चैप्टर 31 मैला आँचल फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास | Chapter 31 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel

चैप्टर 31 मैला आँचल फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास | Chapter 31 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel, Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Ka Upanyas 

Chapter 31 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu

Chapter 31 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel

मंगलादेवी, चरखा-सेंटर की मास्टरनी जी बीमार हैं।

डाक्टर ने खून जाँचकर देखा, कालाआजार नहीं, टाइफायड है। चरखा-सेंटर के दोनों मास्टर तहसीलदार साहब के गुहाल में रहते हैं और मास्टरनी जी भगमान भगत की एक झोंपड़ी में। भगमान भगत ने गाड़ी-बैल रखने के लिए एक झोंपड़ी बनाई थी, लेकिन अब अगले साल टीन का मकान देने का इरादा है, इसलिए इस बार गाड़ी-बैल नहीं खरीद सका। चरखा-सेंटर खुलने पर गाँव के लोगों ने भगमान भगत से कहा-‘घर तो खाली ही है। मास्टरनी जी के रहने के लिए घर नहीं है ! चरखा-सेंटर का घर बनेगा तो आपका घर खाली कर दिया जाएगा !…कोटापरमिट के जमाने में कैंगरेसी लोगों की बात काटना ठीक नहीं। नहीं तो कटिहार में इतनी बड़ी झोंपड़ी का ही किराया पन्द्रह रुपया मिलता !

मंगलादेवी ने हैजा के समय रात-रात भर जागकर रोगियों की सेवा की और जब वह खुद बीमार पड़ी तो उसके पास बैठनेवाला भी कोई नहीं। चरखा-सेंटर के दोनों मास्टर साहब बारी-बारी से एक-एक घंटा डयटी दे जाते हैं। रात में चिचाए की माँ आकर सोती है। लेकिन, बूढ़ी इतना हुक्का पीती और खाँसती है कि मंगलादेवी के ज्वर की ज्वाला और भी तीव्र हो जाती है। बुढ़िया जब सोती है तो इतने जोरों के खरटे लेती है कि पास-पड़ोस की नींद खुल जाए। डाक्टर कहता है-यदि यही हालत रही तो सँभालना मुश्किल होगा। घर खत लिखकर किसी को बुला लेना ठीक होगा।

घर ? यदि घर से कोई आनेवाला होता अथवा खबर लेनेवाला होता तो मंगलादेवी चरखा-सेंटर में क्यों भर्ती होती ? उसे घर छोड़े हुए पाँच साल हो रहे हैं। मंगलादेवी ने दुनिया को अच्छी तरह पहचाना है। आदमी के अन्दर के पशु को उसने बहुत बार करीब से देखा है। विधवा-आश्रम, अबला-आश्रम और बड़े बाबुओं के घर आया की जिन्दगी उसने बिताई है। अबला नारी हर जगह अबला ही है। रूप और जवानी ?…नहीं, यह भी गलत। औरत होना चाहिए, रूप और उम्र की कोई कैद नहीं। एक असहाय औरत देवता के संरक्षण में भी सुख-चैन से नहीं सो सकती। मंगलादेवी के लिए जैसा घर वैसा बाहर। उसका कौन है अपना ? कोई नहीं !

“कौन…?…कालीचरन बाबू !”

“डाक्टर साहब ने कहा है कि इस झोंपड़ी में आपकी बीमारी अच्छी नहीं होगी। हम लोगों का कीर्तनवाला घर साफ-सुथरा है, हवादार है।”

मंगलादेवी यादवटोली के कीर्तन-घर में आ गई है। कीर्तन-घर में ही सोशलिस्ट पार्टी का आफिस है। कालीचरन इसे आफिस ही कहता है।…लेकिन सोशलिस्ट आफिस का नाम सुनकर मंगलादेवी शायद नहीं आती।

“दवा पी लीजिए।”

“नहीं पियूँगी।”

“पी लीजिए मास्टरजी जी ! दवा…”

“कालीबाबू, एक बात कहूँ ?”

“कहिए!”

“आप मुझे मास्टरनी जी मत कीजिए।”

“तब क्या कहूँ?”

“क्यों ? मेरा नाम नहीं है ?”

“मंगलादेवी ?”

“नहीं।”

“तो?”

“सिर्फ…मंगला।”

“दवा पी लीजिए।”

“मंगला कहिए।”

“मंगला !”

पन्द्रह दिनों से कालीचरन मंगलादेवी की सेवा कर रहा है। दिन में तो और लोग भी रहते हैं, लेकिन रात में कालीचरन की ड्यूटी रहती है। डाक्टर कहते हैं, अब कोई खतरा नहीं। कमजोरी है, कुछ दिनों में ठीक हो जाएगी।

मंगलादेवी के शरीर में सिर्फ हड्डियाँ बच रही हैं। बाल झड़ रहे हैं। वह खाने के लिए बच्चों की तरह रूठती है, रोती है और बर्तन फेंकती है।…बार्ली नहीं पियूँगी। छेना का पानी भी कोई भला आदमी पीता है ! कालीचरन हाथ में पथ्य का कटोरा लेकर घंटों खुशामदें करता-‘लीजिए, इसमें नींबू डाल दिया है। अब खा लीजिए। कल नहीं, परसों भात मिलेगा।”

कालीचरन का व्रत टूट गया। उसके पहलवान गुरु ने कहा था-“पढ़े ! जब तक अखाड़े की मिट्टी देह में पूरी तरह रचे नहीं, औरतों से पाँच हाथ दूर रहना।” कालीचरन का व्रत टूट गया। पाँच हाथ दूर रहने से मंगलादेवी की सेवा नहीं की जा सकती थी। बिछावन और कपड़े बदलते समय, देह पोंछ देने के समय कालीचरन को गुरु जी की बात याद आती थी, लेकिन क्या किया जाए !

“काली कहाँ गया ? काली !”

“क्या है ?”

“कहाँ की चिट्ठी है ?”

“सिकरेटरी साहब ने लिखा है, सोमवार को जिला पार्टी की रैली है। लेकिन…मैं कैसे जाऊँगा ?”

“क्यों ?…तुम जाओ। मैं तो अब अच्छी हो गई।”

रैली के बाद सेक्रेटरी साहब ने कालीचरन को रोक लिया है- ‘कामरेड, आप दो दिन और रह जाइए। सैनिक जी की स्त्री अस्पताल में भर्ती हैं। सैनिक जी पटना गए हैं। परसों आ जाएँगे। अस्पताल में दोनों बेला खाना पहुँचाना है…कोई है नहीं।”

सेक्रेटरी साहब की बात को टालना बड़ा कठिन है। कामरेड की स्त्री !…कालीचरन को रह-रहकर मंगला की याद आती है। वह राह देख रही होगी। बासुदेव जाकर कहेगा कि दो दिन बाद आएँगे। सुनते ही उसका मुँह सूख जाएगा, चेहरा फक् हो जाएगा। एकदम बच्ची की तरह है मंगला का मुँह !…कालीचरन ने बिहदाना और सन्तोला भेज दिया है। वह छुएगी भी नहीं। बासुदेव क्या समझाएगा ? हत्तेरे की ! ये शहर के लौंडे बड़े बदमाश होते हैं। टीक पीठ के पास जाकर सैकिल की घंटी बजाएगा। अ…अभी तो सब खाना गिर जाता।

“उल्लू कहीं का ! गिलास ऐसे ही धोता है ?”…उल्लू । कालीचरन के गाल पर मानो किसी ने जोर से एक तमाचा जड़ दिया। उल्लू ! उसका सारा शरीर झिनझिन कर / रहा है। सैनिक जी की स्त्री ने उसे क्या समझा है ?…नौकर ?

“बहन जी, गिलास…”

“खबरदार ! बहिन जी मत बोल !”

बगल की खाट पर जो चमगादड़-जैसी औरत लेटी हुई थी, बोली, “कौन देस का आदमी है ! आदमी है या भूत ? बात भी नहीं करना जानता है।”

“अरे जानती नहीं हैं, ग्वाला साठ बरस तक…।” सैनिक जी की स्त्री बोली।

कालीचरन पूरा सुन नहीं सका। उसका सिर चकराने लगा। सैनिक जी भी तो ग्वाला ही हैं ! कालीचरन की आँखों के आगे सरसों के फूल-जैसी चीजें उड़ने लगीं। यदि किसी मर्द ने ये बातें कही होती तो आज खून हो जाता, खून । कालीचरन की कनपट्टी गर्म हो गई है।…मंगलादेवी भी तो औरत ही है। हुँ ! कहाँ मंगला और कहाँ यह भूतनी !…गले की आवाज एकदम खिखिर (लोमड़ी) की तरह है। खेंक, खेंक। बातें करती है तो लगता है मानो दाँत काटने के लिए दौड़ रही है। शायद यह भी कोई रोग ही है।

रौतहट स्टेशन पर गाड़ी से उतरकर कालीचरन जल्दी-जल्दी घर लौट रहा है।… उसे देखते ही मंगला खुशी से खिल जाएगी। सन्तोला सूख गया होगा, बिहदाना पड़ा होगा। दोनों ओर का रेल-भाड़ा बचाकर कालीचरन ने एक पैकेट बिस्कुट खरीद लिया है। डाक्टर साहब ने मंगला को बिस्कुट खाने के लिए कहा है। कालीचरन ने कभी बिस्कुट नहीं खाया है। शायद इसमें मुर्गी का अंडा रहता है। वह रह-रहकर बिस्कुट के डब्बे को छूकर देखता है ! इसके अन्दर ‘कुड़-कुड़’ क्या बोलता है ? कहीं अंडा फूटकर…!

“सेत्ताराम ! सेत्ताराम ! जै हिन्द, काली जी!”

“ऐ ? ओ बावनदास जी, हम तो चमक गए। यहाँ क्यों पड़े हैं ?”

“आप तो इस तरह आँख मूंदकर सरेसा (दौड़नेवाले घोड़े की जाति) घोड़े की तरह चल रहे हैं कि… !”

जंगली जामुन के पेड़ की छाया में बावनदास लेटा हुआ था। छाया में जाने पर कालीचरन को मालूम हुआ कि धूप कितनी तेज है।

“हम तो रात की गाड़ी से ही उतरे। कल दफा 40 का फैसला हो गया।”

“हो गया ?…क्या हुआ ?”

“अरे होगा क्या ? सबों की दरखास खारिज हो गई।…हम पहले ही जानते थे। कल गाँव के सभी रैयत आए थे। फैसला सुनकर सभी रोने लगे। अब जमींदार जमीन भी छुड़ा लेगा।”

“जमीन छुड़ा लेगा ?…नहीं, उस दिन हम लोगों की रैली में परसताब पास हो गया। जमींदार लोग रैयतों को जमीन से बेदखल नहीं कर सकते। इसके लिए पाटी संघर्ख करेगी।”

“कालीबाबू ! परसताब-उरसताब से कुछ नहीं होता है।” बावनदास के होंठों पर भेद-भरी मुस्कान दौड़ जाती है।

“आप बैठिए दास जी, हमको जरा जल्दी है।”

“हाँ, आप जाइए।…हम आपके डेग पर जा भी नहीं सकेंगे।”

कालीचरन चलते-चलते सोच रहा है, अब ठीक हुआ है। यदि रैयत की दरखास मंजूर हो जाती तो सभी लोग कँगरेस में चले जाते। अब संघर्ष में सभी सोशलिस्ट पार्टी में ही रहेंगे।

“क्या है ? बिस्कुट !” मंगलादेवी प्यार-भरी झिड़की देती है, “किसने कहा फिजूल पैसा खर्च करने को ? वह देखो तुम्हारा, सन्तरा और बेदाना पड़ा हुआ है। मैं नहीं खाती।”

“डाक्टर साहब ने कहा था…”

“डाक्टर साहब ने कहा था !” मंगला बनावटी गुस्सा दिखाते हुए कहती है, “डाक्टर साहब ने कहा था कि खुद भूखे रहकर सन्तरा, बेदाना और बिस्कुट खरीदकर लाना ?”

कालीचरन को सैनिक जी की स्त्री की याद आती है। उल्लू !…साठ साल तक नाबालिग !

“खा लो मंगला !” “पहले तुम एक बिस्कुट खाओ।”

बिस्कुट मीठा, कुरकुरा और इतना सुआदवाला होता है ? इसमें दूध, चीनी और माखन रहता है, अंडा नहीं?

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