चैप्टर 27 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 27 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

चैप्टर 27 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 27 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Chapter 27 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Chapter 27 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

चम्पारण्य में : वैशाली की नगरवधू

दोपहर ढल गई थी, पर्वत की सुदूर उपत्यकाओं में गहरी काली रेखाएं दीख पड़ने लगी थीं। किन्तु पर्वत-शृंग के वृक्ष सुनहरी धूप में चमक रहे थे। सामने एक सघन घाटी थी, उसी की ओर सात अश्वारोही बड़े सतर्क भाव से अग्रसर हो रहे थे। उनके अश्व थक गए थे और पथरीली ऊबड़-खाबड़ धरती पर रह-रहकर ठोकरें खाते जाते थे। आगे के दो अश्वों पर कुण्डनी और सोम थे, उनके पीछे पांच भट सावधानी से इधर-उधर ताकते अपने अश्वों को सम्हालते हुए चल रहे थे।

बहुत देर तक सन्नाटा रहा। घाटी के मुहाने पर पहुंचकर सोमप्रभ ने कहा, “तनिक अश्व को बढ़ाए चलो, कुण्डनी। हमें जो कुछ बताया गया है, यदि वह सत्य है, तो इस घाटी के उस पार ही हमें एक हरा-भरा मैदान मिलेगा और उसके बाद चम्पा नगरी की प्राचीर दीख जाएगी।”

“परन्तु सोम, यह घाटी तो सबसे अधिक विकट है। तुम क्या भूल गए, यहीं कहीं उस असुर राजा की गढ़ी है, जिसके सम्बन्ध में बहुत-सी अद्भुत बातें प्रसिद्ध हैं! उसके फंदे में फंसकर कोई यात्री जीवित नहीं आता। सुना है, देवता को वह नित्य नरबलि देता है और उसकी आयु सैकड़ों वर्ष की है। पिता ने कहा था कि वे उसे देख चुके हैं—वह अलौकिक आसुरी विद्याओं का ज्ञाता है और उसके शरीर में दस हाथियों का बल है।”

“परन्तु क्या हम उसकी आंखों में धूल नहीं झोंक सकते? जिस प्रकार आज चार दिन से हम निर्विघ्न चले आ रहे हैं उसी प्रकार इस घाटी को भी पार कर लेंगे। भय मत कर कुण्डनी, परन्तु सूर्य अस्त होने में अब विलम्ब नहीं है, हमें सूर्यास्त से प्रथम ही यह अशुभ घाटी पार कर लेनी चाहिए।”

“खूब सावधानी की आवश्यकता है सोम, जैसे बने इस अशुभ घाटी को हम जल्दी पार कर जाएं। न जाने मेरा मन कैसा हो रहा है।”

“पार तो करेंगे ही कुण्डनी, क्या तुम्हें सोम के बाहुबल पर विश्वास नहीं है?”

“नहीं, नहीं, सोम, मैं तुम्हें सावधान किए देती हूं। यदि दुर्भाग्य से उस असुर का सामना करना ही पड़ा, तो शरीर के बल पर भरोसा न करना। उससे बुद्धि-कौशल ही से निस्तार पाना होगा।”

सोम ने हंसकर कहा—”तो कुण्डनी, तुम मेरी पथप्रदर्शिका रहीं।”

कुण्डनी हंसी नहीं, उसने एक मार्मिक दृष्टि साथी पर डाली और कहा—”यही सही!”

सोम ने अश्व को बढ़ाकर कुण्डनी के बराबर किया, फिर कहा—”कुण्डनी, आचार्यपाद ने कहा था कि तुम मेरी भगिनी हो, क्या यह सच है?”

“तुम क्या समझते हो, पिता झूठ बोलेंगे?”

“क्यों नहीं, यदि उचित और आवश्यक हुआ तो!”

“और तुम?”

“मैं भी। झूठ से मूर्ख भी भय खाते हैं, जो उसका उपयोग नहीं जानते, जैसे शस्त्र से अनाड़ी डरते हैं।”

“तो तुम्हारी राय में झूठ भी एक शस्त्र है!”

“बड़ा प्रभावशाली।”

इस बार कुण्डनी हंसी; उसने कहा—”तुम्हारा तर्क तो काटने के योग्य नहीं है, परन्तु पिता ने सत्य कहा था।”

“नहीं, नहीं कुण्डनी, आर्या मातंगी ने कहा था—तुम्हारी एक भगिनी है पर वह कुण्डनी नहीं है।”

“सोम, शत्रु को छोड़कर मैं प्रत्येक पुरुष की भगिनी हूं।”

“इसका क्या अर्थ है? यह तो गूढ़ बात है।”

“मेरे पिता जैसे गूढ़ पुरुष हैं, वैसे ही उनकी पुत्री भी। तुम उनको समझने की चेष्टा न करो।”

“किन्तु मैं कुण्डनी…।”

सोम की बात मुंह ही में रही, एक तीर सनसनाता हुआ कुण्डनी के कान के पास से निकल गया।

कुण्डनी ने चीत्कार करके कहा—”सावधान! शत्रु निकट है।”

परन्तु इससे प्रथम ही सोम ने अपना भारी बर्खा सामने की झाड़ी को लक्ष्य करके फेंका। झाड़ी हिली और एक क्रन्दन सुनाई दिया। सोम खड्ग खींच झाड़ी के पास पहुंचा। कुण्डनी और पांचों भटों ने भी खड्ग खींच लिए—सबने झाड़ी को घेर लिया।

उन्होंने देख, बर्खा एक पुरुष की पसलियों में पार होकर उसके फेफड़े में अटक गया है। जो आहत हुआ है उसका रंग काजल-सा काला है, खोपड़ी छोटी और चपटी है, कद नाटा है, नंगा शरीर है, केवल कमर में एक चर्म बंधा है, उस पर स्वर्ण की एक करधनी है, जिस पर कोई खास चिह्न है। उसके घाव और मुख से खून बह रहा था और वह जल्दी-जल्दी सांस ले रहा था। उसके साथ वैसा ही एक दूसरा युवक था। उसने एक भीत मुद्रा से पृथ्वी पर लेटकर सोम को प्रणिपात किया, फिर दोनों हाथ उठाकर प्राण-भिक्षा मांगने लगा।

सोम ने उसे संकेत से अभय दिया। फिर संकेत ही से कहा—” क्या वह असुर है?”

असुर ने स्वीकार किया। इस पर सोम ने आसुरी भाषा में कहा—”वह अपने साथी को देखे—मर गया या जीवित है।”

युवक अपनी ही भाषा में बोलते सुनकर आश्वस्त हुआ। फिर उसने साथी को झाड़ी से निकालकर चित्त लिटा दिया। सोम ने देखा—जीवित है, पर बच नहीं सकता। उसने एक सैनिक को उसके मुंह में जल डालने को कहा—सैनिक ने जल डाला। पर इसी समय एक हिचकी के साथ उसके प्राण निकल गए।

सोम ने अब दूसरे तरुण को अच्छी तरह देखा, उसकी करधनी ठोस सोने की थी तथा उसकी आंखों में खास तरह की चमक थी। सोमप्रभ ने उससे पूछा—”क्या वह असुरराज शम्बर का आदमी है?”

शम्बर के नाम पर वह झुका, उसने स्वीकृतिसूचक सिर हिलाया।

सोम ने पूछा—”क्या तुम अपने प्राणों के मूल्य पर हमें चम्पा का मार्ग प्रदर्शन कर सकते हो?”

युवक ने स्वीकृति दी। परन्तु अत्यन्त भयभीत होकर घाटी की ओर हाथ उठाकर दो-तीन बार ‘शम्बर’ नाम का ज़ोर-ज़ोर से उच्चारण किया।

सोम ने कहा—”क्या उधर जाने में खतरा है?”

“हां।”

“चम्पा जाने का कोई दूसरा मार्ग है?”

“है, किन्तु बहुत लम्बा है।”

“कितना समय लगेगा?”

“एक सप्ताह।”

“और इस घाटी के मार्ग से?”

“एक दिन।”

सोम ने कुण्डनी से कहा—”लाचारी है! हमें खतरा उठाना ही पड़ेगा। हम एक सप्ताह तक रुक नहीं सकते।” उसने तरुण से कहा–

“हमें घाटी का मार्ग दिखाओ।”

तरुण असुर ने अत्यन्त भयमुद्रा दिखाकर उंगली गर्दन पर फेरी। सोम ने अपना खड्ग ऊंचा करके कहा—”चिन्ता मत करो।” असुर ने कहा—”खड्ग से आप बच नहीं सकेंगे।”

परन्तु सोम ने उधर ध्यान नहीं दिया। वे अश्व पर सवार हुए। कुण्डनी को भी सवार कराया और आगे-आगे युवक को करके घाटी की ओर अग्रसर हुए। एक बार उन्होंने तरुण असुर की छाती पर बर्छा रखकर कहा—”यदि दगा की तो मारे जाओगे।”

तरुण ने नेत्रों में करुण मुद्रा भरकर प्रणिपात किया, फिर स्वर्ण-करधनी का चिह्न छूकर प्राणान्त सेवा का वचन दिया।

आगे-आगे तरुण, पीछे अश्व पर सोम और कुण्डनी और उनके पीछे पांचों सैनिक द्रुत गति से आगे बढ़ने लगे। पर ज्यों-ज्यों घाटी के नीचे उतरते गए, उनका भय-आतंक बढ़ता ही गया। उन्हें एक अशुभ भावना का आभास होने लगा। सोम ने धीरे-से कहा—”कुण्डनी, क्या हम खतरे के मुंह में जा रहे हैं?”

“मालूम तो ऐसा ही होता है?”

“तब क्या लौट चलें?”

“अब सम्भव नहीं है।”

“क्या तुम भयभीत हो?”

“व्यर्थ है।”

और बातें नहीं हुईं। कुछ देर चुपचाप सब चलते रहे। घाटी में अन्धकार बढ़ता गया। तरुण ने एक झरना दिखाकर कहा—”अब आज इससे आगे जाना ठीक नहीं।”

सोम ने भी यही ठीक समझा। सब घोड़ों से उतर पड़े। घोड़े रास के सहारे बांध दिए गए। वे हरी-हरी घास चरने लगे। सोम ने तरुण असुर से कहा—”यहां आखेट है?”

वह कुछ मुस्कराता हुआ सिर हिलाता कहीं चला गया और थोड़ी देर में बहुत-सी जड़ें और कुछ जंगली फल उठा लाया। सबने वही खाया। फिर बारी-बारी से एक-एक सैनिक को पहरे पर तैनात कर दोनों सो गए। थकान के कारण उन्हें तुरन्त ही गहरी नींद आ गई।

Prev | Next | All Chapters

अदल बदल आचार्य चतुर सेन शास्त्री का उपन्यास

आग और धुआं आचार्य चतुर सेन शास्त्री का उपन्यास

देवांगना आचार्य चतुर सेन शास्त्री का उपन्यास 

Leave a Comment