चैप्टर 30 गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 30 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online
Chapter 30 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti
करीब घंटा-भर बाद सुधा दूध का गिलास लेकर आयी। चंदर को नींद आ गयी थी। वह चंदर के सिरहाने बैठ गयी-”चंदर, सो गये क्या?”
”क्यों?” चंदर घबराकर उठ बैठा।
”लो, दूध पी लो।” सुधा बोली।
”दूध हम नहीं पिएँगे।”
”पी लो, देखो बर्फ और शरबत मिला दिया है, पीकर तो देखो!”
”नहीं, हम नहीं पिएँगे। अब जाओ, हमें नींद लग रही है।” चंदर गुस्सा था।
”पी लो मेरे राजदुलारे, चमक रहे हैं चाँद-सितारे…” सुधा ने लोरी गाते हुए चंदर को अपनी गोद में खींचकर बच्चों की तरह गिलास चंदर के मुँह से लगा दिया। चंदर ने चुपचाप दूध पी लिया। सुधा ने गिलास नीचे रखकर कहा, ”वाह, ऐसे तो मैं नीलू को दूध पिलाती हूँ।”
”नीलू कौन?”
”अरे मेरा भतीजा! शंकर बाबू का लड़का।”
”अच्छा!”
चंदर, तुमने पंखा तो छत पर लगा दिया है। तुम कैसे सोओगे?”
”मुझे नींद आ जाएगी।’
चंदर फिर लेट गया। सुधा उठी नहीं। वह दूसरी पाटी से हाथ टेककर चंदर के वक्ष के आर-पार फूलों के धनुष-सी झुककर बैठ गयी। एकादशी का स्निग्ध पवित्र चन्द्रमा आसमान की नीली लहरों पर अधखिले बेल के फूल की तरह काँप रहा था। दूध में नहाये हुए झोंके चाँदनी से आँख-मिचौली खेल रहे थे। चंदर आँखें बन्द किये पड़ा था और उसकी पलकों पर, उसके माथे पर, उसके होठों पर चाँदी की पाँखुरियाँ बरस रही थीं। सुधा ने चंदर का कॉलर ठीक किया और बड़े ही मधुर स्वर में पूछा, चंदर, नींद आ रही है?”
”नहीं, नींद उचट गयी!” चंदर ने आँख खोलकर देखा। एकादशी का पवित्र चन्द्रमा आकाश में था और पूजा से अभिषिक्त एकादशी की उदास चाँदनी उसके वक्ष पर झुकी बैठी थी। उसे लगा जैसे पवित्रता और अमृत का चम्पई बादल उसके प्राणों में लिपट गया है।
उसने करवट बदलकर कहा, ”सुधा, जिंदगी का एक पहलू खत्म हुआ। दर्द की एक मंजिल खत्म हो गयी। थकान भी दूर हो गयी, लेकिन अब आगे का रास्ता समझ में नहीं आता। क्या करूँ?”
”करना बहुत है, चंदर! अपने अन्दर की बुराई से लड़ लिये, अब बाहर की बुराई से लड़ो। मेरा तो सपना था चंदर कि तुम बहुत बड़े आदमी बनोगे। अपने बारे में तो जो कुछ सोचा था, वह सब नसीब ने तोड़ दिया। अब तुम्हीं को देखकर कुछ सन्तोष मिलता है। तुम जितने ऊँचे बनोगे, उतना ही चैन मिलेगा। वर्ना मैं तो नरक में भुन रही हूँ।”
”सुधा, तुम्हारी इसी बात से मेरी सारी हिम्मत, सारा बल टूट जाता है। अगर तुम अपने परिवार में सुखी होती, तो मेरा भी साहस बँधा रहता। तुम्हारा यह हाल, तुम्हारा यह स्वास्थ्य, यह असमय वैराग्य और पूजा, यह घुटन देखकर लगता है क्या करूँ? किसके लिए करूँ?”
”मैं भी क्या करूँ, चंदर! मैं यह जानती हूँ कि अब ये भी मेरा बहुत खयाल रखते हैं, लेकिन इस बात पर मुझे और भी दुख होता है। मैं इन्हें सन्तुलित नहीं कर पाती और उनकी खुलकर उपेक्षा भी नहीं कर पाती। यह अजब-सा नरक है मेरा जीवन भी, लेकिन यह जरूर है चंदर कि तुम्हें ऊँचा देखकर मैं यह नरक भी भोग ले जाऊँगी। तुम दिल मत छोटा करो। एक ही जिंदगी की तो बात है, उसके बाद…”
”लेकिन मैं तो पुनर्जन्म में विश्वास ही नहीं करता।”
”तब तो और भी अच्छा है, इसी जन्म में जो सुख दे सकते हो, दे लो। जितना ऊँचे उठ सकते हो, उठ लो।”
”तुम जो रास्ता बताओ, वह मैं अपनाने के लिए तैयार हूँ। मैं सोचता हूँ, अपने व्यक्तित्व से ऊपर उठूँ…लेकिन मेरे साथ एक शर्त है। तुम्हारा प्यार मेरे साथ रहे!”
”तो वह अलग कब रहा, चंदर! तुम्हीं ने जब चाहा मुँह फेर लिया। लेकिन अब नहीं। काश कि तुम एक क्षण का भी अनुभव कर पाते कि तुमसे दूर वहाँ, वासना के कीचड़ में फँसी हुई मैं कितनी व्याकुल, कितनी व्यथित हूँ, तो तुम ऐसा कभी न करते! मेरे जीवन में जो कुछ अपूर्णता रह गयी है चंदर, उसकी पूर्णता, उसकी सिद्धि तुम्हीं हो। तुम्हें मेरे जन्म-जन्मान्तर की शान्ति की सौगन्ध है, तुम अब इस तरह न करना! बस ब्याह कर लो और दृढ़ता से ऊँचाई की ओर चलो।”
”ब्याह के अलावा तुम्हारी सब बातें स्वीकार हैं। लेकिन फिर भी तुम अपना प्यार वापस नहीं लोगी कभी?”
”कभी नहीं।”
”और हम कभी नाराज भी हो जाएँ, तो बुरा नहीं मानोगी?”
”नहीं!”
”और हम कभी फिसलें तो तुम तटस्थ होकर नहीं बैठोगी, बल्कि बिना डरे हुए मुझे खींच लाओगी उस दलदल से?”
”यह कठिन है चंदर, आखिर मेरे भी बन्धन हैं। लेकिन खैर…अच्छा यह बताओ, तुम दिल्ली कब आओगे?”
”अब दिल्ली तो दशहरे में आऊँगा। गर्मियों में यहीं रहूँगा।…लेकिन हो सका तो लौटने के बाद शाहजहाँपुर आऊँगा।”
सुधा चुपचाप बैठी रही। चंदर भी चुपचाप लेटा रहा। थोड़ी देर बाद चंदर ने सुधा की हथेली अपने हाथों पर रख ली और आँखें बन्द कर लीं। जब वह सो गया, तो सुधा ने धीरे-से हाथ उठाया, खड़ी हो गयी। थोड़ी देर अपलक उसे देखती रही और धीरे-धीरे चली आयी।
दूसरे दिन सुबह सुधा ने आकर चंदर को जगाया। चंदर उठ बैठा तो सुधा बोली-”जल्दी से नहा लो, आज तुम्हारे साथ पूजा करेंगे!”
चंदर उठ बैठा। नहा-धोकर आया तो सुधा ने चौकी के सामने दो आसन बिछा रखे थे। चौकी पर धूप सुलग रही थी और फूल गमक रहे थे। ढेर-के-ढेर बेलें और अगस्त के फूल। चंदर को बिठाकर सुधा बैठी। उसने फिर वही वेश धारण कर लिया था। रेशम की धोती और रेशम का एक अन्तर्वासक, गीले बाल पीठ पर लहरा रहे थे।
”लेकिन मैं बैठा-बैठा क्या करूँगा?” उसने पूछा।
सुधा कुछ नहीं बोली। चुपचाप अपना काम करती गयी। थोड़ी देर बाद उसने भागवत खोली और बड़े मधुर स्वरों में गोपिका-गीत पढ़ती रही। चंदर संस्कृत नहीं समझता था, पूजा में विश्वास नहीं करता था, लेकिन वह क्षण जाने कैसा लग रहा था! चंदर की साँस में धूप की पावन सौरभ के डोरे गुँथ गये थे। उसके घुटनों पर रह-रहकर सद्य:स्नाता सुधा के भीगे केशों से गीले मोती चू पड़ते थे। कृशकाय, उदास और पवित्र सुधा के पूजा के प्रसाद जैसे मधुर स्वर में श्रीमद्भागवत के श्लोक उसकी आत्मा को अमृत से धो रहे थे। लगता था, जैसे इस पूजा की श्रद्धान्वित बेला में उसके जीवन-भर की भूलें, कमजोरियाँ, गुनाह सभी धुलता जा रहा था।…जब सुधा ने भागवत बन्द करके रख दिया तो पता नहीं क्यों चंदर ने प्रणाम कर लिया-भागवत को या भागवत की पुजारिन को, यह नहीं मालूम।
थोड़ी देर बाद सुधा ने पूजा की थाली उठायी और उसने चंदर के माथे पर रोली लगा दी।
”अरे मैं!”
”हाँ तुम! और कौन…मेरे तो दूसरा न कोई!” सुधा बोली और ढेर-के-ढेर फूल चंदर के चरणों पर चढ़ाकर, झुककर चंदर के चरणों को प्रणाम कर लिया। चंदर ने घबराकर पाँव खींच लिए, ”मैं इस योग्य नहीं हूँ, सुधा! क्यों लज्जित कर रही हो?”
सुधा कुछ नहीं बोली…अपने आँचल से एक छलकता हुआ आँसू पोंछकर नाश्ता लाने चली गयी।
जब वह यूनिवर्सिटी से लौटा तो देखा, सुधा मशीन रखे कुछ सिल रही है। चंदर ने कपड़े बदलकर पूछा, ”कहो, क्या सिल रही हो?”
”रूमाल और बनियाइन! कैसे काम चलता था तुम्हारा? न सन्दूक में एक भी रूमाल है, न एक भी बनियाइन। लापरवाही की भी हद है। तभी कहती हूँ ब्याह कर लो!”
”हाँ, किसी दर्जी की लड़की से ब्याह करवा दो!” चंदर खाट पर बैठ गया और सुधा मशीन पर बैठी-बैठी सिलती रही। थोड़ी देर बाद सहसा उसने मशीन रोक दी और एकदम से घबरा कर उठी।
”क्या हुआ, सुधा…”
”बहुत दर्द हो रहा है….” वह उठी और खाट पर बेहोश-सी पड़ रही। चंदर दौड़कर पंखा उठा लाया। और झलने लगा। ”डॉक्टर बुला लाऊँ?”
”नहीं, अभी ठीक हो जाऊँगी। उबकाई आ रही है!” सुधा उठी।
”जाओ मत, मैं पीकदान उठा लाता हूँ।” चंदर ने पीकदान उठाकर रख दिया और सुधा की पीठ सहलाने लगा। फिर सुधा हाँफती-सी लेट गयी। चंदर दौड़कर इलायची और पानी ले आया। सुधा ने इलायची खायी और फिर पड़ रही। उसके माथे पर पसीना झलक आया।
”अब कैसी तबीयत है, सुधा?”
”बहुत दर्द है अंग-अंग में…मशीन चलाना नुकसान कर गया।” सुधा ने बहुत क्षीण स्वरों में कहा।
”जाऊँ किसी डॉक्टर को बुला लाऊँ?”
”बेकार है, चंदर! मैं तो लखनऊ में दिखा आयी। इस रोग का क्या इलाज है। यह तो जिंदगी-भर का अभिशाप है!”
”क्या बीमारी बतायी तुम्हें?”
”कुछ नहीं।”
”बताओ न?”
”क्या बताऊँ, चंदर!” सुधा ने बड़ी कातर निगाहों से चंदर की ओर देखा और फूट-फूटकर रो पड़ी। बुरी तरह सिसकने लगी। सुधा चुपचाप पड़ी कराहती रही। चंदर ने अटैची में से दवा निकालकर दी। कॉलेज नहीं गया। दो घंटे बाद सुधा कुछ ठीक हुई। उसने एक गहरी साँस ली और तकिये के सहारे उठकर बैठ गयी। चंदर ने और कई तकिये पीछे रख दिये। दो ही घंटे में सुधा का चहेरा पीला पड़ा गया। चंदर चुपचाप उदास बैठा रहा।
उस दिन सुधा ने खाना नहीं खाया। सिर्फ फल लिये। दोपहर को दो बजे भयंकर लू में कैलाश वापस आया और आते ही चंदर से पूछा, ”सुधा की तबीयत तो ठीक रही?” यह जानकर कि सुबह खराब हो गयी थी, वह कपड़े उतारने के पहले सुधा के कमरे में गया और अपने हाथ से दवा देकर फिर कपड़े बदलकर सुधा के कमरे में जाकर सो गया। बहुत थका मालूम पड़ता था।
चंदर आकर अपने कमरे में कॉपियाँ जाँचता रहा। शाम को कामिनी, प्रभा तथा कई लड़कियाँ, जिन्हें गेसू ने खबर दे दी थी, आयीं और सुधा और कैलाश को घेरे रहीं। चंदर उनकी खातिर-तवज्जो में लगा रहा। रात को कैलाश ने उसे अपनी छत पर बुला लिया और चंदर के भविष्य के कार्यक्रम के बारे में बात करता रहा। जब कैलाश को नींद आने लगी, तब वह उठकर लॉन पर लौट आया और लेट गया।
बहुत देर तक उसे नींद नहीं आयी। वह सुधा की तकलीफों के बारे में सोचता रहा। उधर सुधा बहुत देर तक करवटें बदलती रही। यह दो दिन सपनों की तरह बीत गये और कल वह फिर चली जाएगी चंदर से दूर, न जाने कब तक के लिए!
सुबह से ही सुधा जैसे बुझ गयी थी। कल तक जो उसमें उल्लास वापस आ गया था, वह जैसे कैलाश की छाँह ने ही ग्रस लिया था। चंदर के कॉलेज का आखिरी दिन था। चंदर6 कैलाश को ले गया और अपने मित्रों से, प्रोफेसरों से उसका परिचय करा लाया। एक प्रोफेसर, जिनकी आदत थी कि वे कांग्रेस सरकार से सम्बन्धित हर व्यक्ति को दावत जरूर देते थे, उन्होंने कैलाश को भी दावत दी क्योंकि वह सांस्कृतिक मिशन में जा रहा था।
वापस जाने के लिए रात की गाड़ी तय रही। हफ्ते-भर बाद ही कैलाश को जाना था, अत: वह ज्यादा नहीं रुक सकता था। दोपहर का खाना दोनों ने साथ खाया। सुधा महराजिन का लिहाज करती थी, अत: वह कैलाश के साथ खाने नहीं बैठी। निश्चय हुआ कि अभी से सामान बाँध लिया जाए ताकि पार्टी के बाद सीधे स्टेशन जा सकें।
जब सुधा ने चंदर के लाये हुए कपड़े कैलाश को दिखाये, तो उसे बड़ा ताज्जुब हुआ। लेकिन उसने कुछ नहीं कहा, कपड़े रख लिये और चंदर से जाकर बोला, ”अब जब तुमने लेने-देने का व्यवहार ही निभाया है तो यह बता दो, तुम बड़े हो या छोटे?”
”क्यों?” चंदर ने पूछा।
”इसलिए कि बड़े हो तो पैर छूकर जाऊँ, और छोटे हो तो रुपया देकर जाऊँ!” कैलाश बोला। चंदर हँस पड़ा।
घर में दोपहर से ही उदासी छा गयी। न चंदर दोपहर को सोया, न कैलाश और न सुधा। शाम की पार्टी में सब लोग गये। वहाँ से लौटकर आये तो सुधा को लगा कि उसका मन अभी डूब जाएगा। उसे शादी में भी जाना इतना नहीं अखरा था जितना आज अखर रहा था। मोटर पर सामान रखा जा रहा था, तो वह खम्भे से टिककर खड़ी रो रही थी। महराजिन एक टोकरी में खाने का सामान बाँध रही थी।
कैलाश ने देखा तो बोला, ”रो क्यों रही हो? छोड़ जाएँ तुम्हें यहीं? चंदर से सँभलेगा!”
सुधा ने आँसू पोंछकर आँखों से डाँटा-”महराजिन सुन रही हैं कि नहीं।”
मोटर तक पहुँचते-पहुँचते सुधा फूट-फूटकर रो पड़ी और महराजिन उसे गले से लगाकर आँसू पोंछने लगीं। फिर बोलीं, ”रोवौ न बिटिया! अब छोटे बाबू का बियाह कर देव तो दुई-तीन महीना आयके रह जाव। तोहार सास छोडि़हैं कि नैं?”
सुधा ने कुछ जवाब नहीं दिया और पाँच रुपये का नोट महराजिन के हाथ में थमाकर आ बैठी।
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