चैप्टर 3 सेवासदन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद

Chapter 3 Sevasadan Novel By Munshi Premchand

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पण्डित कृष्णचन्द्र रिश्वत लेकर उसे छिपाने के साधन न जानते थे । इस विषय में अभी नोसिखुए थे। उन्हें मालूम न था कि हराम का माल अकेले मुश्किल से पचता है। मुख्तार ने अपने मन मे कहा, हमीं ने सब कुछ किया और हमीं से यह चाल! हमें क्या पड़ी थी कि इस झगड़े में पड़ते और रात दिन बैठे तुम्हारी खुशामद करते। महन्त फसते या बचते, मेरी बला से, मुझे तो अपने साथ न ले जाते। तुम खुश होते या नाराज, मेरी बला से, मेरा क्या बिगाड़ते? मैंने जो इतनी दौड़-धूप की, वह कुछ आशा ही रख कर की थी।

वह दारोगा जी के पास से उठ कर सीधे थाने में आया और बातों ही बातों में सारा भण्डा फोड़ गया।

थाने के अमलों ने कहा, वाह हमसे यह चाल! हमसे छिपा-छिपा कर यह रकम उड़ाई जाती है। मानो हम सरकार के नौकर ही नहीं हैं। देखें यह माल कैसे हजम होता है। यदि इस बगुला भगत को मजा न चखा दिया तो देखना।

कृणचन्द्र तो विवाह की तैयारियों में मग्न थे। वर सुंदर, सुशील सुशिक्षित था। कुछ ऊँचा और धनी। दोनों ओर से लिखा-पढ़ी हो रही थी। उधर हाकिमों के पास गुप्त चिट्ठियाँ पहुँच रही थी। उनमें सारी घटना ऐसी सफाई से बयान की गयी थी, आक्षेपों के ऐसे सबल प्रमाण दिये गए थे, व्यवस्या की ऐसी उत्तम विवेचना की गई थी कि हाकिमों के मन में संदेह उत्पन्न हो गया। उन्होने गुप्त रीति से तहकीकात की। संदेह जाता रहा। सारा रहस्य खुल गया।

एक महीना बीत चुका था। कल तिलक जाने की साइत थी। दारोगा जी संध्या समय थाने में मसनद लगाये बैठे थे, उस समय सामने से सुपरिन्टेन्डेन्ट पुलिस आता हुआ दिखाई दिया। उसके पीछे दो थानेदार और कई कान्सटेबल चले आ रहे थे। कृष्णचन्द्र उन्हें देखते ही घबरा कर उठे कि एक थानेदार ने बढ़कर उन्हें गिरफ्तारी का वारण्ट दिखाया। कृष्णचन्द्र का मुख पीला पड़ गया। वह जड़मूर्ति की भांति चुपचाप खड़े हो गए और सिर झुका लिया। उनके चेहरे पर भय न था, लज्जा थी। यह वही दोनो थानेदार थे, जिनके सामने वह अभिमान से सिर उठाकर चलते थे, जिन्हें वह नीच समझते थे। पर आज उन्हीं के सामने वह सिर नीचा किये खड़े थे। जन्म भर की नेक-नामी एक क्षण में धूल में मिल गयी। थाने के अमलों ने मन में कहा, और अकेले-अकेले रिश्वत उड़ाओ।

सुपरिन्टेन्डेन्ट ने कहा – “वेल किशनचन्द्र, तुम अपने बारे में कुछ कहना चाहता है?”

कृष्णचन्द्र ने सोचा – ‘क्या कहूँ? क्या कह दूं कि मैं बिल्कुल निरपराध हूँ, यह सब मेरे शत्रुओं की शरारत है, थानेवालों ने मेरी ईमानदारी से तंग आकर मुझे यहाँ से निकालने के लिए यह चाल खेली है?’

पर वह पापाभिनय में ऐसे सिद्धहस्त न थे। उनकी आत्मा स्वयं अपने अपराध के बोझ से दबी जा रही थी। वह अपनी ही दृष्टि में गिर गए थे।

जिस प्रकार बिरले ही दुराचारियों को अपने कुकर्मों का दण्ड मिलता है, उसी प्रकार सज्जन का दंड पाना अनिवार्य है। उसका चेहरा, उसकी आँखें, उसके आकार-प्रकार, सब जिह्वा बन-बन कर उसके प्रतिकूल साक्षी देते हैं। उसकी आत्मा स्वयं अपना न्यायाधीश बन जाती है। सीधे मार्ग पर चलने वाला मनुष्य पेचीदा गलियों में पड़ जाने पर अवश्य राह भूल जाता है।

कृष्ण – “सुनो, यह रोने धोने का समय नही है। मै कानून के पंजे में फंसा हूँ और किसी तरह नहीं बच सकता। धैर्य से काम लो, परमात्मा की इच्छा होगी, तो फिर भेंट होगी।“

यह कहकर वह बाहर की ओर चले कि दोनों लड़कियाँ आकर उनके पैरों से चिमट गई। गंगाजली ने दोनों हाथों से उनकी कमर पकड़ ली और तीनों चिल्लाकर रोने लगीं।

कृष्णचन्द्र भी कातर हो गए। उन्होंने सोचा, इन अबलाओं की क्या गति होगी? परमात्मा! तुम दीनों के रक्षक हो, इनकी भी रक्षा करना।

एक क्षण में वह अपने को छुडा़कर बाहर चले गये। गंगाजली ने उन्हें पकड़ने को हाथ फैलाये, पर उसके दोनों हाथ फैले ही रह गये, जैसे गोली खाकर गिरने वाली किसी चिड़िया के दोनों पंख खुले रह जाते हैं।

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