चैप्टर 28 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 28 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

चैप्टर 28 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 28 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Chapter 28 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Chapter 28 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

 शम्बर असुर की नगरी में : वैशाली की नगरवधू

अकस्मात् जैसे हृदय में धक्का खाकर सोमप्रभ की आंखें खुल गईं। उसने देखा, उसके हाथ-पांव कसकर बंधे हैं, और एक असुर तरुण स्वप्निल-सा कुण्डनी के हाथ-पांव बांध रहा है और वह बेसुध है। पांचों सैनिकों की भी वही दशा है, वे सब-के-सब बेसुध पड़े हैं। उसने इधर-उधर देखा, सामने कोई दस गज के अन्तर पर एक विशेष प्रकार की आग जल रही थी, जिसमें से नीली और बैंजनी रंग की लौ निकल रही थी। उसमें से विचित्र-सी गन्ध निकलकर हवा में फैल रही थी। उस हवा में श्वास लेने से सोमप्रभ को ऐसा मालूम हुआ, जैसे उसके शरीर से जीवन-शक्ति का लोप हो गया हो। उसने यह भी देखा कि उसके सम्पूर्ण शस्त्र उसके अंग पर ही हैं, पर वह उनका कोई उपयोग नहीं कर सकता। उसने ज़ोर से चिल्लाकर कुण्डनी को पुकारना चाहा, पर उसके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला। इस बीच में तरुण असुर कुण्डनी को बांध चुका था। अकस्मात् उसके हृदय में एक ऐसी तीव्र इच्छा उत्पन्न हुई कि वह चुपचाप उठकर एक ओर को चल दिया। एक बार पीछे फिरकर यह देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि कुण्डनी चुपचाप स्वप्निल व्यक्ति की भांति पीछे चली आ रही है। यही दशा उसके अश्वों और भटों की भी थी। उन्हें वही तरुण लिए जा रहा था। उसने अब भी बोलने, कुण्डनी से बातचीत करने और कहां जा रहा है, यह विचारने की चेष्टा की, पर सब बेकार। वह मन्त्रप्रेरित-सा आगे बढ़ा चला जा रहा था। और उसके पीछे कुण्डनी और उसके अश्व और भट चले आ रहे थे। उन्हें ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो कोई रस्सी से बांधकर उन्हें खींचे लिए जा रहा है।

पीछे वही तरुण था। वह रुक-रुककर कुछ शब्द कहता जाता था। कभी-कभी वन के बीच उपत्यका को प्रतिध्वनित करती हुई एक रोमांचकारी ध्वनि आती थी और उसी ध्वनि के उत्तर में वह तरुण असुर कोई अस्पष्ट शब्द उच्च स्वर से, मानो चीखकर, किन्तु बेबसी की हालत में उच्चारण कर रहा था।

पूर्व में सफेदी फैलने लगी और तारे धुंधले हो गए। ये यात्री चलते ही गए। अब किसी अदृश्य प्रेरणा से प्रेरित हो उन्होंने एक गहन गुफा में प्रवेश किया। गुफा में बिलकुल अन्धकार था। पर तरुण असुर ने क्षण-भर में वैसा ही नीला और बैंजनी रंग का प्रकाश उत्पन्न कर दिया। उसी के क्षीण प्रकाश में उन्होंने देखा, गुफा खूब लम्बी-चौड़ी और बड़ी है। वे उसमें भीतर-ही-भीतर चलते चले गए। बहुत देर चलने के बाद जब गुफा का दूसरा छोर आया, तो सोमप्रभ को ऐसा मालूम हुआ जैसे अकस्मात् गहरी नींद से जाग पड़ा हो। उसने देखा, दिन भली-भांति निकला है। सूर्य की मनोरम स्वर्ण-किरणें चारों ओर फैल रही हैं और उसकी आंखों के सामने एक खूब समथर हरा-भरा चौड़ा मैदान है, जो चारों ओर पहाड़ियों से घिरा हुआ है। इस मैदान में एक स्वच्छ, सुन्दर और कलापूर्ण अच्छाखासा गांव बसा हुआ है। घर सब गारे-पॉथर के हैं। उन पर गोल बांधकर छप्पर छाया गया है। बांसों को गाड़कर अहाते बनाए गए हैं। सड़कें खूब चौड़ी और साफ हैं, पशु पुष्ट और उनके गवाट कलापूर्ण ढंग से बने हैं। असुर तरुणियां सुर्मे के रंग की चमकती देह पर लाल मूंगे तथा हिमधवल मोतियों की माला धारण किए, चर्म के लहंगे पहने और कमर में स्वर्ण की करधनी तथा हाथों में स्वर्ण के मोटे-मोटे कड़े पहने कौतूहल से इन विवश बन्दियों का आगमन देख रही थीं। असुर बालक उन्हें क्रीड़ा और मनोरंजन की सामग्री समझ रहे थे। रूपसी कुण्डनी सम्पूर्ण असुर बालाओं और युवती जनों की स्पर्धा की वस्तु हो रही थी। वह लाल शाल कमर में बांधे तथा उत्तरीय वासक को वक्ष में लपेटे सर्पिणी के समान लहराते सघन केशों को चांदी के समान उज्ज्वल मस्तक पर धारण किए साक्षात् वन-देवी-सी प्रतीत हो रही थी। सोमप्रभ के निकट आकर उसने उसके कान में कहा—”सोम, जिस असुर पुरीकी चर्चा लोग कहानियों में करते थे, वह आज हम परम सौभाग्य से अपनी आंखों से देख रहे हैं। यह तो बड़ी मनोरम, शान्त और स्वच्छ छोटी-सी नगरी है। सोम, क्या तुम्हें यह देखकर आश्चर्य नहीं होता?”

“मुझे तो यह देखकर आश्चर्य होता है कि कुण्डनी इस असुरपुरी में कैसे निर्भय और विनोदी भाव से प्रवेश कर रही है।”

“भय क्या है सोम?”

“यह तो अभी पता चल जाएगा, जब शम्बर आज रात को हमें देवता पर बलि चढ़ाएगा।”

“क्या उसकी ऐसी सामर्थ्य है सोम?”

“उसकी सामर्थ्य क्या अभी तुमने देखी ही नहीं? नगर में घुसने के पूर्व तक हम लोग कैसे मूढ़ बने-से माया के वशीभूत इस असुरपुरी में खिंचे चले आए!”

“सच ही तो, यहां हम आ कैसे गए? यह तो बड़े आश्चर्य की बात है!”

“उसी आसुरी माया के बल पर। शायद सूर्योदय होने पर वह माया नष्ट हो गई।”

“उंह, पर अब तो मैं पूर्ण सावधान हूं और जब तक मैं सावधान हूं, शत्रु से डर नहीं सकती।”

“ऐसी वीरांगना को संगिनी पाकर मैं कृतार्थ हुआ कुण्डनी। अफसोस यही है कि तुम्हें जीवनसंगिनी कदाचित् न बना सकूँ।”

कण्डनी ने विषादपूर्ण हंसी हंसकर कहा—”यदि आज ही रात को असुर हमें देवता पर बलि चढ़ा दे, तब तो तुम्हारी साध पूरी जो जाएगी। तुम मुझे जीवन संगिनी ही समझ लेना। परन्तु सोम, क्या तुम बहुत भयभीत हो?”

“क्या भय की कोई बात नहीं है कुण्डनी?”

“हम शत्रुपुरी में हैं और विवश हैं, यही तो? इससे साहस खो बैठे? तक्षशिला में तुमने इतना ही पुरुषार्थ संचय किया था सोम?”

सोम एकटक कुण्डनी के तेजपूर्ण मुख को ताकने लगा। उसने इसके मदभरे उनींदे नेत्रों में प्यासी चितवन फेंककर कहा—”यह कौन-सी सामर्थ्य तुम्हारे भीतर से बोल रही है कुण्डनी?”

कुण्डनी ने हंसकर कहा—”सोम, तुम भी तो एक समर्थ पुरुष हो!”

“यदि मेरे हाथ-पैर बन्धनमुक्त हों और मेरा खड्ग मेरे पास हो, तो मुझे इन असुरों की परवाह नहीं।”

“ओह, फिर वही शारीरिक बल की बात कह रहे हो, सोम। याद रखो, यहां बुद्धि बल से विजय पानी होगी। मस्तिष्क को ठण्डा रखो और निर्भय आगे बढ़ो। देखें तो उस असुर का राजवैभव!”

इतने में ही बहुत-से वाद्य एक साथ बजने लगे। तुरही, भेरी, मुरज, मृदंग और ढोल। दोनों ने आंख उठाकर देखा, सामने लाल पत्थर का एक प्रशस्त दुर्ग है। उसके गोखों से असुर योद्धा सिर निकाल-निकालकर बन्दियों को देख रहे हैं। गढ़ के फाटक बहुत मोटी लकड़ी के हैं। उन्हें रस्सियों से खींचकर खोला जा रहा है। उसी के ऊपरी खण्ड में ये सब वाद्य बज रहे थे। फाटक पर बहुत-से असुर तरुण नंगे शरीर, कमर में खाल लपेटे, स्वर्ण करधानी पहने, विशाल भाले हाथ में लिए खड़े थे। उनके कज्जलगिरि-जैसे शरीर शीशे के समान चमक रहे थे।

कुण्डनी ने धीरे-से सोमप्रभ से कहा—”तुमने आसुरी भाषा कहां सीखी सोम!”

“मैंने गान्धार में अभ्यास किया था। देवासुर संग्राम में भी बहुत अवसर मिला। वहां असुर बन्दियों से मैं आसुरी भाषा में ही बोलता था।”

“तो सोम, उच्च स्वर से इन असुरों ही के समान असुरराज शम्बर का जय-जयकार करो!”

सोम ने यही किया। जय-जयकार का असुरों पर अच्छा प्रभाव पड़ा। उन्होंने हाथ उठाकर जय-जयकार में सहयोग दिया।

दुर्ग में प्रविष्ट होकर वे पत्थर की बड़ी सड़क पर कुछ देर चलकर एक बड़े दालान में पहुंचे। यह दालान आधा पहाड़ में गुफा की भांति खोदकर और आधा पकी ईंटों से चिनकर बनाया गया था। उसके बीचोंबीच पत्थर का एक ऊंचा सिंहासन रखा था। उस पर एक बाघम्बर बिछा था, जिसमें बाघ का विकराल मुख खुला दीख रहा था और उसकी बड़ी-बड़ी दाढ़ें चमक रही थीं। उसी पर शम्बर पद्मासन से बैठा था। उसका शरीर बहुत विशाल था। रंग अत्यन्त काला। अवस्था का पता नहीं चलता था, परन्तु अंग अत्यन्त दृढ़ था। कण्ठ में मुक्ताओं और मूंगों की कई छोटी-बड़ी मालाएं पड़ी थीं। भुजबन्द में स्वर्णमण्डित सूअर के दांत मढ़े थे। सिर खुला था। उसके बाल कुछ- कुछ लाल, घुंघराले और खूब घने थे। उन पर स्वर्णपट्ट में जड़े किसी पशु के दो पैने सींग मढ़े हुए थे। मुंह भारी और रुआबदार था। उस पर खिचड़ी गलमुच्छा था। मस्तक पर रक्तचन्दन का लेप था। सम्पूर्ण वक्ष स्वर्ण की ढाल जैसे किसी आभूषण से छिपा था। उसके सिंहासन के दोनों ओर दो विशाल बर्छ गड़े थे। सिंहासन के पीछे चार तरुणी असुरकुमारिकाएं खड़ी मोरछल और चामर डुला रही थीं। एक मद्यपात्र लिए निकट खड़ी थी। दो के हाथ में गन्धदीप थे, जिसमें से सुगन्धित धुआं उठ रहा था। सिंहासन के सामने वेदी थी, जिसमें वैसी ही बैंगनी और नीली आंच जल रही थी। सिंहासन के पीछे पत्थर की दीवार पर किसी अतिभयानक विकराल जन्तु की तस्वीर खुदी हुई थी। शम्बर के हाथों में भी मोटे-मोटे स्वर्ण के कड़े थे तथा हाथ में एक मोटा स्वर्णदण्ड था, जो ठोस मालूम होता था। उसकी आंखें गहरी, काली और चितवन बड़ी तेज़ और मर्मभेदिनी थी। दो बूढ़े असुर, जिनकी वेशभूषा लगभग राजा ही के समान थी, सिंहासन के नीचे व्याघ्र-चर्म पर बैठे थे।

सोम ने एकबार भली-भांति असुरराज के दरबार को देखा और धीरे-से कुण्डनी के कान में कहा—”इस असुर के पास तो स्वर्ण का बड़ा भण्डार दीख पड़ता है।”

“चुप! उच्च स्वर से असुर का अभिनन्दन करो।”

कुण्डनी का संकेत पाकर सोम ने आसुरी भाषा में कहा—”जिस असुरराज शम्बर की अमोघ शक्ति और महान् वैभव की कहानियां मनुष्य, देव और गन्धर्व घर-घर कहते नहीं अघाते, उनका मैं सोमप्रभ अभिनन्दन करता हूं।”

यह सुनकर असुरराज ने मुस्कराकर वृद्ध मंत्रियों से कुछ कहा। फिर सोम की ओर देखकर कहा—”गन्धर्व है या मनुष्य?”

“मनुष्य।”

“कहां का?”

“मगध का।”

“मगध के सेनिय बिम्बसार को मैं जानता हूं। परन्तु वह मेरा मित्र नहीं है। तू मेरे राज्य की सीमा में क्यों घुसा? जानता है, यह अक्षम्य अपराध है और उसका दण्ड है मृत्यु।”

“महासामर्थ्यवान् शम्बर का यह नियम शत्रु के लिए है, मित्र के लिए नहीं। प्रतापी मागध सम्राट् बिम्बसार असुरराज से मैत्री करना चाहते हैं।”

असुर ने फिर झुककर मन्त्रियों से परामर्श किया। फिर उसने कहा—”मागध बिम्बसार दनुकुल का था। अब वह मनुकुल में चला गया है तथा मनुष्य-धर्म का पालन कर रहा है। इसी से वह मेरा मित्र नहीं है। मनुकुल सदैव देवकुल का मित्र होता है, दनुकुल का नहीं।”

“परन्तु मागध बिम्बसार दनुकुल-भूषण सामर्थ्यवान् शम्बर की मित्रता चाहता है। उसका मैत्री-संदेश ही मैं लाया हूं।”

शम्बर ने मन्त्रियों से फिर परामर्श किया और कहा—”इसका प्रमाण क्या है?”

“यही, कि मैं विजयिनी मागध सैन्य साथ न लाकर एकाकी ही यहां चला आया हूं। मुझे विश्वास था कि महान् शम्बर मित्रवत् हमारा स्वागत करेगा।”

इस पर शम्बर ने बड़ी देर तक मन्त्रियों से विचार-विमर्श किया और फिर कुण्डनी की ओर संकेत करके कहा—”वह कौन सुन्दरी है?”

“वह भी मागधी है।”

“तब सेनिय बिम्बसार ऐसी सौ सुन्दरी मुझे दे, तो मैं बिम्बसार का मित्र हूं।”

सोमप्रभ का मुंह क्रोध से लाल हो गया। कुण्डनी ने उसपर लक्ष्य करके कहा—”बेकूफी मत करना सोम। वह क्या कह रहा है।”

“वह तुम्हारी-जैसी सौ सुन्दरी मित्रता के शुल्क में मांग रहा है।”

“उससे कहो, मागधी तरुणी विद्युत्प्रभ होती है। असुर उसे भोग नहीं सकते। उसे छूते ही असुरों की मृत्यु हो जाएगी।”

शम्बर ने कहा—”वह सुन्दरी बाला क्या कह रही है?”

“वह कहती है, मगध के सम्राट् सामर्थ्यवान् शम्बर की यह शर्त पूरी कर सकते हैं, परन्तु बाधा यह है कि मागधी तरुणियां विद्युत्प्रभ होती हैं। उन्हें भोगने की सामर्थ्य असुरों में नहीं है। उन्हें छूते ही असुरों की मृत्यु हो जाएगी।

“मैंने अपने यौवन में लोक-भ्रमण किया है। गान्धार, पशुपुरी, स्वर्णद्वीप और गन्धर्वलोक देखा है। देव-कन्याओं तथा गन्धर्व-तरुणियों का हरण किया है। ऐसा हरण हमारा कुलधर्म है। इन सभी देव-गन्धर्व-बालाओं को भोगने में हम असुर समर्थ हैं; तब मागधी बाला को क्यों नहीं?”

सोमप्रभ को इधर-उधर करते देख कुण्डनी ने कहा—”अब वह क्या कहता है?”

असुर का अभिप्राय जान कुण्डनी ने कहा—”उससे कहो, मागधी बाला को देवी वर है। वह असुरों के लिए आगम्य और अस्पृश्य है।”

यही बात सोम ने कह दी। तब असुर ने कहा—”अच्छा, फिर यहां एक मागधी तरुणी है ही। इस पर असुरों की परीक्षा कर ली जाएगी।”

सोमप्रभ लाल-लाल आंखें करके शम्बर की ओर देखने लगा। कुण्डनी ने कहा—”अब उसने क्या कहा सोम?”

“वह पाजी कहता है, इसी तरुणी पर असुरों की परीक्षा कर ली जाएगी।”

कुण्डनी ने तनिक हंसकर कहा—”क्रुद्ध मत हो! उससे कहो, वह नागपत्नी है। यदि असुर इस परीक्षा में प्राण-संकट का खतरा उठाना चाहें, तो ऐसा ही हो।”

शम्बर ने क्रुद्ध होकर कहा—”वह बाला हंसकर क्या कह रही है रे मनुष्य?”

सोम ने कहा—”वह कह रही है, कि यदि असुर प्राण-संकट का खतरा उठाकर यह परीक्षण करना चाहते हों, तो ऐसा ही हो। परन्तु वह नागपत्नी है और स्वयं नागराज वासुकि उसकी रक्षा करते हैं।”

असुरराज ने मन्त्रियों से सलाह करके कहा—”इसकी जल्दी नहीं है मनुष्य! इस पर फिर विचार कर लिया जाएगा। अभी तू असुरपुरी में हमारा अतिथि रह।”

फिर उसने मन्त्रियों को सम्बोधित करके कहा—”आज इन मनुष्यों के लिए नृत्य पानोत्सव हो। सब पौरों को खबर हो। ढोल पीटे जाएं।”

फिर उसने सोम की ओर घूमकर कहा—”तुझे भय नहीं है; किन्तु यदि मागध बिम्बसार मित्रता की शर्त पूरी नहीं करेगा तो प्रथम इस मागध सुन्दरी को और फिर तेरी देवता के सामने बलि दूंगा। अभी तू जाकर आहार विश्राम कर।”

उसने बाण के समान पैनी दृष्टि से सोम को देखा और उंगली उठाई फिर असुर तरुणों से कहा—”इन मनुष्यों के शस्त्र हरण करके बन्धन खोल दो।”

असुरराज यह कहकर आसन से उठकर भीतर चला गया। बन्दीगण भी अपने आश्रय स्थल को लौटे।

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