चैप्टर 3 गाइड आर. के. नारायण का उपन्यास | Chapter 3 The Guide R. K. Narayan Novel In Hindi

चैप्टर 3 गाइड आर. के. नारायण का उपन्यास Chapter 3 The Guide R. K. Narayan Novel In Hindi, Chapter 3 The Guide R. K. Narayan Ka Upanyas 

Chapter 3 The Guide R. K. Narayan Novel In Hindi

Chapter 3 The Guide R. K. Narayan Novel In Hindi

‘हमारे घर के सामने खेत पर बड़ी हलचल मची थी । हर रोज़ सुबह शहर से नये लोगों का दल आता और रात तक खेत में जुटा रहता। हम लोगों ने सुना कि वे लोग रेल की लाइन तैयार कर रहे थे । जब खाना खाने के लिए वे बापू की दुकान में आते तो बापू उत्सुक भाव से पूछते, “यहाँ ट्रेनें कब से आना शुरू होंगी?” अगर वे अच्छे मूड में हो तो जवाब देते, “क्या पता, छह या आठ महीने लग जाएं,” अगर बुरे मूड में होते तो कहते, “ऐसे सवाल मत पूछो ! इसके बाद तुम हुक्म दोगे कि हम तुम्हारी दुकान के सामने इंजन लाकर खड़ा करें।” फिर वे संजीदा हँसी हँसने लगते ।

“‘ काम तेज़ी से जारी था। इमली के पेड़ के नीचे मेरी खेल-कूद की आज़ादी कुछ हद तक खत्म हो गई, क्योंकि अब वहाँ ट्रक आकर खड़े होने लगे। मैं किसी ट्रक में चढ़कर खेलने लगता। मेरी तरफ ध्यान देने की फुर्सत किसी को नहीं थी । सारा दिन मैं ट्रकों के भीतर घुसा रहता और मेरे कपड़ों में सुर्ख रोड़ी के दाग लग जाते। ज़्यादातर ट्रक लाल रोड़ी लेकर आते थे, खेत के एक कोने में जिसकी ढेरी लगाई जा रही थी। मेरे लिए यह दृश्य बड़ा लुभावना था। इस टीले पर खड़े होकर मैं दूर-दूर तक के स्थानों को देख सकता था । वहाँ से मेप्पी पहाड़ियों की धुँधली रेखाएँ भी नज़र आती थीं। मैं भी पुरुषों की तरह व्यस्त हो जाता। मैं सारा दिन उन मजदूरों के संग गुज़ारता जो रेल की लाइन बिछा रहे थे, उनकी बातें सुनता और उनकी हँसी – दिल्लगी में भाग लेता । लकड़ी के स्लीपर और लोहे की चीज़ों से लदे और बहुत-से ट्रक वहाँ आए। हर ओर अनेक प्रकार के सामान के अम्बार लग गए । मैं लोहे के छोटे-छोटे टुकड़े, ढिबरियाँ और पेंच जमा करने लगा और मैंने इस खजाने को माँ के बड़े बक्स के कोने में छिपाकर रख दिया। जहाँ माँ की पुरानी रेशमी साड़ियों के बीच, जिन्हें वे कभी नहीं पहनती थीं, मुझे अपनी चीजें रखने की इजाज़त थी ।

“‘अपनी गायों को चराने वाला एक लड़का टीले के नीचे उस जगह पर पहुँचा जहाँ मैं अकेला अपने-आप कोई खेल खेल रहा था। उसकी गायें टीले के नीचे घास चर रही थीं, जहाँ मजदूर काम कर रहे थे और उस लड़के की इतनी जुर्रत कि वह ढलान पर चढ़ा हुआ वहाँ तक आ पहुँचा था, जहाँ मैं खेल रहा था। मेरे मन में यह भाव पैदा हो गया था कि मैं ही रेल का स्वामी हूँ और मैं उस जगह पर किसी अनधिकारी व्यक्ति का प्रवेश बर्दाश्त नहीं कर सकता था । मैंने गुस्से से चिल्लाकर उस लड़के से कहा, “यहाँ से चले जाओ!”

“‘“क्यों?” उसने पूछा, “मेरी गायें यहाँ पर हैं, मैं उनकी रखवाली करता हूँ।”

‘ ” अपनी गायों को लेकर फौरन भाग जाओ, नहीं तो वे रेल के नीचे कट जाएंगी, क्योंकि रेल बस अब आने ही वाली है । “

” कट जाने दो, तुम्हें क्या पड़ी है?” उसने कहा । इस बात पर मुझे इतने ज़ोर का गुस्सा आया कि मैं चीखकर, “कुतिया के…” जैसी नई सीखी गालियाँ बकता हुआ उस पर झपटा। मेरे हमले का जवाब देने की बजाय वह लड़का गुहार मचाता हुआ भागकर मेरे पिता के पास पहुँचा, “तुम्हारा बेटा मुझे गन्दी गन्दी गालियाँ दे रहा है ।” यह सुनकर मेरे पिता फौरन उठ भागे । मेरा दुर्भाग्य ! मैं जहाँ खेल रहा था, वहाँ वे क्रोध से तमतमा हुए पहुँचे । “तुमने इस लड़के को क्या कह के पुकारा था?” मैंने गाली को न दोहराने की अक्लमन्दी दिखाई। मैं चुपचाप खड़ा आँखें झपकाता रहा । इस पर उस लड़के ने वे सब गालियाँ हू-ब-हू दोहराकर बताईं, जो मैंने उसे दी थीं । सुनकर मेरे पिता अप्रत्याशित रूप से उग्र हो गए। उन्होंने अपने पंजे से मेरी गर्दन पकड़कर मुझे झकझोरते हुए पूछा, “कहाँ से तीखी तूने ये गालियाँ ?” मैंने रेल की पटरी पर काम करते हुए मजदूरों की ओर इशारा किया। उन्होंने उनकी ओर नज़र उठाकर देखा, फिर एक क्षण खामोश रहकर बोले, “अच्छा, तो यह बात है ? अब तुम्हें गालियाँ और गन्दी बातें सीखने के लिए आवारा घूमने की इजाजत नहीं मिलेगी। कल से तुम रोज स्कूल जाया करोगे, समझे?” “बापू!…” मैं चिल्लाया। उन्होंने बहुत कड़ी सज़ा का फैसला सुनाया था। वे मुझे एक ऐसी जगह से हटाकर जिसे मैं प्यार करता था, उस जगह भेजना चाहते थे जिससे मैं नफरत करता था ।

“‘स्कूल जाने से पहले घर में रोज हंगामा – सा मच जाता। माँ मुझे तड़के ही खिला-पिलाकर तैयार कर देतीं और एल्यूमीनियम के डिब्बे में दोपहर के लिए नाश्ता बनाकर रख देतीं । वे बड़ी सावधानी से एक बैग में मेरी स्लेट और किताबें रखकर उसे मेरे कन्धे पर लटका देतीं। मुझे साफ धुले निकर और कमीज पहनाकर मेरे बालों की कंघी की जाती, जिससे मेरी घुंघराली लटें पीछे गर्दन पर जमा हो जातीं। शुरू के कुछ दिनों तक तो मुझे यह देखभाल बहुत पसन्द आई, लेकिन बाद में मुझे इससे चिढ़ हो गई । मुझे यह पसन्द था कि मैं घर पर रहूँ और कोई मेरी देखभाल न करे, बजाय इसके कि लोग मेरी देखभाल करें और मुझे स्कूल भेजा जाए। लेकिन मेरे पिता कठोर अनुशासन के पाबन्द थे, शायद उनमें अहंकार भी था और वे लोगों के सामने गर्व से यह कहना चाहते थे कि उनका बेटा स्कूल जाता है। हर रोज़ सुबह जब तक मैं सही-सलामत सड़क पर नहीं पहुँच जाता था, वे मेरी हर गतिविधि का निरीक्षण करते थे। अपनी दुकान में बैठे-बैठे वे थोड़ी देर के बाद आवाज़ कर पूछते थे, “लड़के, तू यहीं है या चला गया है ?”

“‘स्कूल का लम्बा रास्ता मुझे पैदल ही तय करना पड़ता था। स्कूल से मेरे घर की तरफ आने वाला कोई लड़का नहीं था। मैं रास्ते भर अपने से बातें करता रहता, रुककर राहगीरों को, मरियल चाल से चलने वाली किसी देहाती बैलगाड़ी को या किसी दरार में घुसते हुए किसी हरे टिड्डे को देखने में व्यस्त रहता। मेरी चाल इतनी सुस्त थी कि जब मैं बाज़ार की गली में पहुँचता तो उस वक्त मेरे सहपाठी सम्मिलित स्वर में अपना सबक याद कर रहे होते थे, क्योंकि हमारे बुड्ढे मास्टर साहब लड़कों से ज़्यादा से ज़्यादा शोर मचवाने में विश्वास करते थे। मालूम नहीं, किसकी सलाह से मेरे पिता ने मुझे वहाँ दाखिल करवाया था, क्योंकि फैशनेबल अल्बर्ट मिशन स्कूल हमारे घर के करीब ही था। अपने अल्बर्ट मिशन स्कूल का विद्यार्थी कहने में मैं गर्व महसूस कर सकता था लेकिन पिताजी अकसर कहा करते थे, “मैं अपने लड़के को वहाँ नहीं भेजूंगा; लगता है वे लोग हमारे लड़कों को ईसाई बनाने की कोशिश करते हैं और सारा वक्त हमारे देवी-देवताओं का अपमान करते रहते हैं।” पता नहीं यह बात बापू के दिमाग में कैसे बैठ गई थी। खैर, जो भी हो, उनका खयाल था कि मैं जिस स्कूल में जाता था, वह दुनिया का सबसे शानदार स्कूल था । वे अकसर गर्व से कहा करते थे, “बहुत-से लड़के इस बुड्ढे मास्टर से पढ़कर अब मद्रास में बड़े अफसर, कलक्टर वगैरह बन गए हैं…” यह पिताजी की कोरी कल्पना या बुड्ढे मास्टर की ईजाद थी। इस स्कूल को शानदार संस्था कहना तो दूर रहा, उसे किसी माने में स्कूल भी नहीं कहा जा सकता था। दरअसल यह ‘चबूतरा’ स्कूल था क्योंकि एक भद्र व्यक्ति के घर के चबूतरे पर क्लासें लगती थीं। कबीर कूचे में एक पुराना तंग-सा मकान था, जिसके सामने सीमेंट का एक चबूतरा बना था जिसके नीचे गली की गन्दी नाली बहती थी । हर रोज़ सुबह बुड्ढा मास्टर मेरी उम्र के बीस लड़कों को इकट्ठा करके खुद एक कोने में तकिये का सहारा लेकर बैठ जाता था और बेंत हिलाता हुआ लड़कों को डाँटता रहता था । सा क्लासें एक साथ लगती थीं और बुड्ढा मास्टर बारी-बारी से सब टोलियों की तरफ ध्यान देता था । मैं सबसे छोटी क्लास में था। हम लोगों को वर्णमाला और गिनती सिखाई जाती थी । मास्टर हम लोगों से वर्णमाला ऊँचे स्वर में पढ़वाता था, फिर स्लेटों पर हम लोग अक्षरों की नकल करते थे, मास्टर हर लड़के की स्लेट देखता था और बार-बार गलतियाँ करने वालों को डाँटता और बेंत मारता था । उसे गालियाँ देने की आदत थी । मेरे पिता मुझे रेलवे लाइन पर काम करने वाले मजदूरों की भाषा से बचाना चाहते थे, लेकिन मुझे इस बुड्ढे के पास भेजकर उन्होंने कोई खास अक्लमन्दी नहीं दिखाई थी। वह विद्यार्थियों को गधा कहता था और बड़ी सतर्कता से उनकी सातों पुश्तों का बखान करता था ।

“‘उसे न सिर्फ हमारी गलतियों से बल्कि हमारी मौजूदगी से ही चिढ़ थी। छोटे फूहड़ लड़कों को देखकर, जो हर वक्त हिलते डुलते रहते थे, मास्टर को बड़ी बेचैनी होती थी । इसमें शक नहीं कि हम लोग चबूतरे पर बहुत शोर मचाते थे । खाना खाने, कुछ देर सुस्ताने या दर्जनों छोटे-मोटे कामों के लिए जब वह घर जाता था तो हम एक-दूसरे पर लुढ़कने लगते थे, खूब चीखते-चिल्लाते थे, एक-दूसरे को नोचते थे और लड़ते थे या जाकर मास्टर के घर में ताक-झाँक करते थे। एक बार हम छिपकर उसके घर में घुस गए, सब कमरों को पार करने के बाद, हम रसोईघर में पहुँचे जहाँ चूल्हे के सामने बैठा मास्टर कुछ पका रहा था । “ओह! मास्टर, तुम्हें खाना पकाना भी आता है!” हम खिलखिलाकर हँस पड़े । पास खड़ी एक औरत भी हँसने लगी । मास्टर ने गुस्से से हमारी तरफ देखकर हुक्म दिया, “निकल जाओ लड़को यहाँ से! यहाँ मत आना ! यह तुम्हारी क्लास का कमरा नहीं है।” हम लोग उछलकूद मचाते हुए अपनी जगह वापस आ गए। बाद में मास्टर ने इतनी ज़ोर से हमारे कान उमेठे कि हम लोग दर्द से चिल्ला उठे। उसने कहा, “मैंने तुम – शैतानों को सभ्य बनाने के लिए यहाँ भर्ती किया है, लेकिन तुम हो कि…” उसने हमारे गुनाहों और हमारी शरारतों का सूचीपत्र बखानना शुरू कर दिया । हम लोगों ने जब पश्चाताप प्रकट किया तो उसका दिल पसीज गया। उसने कहा, “खबरदार जो आज के बाद मैंने तुम्हें उस दहलीज से पार जाते देखा। अगर तुम भीतर घुसे तो मैं पुलिस के हवाले कर दूँगा।” बस मामला यहीं खत्म हो गया। हम लोगों ने कभी बुड्ढे मास्टर के घर में ताक-झांक नहीं की, लेकिन जब भी वह पीठ मोड़ता, हम चबूतरे के नीचे बहने वाली नाली की तरफ देखने लगते, कापियों में से पन्ने फाड़कर कश्तियाँ बनाते और नाली में बहा देते । देखते ही देखते कश्तियों की रेस शुरू हो जाती। हम पेट के बल लेट कर नाली में बहती कश्तियों को देखने लगते । मास्टर हमें चेतावनी देता, “ अगर इस नाली में गिरे तो सीधे सरयू नदी में जा पहुंचोगे । फिर क्या मैं तुम्हारे बाप को तुम्हें ढूंढ़ने वहां भेजूंगा?” इस भयंकर कल्पना से बूढ़ा मास्टर हंसने लगता । हम लोगों में उसकी दिलचस्पी एक रुपया महीना फीस और खाने-पीने की चीज़ों तक ही सीमित थी । मेरे पिताजी हर महीने उसे गुड़ की दो भेलियां भेजते थे। बाकी लड़के चावल, सब्जियाँ और समय-समय पर उसकी फरमाइश के अनुसार और दूसरी चीजें भी घर से लाते थे। रसोईघर में जब कोई चीज चुक जाती तो वह किसी एक लड़के को बुलाकर कहता, “अगर तुम अच्छे लड़के हो तो भाग कर अपने घर से थोड़ी-सी चीनी ले आओ। ज़रा देखूं तो तुम कितने फुर्तीले हो ।” ऐसे मौकों पर मास्टर अपना काम निकालने के लिए मीठे स्वर में बोलता था और उसकी सेवा करके हमें गर्व महसूस होने लगता था । हम जाकर माँ-बाप से लड़-झगड़कर मास्टर के लिए चीजें लाते थे और उसकी सेवा का फख हासिल करने के लिए आपस में होड़-सी लग जाती थी। हमारे माँ-बाप भी मास्टर के प्रति सदैव कृपालु रहते थे । शायद वे इसलिए उसके कृतज्ञ थे क्योंकि वह तड़के से लेकर शाम के चार बजे तक हमारी निगरानी करता था । उसके बाद हम लोग उछल-कूद मचाते हुए घर आते थे। ऊपर से दिखाई देनेवाली मारपीट और उद्देश्यहीनता के बावजूद, मेरा ख्याल है कि बुड्ढे मास्टर की निगरानी में हम लोगों ने काफी तरक्की की क्योंकि साल के भीतर ही मैं बोर्ड के हाईस्कूल की पहली जमात के काबिल बन गया था, कोर्स की किताबों से भी ज़्यादा भारी-भरकम किताबें पढ़ लेता था, बिना किसी की मदद के बीस तक के पहाड़े याद कर चुका था। बोर्ड स्कूल हाल में ही खुला था । बूड्ढा मास्टर मुझे वहाँ दाखिल कराने अपने साथ ले गया था । हम तीन लड़कों को वह क्लास में बिठाकर आया था और लौटने से पहले उसने हमें आशीर्वाद भी दिया था। उसकी सहृदयता देखकर हम चकित रह गए थे।’

“वेलान चमत्कारपूर्ण घटना का समाचार सुनाने के लिए व्याकुल था। वह हाथ जोड़कर राजू के सामने खड़ा हो गया और बोला, “महाराज, सब कुछ ठीक हो गया है।”

“मुझे बड़ी खुशी है। लेकिन कैसे ?”

‘ “बिरादरी के सामने आकर मेरी बहन ने अपनी गलती कबूल कर ली। वह राज़ी हो गई है…।” वेलान ने सारी बात बताई, “सुबह के वक्त जब बिरादरी के लोग जमा हुए तो अचानक लड़की आकर सीधी खड़ी हो गई और सबकी ओर देखकर बोली, ‘पिछले दिनों मैंने बहुत गलतियाँ की हैं। अब मेरा भाई और दूसरे बुजुर्ग जो कहेंगे, वही करूंगी। जानते हैं कि किस बात में हमारी भलाई है।’ पहले तो मुझे अपने कानों पर विश्वास ही न हुआ । यह जानने के लिए कि मैं कहीं सपना तो नहीं देख रहा, मैंने अपने शरीर में चुटकी काटी। उस लड़की की वजह से हमारे घर में अंधेरा छा गया था। जायदाद के बंटवारे के मुकदमें के बाद इतनी बड़ी आफत कभी नहीं आई थी । देखिए इस लड़की से हम लोग बहुत स्नेह करते हैं और जब वह खाना-पीना छोड़कर, मैले-कुचैले कपड़े पहने अंधेरी कोठरी में कुढ़ती रहती थी तो हमें बहुत दुःख होता था । हमने उसे खुश करने की बहुत कोशिशें कीं । आखिर लाचार होकर हमें चुप होना पड़ा। उसकी वजह से हम सभी लोग बहुत परेशान थे। आज सुबह हमारे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उसने बालों में तेल डालकर उन्हें सलीके से गूंथा था और चोटियों में फूल लगाए थे। वह बड़ी खुश नज़र आ रही थी । कहने लगी, ‘मैंने इतने दिन आप लोगों को तंग किया। आप सब मुझे माफ कर दीजिए । मैं बड़े-बूढ़ों का कहना मानूँगी।’ हम लोग सुनकर हैरान रह गए। फिर हमने पूछा, तुम अपने चचेरे भाई के साथ शादी करोगी न? वह चुपचाप सिर झुकाए खड़ी रही। मेरी बीवी ने एकान्त में ले जाकर उससे पूछा, ‘क्या हम लड़केवालों के यहां सन्देशा भिजवा दें?’ तो वह राज़ी हो गई। हम लोगों ने यह शुभ समाचार बिरादरी को बता दिया और जल्दी ही हमारे घर में शादी का आयोजन होगा। पैसा, कपड़ा, गहना सब तैयार है। कल सुबह मैं बाजेवालों को बुलाकर तय कर लूँगा । ज्योतिषी से मैंने शादी का मुहूर्त भी निकलवा लिया है और उसने कहा है कि ये दिन बड़े शुभ हैं। मैं नहीं चाहता कि इस शादी में क्षण-भर की भी देरी हो ।”

” इस डर से कि लड़की कहीं फैसला न बदल डाले ?” राजू ने पूछा। वह जानता था कि वेलान इतना उतावला क्यों है? इसके उतावलेपन का अनुमान लगाना कठिन नहीं था। लेकिन वेलान प्रशंसा से गद्गद हो उठा और पूछने लगा, “महाराज आपने मेरे दिल की बात कैसे भांप ली ?” राजू खामोश रहा। अजब खतरनाक हालत थी । उसके ज़बान खोलते ही वेलान प्रशंसा से गद्गद हो उठता था। राजू अपनी खिल्ली उड़ाने के मूड में था । उसने तेजी से कहा, “मेरे अनुमान में कोई असाधारण बात नहीं है।” वेलान ने फौरन जवाब दिया, “आपको ऐसा कहना शोभा नहीं देता, महाराज! आप जैसे महान आदमी के लिए यह आसान बात होगी, लेकिन हम जैसे क्षुद्र लोग कभी भी दूसरों के विचारों का अनुमान नहीं लगा सकते।” वेलान का ध्यान दूसरी तरफ हटाने के लिए राजू ने पूछा, “तुम्हें कुछ मालूम है कि दूल्हा क्या सोचता है? क्या वह इस रिश्ते के लिए तैयार है? लड़की की ‘न’ का उस पर क्या असर पड़ा था?”

“लड़की के राजी होने के बाद मैंने अपने पुरोहित को दूल्हे के पास भेजा था, उसने लौटकर बताया कि लड़का राज़ी है, बीती बातों पर बहस नहीं करना चाहता । जो बीत गया सो बीत गया।”

“सच है, सच है,” राजू ने कहा। उसके पास कहने के लिए और कुछ नहीं था, न ही वह ज़्यादा अक्लमन्दी की बात करना चाहता था। आजकल उसे अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से डर लगने लगा था। इसी डर से वह अपनी ज़बान नहीं खोलता था । उसे मौनव्रत की शपथ का ध्यान आया, लेकिन मौन तो और भी ज़्यादा खतरनाक था। अपनी अक्लमन्दी के बावजूद राजू अपनी रक्षा न कर सका। वेलान अपनी समस्याएँ सुलझाने में सफल हो गया। एक दिन वह राजू को अपनी बहन की शादी का निमन्त्रण देने के लिए आया। राजू ने बहुत दलीलें देने के बाद किसी तरह अपना पिण्ड छुड़ाया। वेलान रेशमी कपड़ों से ढंकी हुई बड़ी-बड़ी थालियों में राजू के लिए फल लेकर आया था। राजू ने सोचा कि वह टूरिस्टों को कोई प्राचीन महल या हॉल दिखाते वक्त यह दृश्य प्रस्तुत करेगा।

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