चैप्टर 29 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 29 Kayakalp Novel By Munshi Premchand
Chapter 29 Kayakalp Novel By Munshi Premchand
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सार्वजनिक काम के लिए कहीं भी क्षेत्र की कमी नहीं, केवल मन में नि:स्वार्थ सेवा का भाव होना चाहिए। चक्रधर प्रयाग में अभी अच्छी तरह जमने भी न पाए थे कि चारों ओर से उनके लिए खींचतान होने लगी। थोड़े ही दिन में वह नेताओं की श्रेणी में आ गए। उनमें देश का अनुराग था, काम करने का उत्साह था और संगठन करने की योग्यता थी। सारे शहर में एक भी ऐसा प्राणी न था, जो उनकी भांति नि:स्पृह हो। और लोग अपना फालतू समय ही सेवा कार्य के लिए दे सकते थे, द्रव्योपार्जन उनका मुख्य उद्देश्य था। चक्रधर के लिए इस समय काम के सिवा और कोई फिक्र न थी। यह कोई न पूछता कि आपको कोई तकलीफ तो नहीं है? काम लेने वाले बहुतेरे थे। सवारी करने वाले सब थे, पर घास-चारा देने वाला कोई भी न था। उन्होंने शहर के निकास पर एक छोटा सा मकान किराए पर ले लिया था और बड़ी किफायत से गुजर करते थे। आगरे में उन्हें जितने रुपए मिले थे, वे मुंशी वज्रधर की भेंट कर दिए थे। वहां रुपए का नित्य अभाव रहता था। कम मिलने पर कम तंगी रहती थी, क्योंकि जरूरतें घटा ली जाती थीं। अधिक मिलने पर तंगी भी अधिक हो जाती थी क्योंकि जरूरतें बढ़ा ली जाती थीं।
चक्रधर को अब ज्ञात होने लगा था कि गृहस्थी में पड़कर कुछ न कुछ आमदनी होनी ही चाहिए। अपने लिए उन्हें कोई चिंता न थी, लेकिन अहिल्या को वह दरिद्रता की परीक्षा में डालना न चाहते थे। वह अब बहुधा चिंतित दिखाई देती; यों वह कभी शिकायत न करती थी, पर यह देखना कठिन न था कि वह अपनी दशा से संतुष्ट नहीं है। वह गहने-कपड़े की भूखी न थी, सैरतमाशे का उसे चस्का नहीं था, पर खाने-पीने की तकलीफ उससे न सही जाती थी ! वह सब कुछ सह सकती थी। उसकी सहन शक्ति का वारापार न था। चक्रधर को इस दशा में देखकर उसे दुःख होता था। जब और लोग पहले अपने घर में चिराग जलाकर मस्जिद में जलाते हैं, तो वही क्यों अपने घर को अंधेरा छोड़कर मस्जिद में चिराग जलाने जाएंगे? औरों को अगर मोटरफिटन चाहिए, तो क्या यहां पैरगाड़ी भी न हो? दूसरों को पक्की हवेलियां चाहिएं, तो क्या यहां साफ-सुथरा मकान भी न हो? दूसरे जायदादपैदा करते हैं, तो क्या यहां भोजन भी न हो? आखिर प्राण देकर तो सेवा नहीं की जाती। अगर इस उत्सर्ग के बदले चक्रधर को यश का बड़ा भाग मिलता, तो शायद अहिल्या को संतोष हो जाता, आंसू पुंछ जाते, लेकिन जब वह औरों को बिना कष्ट उठाए चक्रधर के बराबर या उनसे अधिक यश पाते देखती थी, तो उसे धैर्य न रहता था। जब खाली ढोल पीटकर भी, अपना घर भरकर भी यश कमाया जा सकता है, तो इस त्याग और विराग की जरूरत ही क्या ! जनता धनियों का जितना मान-सम्मान करती है, उतना सेवकों का नहीं। सेवा-भाव के साथ धन भी आवश्यक है। दरिद्र सेवक, चाहे वह कितने ही सच्चे भाव से क्यों न काम करे, चाहे वह जनता के लिए प्राण ही क्यों न दे दे, उतना यश नहीं पा सकता, जितना एक धनी आदी अल्प-सेवा करके पा जाता है। अहिल्या को चक्रधर का आत्म-दमन इसीलिए बुरा लगता था और वह मुंह में कुछ न कहकर भी दुखी रहती थी। सेवा स्वयं अपना बदला है, यह आदर्श उसका समझ में न आता था।
अगर चक्रधर को अपना ही खर्च संभालना होता, तो शायद उन्हें बहुत कष्ट न होता, क्योंकि उनके लेख बहुत अच्छे होते थे और दो-तीन समाचार-पत्रों में लिखकर वह अपनी जरूरत-भर को पैदा कर लेते थे। पर मुंशी वज्रधर के तकाजों के मारे उनकी नाक में दम था। मनोरमा जगदीशपुर जाकर संसार से विरक्त-सी हो गई थी। न कहीं आती, न कहीं जाती और न रियासत के किसी मामले में बोलती। धन से उसे घृणा ही हो गई थी। सब कुछ छोड़कर वह अपनी कुटी में जा बैठी थी, मानो कोई संन्यासिनी हो, इसलिए अब मुंशीजी को केवल वेतन मिलता था और उसमें उनका गुजर न होता था। चक्रधर को बार-बार तंग करते, और उन्हें विवश होकर पिता की सहायता करनी पड़ती।
अगहन का महीना था। खासी सर्दी पड़ रही थी, मगर अभी तक चक्रधर जाड़े के कपड़े न बनवा पाए थे। अहिल्या के पास तो पुराने कपड़े थे, पर चक्रधर के पुराने कपड़े मुंशीजी के मारे बचने ही न पाते। या तो खुद पहन डालते, या किसी को दे देते। वह इसी फिक्र में थे कि कहीं से रुपए आ जाएं, तो एक कंबल ले लूं। आज बड़े इंतजार के बाद लखनऊ से एक मासिक पत्र के कार्यालय से पच्चीस रुपए का मनीआर्डर आया था और वह अहिल्या के पास बैठे हुए कपड़ों का प्रोग्राम बना रहे थे।
अहिल्या ने कहा, मुझे अभी कपड़ों की जरूरत नहीं है। तुम अपने लिए एक अच्छा-सा कंबल कोई पंद्रह रुपए में ले लो। बाकी रुपयों में अपने लिए ऊनी कुरता और एक जूता ले लो। जूता बिल्कुल फट गया है।
चक्रधर-पंद्रह रुपए का कंबल क्या होगा? मेरे लायक तीन-चार रुपए में अच्छा-सा कंबल मिल जाएगा। बाकी रुपयों से तुम्हारे लिए एक अलवान ला देता हूँ। सवेरे उठकर तुम्हें कामकाज करना पड़ता है, कहीं सर्दी खा जाओ, तो मुश्किल पड़े। ऊनी कुरते की जरूरत नहीं। हां, तुम एक सलूका बनवा लो। मैं तगड़ा आदमी हूँ, ठंड सह सकता हूँ।
अहिल्या-खूब तगड़े हो, क्या कहना है ! जरा आईने में जाकर सूरत तो देखो। जब से यहां आए हो, आधी देह भी नहीं रही। मैं जानती कि यहां आकर तुम्हारी यह दशा हो जाएगी, तो कभी घर से कदम न निकालती। मुझसे लोग छूत माना करते, क्या परवाह थी ! तुम तो आराम से रहते। अलवान-सलवान न लूंगी, तुम आज एक कंबल लाओ, नहीं तो मैं सच कहती हूँ, यदि बहुत दिक करोगे तो मैं आगरे चली जाऊंगी।
चक्रधर-तुम्हारी यही जिद तो मुझे अच्छी नहीं लगती। मैं कई साल से अपने को इसी ढंग के जीवन के लिए साध रहा हूँ। मैं दुबला हूँ तो क्या, गर्मी-सर्दी खूब सह सकता हूँ। तुम्हें यहां नौ-दस महीने हुए, बताओ मेरे सिर में एक दिन भी दर्द हुआ? हां, तुम्हें कपड़े की जरूरत है। तुम अभी ले लो अब की रुपए आएंगे, तो मैं बनवा लूंगा।
इतने में डाकिये ने पुकारा। चक्रधर ने जाकर खत ले लिया और उसे पढ़ते हए अंदर आए। अहिल्या ने पूछा-लालाजी का खत है? लोग अच्छी तरह हैं न?
चक्रधर-मेरे आते ही न जाने उन लोगों पर क्या साढ़ेसाती सवार हो गई कि जब देखो, एक न एक विपत्ति सवार ही रहती है। अभी मंगला बीमार थी। अब अम्मां बीमार हैं। बाबूजी को खांसी आ रही है। रानी साहब के यहां से अब वजीफा नहीं मिलता है। लिखा है कि इस वक्त पचास रुपए अवश्य भेजो।
अहिल्या-क्या अम्मांजी बहुत बीमार हैं?
चक्रधर-हां, लिखा तो है।
अहिल्या-तो जाकर देख ही क्यों न आओ?
चक्रधर-तुम्हें अकेली छोड़कर?
अहिल्या-डर क्या है?
चक्रधर-चलो। रात को कोई आकर लूट ले, तो चिल्ला भी न सको। कितनी बार सोचा कि चलकर अम्मां को देख आऊं, पर कभी इतने रुपए ही नहीं मिलते। अब बताओ, इन्हें रुपए कहाँ से भेजूं?
अहिल्या-तुम्हीं सोचो, जो बैरागी बनकर बैठे हो। तुम्हें बैरागी बनना था, तो नाहक गृहस्थी के जंजाल में फंसे। मुझसे विवाह करके तुम सचमुच बला में फंस गए। मैं न होती, तो क्यों तुम यहां आते और क्यों यह दशा होती? सबसे अच्छा है, तुम मुझे अम्मां के पास पहुंचा दो। अब वह बेचारी अकेली रो-रोकर दिन काट रही होंगी। जाने से निहाल हो जाएंगी।
चक्रधर-हम और तुम दोनों क्यों न चले चलें?
अहिल्या-जी नहीं, दया कीजिए। आप वहां भी मेरे प्राण खाएंगे और बेचारी अम्मांजी को रुलाएंगे ! मैं झूठों भी लिख दूं कि अम्मांजी, मैं तकलीफ में हूँ, तो तुरंत किसी को भेजकर मुझे बुला लें।
चक्रधर-मुझे बाबूजी पर बड़ा क्रोध आता है। व्यर्थ मुझे तंग करते हैं। अम्मां की बीमारी तो बहाना है, सरासर बहाना।
अहिल्या-यह बहाना हो या सच हो, ये पच्चीस रुपए भेज दो। बाकी के लिए लिख दो कोई फिक्र करके जल्दी ही भेज दूंगा। तुम्हारी तकदीर में इस साल जड़ावल नहीं लिखा है।
चक्रधर-लिखे देता हूँ, मैं खुद तंग हूँ, आपके पास कहाँ से भेजूं?
अहिल्या-ए हटो भी, इतने रुपयों के लिए मुंह चुराते हो, भला वह अपने दिल में क्या कहेंगे ! ये रुपए चुपके से भेज दो!
चक्रधर कुछ देर तक मौन धारण किए बैठे रहे, मानो किसी गहरी चिंता में हों। एक क्षण के बाद बोले-किसी से कर्ज लेना पड़ेगा, और क्या।
अहिल्या-नहीं, तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ, कर्ज मत लेना। इससे तो इंकार कर देना ही अच्छा
है।
चक्रधर-किसी ऐसे महाजन से लूंगा, जो तकादे न करेगा। अदा करना बिल्कुल मेरी इच्छा पर होगा।
अहिल्या-ऐसा कौन महाजन है, भई? यहीं रहता है? कोई दोस्त होगा? दोस्त से तो कर्ज लेना ही न चाहिए। इससे तो महाजन कहीं अच्छा। कौन हैं, जरा उसका नाम तो सुनूं?
चक्रधर-अजी, एक पुराना दोस्त है, जिसने मुझसे कह रखा है तुम्हें जब रुपए की कोई जरूरत आ पड़े, जो टाले न टल सके, तो तुम हमसे मांग लिया करना, फिर जब चाहे दे देना।
अहिल्या-कौन है, बताओ, तुम्हें मेरी कसम!
चक्रधर-तुमने कसम रखा दी, यह बड़ी मुश्किल आ पड़ी। वह मित्र रानी मनोरमा हैं। उन्होंने मुझे घर से चलते समय एक छोटा-सा बैग दिया था। मैंने उस वक्त तो खोला नहीं, गाड़ी में बैठकर खोला, तो उसमें पांच हजार रुपए के नोट निकले। सब रुपए ज्यों-के-त्यों रखे हुए हैं।
अहिल्या-और तो कभी नहीं निकाला?
चक्रधर-कभी नहीं, यह पहला मौका है।
अहिल्या-तो भूलकर भी न निकालना।
चक्रधर-लालाजी जिंदा न छोड़ेंगे, समझ लो।
अहिल्या-साफ कह दो, मैं खाली हाथ हूँ, बस। रानीजी की अमानत किसी मौके से लौटानी होगी। अमीरों का एहसान कभी न लेना चाहिए, कभी-कभी उसके बदले में अपनी आत्मा तक बेचनी पड़ती है। रानीजी तो हमें बिल्कुल भूल ही गईं। एक खत न लिखा।
चक्रधर-आजकल उनको अपने घर के झगड़ों ही से फुरसत न मिलती होगी। राजा साहब से विवाह करके अपना जीवन ही नष्ट कर दिया।
अहिल्या-हृदय बड़ा उदार है।
चक्रधर-उदार ! यह क्यों नहीं कहतीं कि अगर उनकी मदद न हो, तो प्रांत की कितनी ही सेवा-संस्थाओं का अंत हो जाए । प्रांत में यदि ऐसे लगभग दस प्राणी हो जाएं तो बड़ा काम हो जाए ।
अहिल्या-ये रुपए लालाजी के पास भेज दो, तब तक और सरदी का मजा उठा लो।
अहिल्या उसी दिन बड़ी रात तक चिंता में पड़ी रही कि जड़ावल का क्या प्रबंध हो। चक्रधर ने सेवा-कार्य का इतना भारी बोझ अपने सिर ले लिया था कि उनसे अधिक धन कमाने की आशा न की जा सकती थी। बड़ी मुश्किलों से रात को थोड़ा-सा समय निकालकर बेचारे कुछ लिख-पढ़ लेते थे। धन की उन्हें चेष्टा ही न थी। इसे वह केवल जीवन का उपाय समझते थे। अधिक धन कमाने के लिए उन्हें मजबूर करना उन पर अत्याचार करना था। उसने सोचना शुरू किया, मैं कुछ काम कर सकती हूँ या नहीं। सिलाई और बूटे-कसीदे का काम वह खूब कर सकती थी, पर चक्रधर को यह कब मंजूर हो सकता था कि वह पैसे के लिए यह काम करे? एक दिन उसने एक मासिक पत्रिका में अपनी एक सहेली का लेख देखा। दोनों आगरे में साथ-साथ पढ़ती थीं। अहिल्या हमेशा उससे अच्छा नंबर पाती थी। यह लेख पढ़ते ही अहिल्या की वही दशा हुई, जो किसी असील घोड़े को चाबुक पड़ने पर होती है। वह कलम लेकर बैठ गई और उसी विषय की आलोचना करने लगी, जिसपर उसकी सहेली का लेख था। वह इतनी तेजी से लिख रही थी, मानो भागते हुए विचारों को समेट रही हो। शब्द और वाक्य आप ही आप निकलते चले आते थे। आध घंटे में उसने चार-पांच पृष्ठ लिख डाले। जब उसने उसे दुहराया, तो उसे ऐसा जान पड़ा कि मेरा लेख सहेली के लेख से अच्छा है। फिर भी उसे सम्पादक के पास भेजते हुए उसका जी डरता था कि कहीं अस्वीकृत न हो जाए । उसने दोनों लेखों को दो-तीन बार मिलाया और अंत को तीसरे दिन भेज ही दिया। तीसरे दिन जवाब आया। लेख स्वीकृत हो गया था, फिर भेजने की प्रार्थना की थी और शीघ्र ही पुरस्कार भेजने का वादा था। तीसरे दिन डाकिये ने एक रजिस्ट्री चिट्ठी लाकर दो। अहिल्या ने खोला, तो दस रुपए का नोट था। अहिल्या फूली न समाई। उसे इस बात का संतोषमय गर्व हुआ कि गृहस्थी में मैं भी मदद कर सकती हूँ। उसी दिन उसने एक दूसरा लेख लिखना शुरू किया, पर अबकी जरा देर लगी। तीसरे दिन लेख भेज दिया गया।
पूस का महीना लग गया। जोरों की सर्दी पड़ने लगी। स्नान करते समय ऐसा मालूम होता था कि पानी काट खाएगा, पर अभी तक चक्रधर जड़ावल न बनवा सके। एक दिन बादल हो आए और ठंडी हवा चलने लगी। चक्रधर दस बजे रात को अछूतों की किसी सभा से लौट रहे थे, तो मारे सर्दी के कलेजा कांप उठा। चाल तेज की, पर सर्दी कम न हुई। तब दौड़ने लगे। घर के समीप पहुँचकर थक गए। सोचने लगे-अभी से यह हाल है भगवान्, तो रात कैसे कटेगी? और मैं तो किसी तरह काट भी लूंगा, अहिल्या का क्या हाल होगा? इस बेचारी को मेरे कारण बड़ा कष्ट हो रहा है। सच पूछो, तो मेरे साथ विवाह करना इसके लिए कठिन तपस्या हो गई। कल सबसे पहले कपड़ों की फिक्र करूंगा। यह सोचते हुए वह घर आए, तो देखा कि अहिल्या अंगीठी में कोयले भरे ताप रही है। आज वह बहुत प्रसन्न दिखाई देती थी। रात को रोज रोटी और कोई साग खाया करते थे। आज अहिल्या ने पूरियां पकाई थीं, और सालन भी कई प्रकार का था। खाने में बड़ा मजा आया। भोजन करके लेटे तो दिखाई दिया, चारपाई पर एक बहुत अच्छा कंबल पड़ा हुआ है। विस्मित होकर पूछा-यह कंबल कहाँ था?
अहिल्या ने मुस्कराकर कहा-मेरे पास ही रखा था। अच्छा है कि नहीं?
चक्रधर-तुम्हारे पास कंबल कहाँ था? सच बताओ, कहाँ मिला? बीस रुपए से कम का न होगा।
अहिल्या-तुम मानते ही नहीं, तो क्या करूं। अच्छा, तुम्हीं बताओ कहाँ था?
चक्रधर-मोल लिया होगा। सच बताओ रुपए कहाँ थे?
अहिल्या-तुम्हें आम खाने से मतलब है या पेड़ गिनने से?
चक्रधर-जब तक यह न मालूम हो जाए कि आम कहाँ से आए, तब तक मैं उनमें हाथ भी न लगाऊं।
अहिल्या-मैंने कुछ रुपए बचा के रखे थे। आज कंबल मंगवा लिया।
चक्रधर-मैंने तुम्हें इतने रुपए कब दिए कि खर्च करके बच जाते? कितने का है?
अहिल्या-पच्चीस रुपए का। मैं थोड़ा-थोड़ा बचाती गई थी।
चक्रधर-मैं यह मानने का नहीं। बताओ, रुपए कहाँ मिले?
अहिल्या-बता ही दूं। अबकी मैंने ‘आर्य जगत्’ को दो लेख भेजे थे। उसी के पुरस्कार के तीस रुपए मिले थे। आजकल एक और लेख लिख रही हूँ।
अहिल्या ने समझा था, चक्रधर यह सुनते ही खुशी से उछल पड़ेंगे और प्रेम से मुझे गले लगा लेंगे, लेकिन यह आशा पूरी न हुई। चक्रधर ने उदासीन भाव से पूछा-कहाँ हैं लेख, जरा ‘आर्य जगत्’ देखू?
अहिल्या ने दोनों अंक लाकर उनको दे दिए और लजाते हुए बोली-कुछ है नहीं, ऊटपटांग जो जी में आया, लिख डाला।
चक्रधर ने सरसरी निगाह से लेखों को देखा। ऐसी सुंदर भाषा वह खुद न लिख सकते थे। विचार भी बहुत गंभीर और गहरे थे। अगर अहिल्या ने खुद कहा होता तो वह लेखों पर उसका नाम देखकर भी यही समझते कि इस नाम की कोई दूसरी महिला होगी। उन्हें कभी खयाल ही न हो सकता था कि अहिल्या इतनी विचारशील है, मगर यह जानकर भी वह खुश नहीं हुए। उनके अहंकार को धक्का-सा लगा। उनके मन में गृहस्वामी होने का जो गर्व अलक्षित रूप से बैठा हुआ था, वह चूर-चूर हो गया। वह अज्ञात भाव से बुद्धि में, विद्या में एवं व्यावहारिक ज्ञान में अपने को अहिल्या से ऊंचा समझते थे। रुपए कमाना उनका काम था। यह अधिकार उनके हाथ से छिन गया। विमन होकर बोले-तुम्हारे लेख बहुत अच्छे हैं और पहली ही कोशिश में तुम्हें पुरस्कार भी मिल गया, यह और खुशी की बात है, मुझे तो कंबल की जरूरत न थी। कम से कम में इतना कीमती कंबल न चाहता था, लेकिन इसे तुम्ही ओढ़ो। आखिर तुम्हारे पास तो वही एक पुरानी चादर है। मैं अपने लिए दूसरा कंबल ले लूंगा।
अहिल्या समझ गई कि यह बात इन्हें बुरी लगी। बोली-मैंने पुरस्कार के इरादे से तो लेख न लिखे थे। अपनी एक सहेली का लेख पढ़कर मुझे भी दो-चार बातें सूझ गईं। लिख डाली। अगर तुम्हारी इच्छा नहीं, तो अब न लिखूगी।
चक्रधर-नहीं, नहीं, मैं तुम्हें लिखने को मना नहीं करता। तुम शौक से लिखो, मगर मेरे लिए तुम्हें यह कष्ट उठाने की जरूरत नहीं। मुझे ऐश करना होता, तो सेवा क्षेत्र में आता ही क्यों? मैं सब सोच-समझकर इधर आया हूँ, मगर अब देख रहा हूँ कि ‘माया और राम’ दोनों साथ नहीं मिलते। मुझे राम को त्यागकर माया की उपासना करनी पड़ेगी।
अहिल्या ने कातर भाव से कहा-मैंने तो तुमसे किसी बात की शिकायत नहीं की। अगर तुम जो हो, वह न होकर धनी होते, तो शायद मैं अब तक क्वारी ही रहती। धन की मुझे लालसा न तब थी, न अब है। तुम जैसा रत्न पाकर अगर मैं धन के लिए रोऊ, तो मुझसे बढ़कर अभागिनी कोई संसार में न होगी। तुम्हारी तपस्या में योग देना मैं अपना सौभाग्य समझती हूँ। मैंने केवल यह सोचा कि जब मैंने मेहनत की है, तो उसकी मजूरी ले लेने में क्या हरज है ! यह कंबल तो कोई शाल नहीं है, जिसे ओढ़ने से संकोच हो। मेरे लिए चादर काफी है। तुम्हें जब रुपए मिलें, तो मेरे लिए लिहाफ बनवा देना।
कंबल रात भर ज्यों-का-त्यों तह किया हुआ पड़ा रहा। सर्दी के मारे चक्रधर को नींद न आती थी, पर कंबल को छुआ तक नहीं। उसका एक-एक रोयां सर्प की भांति काटने दौड़ता था। एक बार उन्होंने अहिल्या की ओर देखा। वह हाथ-पांव सिकोड़े, चादर सिर से ओढ़े एक गठरी की तरह पड़ी हुई थी, पर उन्होंने उसे भी वह कंबल न ओढ़ाया। उनका स्नेह-करुण हृदय रो पड़ा। ऐसा मालूम होता था, मानो कोई फूल तुषार से मुरझा गया हो। उनकी अंतरात्मा सहस्रों जिहाओं से उनका तिरस्कार करने लगी। समस्त संसार उन्हें धिक्कारता हुआ जान पड़ा-तेरी लोक सेवा केवल भ्रम है, कोरा प्रमाद है। जब तू उस रमणी की रक्षा नहीं कर सकता, जो तुझ पर अपने प्राण तक अर्पण कर सकती है, तो तू जनता का उपकार क्या करेगा? त्याग और भोग में दिशाओं का अंतर है। चक्रधर उन्मत्तों की भांति चारों ओर देखने लगे कि कोई ऐसी चीज मिले जो इसे ओढा सकू, लेकिन पुरानी धोतियों के सिवा उन्हें और कोई चीज न नजर आई। उन्हें इस समय भीषण मर्म-वेदना हो रही थी। अपना व्रत और संयम, अपना समस्त जीवन शुष्क और निरर्थक जान पड़ता था। जिस दरिद्रता का उन्होंने सदैव आह्वान किया था, वह इस समय भयंकर शाप की भांति उन्हें भयभीत कर रही थी। जिस रमणी-रत्न की ज्योति से रनिवास में उजाला हो जाता था, उसको मेरे हाथों यह यंत्रणा मिल रही है। सहसा अहिल्या ने आंखें खोल दी और बोली-तुम खड़े क्या कर रहे हो? मैं अभी स्वप्न देख रही थी कि कोई पिशाच मुझे नदी के शीतल जल में डुबाए देता है। अभी तक छाती धड़क रही है।
चक्रधर ने ग्लानित होकर कहा-वह पिशाच मैं ही हूँ, अहिल्या ! मेरे हाथों तुम्हें यह कष्ट मिल रहा है।
अहिल्या ने पति का हाथ पकड़कर चारपाई पर सुला दिया और वही कंबल ओढ़ाकर बोली-तुम मेरे देवता हो, जिसने मुझे मझधार से निकाला है। पिशाच मेरा मन है, जो मुझे डुबाने की चेष्टा कर रहा है।
इतने में पड़ोस के एक मुर्गे ने बांग दी। अहिल्या ने किवाड़ खोलकर देखा, तो प्रभात-कुसुम खिल रहा था। चक्रधर को आश्चर्य हुआ कि इतनी जल्दी रात कैसे कट गई।
आज वह नाश्ता करते ही कहीं बाहर न गए, बल्कि कमरे में जाकर कुछ लिखते-पढ़ते रहे। शाम को उन्हें कुमार सभा में एक वक्तृता देनी थी। विषय था ‘समाजसेवा’। इस विषय को छोड़कर वह पूरे घंटे भर तक ब्रह्मचर्य की महिमा गाते रहे। सात बजते-बजते वह फिर लौट आए और दस बजे तक लिखते रहे। आज से यही उनका नियम हो गया। नौकरी तो वह कर न सकते थे। चित्त को इससे घृणा होती थी, लेकिन अधिकांश समय पुस्तकें और लेख लिखने में बिताते। उनकी विद्या और बुद्धि अब सेवा के अधीन नहीं, स्वार्थ के अधीन हो गई। भाव के साथ उनके जीवन-सिद्धांत भी बदल गए। बुद्धि का उद्देश्य केवल तत्व-निरूपण और विद्या-प्रसार न रहा, वह धनोपार्जन का मंत्र बन गया। उस मकान में अब उन्हें कष्ट होने लगा। दूसरा मकान लिया, जिसमें बिजली के पंखे और रोशनी थी। इन नए सांधनों से उन्हें लिखने-पढ़ने में और भी आसानी हो गई। बरसात में मच्छरों के मारे कोई मानसिक काम न कर सकते थे। गर्मी में तो नन्हें से आंगन में बैठना भी मुश्किल था, काम करने का जिक्र ही क्या? अब वह खुली हुई छत पर बिजली के पंखे के सामने शाम ही से बैठकर काम करने लगते थे। अहिल्या खुद तो कुछ न लिखती, पर चक्रधर की सहायता करती रहती थी। लेखों को साफ करना, अन्य पुस्तकों और पत्रों से अवतरणों की नकल करना उसका काम था। पहले ऊसर की खेती करते थे, जहां न धन था, न कीर्ति। अब धन भी मिलता था और कीर्ति भी। पत्रों के संपादक उनसे आग्रह करके लेख लिखवाते थे। लोग इन लेखों को बड़े चाव से पढ़ते थे। भाषा भी अलंकृत होती थी, भाव भी सुंदर, विषय भी उपयुक्त ! दर्शन से उन्हें विशेष रुचि थी। उनके लेख भी अधिकांश दार्शनिक होते थे।
पर चक्रधर को अब अपने कृत्यों पर गर्व न था। उन्हें काफी धन मिलता था। योरप और अमरीका के पत्रों में भी उनके लेख छपते थे। समाज में उनका आदर भी कम न था, पर सेवाकार्य में जो संतोष और शांति मिलती थी, वह अब मयस्सर न थी। अपने दीन, दुखी एवं पीड़ित बंधुओं की सेवा करने में जो गौरव-युक्त आनंद मिलता था, वह सभ्य समाज की दावतों में न प्राप्त होता था। मगर अहिल्या सुखी थी। वह अब सरल बालिका नहीं, गौरवशाली युवती थी-गृहप्रबंध में कुशल, पति सेवा में प्रवीण, उदार, दयालु और नीति-चतुर। मजाल न थी कि नौकर उसकी आंख बचाकर एक पैसा भी खा जाए। उसकी सभी अभिलाषाएं पूरी होती जाती थीं। ईश्वर ने उसे एक सुंदर बालक भी दे दिया। रही-सही कसर भी पूरी हो गई।
इस प्रकार पांच साल गुजर गए।
एक दिन काशी से राजा बिशालसिंह का तार आया। लिखा था-‘मनोरमा बहुत बीमार है। तुरंत आइए। बचने की कम आशा है।’ चक्रधर के हाथ से कागज छूट कर गिर पड़ा। अहिल्या संभाल न लेती, तो शायद वह खुद भी गिर पड़ते। ऐसा मालूम हुआ, मानो मस्तक पर किसी ने लाठी मार दी हो। आंखों के सामने तितलियां-सी उड़ने लगीं। एक क्षण के बाद संभलकर बोले-मेरे कपड़े बक्स में रख दो, मैं इसी गाड़ी से जाऊंगा।
अहिल्या-यह हो क्या गया है? अभी तो लालाजी ने लिखा था कि वहां सब कुशल है।
चक्रधर-क्या कहा जाए? कुछ नहीं, यह सब गृह-कलह का फल है। मनोरमा ने राजा साहब से विवाह करके बड़ी भूल की। सौतों ने तानों से छेद-छेदकर उसकी जान ले ली। राजा साहब उस पर जान देते थे। यही सारे उपद्रव की जड़ है। अहिल्या ! वह स्त्री नहीं, देवी है।
अहिल्या-हम लोगों के यहां चले आने से शायद नाराज हो गई। इतने दिनों में केवल मुन्नू के जन्मोत्सव पर एक पत्र लिखा था।
चक्रधर-हां, उनकी यही इच्छा थी कि हम सब उनके साथ रहें।
अहिल्या-कहो तो मैं भी चलूं ? देखने को जी चाहता है। उनका शील और स्नेह कभी न भूलेगा।
चक्रधर-योगेंद्र बाबू को साथ लेते चलें। इनसे अच्छा तो यहां और कोई डॉक्टर नहीं है। अहिल्या-अच्छा तो होगा। डॉक्टर साहब से तुम्हारी दोस्ती है, खूब दिल लगाकर दवा करेंगे।
चक्रधर-मगर तुम मेरे साथ लौट न सकोगी, यह समझ लो। मनोरमा तुम्हें इतनी जल्दी न आने देगी।
अहिल्या-वह अच्छी तो हो जाएं। लौटने की बात पीछे देखी जाएगी। तो तुम जाकर डॉक्टर साहब को तैयार करो। मैं यहां सब सामान तैयार कर रही हूँ।
दस बजते-बजते ये लोग यहां से डाक पर चले। अहिल्या खिड़की से पावस का मनोहर दृश्य देखती थी, चक्रधर व्यग्र हो होकर घड़ी देखते थे कि पहुँचने में कितनी देर है और मुन्नू खिड़की से बाहर कूद पड़ने के लिए जोर लगा रहा था।
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