चैप्टर 31 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 31 Kayakalp Novel By Munshi Premchand
Chapter 31 Kayakalp Novel By Munshi Premchand
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यौवन काल जीवन का स्वर्ग है। बाल्य काल में यदि हम कल्पनाओं के राग गाते हैं, तो यौवन काल में उन्हीं कल्पनाओं का प्रत्यक्ष स्वरूप देखते हैं, और वृद्धावस्था में उसी स्वरूप का स्वप्न। कल्पना पंगु होती है, स्वप्न मिथ्या, जीवन का सार केवल प्रत्यक्ष में है। हमारी दैहिक और मानसिक शक्ति का विकास यौवन है। यदि समस्त संसार की संपदा एक ओर रख दी जाए और यौवन दूसरी ओर, तो ऐसा कौन प्राणी है, जो उस विपुल धनराशि की ओर आंख उठा कर भी देखे। वास्तव में यौवन ही जीवन का स्वर्ग है, और रानी देवप्रिया की-सी सौभाग्यवती और कौन होगी, जिसके लिए यौवन के द्वार फिर से खुल गए थे?
संध्या का समय था। देवप्रिया एक पर्वत की गुफा में एक शिला पर अचेत पड़ी हुई थी। महेन्द्र उसके मुख की ओर आशापूर्ण नेत्रों से देख रहे थे। उनका शरीर बहुत दुर्बल हो गया है, मुख पीला पड़ गया है और आंखें भीतर घुस गई हैं, जैसे कोई यक्ष्मा का रोगी हो। यहां तक कि उन्हें सांस लेने में भी कष्ट होता है। जीवन का कोई चिह्न है, तो उनके नेत्रों में आशा की झलक है। आज उनकी तपस्या का अंतिम दिन है, आज देवप्रिया का पुनर्जन्म होगा, सूखा हुआ वृक्ष नव पल्लवों से लहराएगा, आज फिर उसके यौवन-सरोवर में लहरें उठेगी ! आकाश में कुसुम खिलेंगे। वह बार-बार उसके चेतना-शून्य हृदय पर हाथ रखकर देखते हैं कि रक्त का संचार होने में कितनी देर है और जीवन का कोई लक्षण न देखकर व्यग्र हो उठते हैं। इन्हें भय हो रहा है, मेरी तपस्या निष्फल तो न हो जाएगी।
एकाएक महेन्द्र चौंककर उठ खड़े हुए। आत्मोल्लास से मुख चमक उठा। देवप्रिया की हत्तन्त्रियों में जीवन के कोमल संगीत का कम्पन हो रहा था। जैसे वीणा के अस्फुट स्वरों से शनैः शनैः गान का स्वरूप प्रस्फुटित होता है, जैसे मेघ-मंडल से शनैः-शनैः इन्दु की उज्ज्वल छवि प्रकट होती हुई दिखाई देती है, उसी भांति देवप्रिया के श्रीहीन, संज्ञाहीन, प्राणहीन मुखमंडल पर जीवन का स्वरूप अंकित होने लगा। एक क्षण में उसके नीले अधरों पर लालिमा छा गई, आंखें खुल गईं, मुख पर जीवन श्री का विकास हो गया। उसने एक अंगड़ाई ली और विस्मित नेत्रों से इधर-उधर देखकर शिला-शैय्या से उठ बैठी! कौन कह सकता था कि वह महानिद्रा की गोद से निकलकर आई है? उसका मुखचंद्र अपनी सोलहों कलाओं से आलोकित हो रहा था। वह वही देवप्रिया थी, जो आशा और भय से कांपता हुआ हृदय लिए आज से चालीस वर्ष पहले, पतिगृह में आई थी। वही यौवन का माधुर्य था, वही नेत्रों को मुग्ध करने वाली छवि थी, वही सुधामय मुस्कान, वही सुकोमल गात ! उसे अपने पोर-पोर में नए जीवन का अनुभव हो रहा था, लेकिन कायाकल्प हो जाने पर भी उसे अपने पूर्व जीवन की सारी की सारी बातें याद थीं। वैधव्य काल की विलासिता भीषण रूप धारण करके उसके सामने खड़ी थी। एक क्षण तक लज्जा और ग्लानि के कारण वह कुछ बोल न सकी। अपने पति की इस प्रेममय तपस्या के सामने उसका विलासमय जीवन कितना घृणित, कितना लज्जास्पद था!
महेन्द्र ने मुस्कराकर कहा-प्रिये, आज मेरा जीवन सफल हो गया। अभी एक क्षण पहले तुम्हारी दशा देखकर मैं अपने दुस्साहस पर पछता रहा था।
देवप्रिया ने महेन्द्र को प्रेम मुग्ध नेत्रों से देखकर कहा–प्राणनाथ, तुमने मेरे साथ जो उपकार किया है, उसका धन्यवाद देने के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं हैं।
देवप्रिया की प्रबल इच्छा हुई कि स्वामी के चरणों पर सिर रख दूं और कहूँ, कि तुमने मेरा उद्धार कर दिया, मुझे वह अलभ्य वस्तु प्रदान कर दी, जो आज तक किसी ने न पाई थी, जो सर्वदा से मानव-कल्पना का स्वर्ण-स्वप्न रही है, पर संकोच ने जबान बंद कर दी।
महेन्द्र-सच कहना, तुम्हें विश्वास था कि मैं तुम्हारा कायाकल्प कर सकूँगा?
देवप्रिया–प्रियतम, यह तुम क्यों पूछते हो? मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास न होता, तो आती ही क्यों?
देवप्रिया को अपनी मुख छवि देखने की बड़ी तीव्र इच्छा हो रही थी। एक शीशे के टुकड़े के लिए इस समय वह क्या कुछ न दे डालती?
सहसा महेन्द्र फिर बोले–तुम्हें मालूम है, इस क्रिया में कितने दिन लगे?
देवप्रिया–मैं क्या जानूं कि कितने दिन लगे?
महेन्द्र–पूरे तीन साल!
देवप्रिया–तीन साल! तीन साल से तुम मेरे लिए यह तपस्या कर रहे हो?
महेन्द्र–तीन क्या, अगर तीस साल भी यह तपस्या करनी पड़ती, तो भी मैं न घबराता।
देवप्रिया ने सकुचाते हुए पूछा-ऐसा तो न होगा कि कुछ ही दिनों में यह ‘चार दिन की चटक चांदनी फिर अंधेरा पाख’ हो जाए?
महेन्द्र–नहीं प्रिये, इसकी कोई शंका नहीं।
देवप्रिया–और हम इस वक्त हैं कहाँ?
महेन्द्र–एक पर्वत की गुफा में। मैंने अपने राज्याधिकार मंत्री को सौंप दिए और तुम्हें लेकर यहाँ चला आया। राज्य की चिंताओं में पड़कर मैं यह सिद्धि कभी न प्राप्त कर सकता था। तुम्हारे लिए मैं ऐसे-ऐसे कई राज्य त्याग सकता था।
देवप्रिया को अब ऐसी वस्तु मिल गई थी, जिसके सामने राज्य वैभव की कोई हस्ती न थी। वन्य जीवन की कल्पना उसे अत्यंत सुखद जान पड़ी। प्रेम का आनंद भोगने के लिए, स्वामी के प्रति अपनी भक्ति दिखाने के लिए यहां जितने मौके थे, उतने राजभवन में कहाँ मिल सकते थे? उसे विलास की लेशमात्र भी आकांक्षा न थी, वह पतिप्रेम का आनंद उठाना चाहती थी। प्रसन्न होकर बोली-यह तो मेरे मन की बात हुई।
महेन्द्र ने चकित होकर पूछा–मुझे खुश करने के लिए यह बात कह रही हो या दिल से? मुझे तो इस विषय में बड़ी शंका थी।
देवप्रिया-नहीं प्राणनाथ, दिल से कह रही हूँ। मेरे लिए जहां तुम हो, वहीं सब कुछ है। महेन्द्र ने मुस्कराकर कहा–अभी तुमने इस जीवन के कष्टों का विचार नहीं किया। ज्येष्ठ-वैशाख की लू और लपट, शीतकाल की हड्डियों में चुभने वाली हवा और वर्षा की मूसलाधार वृष्टि की कल्पना तुमने नहीं की। मुझे भय है, शायद तुम्हारा कोमल शरीर उन कष्टों को न सह सकेगा।
देवप्रिया ने नि:शंक भाव से कहा–तुम्हारे साथ मैं सब कुछ आनंद से सह सकती हूँ।
उसी वक्त देवप्रिया ने गुफा से बाहर निकलकर देखा, तो चारों ओर अंधकार छाया हुआ था, लेकिन एक ही क्षण में उसे वहां की सब चीजें दिखाई देने लगीं। अंधकार वही था, पर उसकी आंखें उसमें प्रवेश कर गई थीं। सामने ऊंची पहाड़ियों की श्रेणियां अप्सराओं के विशाल भवनों की-सी मालूम होती थीं। दाहिनी ओर वृक्षों के समूह साधुओं की कुटियों के समान दीख पड़ते थे और बाईं ओर एक रत्नजटित नदी किसी चंचल पनिहारिन की भांति मीठे राग गाती, इठलाती चली जाती थी। फिर उसे गुफा से नीचे उतरने का मार्ग साफ-साफ दिखाई देने लगा। अंधकार वही था, पर उसमें कितना प्रकाश आ गया था।
उसी क्षण देवप्रिया के मन में एक विचित्र शंका उत्पन्न हुई–मेरा यह निकृष्ट जीवन कहीं फिर तो सर्वनाश न कर देगा?
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