चैप्टर 31 गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 31 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online
Chapter 31 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti
ट्रेन प्लेटफार्म पर आ गयी थी। सेकेंड क्लास में चंदर ने इन लोगों का बिस्तर लगवा दिया। सीट रिजर्व करवा दी। गाड़ी छूटने में अभी घंटा-भर देर थी। सुधा की आँखों में विचित्र-सा भाव था। कल तक की दृढ़ता, तेज, उल्लास बुझ गया था और अजब-सी कातरता आ गयी थी। वह चुप बैठी थी। चंदर से जब नहीं देखा गया, तो वह उठकर प्लेटफार्म पर टहलने लगा। कैलाश भी उतर गया। दोनों बातें करने लगे। सहसा कैलाश ने चंदर के कन्धे पर हाथ रखकर कहा, ”हाँ यार, एक बात बहुत जरूरी थी।”
”क्या?”
”इन्होंने तुमसे बिनती के बारे में कुछ कहा?”
”कहा था!”
”तो क्या सोचा तुमने?”
”मैं शादी-वादी नहीं करूँगा।”
”यह सब आदर्शवाद मुझे अच्छा नहीं लगा, और फिर उससे शादी करके सच पूछो, तो बहुत बड़ी बात करोगे तुम! उस घटना के बाद अब ब्राह्मणों में तो वर उसे मिलने से रहा। और ये कह रही थीं कि वह तुम्हें मानती भी बहुत है।”
”हाँ, लेकिन इसके मतलब यह नहीं कि मैं शादी कर लूँ। मुझे बहुत कुछ करना है।”
”अरे जाओ यार, तुम सिवा बातों के कुछ नहीं कर सकते।”
”हो सकता है।” चंदर ने बात टाल दी। वह शादी तो नहीं ही करेगा।
थोड़ी देर बाद चंदर ने पूछा, ”इन्हें दिल्ली कब भेजोगे?”
”अभी तो जिस दिन मैं जाऊँगा, उस दिन ये दिल्ली मेरे साथ जाएँगी, लेकिन दूसरे दिन शाहजहाँपुर लौट जाएँगी।”
”क्यों?”
”अभी माँ बहुत बिगड़ी हुई हैं। वह इन्हें आने थोड़े ही देती थीं। वह तो लखनऊ के बहाने मैं इन्हें ले आया। तुम शंकर भइया से कभी जिक्र मत करना-अब दिल्ली तो इसलिए चली जाएँ कि मैं दो-तीन महीने बाद लौटूँगा…फिर शायद सितम्बर, अक्टूबर में ये तीन-चार महीने के लिए दिल्ली जाएँगी। यू नो शी इज कैरीइङ्!”
”हाँ, अच्छा!”
”हाँ, यही तो बात है, पहला मौका है।”
दोनों लौटकर कम्पार्टमेंट में बैठ गये।
सुधा बोली, ”तो सितम्बर में आओगे न, चंदर?”
”हाँ-हाँ!”
”जरूर से? फिर वक्त कोई बहाना न बना देगा।”
”जरूर आऊँगा!”
कैलाश उतरकर कुछ लेने गया तो सुधा ने अपनी आँखों से आँसू पोंछकर झुककर चंदर के पाँव छू लिये और रोकर बोली, चंदर, अब बहुत टूट चुकी हूँ…अब हाथ न खींच लेना…” उसका गला रुँध गया।
चंदर ने सुधा के हाथों को अपने हाथ में ले लिया और कुछ भी नहीं बोला। सुधा थोड़ी देर चुप रही, फिर बोली-
चंदर चुप क्यों हो? अब तो नफरत नहीं करोगे? मैं बहुत अभागी हूँ, देवता! तुमने क्या बनाया था और अब क्या हो गयी!…देखो, अब चिठ्ठी लिखते रहना। नहीं तो सहारा टूट जाता है…” और फिर वह रो पड़ी।
कैलाश कुछ किताबें और पत्रिकाएँ खरीदकर वापस आ गया। दोनों बैठकर बातें करते रहे। यह निश्चय हुआ कि जब कैलाश लौटेगा, तो बजाय बम्बई से सीधे दिल्ली जाने के, वह प्रयाग से होता हुआ जाएगा।
गाड़ी चली, तो चंदर ने कैलाश को बहुत प्यार से गले लगा लिया। जब तक गाड़ी प्लेटफॉर्म के अन्दर रही, सुधा सिर निकाले झाँकती रही। प्लेटफार्म के बाहर भी पीली चाँदनी में सुधा का फहराता हुआ आँचल दिखता रहा। धीरे-धीरे वह एक सफेद बिन्दु बनकर अदृश्य हो गया। गाड़ी एक विशाल अजगर की तरह चाँदनी में रेंगती चली जा रही थी।
जब मन में प्यार जाग जाता है, तो प्यार की किरण बादलों में छिप जाती है। अजब थी चंदर की किस्मत! इस बार तो, सुधा गयी थी, तो उसके तन-मन को एक गुलाबी नशे में सराबोर कर गयी थी। चंदर उदास नहीं था। वह बेहद खुश था। खूब घूमता था और गरमी के बावजूद खूब काम करता था। अपने पुराने नोट्स निकाल लिये थे और एक नयी किताब की रूपरेखा सोच रहा था। उसे लगता था कि उसका पौरुष, उसकी शक्ति, उसका ओज, उसकी दृढ़ता, सभी कुछ लौट आया है। उसे हरदम लगता कि गुलाबी पाँखुरियों की एक छाया उसकी आत्मा को चूमती रहती है। वह जब कभी लेटता, तो उसे लगता कि सुधा फूलों के धनुष की तरह उसके पलँग के आर-पार पाटी पर हाथ टेके बैठी है। उसे लगता-कमरे में अब भी धूप की सौरभ लहरा रही है और हवाओं में सुधा के मधुर कंठ के श्लोक गूँज रहे हैं।
दो ही दिन में चंदर को लग रहा था कि उसकी जिंदगी में जहाँ जो कुछ टूट-फूट गया है, वह सब सँभल रहा है। वह सब अभाव धीरे-धीरे भर रहा है। उसके मन का पूजा-गृह खँडहर हो चुका था, सहसा उस पर जैसे किसी ने आँसू छिड़ककर जीवन के वरदान से अभिषिक्त कर दिया था। पत्थर के बीच दबकर पिसे हुए पूजा-गीत फिर से सस्वर हो उठे थे। मुरझाये हुए पूजा-फूलों की पाँखुरियों में फिर रस छलक आया था और रंग चमक उठे थे। धीरे-धीरे मन्दिर का कँगूरा फिर सितारों से समझौता करने की तैयारी करने लगा था। चंदर की नसों में वेद-मन्त्रों की पवित्रता और ब्रज की वंशी की मधुराई पलकों में पलकें डालकर नाच उठी थी। सारा काम जैसे वह किसी अदृश्य आत्मा की आत्मा की आज्ञा से करता था। वह आत्मा सिवा सुधा के और भला किसकी थी! वह सुधामय हो रहा था। उसके कदम-कदम में, बात-बात में, साँस-साँस में सुधा का प्यार फिर से लौट आया था।
तीसरे दिन बिनती का एक पत्र आया। बिनती ने उसे दिल्ली बुलाया था और मामाजी (डॉक्टर शुक्ला) भी चाहते थे कि चंदर कुछ दिन के लिए दिल्ली चला आये तो अच्छा है। चंदर के लिए कुछ कोशिश भी कर रहे थे। उसने लिख दिया कि वह मई के अन्त में या जून के प्रारम्भ में आएगा। और बिनती को बहुत, बहुत-सा स्नेह। उसने सुधा के आने की बात नहीं लिखी क्योंकि कैलाश ने मना कर दिया था।
सुबह चंदर गंगा नहाता, नयी पुस्तकें पढ़ता, अपने नोट्स दोहराता। दोपहर को सोता और रेडियो बजाता, शाम को घूमता और सिनेमा देखता, सोते वक्त कविताएँ पढ़ता और सुधा के प्यार के बादलों में मुँह छिपाकर सो जाता। जिस दिन कैलाश जाने वाला था, उसी दिन उसका एक पत्र आया कि वह और सुधा दिल्ली आ गये हैं। शंकर भइया और नीलू उसे पहुँचाने बम्बई जाएँगे। चंदर सुधा के इलाहाबाद जाने का जिक्र किसी को भी न लिखे। यह उसके और चंदर के बीच की बात थी। खत के नीचे सुधा की कुछ लाइनें थीं।
चंदर,
राम-राम। तुमने मुझे जो साड़ी दी थी, वह क्या अपनी भावी श्रीमती के नाप की थी? वह मेरे घुटनों तक आती है। बूढ़ी होकर घिस जाऊँगी, तो उसे पहना करूँगी-अच्छा स्नेह। और जो तुमसे कह आयी हूँ उन बातों का ध्यान रहेगा न? मेरी तन्दुरुस्ती ठीक है। इधर मैंने गाँधीजी की आत्मकथा पढ़नी शुरू की है।
तुम्हारी-सुधा।
”…और हाँ, लालाजी! मिठाई खिलाओ, दिल्ली में बहुत खबर है कि शरणार्थी विभाग में प्रयाग के एक प्रोफेसर आने वाले हैं!”
कैलाश तो अब बम्बई चल दिया होगा। बम्बई के पते से उसने बधाई का एक तार भेज दिया और सुधा को एयर मेल से उसने एक खत भेजा जिसमें उसने बहुत-सी मिठाइयों का चित्र बना दिया था।
लेकिन वह पसोपेश में पड़ गया। दिल्ली जाए या न जाए। वह अपने अन्तर्मन से सरकारी नौकरी का विरोधी था। उसे तत्कालीन भारतीय सरकार और ब्रिटिश सरकार में ज्यादा अन्तर नहीं लगता था। फिर हर दृष्टिकोण से वह समाजवादियों के अधिक समीप था। और अब वह सुधा से वायदा कर चुका था कि वह काम करेगा। ऊँचा बनेगा। प्रसिद्ध होगा, लेकिन पद स्वीकार कर ऊँचा बनना उसके चरित्र के विरुद्ध था। किन्तु डॉक्टर शुक्ला कोशिश कर कर रहे थे। चंदर केन्द्रीय सरकार के किसी ऊँचे पद पर आए, यह उनका सपना था। चंदर को कॉलेज की स्वच्छन्द और ढीली नौकरी पसन्द थी। अन्त में उसने यह सोचा कि पहले नौकरी स्वीकार कर लेगा। बाद में फिर कॉलेज चला आएगा-एक दिन रात को जब वह बिजली बुझाकर, किताब बन्द कर सीने पर रखकर सितारों को देख रहा था और सोच रहा था कि अब सुधा दिल्ली लौट गयी होगी, अगर दिल्ली रह गया तो बँगले में किसे टिकाया जाएगा…इतने में किसी व्यक्ति ने फाटक खोलकर बँगले में प्रवेश किया। उसे ताज्जुब हुआ कि इतनी रात को कौन आ सकता है, और वह भी साइकिल लेकर! उसने बिजली जला दी। तार वाला था।
साइकिल खड़ी कर, तार वाला लॉन पर चला गया और तार दे दिया। दस्तखत करके उसने लिफाफा फाड़ा। तार डॉक्टर साहब का था। लिखा था कि ”अगली ट्रेन से फौरन चले आओ। स्टेशन पर सरकारी कार होगी सलेटी रंग की।” उसके मन ने फौरन कहा, चंदर, हो गये तुम केन्द्र में!
उसकी आँखों से नींद गायब हो गयी। वह उठा, अगली ट्रेन सुबह तीन बजे जाती थी। ग्यारह बजे थे। अभी चार घंटे थे। उसने एक अटैची में कुछ अच्छे-से-अच्छे सूट रखे, किताबें रखीं, और माली को सहेजकर चल दिया। मोटर को स्टेशन से वापस लाने की दिक्कत होती, ड्राइवर अब था नहीं, अत: नौकर को अटैची देकर पैदल चल दिया। राह में सिनेमा से लौटता हुआ रिक्शा मिल गया।
चंदर ने सेकेंड क्लास का टिकट लिया और ठाठ से चला। कानपुर में उसने सादी चाय पी और इटावा में रेस्तराँ-बार में जाकर खाना खाया। उसके बगल में मारवाड़ी दम्पति बैठे थे जो सेकेंड क्लास का किराया खर्च करके प्रायश्चितस्वरूप एक आने की पकौड़ी और दो आने की दालमोठ से उदर-पूर्ति कर रहे थे। हाथरस स्टेशन पर एक मजेदार घटना घटी। हाथरस में छोटी और बड़ी लाइनें क्रॉस करती हैं। छोटी लाइन ऊपर पुल पर खड़ी होती है। स्टेशन के पास जब ट्रेन धीमी हुई तो सेठजी सो रहे थे। सेठानी ने बाहर झाँककर देखा और निस्संकोच उनके पृथुल उदर पर कर-प्रहार करके कहा, ”हो! देखो रेलगाड़ी के सिर पर रेलगाड़ी!” सेठ एकदम चौंककर जागे और उछलकर बोले, ”बाप रे बाप! उलट गयी रेलगाड़ी। जल्दी सामान उतार। लुट गये राम! ये तो जंगल है। कहते थे जेवर न ले चल।”
चंदर खिलखिलाकर हँस पड़ा। सेठजी ने परिस्थिति समझी और चुपचाप बैठ गये। चंदर करवट बदलकर फिर पढ़ने लगा।
इतने में ऊपर की गाड़ी से उतर कर कोई औरत हाथ में एक गठरी लिये आयी और अन्दर ज्यों ही घुसी कि मारवाड़ी बोला, ”बुड्ढी, यह सेकेंड क्लास है।”
”होई! सेकेण्ड-थर्ड तो सब गोविन्द की माया है, बच्चा!”
चंदर का मुँह दूसरी ओर था, लेकिन उसने सोचा गोविन्दजी की माया का वर्णन और विश्लेषण करते हुए रेल के डब्बों के वर्गीकरण को भी मायाजाल बताना शायद भागवतकार की दिव्यदृष्टि से सम्भव होगा। लेकिन यह भी मारवाड़ी कोई सुधा तो था नहीं कि वैष्णव साहित्य और गोविन्दजी की माया का भक्त होता। जब उसने कहा-गार्ड साहब को बुलाऊँ? तो बुढ़िया गरज उठी-”बस-बस, चल हुआँ से, गार्ड का तोर दमाद लगत है जौन बुलाइहै। मोटका कद्दू!”
चंदर हँस पड़ा, कम-से-कम गाली की नवीनता पर। दूसरी बात; गाड़ी उस समय ब्रजक्षेत्र में थी, वहाँ यह अवधी का सफल वक्ता कौन है! उसने घूमकर देखा। एक बुढ़िया थी, सिर मुड़ाये। उसने कहीं देखा है इसे!
”कहाँ जाओगी, माई?”
”कानपुर जाबै।”
”लेकिन यह गाड़ी तो दिल्ली जाएगी?”
”तुहूँ बोल्यो टुप्प से! हम ऐसे धमकावे में नै आइत। ई कानपुर जइहै!” उसने हाथ नचाकर चंदर से कहा। और फिर जाने क्यों रुक गयी और चंदर की ओर देखने लगी। फिर बोली, ”अरे चंदर बेटवा, कहाँ से आवत हौ तू!”
”ओह! बुआजी हैं। सिर मुड़ा लिया तो पहचान में ही नहीं आतीं!” चंदर ने फौरन उठकर पाँव छुए। बुआजी वृन्दावन से आ रही थीं। वह बैठ गयीं, बोलीं, ”ऊ नटिनियाँ मर गयी कि अबहिन है?”
”कौन?”
”ओही बिनती!”
”मरेगी क्यों?”
”भइया! सुकुल तो हमार कुल डुबोय दिहिन। लेकिन जैसे ऊ हमरी बिटिया के मड़वा तरे से उठाय लिहिन वैसे भगवान चाही तो उनहू का लड़की से समझी!”
चंदर कुछ नहीं बोला। थोड़ी देर बाद खुद बड़बड़ाती हुई बुआजी बोलीं, ”अब हमें का करै को है। हम सब मोह-माया त्याग दिया। लेकिन हमरे त्याग में कुच्छौ समरथ है तो सुकुल को बदला मिलिहै!”
कानपुर की गाड़ी आयी तो चंदर खुद उन्हें बिठाल आया। विचित्र थीं बुआजी, बेचारी कभी समझ ही नहीं पायीं कि बिनती को उठाकर डॉक्टर साहब ने उपकार किया या अपकार और मजा तो यह है कि एक ही वाक्य के पूर्वार्द्ध में मायामोह से विरक्ति की घोषणा और उत्तरार्द्ध में दुर्वासा का शाप…हिन्दुस्तान के सिवा ऐसे नमूने कहीं भी मिलने मुश्किल हैं। इतने में चंदर की गाड़ी ने सीटी दी। वह भागा। बुआजी ने चंदर का खयाल छोड़कर अपने बगल के मुसाफिर से लड़ना शुरू कर दिया।
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बिराज बहू शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास