चैप्टर 3 नकली नाक : इब्ने सफ़ी का उपन्यास हिंदी में | Chapter 3 Nakli Naak Ibne Safi Novel In Hindi

Chapter 3 Nakli Naak Ibne Safi Novel In Hindi

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दस हज़ार रूपये इनाम

“दस हज़ार रूपये इनाम उस शख्स को दिया जायेगा, जो हिंदुस्तान के महशूर डाकू राहुल को मुर्दा या ज़िन्दा लायेगा. हम यहाँ उसकी तस्वीर छाप रहे हैं. ताकि पब्लिक उससे होशियार रहे, राहुल उन लोगों में से है, जो ज़रा-ज़रा सी बात पर क़त्ल कर देते हैं. आजकल उसने रामगढ़ में अड्डा बना रखा है. पब्लिक को होशियार रहना चाहिए.”

फ़रीदी ने जेब से एक तस्वीर निकालकर उस पर लिखी हुई तहरीर केस के साथ एस.पी. को दे दी.

“यह इश्तहार जितनी जल्दी हो सके छपवा कर बंटवा दो.” फरीदी ने कहा.

एस.पी. ने उसे पढ़ा और हैरत से फ़रीदी को देखने लगा.

“मैं इसका मतलब नहीं समझा.”

“मेरे काम करने के दो तरीके होते हैं.” फ़रीदी ने कहा.

“मगर मैं बड़े अफ़सरों को इसका क्या जवाब दूंगा.” एस.पी. बोला.

“कह देना कि इसमें एक राज़ छिपा हुआ है.”

“मगर यह राहुल है क्या मुसीबत और इस केस से उसका क्या ताल्लुक?”

“अभी मैं इसका जवाब नहीं दे सकता.” फ़रीदी ने कहा, “और हाँ देखो, इसके अलावा मुँह से अफ़वाहें उड़ाने की कोशिश करो कि नवाबज़ादा शाकिर की मौत में भी इसी राहुल का हाथ है.”

“भई मेरे तो कुछ समझ ही में नहीं आता.” एस.पी. बेबसी से बोला.

“फ़िलहाल कुछ ज्यादा समझने की कोशिश मत करो.” फ़रीदी ने कहा, “यह इस केस की तफ्शीश में मेरा पहला कदम है.”

एस.पी. ख़ामोशी से उसे देख रहा था.

“अच्छा, तो अब हम चलें.” फ़रीदी ने उठते हुए कहा, “हाँ, मुझे अख्तरुज्ज़माँ की बेवा और सिद्दीक अहमद के पते भी दे दो.”

एस.पी ने एक कागज़ में दोनों के पते लिख कर फ़रीदी को दे दिए.

दिलकशा की तरफ़ वापस जाते वक़्त हमीद ने फ़रीदी से कहा, “आखिर यह राहुल वाली बात क्या थी?”

“इतने दिनों से मेरे साथ हो और अभी तक अक्ल नहीं आयी.” फ़रीदी ने कहा, “अरे मियां साहबज़ादे अगर यह न करता, तो जाबिर से हाथ धो लेने पड़ते. तुम जानते हो कि मैं हमेशा मुज़रिमों को धोखा देकर काम करता हूँ.”

“तो क्या आप समझते हैं कि जाबिर इस बार भी धोखा जायेगा.” हमीद ने कहा. 

“ज़रूरी नहीं.”

“फिर इससे क्या फ़ायदा?”

“तो इसका यह मतलब कि हाथ-पर-हाथ रखे बैठा रहूं.” फ़रीदी ने कहा.

“इसमें कोई शक नहीं कि वह बहुत शातिर है, लेकिन शायद क़ाबू में आ ही जाये.”

“आपकी आवाज़ में मायूसी है.” हमीद बोला.

“हाँ…जाबिर को पकड़ना आसान काम नहीं. यकीन मानो मैं ख़ुद को उसके सामने बच्चा समझता हूँ. भेष बदलने के मामले में वह तो अपना जवाब नहीं रखता.”

“तब तो अल्लाह ही मालिक है.” हमीद ने कहा, “हमें अपनी जान का खतरा मालूम होता है. मालूम नहीं कब वार कर बैठे और हमें ख़बर तक न हो.”

“खैर, इसकी तो कुछ परवाह नहीं.” फ़रीदी ने कहा, “क्योंकि एक जासूस को मरने के लिए तैयार रहना चाहिए.”

“मैं आपसे कसम खाकर कहता हूँ कि मैंने आज तक ख़ुद को जासूस समझा ही नहीं.”

“नहीं, तुम बहुत अच्छे जासूस हो.”

“आपको ग़लतफ़हमी हुई है.”

“खैर…हाँ…क्यों न लगे हाथ सिद्दीक शाब से भी मिलते चलें.” फ़रीदी ने कहा.

दिलकशा की बजाय दोंनों एल्बर्ट रोड के चौराहे पर पूरब की तरफ़ मुड़ गये. सिद्दीक साहब का बंगला अच्छी जगह पर था. बंगले के सामने एक ख़ूबसूरत बाग़ था, जिसमें जगह-जगह कबूतरखाने बने हुए थे. अधेड़ उम्र का एक आदमी सफ़ेद कमीज़ पहने खड़ा एक कमूतर के पंजे देख रहा था.”

“क्या यह जज साहब हैं?” फ़रीदी ने उसेक क़रीब पहुँचकर कहा.

“ऊँ…” कहकर वह इस तरह चौंका कि कबूतर हाथ से निकलकर उड़ गया. वह फ़रीदी और हमीद को सवालिया निगाहों से घूर रहा था.

“हम लोग जज साहब से मिलना चाहते हैं.”

“लेकिन क्यों मिलना चाहते हैं.” वह रौब में बोला. फिर फ़ौरन ही संभल कर कहने लगा, “कहिए.”

“ओह…तो आपसे मिल कर बड़ी ख़ुशी हुई है.” फ़रीदी ने हाथ बढ़ाते हुए कहा.

“ख़ुशी तो मुझे भी हुई. मगर आप हैं कौन?’ सिद्दीक अहमद हाथ मिलाता हुआ बोला.

“मुझे अहमद कमाल कहते हैं.” फ़रीदी थोड़ा झुककर बोला, “और ये हैं मेरे दोस्त हमीद अहमद…हम दोनों सैर करने के लिए यहाँ आये हुए हैं.”

 “क्या मुझसे कोई काम है?”

“जी नहीं…बात यह है कि मुझे भी कबूतरों में थोड़ी-बहुत दिलचस्पी है.”

“ज़रूर होगी.” जज साहब लापरवाही से बोले.

“मेरे एक दोस्त ने आपके बारे में बताया था.”

“क्या बताया था…?”

“आपके यहाँ शीराज़ी पामोज़ बहुत हैं.” फ़रीदी ने जाली के बने हुए एक कबूतरखाने की तरफ़ देखते हुये कहा.

“जी हाँ..है  तो….!”

“औउर मेरा ख़याल है कि ऐसे पामोज़ शायद ही यहाँ किसी के पास हूँ.” “चापलूसी बंद” जज साहब ने हाथ उठाते ही कहा, “मेरे पास बर्बाद करने के लिए फ़ालतू वक़्त नहीं. मैं अपने मिलने वालों को ही वक़्त दिया करता हूँ.”

“ठीक है…” फ़रीदी मुस्कुरा कर बोला, “तो फिर हम लोग कब आयें.”

“मेरे पास वक़्त नहीं है.”

“कोई जल्दी नहीं…हम यहाँ गर्मियों भर ठहरे हैं.”

“मुझे गर्मियों में भी फुर्सत नहीं रहेगी.” जज साहब झुंझला कर बोले.

“तो फिर मजबूरन हमें जाड़ों में भी ठहरना पड़ेगा.” फ़रीदी मुस्कुरा कर बोला.

“अजीब आदमी हैं आप.”

“बहरहाल मेरे एक दोस्त ने एक साहब का पता और दिया था. शायद उनके पास आपके कबूतरों से बेहतर कबूतर हैं.” फ़रीदी ने वापस होने के लिए मुड़ते हुए कहा.

“कौन साहब हैं वह?’

“नवाबज़ादा शाकिर साहब.”

“शाकिर ….” जज साहब मुस्कुरा कर बोले, “आप लोग यहाँ कब आये?’

“कल..!”

“इसलिए शाकिर से मिलने जा रहे हैं.” जज साहब ने जेब से रिवाल्वर निकालते हुए कहा. लेकिन मैं तुम लोगों को उसके पास पहुँचा सकता हूँ.”

“मैं आपका मतलब नहीं समझा.” फ़रीदी ने नरमी से कहा.

“तुम क्यों समझने लगे…समझोगे उस वक्त, जब हाथों में हथकड़ियाँ पड़ी होंगी.”

“यानी…!”

”चोर कहीं के,” जज साहब गरजे.”

“ज़रा तमीज़ से बात कीजिए.” हमीद आपे से बाहर होकर बोला.

“खामोश रहो भाई…जज साहब गुस्से में मालूम होते हैं.” फ़रीदी हमीद का कंधा थपथापते हुए बोला.

“तुम लोगों की दिलेरी, सीनाज़ोरी तुम्हें हरगिज़ न बचा सकेगी.”

“सीनाज़ोरी…!”

“मेरे कासनी पामोज़ की मादा को, जिसके सिर पर सफ़ेद चोटी है, तुम्हें ले गये हो और अब शायद जोड़ा पूरा करना चाहते हो. इतना याद रखो कि मैं पुलिस के हवाले किये बगैर न मानूंगा.” जज साहब ने वैसे ही रिवाल्वर ताने हुए कहा, “या फिर उसे वापस कर दो.”

फ़रीदी ने मुस्कुरा कर हमीद की तरफ़ देखा, जो खड़ा तमाशा देख रहा था, “शायद आपका दिमाग ख़राब हो गया है.”

“नहीं हमीद …जज साहब बिल्कुल ठीक कह रहे हैं. क्या तुमने अभी थोड़ी देर पहले एक सफ़ेद चोटीदार कासनी पामोज़ नहीं देखा था.” फ़रीदी ने हमीद से फिर कहा. फिर जज साहब की तरफ़ देखकर बोला, “लेकिन जज साहब मुझे अफ़सोस है कि इस वक्त वह कबूतर एस.पी. माथुर के पास है…”

“फालतू बकवास के लिए मेरे पास वक़्त नहीं.” जज साहब गरज कर बोले.

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