों में जूती-पैजार होती थी, कहीं गरीब असामियों पर डांट-फटकार, कहीं रनिवास में रगड़-झगड़ होती थी, तो कहीं इलाके में दंगा-फिसाद। उन्हें स्वयं कभी-कभी कर्मचारियों को तंबीह करनी पड़ती, कई बार उन्हें विवश होकर नौकरों को मारना भी पड़ा था। सबसे कठिन समस्या यही थी कि यहां उनके पुराने सिद्धांत भंग होते चले जाते थे। वह बहुत चेष्टा करते थे कि मुंह से एक भी अशिष्ट शब्द न निकले, पर प्रायः नित्य ही ऐसे अवसर आ पड़ते कि उन्हें विवश होकर दंडनीति का आश्रय लेना ही पड़ता था।

लेकिन अहिल्या इस जीवन का चरम सुख भोग कर रही थी। बहुत दिनों तक दु:ख झेलने के बाद उसे यह सुख मिला था और उनमें मग्न थी। अपने पुराने दिन उसे बहुत जल्द भूल गए थे और उनकी याद दिलाने में उसे दुःख होता था। उसका रहन-सहन बिल्कुल बदल गया था। वह अच्छी-खासी अमीरजादी बन गई थी। सारे दिन आमोद-प्रमोद के सिवा उसे दुसरा का था। पति के दिल पर क्या गुजर रही है, यह सोचने का कष्ट क्यों उठाती? जब वह खुश थी, तब उसके स्वामी भी अवश्य खुश होंगे। राज्य पाकर कौन रोता है ! उसकी मुख छवि अब पूर्ण चंद्र को भांति तेजोमय हो गई थी। उसकी सरलता, वह नम्रता, वह कर्मशीलता गायब हो गई थी। चतुर गृहिणी अब एक सगर्वा, यौवनवाली कामिनी थी, जिसकी आंखों से मद छलका पडता था। चक्रधर ने जब उसे पहली बार देखा था, तब वह एक मुर्झाती हुई कली थी और मनोरमा एक खिले हुए प्रभात की स्वर्णमयी किरणों से विहसित फूल। अब मनोरमा अहिल्या हो गई थी और अहिल्या मनोरमा। अहिल्या पहर दिन चढ़े अंगड़ाइयां लेती हुई शयनागार से निकलती। मनोरमा पहर रात ही से घर या राज्य का कोई-न-कोई काम करने लगती थी। शंखधर अब मनोरमा ही के पास रहता था, वही उसका लालन-पालन करती थी। अहिल्या केवल कभी-कभी उसे गोद में लेकर प्यार कर लेती, मानो किसी दूसरे का बालक हो। बालक भी अब उसकी गोद में आते हुए झिझकता। मनोरमा ही अब उसकी माता थी। मनोरमा की जान अब उसमें थी और उसकी मनोरमा में। कभी-कभी एकांत में मनोरमा बालक को गोद में लिए घंटों मुंह छिपाकर रोती। उसके अंतस्तल में अहर्निश एक शूल-सा होता रहता था, हृदय में नित्य एक अग्निशिखा प्रज्ज्वलित रहती थी और जब किसी कारण से वेदना और जलन बढ़ जाती, तो उसके मुख से एक आह और आंखों से आंसू की चार बूंदें निकल पड़ती थीं। बालक भी उसे देखकर रोने लगता। तब मनोरमा आंसुओं को पी जाती और हंसने की चेष्टा करके बालक को छाती से लगा लेती। उसकी तेजस्विता गहन चिंता और गंभीर विचार में रूपांतरित हो गई थी। वह अहिल्या से दबती थी। पर अहिल्या उससे खिंची-सी रहती। कदाचित् वह मनोरमा के अधिकारों को छीनना चाहती थी, उसके प्रबंध में दोष निकालती रहती। पर रानी मनोरमा अपने अधिकारों से जी-जान से चिमटी हुई थी। उनका अल्पांश भी न त्यागना चाहती थी, बल्कि दिनों-दिन उन्हें बढ़ाती जाती थी। यही उसके जीवन का आधार था।

अब चक्रधर अहिल्या से अपने मन की बातें कभी न कहते थे। यह संपदा उनका सर्वनाश किए डालती थी। क्या अहिल्या यह सुख-विलास छोड़कर मेरे साथ चलने पर राजी होगी? उन्हें शंका होती थी कि कहीं वह इस प्रस्ताव को हंसी में न उड़ा दे या मुझे रुकने के लिए मजबूर न करे। अगर वह दृढ़ भाव से एक बार कह देगी कि तुम मुझे छोड़कर नहीं जा सकते, तो वह कैसे जाएंगे? उन्हें इसका क्या अधिकार है कि उसे अपने साथ विपत्ति झेलने के लिए कहें? उन्होंने अगर कहा और वह धर्मसंकट में पड़कर उनके साथ चलने पर तैयार भी हो गई, तो मनोरमा शंखधर को कब छोड़ेंगी? क्या शंखधर को छोड़कर अहिल्या उनके साथ जाएगी? जाकर प्रसन्न रहेगी? अगर बालक को मनोरमा ने दे भी दिया, तो क्या वह इस वियोग की वेदना सह लेंगी? इसी प्रकार के कितने ही प्रश्न चक्रधर के मन में उठते रहते थे और वह किसी भांति अपने कर्त्तव्य का निश्चय न कर सकते थे। केवल एक बात निश्चित थी-वह इन बंधनों में पड़कर अपना जीवन नष्ट न करना चाहते थे, संपत्ति पर अपने सिद्धांतों को भेंट न कर सकते थे।

एक दिन चक्रधर बैठे कुछ पढ़ रहे थे कि मुंशीजी ने आकर कहा-बेटा, जरा एक बार रियासत का दौरा नहीं कर आते? आखिर दिन-भर पड़े ही रहते हो? मेरी समझ में नहीं आता, तुम किस रंग के आदमी हो। बेचारे राजा साहब अकेले कहाँ-कहाँ देखेंगे और क्या-क्या देखेंगे? रहा मैं, सो किसी मसरफ का नहीं। मुझसे किसी दावत या बारात या मजलिस का प्रबंध करने के सिवा और क्या हो सकता है? गांव-गांव दौड़ना अब मुझसे नहीं हो सकता। अब तो ईश्वर की दया से रियासत अपनी है ! तुम्ही इतनी लापरवाही करोगे, तो कैसे काम चलेगा? हाथी, घोड़े, मोटरें सब कुछ मौजूद हैं। कभी-कभी इधर-उधर चक्कर लगा आया करो। इसी तरह धाक बैठेगी, घर में बैठे-बैठे तुम्हें कौन जानता है?

चक्रधर ने उदासीन भाव से कहा–मैं इस झंझट में नहीं पड़ना चाहता। मैं तो यहां से जाने को तैयार बैठा हुआ हूँ।

मुंशीजी चक्रधर का मुंह ताकने लगे। बात इतनी अश्रुत-पूर्व थी कि उनकी समझ ही में न आई। पूछा-क्यों अब भी वही सनक सवार है?

चक्रधर-आप उसे सनक, पागलपन-जो चाहें, समझें, पर मुझे तो उसमें जितना आनंद आता है, उतना इस हरबोंग में नहीं आता। आपको तो मेरी यही सलाह है, आराम से घर में बैठकर भगवान् का भजन कीजिए। मुझसे जो कुछ बन पड़ेगा, आपकी मदद करता रहूँगा।

मुंशी–बेटा, मुझे मालूम होता है, तुम अपने होश में नहीं हो। बिस्वे-बिस्वे के लिए तो खून की नदियां बह जाती हैं और तुम इतनी बड़ी रियासत पाकर ऐसी बातें करते हो! तुम्हें क्या हो गया है? बेटा, इन बातों में कुछ नहीं रखा है। अब तुम समझदार हुए, इन पुरानी बातों को दिल से निकाल डालो। भगवान् ने तुम्हारे ऊपर कृपादृष्टि फेरी है। उसको धन्यवाद दो और राज्य का इंतजाम अपने हाथ में लो। तुम्हें करना ही क्या है, करने वाले तो कर्मचारी हैं। बस, जरा डांट-फटकार करते रहो, नहीं तो कर्मचारी लोग शेर हो जाएंगे, तो फिर काबू में न आएंगे।

चक्रधर को अब मालूम हुआ कि मैं शांत बैठने भी न पाऊंगा। आज लालाजी ने यह उपदेश दिया है। संभव है, कल अहिल्या को भी मेरा एकांतवास बुरा मालूम हो। वह भी मुझे उपदेश करे, राजा साहब भी कोई काम गले मढ़ दें। अब जल्दी ही यहां से बोरिया-बंधना संभालना चाहिए, मगर इसी सोच-विचार में एक महीना और गुजर गया और वह कुछ निश्चय न कर सके। उस हलचल की कल्पना करके उनकी हिम्मत छूट जाती थी, जो उनका प्रस्ताव सुनकर अंदर से बाहर तक मच जाएगा। अहिल्या रोएगी, मनोरमा कुढ़ेगी, पर मुंह से कुछ न कहेगी, लालाजी जामे से बाहर हो जाएंगे और राजा साहब एक ठंडी सांस लेकर सिर झुका लेंगे।

एक दिन चक्रधर मोटर पर हवा खाने निकले। गर्मी के दिन थे। जी बेचैन था। हवा लगी, तो देहात की तरफ जाने का जी चाहा। बढ़ते ही गए, यहां तक कि अंधेरा हो गया। शोफर को साथ न लिया था-ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते थे, सड़क खराब आती जाती थी। सहसा उन्हें रास्ते में एक बड़ा सांड़ दिखाई दिया। उन्होंने बहुत शोर मचाया पर सांड़ न हटा। जब समीप आने पर भी सांड राह में खड़ा ही रहा, तो उन्होंने कतराकर निकल जाना चाहा, पर सांड़ सिर झुकाए फों-फों करता फिर सामने आ खड़ा हुआ। चक्रधर छड़ी हाथ में लेकर उतरे कि उसे भगा दें, पर वह भागने के बदले उनके पीछे दौड़ा। कुशल यह हुई कि सड़क के किनारे एक पेड़ मिल गया, नहीं तो जान जाने में कोई संदेह ही न था। जी छोड़कर भागे और छड़ी फेंक, पेड़ की शाख पकड़कर लटक गए। सांड़ एक मिनट तक तो पेड़ से टक्कर लेता रहा, पर जब चक्रधर न मिले, तो वह मोटर के पास लौट गया और उसे सींगों से पीछे को ठेलता हुआ दौड़ा। कुछ देर के बाद मोटर सड़क से हटकर एक वृक्ष से टकरा गई। अब सांड़ पूंछ उठा-उठाकर कितना ही जोर लगाता है, पीछे हट-हटकर उसमें टक्करें मारता है, पर वह जगह से नहीं हिलती। तब उसने बगल में जाकर इतनी जोर से टक्कर लगाई कि मोटर उलट गई। फिर भी उसका पिंड न छोड़ा। कभी उसके पहियों से टक्कर लेता, कभी पीछे की तरफ जोर लगाता। मोटर के पहिए फट गए, कई पुर्जे टूट गए, पर सांड़ बराबर उस पर आघात किए जाता था। चक्रधर शाख पर बैठे तमाशा देख रहे थे। मोटर की तो फिक्र न थी, फिक्र यह थी कि वह कैसे लौटेंगे। चारों ओर सन्नाटा था। कोई आदमी न आता-जाता था। अभी मालूम नहीं, सांड़ कितनी देर तक मोटर से लड़ेगा और कितनी देर तक उन्हें वृक्ष पर टंगे रहना पड़ेगा। अगर उनके पास इस वक्त बंदूक होती, तो सांड़ को मार ही डालते। दिल में सांड़ छोड़ने की प्रथा पर झुंझला रहे थे। अगर मालूम हो जाए कि किसका सांड़ है, तो सारी जायदादबिकवा लूं। पाजी ने सांड़ छोड़ रखा है!

सांड़ ने जब देखा कि शत्रु की धज्जियां उड़ गईं और अब वह शायद फिर न उठे, तो डंकारता हुआ एक तरफ चला गया। तब चक्रधर नीचे उतरे और मोटर के समीप जाकर देखा, तो वह उल्टी पड़ी थी। जब तक सीधी न हो जाए , यह पता कैसे चले कि क्या-क्या चीजें टूट गई हैं और अब चलने योग्य है या नहीं। अकेले मोटर को सीधी करना एक आदमी का काम न था। सोचने लगे कि आदमियों को कहाँ से लाऊं! इधर से तो शायद अब रात भर कोई न निकलेगा। पूर्व की ओर थोड़ी ही दूर पर एक गांव था। चक्रधर उसी तरफ चले। रास्ते में इधर-उधर ताकते जाते थे कि कहीं सांड़ न आता हो, नहीं तो यहां सपाट मैदान में कहीं वृक्ष भी नहीं है, मगर सांड़ न मिला और वह एक गांव में पहुंचे। बहुत छोटा-सा ‘पुरवा’ था। किसान लोग अभी थोड़ी ही देर पहले ऊख की सिंचाई करके आए थे। कोई बैलों को सानी-पानी दे रहा था, कोई खाने जा रहा था, कोई गाय दुह रहा था। सहसा चक्रधर ने जाकर पूछा-यह कौन गांव है?

एक आदमी ने जवाब दिया-भैंसोर।

चक्रधर-किसका गांव है?

किसान-महाराज का। कहाँ से आते हो?

चक्रधर-हम महाराज ही के यहां से आते हैं। वह बदमाश सांड़ किसका है, जो इस वक्त सड़क पर घूमा करता है?

किसान यह तो नहीं जानते साहब, पर उसके मारे नाकों दम है, उधर से किसी को निकलने ही नहीं देता। जिस गांव में चला जाता है, दो-एक बैलों को मार डालता है। बहुत तंग कर रहा है।

चक्रधर ने सांड़ के आक्रमण का जिक्र करके कहा–तुम लोग मेरे साथ चलकर मोटर को उठा दो।

इस पर दूसरा किसान अपने द्वार पर से बोला–सरकार, भला रात को मोटर उठाकर क्या कीजिएगा? वह चलने लायक तो होगी नहीं।

चक्रधर–तो तुम लोगों को उसे ठेलकर ले चलना पड़ेगा।

पहला किसान-सरकार, रात भर यहीं ठहरें, सवेरे चलेंगे। न चलने लायक होगी, तो गाड़ी पर लादकर पहुंचा देंगे।

चक्रधर ने झल्लाकर कहा–कैसी बातें करते हो जी! मैं रात भर यहां पड़ा रहूँगा ! तुम लोगों को इसी वक्त चलना होगा।

चक्रधर को उन आदमियों में कोई न पहचानता था। समझे, राजाओं के यहां सभी तरह के लोग आते-जाते हैं, होगा कोई। फिर वे सभी जाति के ठाकुर थे और ठाकुर से सहायता के नाम से जो काम चाहे ले लो, बेगार के नाम से उनकी त्योरियां बदल जाती हैं। किसान ने कहा– साहब, इस बखत तो हमारा जाना न होगा। अगर बेगार चाहते हों, तो वह उत्तर की ओर दूसरा गांव है, चले जाइए! बहुत चमार मिल जाएंगे।

चक्रधर ने गुस्से में आकर कहा-मैं कहता हूँ, तुमको चलना पड़ेगा।

किसान ने दृढ़ता से कहा–तो साहब, इस ताव पर हम न जाएंगे। पासी चमार नहीं हैं, हम भी ठाकुर हैं।

यह कहकर वह घर में जाने लगा।

चक्रधर को ऐसा क्रोध आया कि उसका हाथ पकड़कर घसीट लूं और ठोकर मारते हुए ले चलूं, मगर उन्होंने जब्त करके कहा–मैं सीधे से कहता हूँ, तो तुम लोग उड़नघाइयां बताते हो। अभी कोई चपरासी आकर दो घुड़कियां जमा देता, तो सारा गांव भेड़ की भांति उसके पीछे चला जाता।

किसान वहीं खड़ा हो गया और बोला-सिपाही क्यों घुड़कियां जमाएगा, कोई चोर हैं? हमारी खुशी, नहीं जाते। आपको जो करना हो, कर लीजिएगा।

चक्रधर से जब्त न हो सकता। छड़ी हाथ में थी ही, वह बाज की तरह किसान पर टूट पड़े और एक धक्का देकर कहा–चलता है या जमाऊं दो-चार हाथ? तुम लात के आदमी बात से क्यों मानने लगे!

चक्रधर कसरती आदमी थे। किसान धक्का खाकर गिर पड़ा। यों वह भी करारा आदमी था। उलझ पड़ता, तो चक्रधर आसानी से उसे न गिरा सकते, पर वह रोब में आ गया। सोचा, कोई हाकिम है, नहीं तो उसकी हिम्मत न पड़ती कि हाथ उठाए। संभलकर उठने लगा। चक्रधर ने समझा, शायद यह उठकर मुझ पर वार करेगा। लपककर फिर एक धक्का दिया। सहसा सामने वाले घर में से एक आदमी लालटेन लिए बाहर निकल आया और चक्रधर को देखकर बोला-अरे भगतजी! तुमने यह भेस कब से धारण किया? मुझे पहचानते हो? हम भी तुम्हारे साथ जेहल में थे।

चक्रधर उसे तुरंत पहचान गए। यह उनका जेल का साथी धन्नासिंह था। चक्रधर का सारा क्रोध हवा हो गया। लजाते हुए बोले-क्या तुम्हारा घर इसी गांव में है, धन्ना?

धन्नासिंह–हां साहब, यह आदमी, जिसे आप ठोकरें मार रहे हैं, मेरा सगा भाई है। खा रहा था। खाना छोड़कर जब तक उठू, तब तक तो तुम गरमा ही गए। तुम्हारा मिजाज इतना कड़ा कब से हो गया? जेहल में तो तुम दया और धर्म के देवता बने हुए थे। क्या दिखावा ही दिखावा था? निकला तो कुछ और ही सोचकर, मगर तुम अपने पुराने साथी निकले। कहाँ तो दारोगा को बचाने के लिए अपनी छाती पर संगीन रोक ली थी, कहाँ आज जरा-सी बात पर इतने तेज पड़ गए।

चक्रधर पर घड़ों पानी पड़ गया। मुंह से बात न निकली। वह अपनी सफाई में एक शब्द भी न बोल सके। उनके जीवन की सारी कमाई, जो उन्होंने न जाने कौन-कौन से कष्ट सहकर बटोरी थी, यहां लुट गई। उनके मन की सारी सद्वृत्तियां आहत होकर तड़पने लगीं। एक ओर उनकी न्याय बुद्धि मंदित होकर किसी अनाथ बालक की भांति दामन से मुंह छिपाकर रो रही थी, दूसरी ओर लज्जा किसी पिशाचिनी की भांति उन पर आग्नेय बाणों का प्रहार कर रही थी।

धन्नासिंह ने अपने भाई का हाथ पकड़कर बैठाना चाहा, तो वह जोर से ‘हाय ! हाय !’ करके चिल्ला उठा। दूसरी बार गिरते समय उसका दाहिना हाथ उखड़ गया था। धन्नासिंह ने समझा, उसका हाथ टूट गया है। चक्रधर के प्रति उसकी रही-सही भक्ति भी गायब हो गई। उनकी ओर आरक्त नेत्रों से देखकर बोला-सरकार, आपने तो इसका हाथ ही तोड़ दिया। (ओठ चबाकर) क्या कहें, अपने द्वार पर आए हो और कुछ पुरानी बातों का खयाल है, नहीं तो इस समय क्रोध तो ऐसा आ रहा है कि इसी तरह तुम्हारे हाथ भी तोड़ दूं। यह तुम इतने कैसे बदल गए! अगर आंखों से न देखता होता, तो मुझे कभी विश्वास न आता। जरूर तुम्हें कोई ओहदा या जायदादमिल गई, मगर यह न समझो कि हम अनाथ हैं। अभी जाकर महाराज के द्वार पर फरियाद करें, तो तुम खड़ेखड़े बंध जाओ ! बाबू चक्रधरसिंह का नाम तो तुमने सुना ही होगा? अब किसी सरकारी आदमी की मजाल नहीं कि बेगार ले सके, तुम बेचारे किस गिनती में हो? ओहदा पाकर अपने दिन भूल न जाना चाहिए। तुम्हें मैंने अपना गुरु और देवता समझा था। तुम्हारे ही उपदेश से मेरी पुरानी आदतें छूट गईं। गांजा और चरस तभी से छोड़ दिया, जुए के नगीच नहीं जाता। जिस लाठी से सैकड़ों सिर फोड़ डाले होंगे, अब वह टूटी हुई पड़ी है। मुझे तो तुमने यह उपदेश दिया और आप लगे गरीबों को कुचलने। मन्नासिंह ने इतना ही न कहा था कि रात को यहीं ठहर जाओ, सबेरे हम चलकर तुम्हारी मोटर पहुंचा देंगे। इसमें क्या बुराई थी? अगर मैं उसकी जगह होता, तो कह देता कि तुम्हारा गुलाम नहीं हूँ, जैसे चाहो अपनी मोटर ले जाओ, मुझसे मतलब नहीं। मगर उसने तो तुम्हारे साथ भलमनसी की और तुम उसे मारने लगे। अब बताओ, इसके हाथ की क्या दवा की जाए ? सच है, पद पाकर सबको मद हो जाता है।

चक्रधर ने ग्लानि वेदना से व्यथित स्वर में कहा–धन्नासिंह, मैं बहुत लज्जित हूँ, मुझे क्षमा करो। जो दंड चाहो दो, सिर झुकाए हुए हूँ, जरा भी सिर न हटाऊंगा, एक शब्द भी मुंह से न निकालूंगा।

यह कहते-कहते उनका गला फंस गया। धन्नासिंह भी गद्गद हो गया। बोला-अरे भगतजी, ऐसी बातें न कहो। तुम मेरे गुरु हो, तुम्हें मैं अपना देवता समझता हूँ। क्रोध में आदमी के मुंह से दो-चार कड़ी बातें निकल ही जाती हैं, उनका खयाल न करो। भैया, भाई का नाता बड़ा गहरा होता है। भाई चाहे अपना शत्रु हो, लेकिन कौन आदमी है, जो भाई को मार खाते देखकर क्रोध को रोक सके? मुझे अपना वैसा ही दास समझो, जैसे जेहल में समझते थे। तुम्हारी मोटर कहाँ है? चलो, मैं उसे उठाए देता हूँ या हुक्म हो तो गाड़ी जोत लूं?

चक्रधर ने रोकर कहा–जब तक इसका हाथ अच्छा न हो जाएगा, तब तक मैं कहीं न जाऊंगा, धन्नासिंह ! हां, कोई आदमी ऐसा मिले, जो यहां से जगदीशपुर जा सके, तो उसे मेरी एक चिट्ठी दे दो।

धन्नासिंह–जगदीशपुर में तुम्हारा कौन है, भैया? क्या रियासत में नौकर हो गए हो? चक्रधर-नौकर नहीं हूँ, मैं मुंशी वज्रधर का लड़का हूँ।

धन्नासिंह ने विस्मित होकर कहा–सरकार ही बाबू चक्रधर सिंह हैं। धन्य भाग थे कि सरकार के आज दर्शन हुए।

यह कहते हुए वह दौड़कर घर में गया और एक चारपाई लाकर द्वार पर डाल दी। फिर लपककर गांव में खबर दे आया। एक क्षण में गांव के सब आदमी आकर चक्रधर को नजरें देने लगे। चारों ओर हलचल-सी मच गई। सब-के-सब उनके यश गाने लगे। जब से सरकार आए हैं, हमारे दिन फिर गए हैं, आपका शील-स्वभाव जैसा सुनते थे, वैसा ही पाया। आप साक्षात् भगवान्

धन्ना ने कहा-मैंने तो पहचाना ही नहीं। क्रोध में न जाने क्या-क्या बक गया !

दूसरा ठाकुर बोला-सरकार अपने को बोल देते, तो हम मोटर को कंधों पर लादकर ले चलते। हुजूर के लिए जान हाजिर है। मन्नासिंह मरद आदमी, हाथ झटक कर उठ खड़े हो, तुम्हारे तो भाग्य खुल गए।

मन्नासिंह ने कराहकर मुस्कराते हुए कहा-सरकार देखने में तो दुबले-पतले हैं पर आपके हाथ-पांव लोहे के हैं। मैंने सरकार से भिड़ना चाहा, पर आपने एक ही अड़गे में मुझे दे पटका।

धन्नासिंह-अरे पागल, भाग्यवानों के हाथ-पांव में ताकत नहीं होती, अकबाल में ताकत होती है। उससे देवता तक कांपते हैं।

चक्रधर को इन ठकुरसुहाती बातों में जरा भी आनंद न आता था। उन्हें उन पर दया आ रही थी। वह प्राणी, जिसे उन्होंने अपने कोप का लक्ष्य बनाया था, उनके शौर्य और शक्ति को प्रशंसा कर रहा है। अपमान को निगल जाना चरित्र-पतन की अंतिम सीमा है और यही खुशामद सुनकर हम लट्टू हो जाते हैं। जिस वस्तु से घृणा होनी चाहिए, उस पर हम फूले नहीं समाते। चक्रधर को अब आश्चर्य हो रहा था कि मुझे इतना क्रोध आया कैसे? आज से साल भर पहले भी मुझे कभी किसी पर इतना क्रोध नहीं आया। साल भर पहले कदाचित् वह मन्नासिंह के पास आकर सहायता के लिए मिन्नत-समाजत करते। अगर रात भर रहना भी पड़ता, तो रह जाते, इसमें उनकी हानि ही क्या थी! शायद उन्हें देहातियों के साथ एक रात काटने का अवसर पाकर खुशी होती। आज उन्हें अनुभव हुआ कि रियासत की बू कितनी गुप्त और अलक्षित रूप से उनमें समाती जाती है। कितने गुप्त और अलक्षित रूप से उनकी मनुष्यता, चरित्र और सिद्धांत का ह्रास हो रहा है।

सहसा सड़क की ओर प्रकाश दिखाई दिया। जरा देर में दो मोटरें सड़क पर धीरे-धीरे जाती हुई दिखाई दी, जैसे किसी को खोज रही हों। एकाएक दोनों उसी स्थान पर पहुँचकर रुक गईं, जहां चक्रधर की मोटर टूटी पड़ी थी। फिर कई आदमी मोटर से उतरते दिखाई दिए। चक्रधर समझ गए कि मेरी तलाश हो रही है। तुरंत उठ खड़े हुए। उनके साथ गांव के लोग भी चले। समीप आकर देखा, तो सड़क की तरफ से लोग इसी गांव की तरफ चले आ रहे थे। उनके पास बिजली की बत्तियां थीं। समीप आने पर मालूम हुआ कि रानी मनोरमा पांच सशस्त्र सिपाहियों के साथ चली आ रही हैं। चक्रधर उसे देखते ही लपककर आगे बढ़ गए। रानी उन्हें देखते ही ठिठक गईं और घबराई हुई आवाज में बोलीं-बाबूजी, आपको चोट तो नहीं आई? मोटर टूटी देखी, तो जैसे मेरे प्राण ही सन्न हो गए। अब मैं आपको अकेले कभी न घूमने दिया करूंगी।

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