चैप्टर 30 नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास, Chapter 30 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi Read Online, Neelkanth Gulshan Nanda Ka Upanyas
Chapter 30 Neelkanth Gulshan Nanda Ka Upanyas
इस समय उसके मस्तिष्क में हुमायूं के वे शब्द घूमने लगे, जो उसने सांत्वना देते हुए कहे थे-‘नफरत की इंतहा में मुहब्बत की सीढ़ी है और तुम औरत हो, हसीन औरत, तूफानों से उलझना तुमने खूब सीखा है।’
आज जीवन के एक और तूफान से वह उलझ रही थी। वह मन-ही-मन अपनी इस सफलता पर मुस्करा रही थी। आनन्द जो कुछ समय पूर्व उसके प्राण लेने की सोच रहा था, अब भंवरा बना उसके गिर्द मंडराएगा।
प्रेम की दुनिया से दूर बेला फिर से घमंड के नशे में डूब गई। आनन्द का झुकाव पुरुष की निर्बलता ही तो थी, वह उसके प्रेम का अनुमान न लगा सकी, उसे किसी तराजू में न तोल सकी।
आहट हुई और बेला ने फिर झुककर बाहर देखना आरंभ कर दिया। आनन्द ने मुस्कराकर खिड़की बंद कर दी और बोला-‘पानी से भीगी जा रही हो, होश नहीं!’
‘आज इस भयंकर रात में होश कहाँ?’ बेला ने इस ढंग से कहा कि आनन्द के शरीर में बिजली-सी दौड़ गई। वह संभलते हुए बोला-
‘कपड़े बदल डालो, ठंड लगने का डर है।’
‘यहाँ तो शरीर में आग लग रही है, देखिए न!’-बेला ने आनन्द का हाथ अपनी छाती पर रखते हुए कहा-‘इसी गर्मी में सब सूख जाएगा।’
आनन्द ने अनुभव किया, बेेला का शरीर दहक रहा था। उसकी आँखों की लालिमा से प्रतीत होता था मानो उसने पी रखी हो।
बेला उन्माद-भरी आँखों से उसे देखे जा रही थी। आनन्द ने बच्चों की भांति उसे थपथपाते हुए कहा-‘बालक न बनो और ये गीले कपड़े उतार दो।’
‘मेरे पास तो यही एक जोड़ा है।’
‘तो क्या सामान…’
‘बस! अकेली जान, अपने साथ और कुछ भी तो नहीं लाई सिवाए एक’… कहते-कहते वह रुक गई।
‘क्या?’ आनन्द ने झट से पूछा।
‘एक दिल के।’ बेला ने उसके माथे पर पानी से चिपटी लट को हटाते हुए कहा।
आनन्द गुदगुदा उठा और चंद क्षण सोचने के बाद बोला-‘अच्छा, तो मैं तुम्हारा प्रबंध करता हूँ।’ आनन्द ने शीघ्रता से अपना सूटकेस खोलकर स्लीपिंग सूट निकाला और बेला की ओर बढ़ाते हुए बोला-
‘लो इसे पहन लो।’
‘और आप…’
‘मेरे पास दूसरा है।’
कमरे की बत्ती बंद कर दी गई और दोनों कपड़े बदलने लगे। इस अंधेरे में भी दोनों एक-दूसरे की धड़कन साफ सुन रहे थे।
आनन्द ने कपड़े बदलने के बाद धीरे से पूछा- ‘कर दूँ उजाला।’
‘ठहरिए, एक मिनट।’ बेला ने तेजी से कहा।
आनन्द ने चुपके से दीवार पर लगा बटन दबा दिया। उजाला होते ही उसने देखा कि बेला वहाँ न थी। वह आश्चर्य से दृष्टि घुमाकर कमरे में देखने लगा। उसके पीछे खड़ी बेला उसकी कमर में बांहें डालकर उससे लिपट गई, जैसे वह उस भेष में उसके सामने आने से लजा रही हो।
आनन्द ने खींचकर उसे सामने खड़ा कर दिया। मर्दाने स्लीपिंग सूट में वह भली लग रही थी। ढीला कुर्ता, पैरों में पड़ा पायजामा और निखरा हुआ जोबन-आनन्द ने उसे अपनी बांहों में भर लिया और उसके शरीर की गर्मी अनुभव करने लगा।
बेला ने जब देखा कि वह आनन्द के मन और मस्तिष्क पर छा चुकी है, तो उससे अलग होकर गीले कपड़ों को निचोड़ने लगी।
आनन्द बरामदे में जा ठहरा और सामने फैली झील को देखने लगा। बरसात पहले से कम हो गई थी। परंतु आकाश पर छाई घटाएँ अभी तक अपने सीने में तूफान छिपाए थीं।
जब उसने दोबारा कमरे में प्रवेश किया तो बेला आनन्द का बिस्तर बिछा रही थी। उसने मुस्कराते हुए आनन्द का स्वागत किया। आनन्द ने समीप आकर पूछा-‘परंतु तुम्हारा क्या होगा?’
‘क्यों?’
‘बिस्तर एक और सोने वाले दो।’
‘तो क्या हुआ? एक रात ही तो है, आप सो जाइए, मैं आपके सिरहाने बैठकर रात बिता दूँगी।’
‘यह कैसे हो सकता है? बिस्तर आधा-आधा बांट लेते हैं।’
‘वाह! क्या लिहाफ के दो टुकड़े कीजिएगा।’
‘नहीं तो, परंतु…’
‘परंतु क्या…आधी रात आप आराम कर लें, आधी रात मैं, हिसाब बराबर रहेगा।’
आनन्द हँसने लगा। बेला ने भी उसका साथ दिया। आज बड़े समय पश्चात् दोनों एक साथ खुलकर हँसे थे।
रात का अंधकार बढ़ता गया। बत्ती बंद करने पर कमरे में भी कालिमा का राज्य हो गया। बाहर तेज हवा चल रही थी। बादल कभी-कभी इतनी जोर से गरजते कि बेला डर से कांप उठती।
वह बिस्तर पर किनारे बैठी आनन्द के बालों को सहलाती रही, जो अर्द्ध-निद्रा में लेटा आनन्द ले रहा था। वह जानता था कि बेला बैठी नींद को आँखों से दूर करने के प्रयत्न में है, फिर भी वह लेटा देखता रहा कि कब तक वह यों बैठी रहेगी।
कुछ समय पश्चात् आनन्द की अटैची से पाउडर निकालकर वह धीरे-धीरे उसकी पीठ पर मलने लगी। आनन्द के शरीर में एक गुदगुदी-सी होने लगी। उसे लगा जैसे कोई नन्हा बालक अपने नन्हें-नन्हें नर्म होंठों से उसके शरीर पर प्यार के चिह्न अंकित कर रहा हो। कभी-कभी अनजाने में आनन्द उसका हाथ रोक लेता और उठाकर अपने बेचैन हृदय पर फेरने लगता।
बेला ने धीरे-धीरे अपने पाँव उठाकर बिस्तर पर रख लिए और आनन्द ने ठंड से बचने के लिए उन्हें लिहाफ में कर लिया।
दिन भर की थकी-मांदी बेला झुककर कंधे का सहारा लेकर आराम करने लगी। जैसे ही उसके जलते हुए होंठ आनन्द के कंधे पर लगे, उसके शरीर में बिजली की लहर-सी दौड़ गई। लिहाफ में लिपली बेला के मन की धड़कन उसके कानों में एक मधुर तान भर रही थी।
बिजली की चमक, बादल की गरज, बरसात की बौछार कमरे की खिड़की और किवाड़ों से टकराकर रह जाती। दोनों को इसकी कोई सुध न थी। उनके मन का तूफान इससे कहीं अधिक बढ़कर था।
ठंड बढ़ती गई और बेला धीरे-धीरे पाँव फैलाती लिहाफ में गुम होती गई। दोनों एक-दूसरे के और समीप होते गए। दोनों की धड़कनों ने एक-दूसरे को समझना आरंभ कर दिया।
बाहर बिजली चमकी और साथ ही जोर का धमाका हुआ। बेला डर से आनन्द से लिपट गई।
न जाने दोनों कब तक एक-दूसरे के दिल की धड़कनें अनुभव करते रहे। पानी की बौछार और तेज हवा शोर मचाते रहे, छत पर पानी पत्थर से गिरने की ध्वनि करता रहा, वे इस दुनिया से दूर किसी और ही नशे में खोए हुए थे, जिससे उनके मन की भावनाएँ गीत बनकर संगीत पैदा कर रही थीं।
रात के अंतिम पहर में बारिश थम गई और सवेरे तक आकाश बीनापुर की घाटी में सोना-सा बिखेर गया।
बेला अभी तक लिहाफ ओढ़े सो रही थी। अचानक उसने अनुभव किया कि आनन्द वहाँ नहीं था। उसने आँखें बंद किए ही हाथ से बिस्तर टटोला। वह वास्तव में वहाँ न था, शायद स्नान आदि के लिए चला गया हो। वह आँखें बंद किए पड़ी रही। उसमें इतना भी बल न था कि करवट लेकर उसे देखे। उसका अंग-अंग थकान से शिथिल था। उसका शरीर चूर-चूर हो रहा था।
उसने नींद में खो जाने का प्रयत्न किया और वह सो गई और जाने कब तक यों ही बेसुध सोई रही।
जब उसकी आँखें खुलीं तो धूप काफी निकल आई थी और कमरे की दीवारों पर सुनहरी लेप-सा हो रहा था। वह अंगड़ाई लेते हुए बिस्तर में ही बैठ गई और आँखें मलते चारों ओर देखने लगी। उसका मन एक अज्ञात भय से घबराने लगा। आनन्द वहाँ न था।
उसने अपने शरीर पर आनन्द के ढीले-ढीले कपड़ों को ठीक किया और उठकर गुसलखाने की ओर भागी। वहाँ से वह सीधी कोठी के खाली कमरों को पार करती हुई बाहर निकल गई। आनन्द कहीं भी न था। सामने माली बैठा पौधों को ठीक कर रहा था। बेला को देखते ही वह खड़ा हो गया।
‘साहब कहाँ हैं?’ बेला ने झट पूछा।
‘चले गए।’
‘कहाँ?’ बेला के स्वर में बेचैनी और कंपन थी।
‘बम्बई-सुबह की गाड़ी से।’
बेला सुनकर अभी संभली न थी कि माली ने बढ़कर एक लिफाफा उसके हाथ में दे दिया-‘आपको देने को कह गए हैं।’
बेला ने लिफाफे को कांपती उंगलियों से पकड़ा और फाड़कर सामने चबूतरे पर बैठकर पढ़ने लगी। लिखा था-
‘बेला,
तुम सो रही थीं, जवानी की गहरी और उन्मादी नींद में। जगाना उचित न समझा। मानव की निर्बलता कभी-कभी उसे पागल बना देती है और आज मैं इसी पागलपन में अपने नियम से भटककर तुम्हारे झूठे हाव-भाव का शिकार हो गया था। किंतु सुध आते ही फिर अपने को अकेला पाया और तुम्हारी निद्रा का लाभ उठाकर चल दिया-अपनी मंजिल की ओर, जो तुमसे भिन्न है। आशा है तुम मुझे चोरी के लिए क्षमा करोगी और कभी मेरा पीछा न करोगी।
इसलिए कि तुम जानती हो, हमारे झूठे और बनावटी प्रेम में लहू के कतरे छिपे हैं।
आनन्द’
बेला ने ज्योंही यह पत्र पढ़ा, उसके मन को धक्का-सा लगा। जैसे अचानक मालगाड़ी के अकेले डिब्बे को इंजन ने धक्का दिया हो। पत्र उसकी उंगलियों में मसलकर रह गया और वह क्रोध से दाँत पीसते हुए कमरे में आई।
वह बिस्तर जिस पर रात को दोनों एक-दूसरे के दिल की धड़कनें गिनते रहे थे, उसे खाने को दौड़ा। उसने घृणा से चादर पर पड़ी सलवटों को देखा और एक चीख मारते हुए बिस्तर उठाकर चारपाई से फेंक दिया। कमरे की दीवारें, छत और हर सामान उसकी हँसी उड़ा रहे थे। उसकी बेबसी पर ठहाके लगा रहे थे। आश्चर्य से माली ने भीतर झांकना चाहा, किंतु बेला ने झट से किवाड़ बंद कर दिए। उसकी आँखों से बेबसी के आँसू बह निकले-उसकी जीत हार बन गई। वह क्रोध में आनन्द के उन कपड़ों को मसलने लगी, जो अभी तक उसके शरीर को ढांपे हुए थे। उसने कमीज के सब बटन तोड़ दिए-अब वह एक क्षण भी पहन न सकती थी-उसने उन्हें उतारकर एक ओर फेंक दिया और अपने कपड़े पहन लिए, जो अभी तक कुछ गीले थे।
जब गाड़ी में बैठी वह बम्बई लौट रही थी, उसकी आँखों में बार-बार वह दृश्य घूम जाता, जब रात के अंधेरे में वह आनन्द की बांहों में जकड़ी फूली न समा रही थी। तेज हवा अभी तक उलझे-उलझे बालों से खेल रही थी।
धीरे-धीरे हर दृश्य चला जाता और धुंधला होते-होते ओझल हो जाता-गाड़ी सबको छोड़ आगे बढ़ जाती थी, पर बेला के मन पर लगी चोट न गई और न उसकी पीड़ा कम हुई, बल्कि ज्यों-ज्यों वह बीनापुर से दूर होती गई उसकी बेचैनी बढ़ती गई। रो-रोकर उसकी आँखें सूज गई थीं।
आज का घाव शायद उसके जीवन का पहला और अनोखा घाव था।
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देवदास शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास