चैप्टर 3 प्रभावती सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 3 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi
Chapter 3 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi
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पंडित शिवस्वरूप गंगापुत्र चौपाल में चौक के अन्दर चने चबा रहे हैं। दलमऊ का हर गंगापुत्र अपने को दालिभ्य ऋषि का एकमात्र वंशधर मानता है और प्रचार भी करता है, पर शिवस्वरूप महाराज औरों से ज्यादा पुष्ट और आवाज वाले होने के कारण जातीय श्रेष्ठता में सदा विजय प्राप्त करते हैं। विशेष पढ़े-लिखे नहीं; संकल्प शुद्ध नहीं आता, गुनगुनाकर दान छुड़वा लेते हैं, पर पंडितों से बातचीत पड़ने पर दालिभ्य ऋषि के प्रचंड पांडित्य के माहात्म्य- कीर्तन में मातृ-भाषा के प्रखर स्वर से दूसरों को स्तम्भित करके छोड़ते हैं। गऊ के खुर के प्रमाण से कुछ अधिक जगह शिखा ने घेरी है, लम्बी डेढ़ हाथ, साढ़े तीन पेंच के बाद बँधी हुई दंड पर गौरव की ध्वजा की तरह फहराया करती है। ललाट सदा भस्म-मंडित, उम्र अभी बहुत नहीं; केवल चालीसवाँ साल पहुँचे हैं। पत्नी पच्चीसवें साल परलोक सिधार गई, तब से कुलीन-वंशीया कन्या के अभाव के कारण दालिभ्य ऋषि के महोच्च कुल को दोबारा कलंकित नहीं किया। पहली स्त्री भृगुठौरा या भिटौरा (फतहपुर) के पास की, सीधे भृगु के वंश की थीं। घर में माता हैं और स्वयं आप। घाटों में लड़ाई सनातन प्रथा है। इसलिए मारने या मार सह लेने के दृढ़ अभिप्राय से दोनों वक्त कसरत करते हैं।
किसी-किसी युवती की पुरूष-विशेष को चराने की आदत होती है। महाराज शिवस्वरूप किले के नीचे ही एक बगल रहते हैं। यमुना अनेक कार्यों से उधर आती-जाती है, इनके प्राय: मुलाकात होती है। यमुना नीच है, उसे छूना न चाहिए, इसकी छाया से उनके ब्रहृाचर्य का फूल कुम्हला जाएगा- उन्हें खुले बदन देख ले, तो नजर लग जाने का भय है, आदि अनेक धार्मिक विश्वास अपने भाव और भाषा से जाहिर कर चुके हैं। यमुना त्यों -त्यों इन्हें दबाने की भावना में बदलती गई। भिन्न-भिन्न आकार, इंगित और ध्वनियों द्वारा वह इन्हें विश्वास दिला चुकी हैं कि इनकी उच्चता और ब्रह्मचर्य पर उसकी पूरी श्रद्धा है। कुछ दिनों से हँसती आँखों, झुके-सिर पालागन करके आशीर्वाद भी पाने लगी है। उसे एक दिन शिवस्वरूप महाराज अपना नाम लेकर अभय भी दे चुके हैं कि उनके नाम के प्रताप से, दालिभ्य ऋषि का सच्चा खून जोकि उनके शरीर में है, उसका मनोमल अवश्य धुल जाएगा। दोनों की ऐसी ही भावना उत्तरोत्तर दृढ़ होती जा रही है। ऐसे समय यमुना को कार्य की पूर्ति के लिए उनसे मिलने की आवश्यकता हुई।
यमुना जल्दी में है, महाराज शिवस्वरूप चने चबाने में जल्दी नहीं कर सकते।
चौपाल में पहुँचकर महाराज को देखते ही एक साँस में यमुना कह गई, “बड़े धनी आदमी थे – मन्त्री के लड़के हैं – मैने कहा, ऐसा जजमान अपने महाराज के हाथ क्यों न लगाऊँ, पर आप चने चबा रहे हैं! जाऊँ रामनाथ महाराज के यहाँ! अच्छा, पायलागी महाराज!” यमुना लौटी कि महाराज शिवस्वरूप उसी वक्त शार्दूल-विक्रीडि़त गति से बढ़े और फौरन यमुना की कलाई पकड़ ली, “अरे सुन भाई!”
झटके से हाथ छुड़ाकर कुछ पल महाराज को देखती रहकर यमुना बोली, “चने चबाकर न कुल्ला करना, न हाथ धोना। आकर छू लिया!”
अब महाराज शिवस्वरूप को होश हुआ। इधर-उधर देखकर पैर पकड़ लिए। शब्द न निकला।
“अच्छा-अच्छा, न कहूँगी किसी से, पर भूल मत जाना महाराज!” हटती हुई यमुना बोली। हाथ जोड़कर शिवस्वरूप महाराज गिड़गिड़ाने लगे, “अच्छा सुनो, यह लो अपना दान,” स्वर्णमुद्रा देती हुई : महाराज शिवस्वरूप को लोलुप दृष्टि से देखकर कई लपेट लगाकर मुर्री में रख लेने के बाद, “और ये कपड़े रखकर मेरे साथ आओ; जजमान नहाने जाएँगे तब इन्हें बदलेंगे, फिर इन्हें पहनेंगे; राजसी पोशाक में हैं; अच्छी जगह जल्द रखकर आओ; मैं आकर सब ठीक कर लूँगी।”
महाराज उसी क्षण भीतर जाकर जल्द-जल्द दो शब्दों में माता को समझाकर, कपड़े रखकर लौट आए। उन्हें साथ लेकर यमुना राजकुमार के संकेत-स्थल को चली।
“अच्छा, महाराज,” रास्तें में सोचते हुए यमुना ने पूछा। महाराज कुछ कदम पीछे, कन्धे पर लट्ठ रखे, आगे और कितना क्या-क्या मिल सकता है, इसका हिसाब जोड़ते जा रहे थे, आवाज पाते ही भक्तिभाव से गर्दन बढ़ाए हुए दौड़े; जरा कैंची-निगाह देखकर यमुना मुस्कुराई, “हाँ यह तो बताइए, भुजवे के भुने और हमारे दिए चने में तो छूत नहीं, फिर चबाकर छू जाने में कैसी छूत है?”
“हे-जमुना! सब ढोंग है!” यमुना की बायीं बाँह पकड़कर हिलाते हुए, “रामनाथ है, रामनाथ-वामनाथ जितने हैं- सब, किसके घर का नहीं खाते? बेसन के लड्डू में चना नहीं है? जजमान परसते हैं, सब खाते हैं और जजमान खाते बखत छू-छूकर परसते हैं!” यमुना के कान के पास मुँह ले जाकर, “हलवाई की बनाई पूड़ी नहीं खाते? अब छूत कुछ सरग से आती है? एक लोग-दिखावा है -यह जाँघ खोलो तो लाज, वह जाँघ खोलो तो लाज!”
मुस्कुराती, हटने के इरादे से यमुना जल्द-जल्द बढ़ती गई। वह आज मामूली दासी के रूप में नहीं, सजकर आई है। राजकुमारी की प्यारी सखी के रूप में राजकुमार से मिलेगी-मिलाएगी। एक बार अपनी सजावट का विचार कर फिर मुस्कुराई। फिर महाराज की तरफ मन लगा, बोली, “अच्छा, महाराज, बात ही तो है, खुल जाए तो?”
“तो कोई सिर काट लेगा? कहेंगे, ढोंगी था!”
यमुना खिलखिलाकर हँसी। बोली, “गऊ-हत्या तो हत्या-हरन से कट भी जाती है!”
“हाँ” गम्भीर होकर शिवस्वरूप महाराज ने कहा, “इसका कोई पराच्छित नहीं है। एक धर्म छोड़ने की बात है!”
यमुना को पूरा विश्वास हो गया कि इससे बड़ा बेवकूफ दूसरा न मिलेगा। बोली, “पैरों पड़नेवाली बात लेकिन खराब है।” महाराज ने भी सोचा कि बहुत बुरा हुआ। यमुना डरकर कि कहीं पकड़ न ले, फिर बोली, “लेकिन मैं किसी से कहती थोड़े ही हूँ? बराँभन का सराप, कहीं लग जाए! ऐं महाराज?”
महाराज उदास स्वीरों से बोले, “वंस नास हो जाए, कोढ़ हो जाए, कहीं जलम-जलम जम के दूत नर्क में घसीटें; जो कुछ न हो जाए, थोड़ा है!”
“हाँ, महाराज, जो कुछ न हो जाए, थोड़ा!” कहकर यमुना मन-ही-मन आगे के प्रबन्ध पर विचार करने लगी।
स्थान निकट आ गया था। बोली, “महाराज, किसी से इनके आने की बात कहना मत।”
महाराज ने गभ्भीर होकर सिर हिलाया।
यमुना ने पूछा, “कोई पूछेगा, तो क्यां कहोगे?”
“कि कोई नहीं आया।”
उनके घोड़ा भी है। पैसे मिलेंगे। आदमी तुम्हें लगाना होगा। कोई पूछे कि यह किसका घोड़ा है, तो क्या कहोगे?”
“कहेंगे, हमारा है। मनवा के राजा ने बाप के सराद में दिया है।”
मन में सोचकर, मुस्कुराकर यमुना बोली, “अच्छा, आगे उस पेड़ के नीचे खड़े रहो, मैं उन्हें ले आती हूँ; फिर साथ ले लेना; मैं साथ न जाऊँगी, वहीं मिलूँगी-गली से होकर जल्दी पहुँचूँगी; बड़ी राह से जाना।” कहकर यमुना चल दी।
महाराज शिवस्वरूप पेड़ की छाँह में लाठी के सहारे पंजों के बल बैठे अनिमेष दृष्टि से उधर ही देखते रहे।
जहाँ रामलीला के समय रावण-वध होता है, उसी जगह इकले आम के नीचे प्रभा ने कहा था; यमुना सीधे उसी तरफ गई। निश्चय हो गया। घोड़ा खड़ा देख पड़ा। बगल में राजकुमार बैठे थे। एक स्त्री को आते देखकर उठकर खड़े हो गए। छाँह से बाहर पूर्ण ज्योत्स्ना के नीचे, कीमती वस्त्र और अलंकारों से सजी हुई यमुना राजकुमार को देखकर, हृदय में ललित अंजलि बाँध जरा सिर झुकाकर मधुर कविता की लड़ी-सी खड़ी रह गई। उसे आदाब बजाते समझकर, राजकुमार प्रसन्न पदक्षेप से उसके पास चलकर आए।
मधुर कंठ से यमुना बोली, “हमारी कुमारीजी देर तथा श्रम के लिए क्षमा चाहती हुई जल्द बुला रही हैं- आज्ञा हो तो, ले चलूँ।”
राजकुमार के मुड़ते ही द्रुत-पद यमुना घोड़े के पास पहुँची और डाल से लगाम खोलकर हाथ में दे दी। चतुरा सेविका से प्रसन्न होकर, प्रिया की खबर लानेवाली यह सबकी चुनी हुई सेविका होगी- अनुमान कर, पुरस्कृत करने के अभिप्राय से राजकुमार ने अपनी मोतियों की एक माला उतारी और मौन स्नेह से यमुना के गले में डाल दी।
मृदुल खिलखिल से निर्जन प्रान्त गूँज उठा। राजकुमार चकित हो गए। यह आचरण सेविका का नहीं। उसी समय मधुर कंठ से पूछा, “कुमार, यमुना की याद है?”
“यमुना!” राजकुमार की ध्वानि और दृष्टि से निकला हुआ वेगपूर्ण आश्चंर्य असंयत हो गया। द्रुत-पद बढ़कर वे यमुना के पास आए। पेड़ के नीचे, पल्लवों से छनकर यत्र-तत्र मुख पर चाँदनी पड़ रही थी। अच्छी तरह देखकर, पहचानकर सविस्मय ससम्भ्रम बोले, “यमुना देवी!”
यमुना अनेक विगत स्मृतियों से बँधी हुई निश्चल खड़ी रही, पर जिस साहसी हृदय का उसने पहले परिचय दिया था, जिस नैपुण्य से वह अकेली भी विजयिनी थी, उसकी जिस वीरता की बैसवाड़े में घर-घर चर्चा थी, जिसे गृह-देवियाँ अपना आदर्श मानकर पूजती थीं, यह वही यमुना है- वे सब भाव संयत हृदय में बँधे हुए हैं, जैसे उनसे भी महत्ता में यह वृहत् और ऊँची है।
“देवी!” ससम्भ्रम राजकुमार बोले, “आप दोनों की बहुत दिनों तक खोज की गई, पर पता नहीं लगा।”
“हाँ कुमार, उस युद्ध में विजय पाकर तुम्हा़रे बन्दी सेनापति को छुड़ाकर मैं महोबा गई थी। मुझे भय था कि यहाँ रहने पर भेद खुल जाएगा, मेरे और भी कई उद्देश्य थे।”
“सेनापति क्या यहीं हैं?”
“नहीं।” कुछ सोचकर बात टालने को मुस्कराकर बोली, “श्रृंगार के समय वीर-रस की चर्चा तुम्हें अच्छी लगती है- फिर इस प्रथम समय?” मधुर मुक्त नारी-कंठ हँसकर गूँज गया।
राजकुमार सहज सिर झुकाए खड़े रहे। यमुना बोली, “आप मेरे कुल के पति-पद में मुझसे छोटे हैं, यघपि पति आपके पिता के अधीन, आपके सेनापति थे; यह पुरस्कार मैं नहीं ले सकता; आगे एक महाराज आपको ले जाने के लिए मिलेंगे, उन्हें दीजिएगा। कुमार, मेरा भेद प्रभावती से न खोलिएगा, न घर लौटकर किसी दूसरे से। मैंने यह बात अपनी सखी से छिपा रखने के कारण ही सखी के प्राण-प्रिया से प्रकट की है और इसलिए भी कि सखी के प्रिय को, परिचय के पश्चात, वैमनस्य की जगह किसी प्रकार की शंका न हो – उनके परिचित यहाँ भी हैं।”
“आप यहाँ किस रूप से हैं?” आँखे झुकाए विनीत कठं से राजकुमार ने पूछा।
“किस रूप से?” हँसती यमुना बोली, “उसी से, जिससे द्रौपदी को विराटनगर में रहना पड़ा था।”
“पर आपका नाम यहाँ क्यां है?”
“यही। क्योंकि यह बहुत प्रचलित नाम है। यहीं इस नाम की तरूणी और बालिकाएँ मेरे अलावा और दो सौ होंगी। कुमार चलिए।”
राजकुमार ने हाथ जोड़कर सम्मान प्रदर्शन किया। बढ़कर, “अच्छा-अच्छा,” कहकर आँचल छुड़ाती हुई यमुना बोली, “पर वहाँ इस सम्मान-प्रदर्शन की और खासतौर से विचार रखिएगा; क्योंकि, मिलाप गंगा पर होगा, नाव में-मैं साथ हूँगी, और सखी होकर भी मैं दासी हूँ, काम छोटे-मोटे करने पड़ेंगे। सम्मान की ऐसी जरूरत भी नहीं -सबसे घनिष्ठ सम्बन्ध, तो सखीवाला है?” कहकर यमुना ने कुमार का एक हाथ हिला दिया। फिर बोली, “और वहाँ सेविकाओंवाली मेरी अपभ्रष्ट भाषा पर हँसिएगा मत।”
“मेरे प्रणाम का एक अर्थ यह भी था कि मैं आपके पैदल चलते घोड़े पर न चलूँगा। आप आगे-आगे चलें, मैं पीछे-पीछे चलता हूँ।”
“हाँ, जरूरत पड़े, तो मंत्रीपुत्र कहकर परिचय दीजिएगा, महाराज से, मैंने ऐसा ही कहा है।” आगे चलती हुई यमुना ने कहा, “और दोष भी नहीं; मैं ‘पुत्र’ का शब्द और धातु से निकला अर्थ लेती हूँ।” राजकुमार हँस दिए।
क्रमश:
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