चैप्टर 27 मैला आँचल फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास | Chapter 27 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel

चैप्टर 27 मैला आँचल फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास | Chapter 27 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel, Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Ka Upanyas 

Chapter 27 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu

Chapter 27 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel

डाक्टर की जिन्दगी का एक नया अध्याय शुरू हुआ है। उसने प्रेम, प्यार और स्नेह को बायोलॉजी के सिद्धान्तों से ही हमेशा मापने की कोशिश की थी। वह हँसकर कहा करता, “दिल नाम की कोई चीज आदमी के शरीर में है, हमें नहीं मालूम। पता नहीं आदमी ‘लंग्स’ को दिल कहता है या ‘हार्ट’ को। जो भी हो, ‘हार्ट’ ‘लंग्स’ या ‘लीवर’ का प्रेम से कोई सम्बन्ध नहीं है।”

अब वह यह मानने को तैयार है कि आदमी का दिल होता है, शरीर को चीर-फाड़कर जिसे हम नहीं पा सकते हैं। वह ‘हार्ट’ नहीं वह अगम अगोचर जैसी चीज है, जिसमें दर्द होता है, लेकिन जिसकी दवा ‘ऐड्रिलिन’ नहीं। उस दर्द को मिटा दो, आदमी जानवर हो जाएगा।…दिल वह मन्दिर है जिसमें आदमी के अन्दर का देवता बास : करता है।

बचपन से ही वह अपने जन्म की कहानी को कभी भूल नहीं सका। प्रत्येक इतिहास पर गौरव करनेवाले युग में पले हुए हर व्यक्ति को अपने खानदान की ऐसी कहानी चाहिए जिसके उजाले से वह दुनिया में चकाचौंध पैदा कर दे। लेकिन डाक्टर के वंश-इतिहास पर काली रोशनाई पुती हुई है-जेल की सेंसर की हुई चिट्ठियों की तरह। काली रोशनाई से किसी हिस्से को इस तरह पोत दिया जाता है कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि उस हिस्से में कभी कुछ लिखा हुआ था।…जन्म देनेवाली माँ ने भी जिसे दूर कर दिया।…अँधेरे में एक अभागिन माँ, दिल का दर्द और भयावनी छाया आकर हाथ बढ़ाती है, माँ अन्तिम बार अपने कलेजे के टुकड़े को, रक्त के पिंड को, एक पलक निहारती है, चूमती है। भयावनी छाया उसके हाथ से शिशु को छीन लेती है। माँ दाँतों से ओठ दबाए खड़ी रह जाती है !

डाक्टर ने अपनी माँ के स्नेह को, अँधेरे में खड़ी ‘सल्हुटेड’ तस्वीर-सी माँ के दुलार की कीमत को, समझने की चेष्टा की है। वह गला टीपकर मार भी तो सकती थी। खटमल को मसलने के लिए अंगुलियों पर जितना जोर डालना पड़ता है, उस पाँच घंटे की उम्र के शिशु की जीवन-लीला समाप्त करने के लिए उतने-से जोर की ही आवश्यकता थी। माँ ऐसा नहीं कर सकी।…शायद उसने चेष्टा की होगी। गले पर एक-दो बार अँगुलियाँ गई होंगी। सोया हुआ शिशु मुस्करा पड़ा होगा और वह उसे सहलाने लगी होगी।…उसने अपनी बेबस, लाचार और अभागिनी माँ के मन में उठनेवाले तूफान के झकोरे की कल्पना की है।…वह अपनी माँ के पवित्र स्नेह का; अपराजित प्यार का जीता-जागता प्रमाण है !

किसी भी अभागिन माँ की कहानी सुनते ही वह मन-ही-मन उसकी भक्ति करने लगता है। पतिता, निर्वासित और समाज की दृष्टि में सबसे नीच माँ की गोद में वह क्षण-भर के लिए अपना सिर रखने के लिए व्याकुल हो जाता है।…किसी स्त्री को प्रेमिका के रूप में कभी देखने की चेष्टा उसने नहीं की। वह मन-ही-मन बीमार हो गया था। एक जवान आदमी को शारीरिक भूख नहीं लगे तो वह निश्चय ही बीमार है, अथवा ‘ऍब्नॉर्मल’ है।

डाक्टर ने एक नए मोड़ पर मुड़कर देखा, दुनिया कितनी सुन्दर है !

वह लोक-कल्याण करना चाहता है। मनुष्य के जीवन को क्षय करनेवाले रोगों के मूल का पता लगाकर नई दवा का आविष्कार करेगा। रोग के कीड़े नष्ट हो जाएंगे, इंसान स्वस्थ हो जाएगा। दुनिया भर के मेडिकल कालेजों में उसके नाम की चर्चा होगी। ‘प्रशान्त मेथड’, ‘प्रशान्त रिऐक्शन’ । डब्ल्यू.आर. की तरह पी.आर. कहेंगे लोग। इसके बाद !…’टेस्टट्यूब बेबी’ किसे माँ कहेगा ? तब शायद माँ एक हास्यास्पद शब्द बनकर रह जाएगा।…जानते हो, पहले माँ हुआ करती थीं ?…एक अर्धनग्न से भी कुछ आगे लड़की, ‘टेली-काफ’ के द्वारा अमेरिकन पेस्ट्री का घर बैठे स्वाद लेती हुई मुड़कर ३ कहेगी-‘प्रीटेस्ट ट्यूब एज ? सि-सि !…म्वाँ ! ट्यूब म्वाँ !’

…माँ ! माँ वसुन्धरा, धरती माता ! माँ अपने पुत्र को नहीं मार सकी, लेकिन पुत्र अपनी माँ को गला टीपकर मार देगा। शस्य श्यामला !..

भारतमाता ग्रामवासिनी !

खेतों में फैला है श्यामल,

धूल भरा मैला-सा आँचल !

मैला आँचल ! लेकिन धरती माता अभी स्वर्णांचला है ! गेहूँ की सुनहली बालियों से भरे हुए खेतों में पुरवैया हवा लहरें पैदा करती है। सारे गाँव के लोग खेतों में हैं। मानो सोने की नदी में, कमर-भर सुनहले पानी में सारे गाँव के लोग क्रीड़ा कर रहे हैं। सुनहली लहरें ! ताड़ के पेड़ों की पंक्तियाँ झरबेरी का जंगल, कोठी का बाग, कमल के पत्तों से भरे हुए कमला नदी के गड्ढे ! डाक्टर को सभी चीजें नई लगती हैं। कोयल की कूक ने डाक्टर के दिल में कभी हूक पैदा नहीं की। किन्तु खेतों में गेहूँ काटते हुए मजदूरों की ‘चैती’ में आधी रात को कूकनेवाली कोयल के गले की मिठास का अनुभव वह करने लगा है।

सब दिन बोले कोयली भोर भिनसरवा…वा…वा

बैरिन कोयलिया, आजु बोलय आधी रतिया हो रामा…आँ…आँ

सूतल पिया के जगावे हो रामा…आँ…आँ

किसी के पिया की नींद न टूट जाए ! गहरी नींद में सोए हुए पिया के सिरहाने पंखा झलती हुई धानी को डर है, पिया की नींद न खुल जाए; सपना न टूट जाए !

डाक्टर भी किसी की दुलार-भरी मीठी थपकियों के सहारे सो जाना चाहता है, गहरी नींद में खो जाना चाहता है। जिन्दगी की जिस डगर पर बेतहाशा दौड़ रहा था, उसके अगल-बगल, आस-पास, कहीं क्षणभर सुस्ताने के लिए कोई छाँव नहीं मिली। उसने किसी पेड़ की डाली की शीतल छाया की कल्पना भी नहीं की थी। जीवन की इस नई पगडंडी पर पाँव रखते ही उसे बड़े जोरों की थकावट मालूम हो रही है। वह राह की खूबसूरती पर मुग्ध होकर छाँह में पड़ा नहीं रह सकेगा। मंजिल तक पहुँचने का यह कितना जबरदस्त रास्ता है जो राही को मंजिल तक पहुँचाने की प्रेरणा देता है !…वह क्षण-भर सुस्ताने के लिए उदार छाया चाहता है। प्यार !…

सूतल पिया के जगावे हो रामा !

पिया जग गए, धानी ने पिया को बिदाई दी। पिया को जाना है। हिमालय की चोटी को उषा की प्रथम किरण ने छूकर स्वर्णिम कर दिया। आम के बागों में कोयल-कोयली, दहियल और बुलबुल ने सम्मिलित सुर में मंगल-गीत गाए ! खेतों से गीत की कड़ियाँ पुरवैया के सहारे उड़ती आती हैं और डाक्टर के दिल में हलचल मचा जाती हैं।…गेहूँ की काटनी हो रही है। झुनाई हुई रव्वी की फसल की सोंधी सुगन्ध चारों ओर फैल रही है।

“डाक्टर साहब !”

“क्या है?”

“जरा चलिए। मेरी बहन को के हो रही है।”

“पेट भी चलता है ?”

“जी!”

डाक्टर तुरत तैयार होकर चल देता है। पास के ही गाँव में जाना है।…डॉयरिया होगा। लेकिन ‘सेलाइन ऐपरेटस’ भी ले लेना अच्छा होगा।

“तीस बार पेट चला है ?”

बिछावन पर पड़ी हुई युवती पीली पड़ गई है। उसके हाथ-पाँव अकड़ रहे हैं। पेशाब बन्द है। हैजा ही है। डाक्टर ‘सेलाइन ऐपरेटस’ ठीक करता है। स्पिरिट स्टोव जलाता है, नार्मल-सेलाइन की बोतल निकालता है। बूढ़ा बाप हाथ जोड़कर कुछ कहना चाहता है, और आखिर कह ही डालता है, “डाक्टर साहब, यह जो जकसैन दे रहे हैं इसका कितना होगा ?”

छोटे जकसैन का फीस तो दो रुपया है। इतने बड़े जकसैन का तो जरूर पचास रुपया होगा।

“क्यों ? पचास रुपया,” डाक्टर मुस्कराता है।

“तो रहने दीजिए। कोई दवा ही दे दीजिए।”

“दवा से कोई फायदा नहीं होगा।”

“लेकिन मेरे पास इतने रुपए कहाँ हैं ?”

“बैल बेच डालो,” डाक्टर पहले की तरह मुस्कराते हुए सेलाइन देने की तैयारी कर रहा है।

“डाक्टरबाबू, बैल बेच दूंगा तो खेती कैसे करूँगा ? बाल-बच्चे भूखों मर जाएँगे।…लड़की की बीमारी है।”

“क्या मतलब ?”

“हुजूर, लड़की की जात बिना दवा-दारू के ही आराम हो जाती है !”

…लड़की की जाति बिना दवा-दारू के ही आराम हो जाती है ! लेकिन बेचारे बूढ़े का इसमें कोई दोष नहीं। सभ्य कहलानेवाले समाज में भी लड़कियाँ बला की पैदाइश समझी जाती हैं। जंगल-झार !

डिग-डिग, डिडिग-डिडिग !

“…कल सुबह को इसपिताल में हैजा की सुई दी जाएगी। सभी लोग-बाल-बच्चे, बूढ़े-जवान, औरत-मर्द-आकर सूई ले लें।”…डिग-डिग डिडिग ! गाँव का चौकीदार ढोलहा दे रहा है।

हैजा के पहले रोगी को बचा लिया गया, लेकिन गाँव को नहीं बचाया जा सकता। डाक्टर ने ढोल दिलवाकर लोगों को सूई लेने की खबर दी, लेकिन कोई नहीं आया। ‘कुआँ में दवा डालने के समय लोगों ने दल बाँधकर विरोध किया-“चालाकी रहने दो ! डाक्टर कूपों में दवा डालकर सारे गाँव में हैजा फैलाना चाहता है। खूब समझते हैं !”

डाक्टर ने बालदेव जी, कालीचरन और चरखा-सेंटर के लोगों को खबर देकर बुलवाया। सहायता माँगी, “यदि लोगों ने सूई नहीं लगवाई और कुओं में दवा नहीं डालने दी तो एक भी गाँव को बचाना मुश्किल होगा।”

दोपहर को बालदेव जी, कालीचरन और चरखा-सेंटर के मास्टर-मास्टरनी जी डाक्टर साहब के साथ दल बाँधकर निकले और कुओं में दवा डाल दी गई। सूई देने की समस्या जटिल थी। कालीचरन ने कहा, “एक बात ! आज कोठी का हाट है। हाट लगते ही चारों ओर घेर लिया जाए और सबों को जबर्दस्ती सुई दी जाए ! जो लोग बाकी बची रहेंगे, उन्हें घर पर पकड़कर दी जाए।”

डाक्टर को यह सुझाव अच्छा लगा, लेकिन बालदेव जी ने एतराज किया, “किसी की इच्छा के खिलाफ जोर-जबर्दस्ती करना…”

“क्या बेमतलब की बात बोलते हैं,” चरखा-सेंटर की मास्टरनी जी बालदेव जी की बात काटते हुए बोली, “कालीचरन जी ठीक कहते हैं।”

बालदेव जी की कनपट्टी गर्म हो जाती है।…यह औरत बोलने का ढंग भी नहीं जानती ! नारी का सुभाव करकस नहीं होना चाहिए। कोठारिन जी कितनी मीठी बोली बोलती हैं। और यह तो मर्दाना औरत है। चरखा-सेंटर की मास्टरनी ! हूँ ! बहुत महिला कांग्रेसी को देखा है-माये जी, तारावती देवी, सरस्सती, उखादेवी, सरधादेवी। लेकिन कोई तो इतना करकस नहीं बोलती थी।…हुँ ! कालीचरन जी ठीक कहते हैं !…जबर्दस्ती करना हिंसाबाद नहीं तो और क्या है ?

कालीचरन के दलवालों ने हाट को घेर लिया है। डाक्टर साहब आम के पेड़ के नीचे टेबल पर अपना पूरा सामान रखकर तैयार हैं। कालीचरन एक-एक आदमी को पकड़कर लाता है, मास्टरनी जी स्पिरिट में भिगोई हुई रुई बाँह पर मल देती हैं और डाक्टर साहब सूई गड़ा देते हैं। तहसीलदार साहब नाम लिखते जाते हैं। हाट में भगदड़ मची हुई है। लेकिन भगकर किधर जाओगे ? चारों ओर सुस्लिंग पाटी का सिपाही खड़ा है।

“माई गे ! माई गे ! हे बेटा काली !”

“क्यों, रोती क्यों है ?”

“हे बेटा !”

“सारी देह में गोदना गोदाने के समय देह में सई नहीं गड़ी थी। चलो !”

सात सौ पचास लोगों को सूई दे दी गई है। अब जो लोग घर में रह गए हैं, उन्हें कल सुबह ही सूरज उगने के पहले ही दे देनी होगी।

डाक्टर साहब कहते हैं, “बीमारों की सेवा के लिए स्वयंसेवक चाहिए।”

कालीचरन अपने दल के साठ स्वयंसेवकों के साथ रात को अस्पताल में दाखिल हो जाएगा।

चरखा-सेंटर की मास्टरनी जी बड़ी निडर हैं। वह भी सेवा करने के लिए अपना नाम लिखाती हैं।

बावनदास हँसकर कहता है, “मुझे देखकर तो रोगी लोग डर जाएँगे डाक्टर साहब, मुझे और कोई काम दीजिए !”

बालदेव जी चुप हैं। उनको हैजा का बहुत डर है।

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