चैप्टर 25 मैला आँचल फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास | Chapter 25 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel

चैप्टर 25 मैला आँचल फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास | Chapter 25 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel, Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Ka Upanyas 

Chapter 25 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu 

Chapter 25 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel

बावनदास आजकल उदास रहा करता है।

“दासी जी, चुन्नी गुसाईं का क्या समाचार है ?” रात में बालदेव जी सोने के समय बावनदास से बातें करते हैं।

“चुन्नी गुसाईं तो सोसलिट पाटी में चला गया।”

बालदेव जी आश्चर्य से मुँह फाड़कर देखते ही रह जाते हैं।

“बालदेव जी भाई, अचरज की बात नहीं। भगवान जो करते हैं अच्छा करते हैं।”

“याद है दास जी, चन्ननपट्टी की सभा, तैवारी जी का लेक्चर और तनुकलाल का गीत ! याद करके आज भी रोवाँ कलप उठता है।…गंगा रे जमुनवाँ की धार…।”

“लेकिन भारथमाता अब भी रो रही हैं बालदेव !” बावनदास को नींद आ रही है।

बालदेव जी चमक उठते हैं। भारथमाता अब भी रो रही हैं ? ऐं ?…क्या कहता है बावनदास ?

बावनदास करवट लेते हुए कहता है, “बिलैती कपड़ा के पिकेटिंग के जमाने में चानमल-सागरमल के गोला पर पिकेटिंग के दिन क्या हुआ था, सो याद है तुमको बालदेव ? चानमल मड़बाड़ी के बेटा सागरमल ने अपने हाथों सभी भोलटियरों को पीटा था; जेहल में भोलटियरों को रखने के लिए सरकार को खर्चा दिया था। वही सागरमल आज नरपतनगर थाना कांग्रेस का सभापति है। और सुनोगे ?…दुलारचन्द कापरा को जानते हो न? वही जुआ कम्पनीवाला, एक बार नेपाली लड़कियों को भगाकर लाते समय जो जोगबनी में पकड़ा गया था। वह कटहा थाना का सिकरेटरी है।…भारथमाता और भी, जार-बेजार रो रही हैं।

बालदेव जी को आश्चर्य होता है। वह बावनदास से बहस करना चाहता है। लेकिन बावन तो खर्राटा लेने लगा।…बालदेव जी के समझ में कोई बात नहीं आ रही है।…भारथमाता जार-बेजार रो रही हैं ?…

बावनदास, चुन्नी गुसाईं और बालदेव जी ! तीनों ने एक ही दिन इस संसार के माया-मोह को त्यागकर सुराजी में नाम लिखाया था।

गृहस्थ चुन्नी गुसाईं ! चार बीघे जमीन, दो-चार आम-कटहल के पेड़, एक गाय और दो छोटे-छोटे लड़कों का एकमात्र अभिभावक। स्वभाव से धर्मभीरु। चन्दनपट्टी में सभा देखने गया। तैवारी जी ने भाखन दिया और तनुकलाल ने गीत गाया। सभी रोने लगे। चुन्नीदास के मन का मैल भी आँसुओं की धारा में बह गया। उसी दिन सुराजी में नाम लिखा गया। चर्खा-कर्घा, झंडा-तिरंगा और खद्दर को छोड़कर सभी चीजें मिथ्या हैं। सुदेशी बाना, विदेशी बैकाठ !

अरे देसवा के सब धन-धान विदेसवा में जाए रहे।

मँहगी पड़त हर साल कृसक अकुलाय रहे।

दुहाई गाँधी बाबा !…गाँधी बाबा अकेले क्या करें ! देश के हरेक आदमी का कर्तव्य है…।

का करें गाँधी जी अकेले, तिलक परलोक बसे,

कवन सरोजनी के आस अबहिं परदेस रही।

दुहाई गाँधी बाबा। चुन्नीदास को अपने शरण में ले लो प्रभु !…विदेशी कपड़ा बैकाठ…नीमक कानून…जेल। गाँजा-दारू छोड़िए प्यारे भाइयो…जेल। व्यक्तिगत सत्याग्रह…जेल। 1942…जेल।…सब मिलकर दस बार जेल-यात्रा कर चुका है चुन्नी गुसाईं !

और वह सोसलिट पाटी में चला गया ?

बावनदास !

पूर्वजन्म का फल अथवा सिरजनहार की मर्जी। प्रकृति की भूल अथवा थायराएड, , थायमस और प्युटिटिरी ग्लैंड्स के हेर-फेर ! डेढ़ हाथ की ऊँचाई ! साँवला रंग, मोटे होंठ, अचरज में डाल देनेवाली दाढ़ी और चौंका देनेवाली मोटी-भोंड़ी आवाज। ऊँचाई के हिसाब से आवाज दसगुना भारी। अजीब चाल, मानो लुढ़क रहा हो। अज्ञात कुलशील । जन्मजात साधू। जिस ओर होकर गुजरता, लोगों की निगाहें बरबस अटक जातीं। फिर ताज्जुब की हँसी-मुस्कराहट। पीछे-पीछे बच्चों का हुजूम, तमाशा; कुत्ते भुंकते, इंसान हँसते ! गर्भवती औरतें छिप जातीं अथवा छिपा दी जाती !…और जब भगवान ने उसे चलता-फिरता तमाशा ही बनाकर भेजा है, लोग उसे देखकर खुश हो लेते हैं तो क्यों न वह पारिश्रमिक माँग ले।…दे-दे मैया कुछ खाने को ! भगवान भला करेंगे। सेत्ताराम, सेत्ताराम !

चन्दनपट्टी की उस सभा में, तैवारी जी के भाखन और तनुकलाल के गीत ने इस डेढ़ हाथ के आदमी को ही झकझोर दिया था।…न जाने पूर्वजन्म के किस पाप का फल भोग रहा हूँ। क्या होगा यह सरीर रखकर ? चढ़ा दो गाँधी बाबा के चरण में, भारथमाता की खातिर !

अरे देसवा के खातिर मजहरुलहक भइलै फकिरवा से

दी भइलै राजेन्दरप्रसाद देशवासियो !

और वह तो फकीर ही है।…चुन्नी गुसाईं ने नाम लिखा लिया ? मेरा भी नाम लिख लिया जाए।-रामकिसुनबाबू की स्त्री उसे देखते ही चिल्ला उठी थी-भगवान। “बावन भगवान !”-उन्होंने पूर्णिया आने के लिए कहा था।

सेत्ताराम ! सेत्ताराम ! बन्देमहातरम् ! बन्देमहातरम् !

जिले की राजनीति के जनक रामकिसुनबाबू के बँगले पर वह जिस समय हाजिर हुआ, उस समय पुलिस की लौरी खड़ी थी। दारोगा साहब इन्तिजार कर रहे थे। रामकिसुनबाबू अपना आभारानी को जरूरी हिदायतें दे रहे थे।

बन्दे महातरम् ! बन्दे महातरम् !

“तुमि जाओ ! आमार जन्ये भेबो ना। ओई याखो, भगवान आमार काछे निजेई ऐसे गेछेन।” आभारानी की आँखें आनन्द से चमक उठी थीं।

आभारानी ने बावनदास को ‘भगवान’ छोड़कर किसी दूसरे नाम से कभी नहीं पुकारा।

कुछ दिनों बाद आभारानी भी गिरफ्तार हुईं। बावन भी पकड़ा गया। पुलिस ने एकाटा डंडा लगाकर उसे भगा देना चाहा, पर पहले ही डंडे की चोट को आभारानी ने झपटकर अपने शरीर पर ले लिया तो पुलिस के पाँव के नीचे की मिट्टी खिसक गई थी।…“आमार भगवान के मारो ना…।” खून से लथपथ खादी की सफेद साड़ी। पत्थर को भी पिघला देनेवाली, करुणा से भरी बोली, ‘आमार भगवान ! बावन के पूर्वजन्म के सारे पाप मानो अचानक ही पुण्य में बदल गए। सूखे ढूँठ में नई कोंपल लग गई। उसके मुँह से मोटी आवाज निकली थी-“माँ !”

माँ ! महात्मा गाँधी जी भी आभारानी को माँ ही कहते। 1934 में भूकम्प पीड़ित क्षेत्रों के दौरे पर जब बापू आए थे, साथ में थे रामकिसुनबाबू, आभारानी और बावनदास। बावनदास के बिना आभारानी एक डग भी कहीं नहीं जा सकतीं। गाँधी जी हँसकर बोले थे, “माँ, तुम्हारे भगवान से ईर्ष्या होती है।”…दन्तहीन, पोपले मुँह की वह पवित्र हँसी, बच्चों की हँसी जैसी !

फुलकाहा बाजार ! लाखों की भीड़। ऊँचा मंच… महात्मा गाँधी की जय !… रह-रहकर आकाश हिल उठता है। जय ! फिर आकाश हिलता है। रेलमपेल ! पुष्पवृष्टि…….चरणधूलि ! सीटी…स्वयंसेवक। कॉर्डन डालो…घेरा…घेरा !

मंच पर आगे-आगे रामकिसुनबाबू, आभारानी के कन्धे का सहारा लिए गाँधी जी।…वही गाँधी जी !…जै !…जै…आभारानी हाथ का सहारा देकर फिर किसी को मंच पर चढ़ा रही हैं ? कौन है वह ?…अरे बावनदास ! बौना !…गाँधी जी तर्जनी से सबों को शान्त रहने के लिए कह रहे हैं।…लाखों की भीड़ में बावनदास बँजड़ी बजाकर गाता है ‘एक राम-नाम धन साँचा जग में कछु न बाँचा हो!’ आवाज दूर तक नहीं पहुँचती। लेकिन बावनदास ! डेढ़ हाथ ऊँचा यह ‘झर-आदमी’ कितना बड़ा हो गया है ! महात्मा जी भीख माँगते हैं। हरिजनों के लिए दान दीजिए ! रुपए की थैली, सोने की अंगूठी, चेन, बुताम, हार, कंगन, अठन्नी, चवन्नी, दुअन्नी, अकन्नी, पत्थर का टुकड़ा। किन्तु सबकुछ देकर भी बावनदास से बड़ा होना असम्भव।

बावनदास को मानो कुबेर का भंडार मिल गया; ठूँठ के कोंपल नवपल्लव हो गए…बापू !

1937। पंडित जवाहरलाल नेहरू चुनाव के तूफानी दौरे पर आए हैं। बावनदास को देखकर ताज्जुब की मुद्रा बनाकर कुछ देर तक देखते ही रह गए। फिर ललाट पर बल और नाक पर अँगुली डालते हुए, गांगुली जी से अंग्रेजी में बोले, “आई रिमेंबर दि नेम ऑफ दैट बुक।” (मुझे उस किताब का नाम याद नहीं आ रहा है)।

“किंग ऑफ दि गोल्डन रिवर !” गांगुली जी ने छूटते ही जवाब दिया। फिर दोनों एक ही साथ हँस पड़े।

अब बावनदास भजन ही नहीं गाता, बिख्यान देना भी सीख गया है। वह बोलने को उठता है। माइक-स्टैंड काफी ऊँचा है। ऑपरेटर हैरान है। जल्दीबाजी में वह क्या करे ? कभी ऊँचा कभी नीचा करता है, फिर भी बावनदास से काफी ऊँचा है माइक-स्टैंड। नेहरू जी बड़ी फुर्ती से उठकर जाते हैं, माइक खोलकर हाथ में ले लेते हैं। झुककर बावनदास के मुँह के पास ले जाते हैं, “बोलिए !” जनता हँसती है। बावन जरा घबरा जाता है। नेहरू जी मुस्कराकर उसके गले में माला डाल देते हैं, “बोलिए।” प्रेस रिपोर्टरों के कीमती कैमरों के बटन एक ही साथ ‘क्लिक-क्लिक’ कर उठे थे। ‘नैशनल हेरल्ड’ के मुखपृष्ठ पर बड़ी-सी तस्वीर छपी थी-बावनदास के गले में माला है, नेहरू जी हाथ में माइक लेकर झुके हुए हैं, मुस्करा रहे हैं। तस्वीर के ऊपर लिखा हुआ था, ‘माइक ऑपरेटर नेहरू !’

अगस्त 1942 । कचहरी पर चढ़ाई। धाँय-धाँय। पुलिस हवाई फायर करती है। लोग भाग रहे हैं। बावनदास ललकारता है, जनता उलटकर देखती है। डेढ़ हाथ का इंसान सीना ताने खड़ा है।…’बम्बई से आई आवाज !’…जनता लौटती है। बावनदास पुलिसवालों के पाँवों के बीच से घेरे के उस पार चला जाता है और विजयी तिरंगा शान से लहरा उठता है।…महात्मा गाँधी की जय !

बावन को गाँधी जी जानते हैं, नेहरू जी जानते हैं और राजेन्द्रबाबू भी पहचानते हैं। प्रान्त-भर के लीडर और राजनीतिक कार्यकर्ता जानते हैं। कैम्प जेल में सुपरिटेंडेंट की बदनामी के खिलाफ कैदियों ने सामूहिक अनशन किया था। अन्त तक बावनदास ‘ और चुन्नी गुसाईं ही टिके रहे थे ! पच्चीस दिन का अनशन ! रदरफोर्ड और आर्चर ने इन दोनों को ‘देखने माँगा’ था। गाँधी जी की कठोर परीक्षा में, सत्य की परीक्षा में, सत्याग्रह की परीक्षा में, खरे उतरनेवाले दो कुरूप और भद्दे इंसान !

‘सुराजी’ में नाम लिखने के बाद सिर्फ दो बार बावन को माया ने अपने मोहजाल में फँसाने की कोशिश की थी। दोनों बार वह चेत गया था। मोहफाँस में फँसते-फँसते वह बच गया था।…महात्मा जी की कृपा !

एक बार रामकिसुनबाबू ने सिमरबनी से मुठिया में वसूल हुआ चावल लाने को भेजा था-“चावल बेचकर रुपया ले आना।” पाँच रुपए तीन आने। लौटती बार सिमराहा स्टेशन बाजार में जगमोहन साह की दूकान पर वह दही-चूड़ा खाने गया था। जगमोहन साह जलेबियाँ छान रहा था और सहुआइन जलेबियों को रस में डुबो रही थी। बावनदास के मन में बहुत देर तक रस में डूबी जलेबियाँ चक्कर काटती रहीं।…पथराहा के फागूबाबू ने अपने बाप के श्राद्ध में कंगाल भोजन कराया था। एक युग हो गया, बावन ने फिर जलेबी नहीं चखी। आखिर बावनदास ने दही-चूड़ा पर दो आने की जलेबियाँ ले ली।

लेकिन पेट में पहुँचने के बाद उसे अचानक ज्ञान हुआ। उसकी आँखों के आगे से माया का पर्दा उठ गया।…ये पैसे ? मुठिया ?…उसकी आँखों के सामने गाँव की औरतों की तस्वीरें नाचने लगीं।…हाँडी में चावल डालने के पहले, परम भक्ति और श्रद्धा से, एक मुट्ठी चावल गाँधी बाबा के नाम पर निकालकर रख रही हैं। कूट-पीसकर जो मजदूरी मिली है, उसमें से एक मुट्ठी ! भूखे बच्चों का पेट काटकर एक मुट्ठी ! और बावन ने उस पैसे से अपनी जीभ का स्वाद मिटाया ?…क्तभंग ! तपभ्रष्ट !…दुहाई गाँधी बाबा ! छिमा करो ! बावन फूट-फूटकर रोने लगा। उसकी आँखों से आँसू झड़ रहे थे और वह कंठ में अँगुलियाँ डालकर कै करता जाता था !…सेत्ताराम ! सेत्ताराम ! दो दिनों का उपवास ! आत्मशुद्धि, प्रायश्चित्त ! रामकिसुनबाबू ने बहुत समझाया, आभारानी परोसी हुई थाली लेकर सामने बैठी रहीं, लेकिन बावन ने उपवास नहीं तोड़ा।…”माँ, इस अपवित्तर मन को दंड देने से मत रोको। अशुद्ध आतमा मुझे बाबा की राह से डिगा देगी !”

माया का दूसरा फन्दा…

नमक कानून तोड़ने के समय श्रीमती तारावती देवी पटना से आई थीं। उनकी बोली में मानो जादू था। वह जहाँ जातीं, लोग उनके भाषण सुनने के लिए उमड़ पड़ते थे।…जवान औरत ! सिर पर पूँघट नहीं। भगवती दुर्गा की तरह तेजी से जल-जल करती है, सरकार को पानी-पानी कर देती है। “मुट्ठी-भर अंग्रेजों को हम नाच नचा देंगे। गोली, सूली और फाँसी का डर नहीं।” पुलिस-दारोगा डर से थर-थर काँपते हैं। “…अंग्रेजों के जूठे पत्तल चाटनेवाले ये हिन्दुस्तानी कुत्ते ?” जरूर उसमें भगवती का अंश है। सभा खत्म होने के बाद उनके निवास स्थान पर भी भीड़ लग जाती थी। बहुत-सी बाँझ-निपुत्तर औरतें चरण-धूलि लेने आती थीं। भगवती ! उनके खाने-पीने और आराम करने के समय भी लोग जमे रहते थे। आखिर स्वयंसेवकों के पहरे का प्रबन्ध करना पड़ा था।

एक दिन चन्दनपट्टी आश्रम में, दोपहर को तारावती जी बिछावन पर आराम कर रही थीं। सामने के दरवाजे पर पर्दा पड़ा हुआ था और पर्दे के इस पार ड्यूटी पर बावनदास। फागुन की दोपहरी। आम की मंजरियों का ताजा सुवास लेकर बहती हुई हवा पर्दे को हिला-हिलाकर अन्दर पहुँच जाती थी। तारावती जी की आँखें लग गईं। बावन ने हिलते-डुलते पर्दे के फाँक से यों ही जरा झाँककर देखा था। उसका कलेजा धक् कर उठा था, मानो किसी ने उसे जोर से पीछे की ओर धकेल दिया हो।…धीरे-धीरे पर्दे को हिलानेवाली फागुन की आवारा हवा ने बावन के दिल को भी हिलाना शुरू कर दिया। बावन ने एक बार चारों ओर झाँककर देखा, फिर पर्दे के पास खिसक गया ! झाँका। चारों ओर देखा और तब देखता ही रह गया मन्त्र-मुग्ध-सा !…पलँग पर अलसाई सोई जवान औरत ! बिखरे हुए घुघराले बाल, छाती पर से सरकी हुई साड़ी, खद्दर की खुली हुई अँगिया !…कोकटी खादी के बटन !…आश्रम की फुलवारी का अंग्रेजी फूल ‘गमफोरना’, पाँचू राउत का बकरा रोज आकर टप-टप फूलों को खा जाता है।…बावन ङ्केके पैर थरथराते हैं। यह आगे बढ़ा चाहता है।..वह जानता है ! वह इस औरत के कपड़े को फाड़कर चित्थी-चित्थी कर देना चाहता है। वह अपने तेज़ नाखूनों से उसके देह को चीर-फाड़ डालेगा। वह एक चीख सुनना चाहता है। वह अपने जबड़ों से पकड़कर उसे झकझोरेगा। वह मार डालेगा इस जवान गोरी औरत को। वह खून करेगा।…ऐं ! सामने की खिड़की से कौन झाँकता है ? गाँधी जी की तस्वीर ! दीवार पर गाँधी जी की तस्वीर ! हाथ जोड़कर हँस रहे हैं बापू !…बाबा ! धधकती हुई आग पर एक घड़ा पानी ! बाबा, छिमा ! छिमा ! दो घड़े पानी ! दुहाई बापू ! पानी पानी, पानी ! शीतल जल ! ठंडक… !

बावन आँखें खोलता है। रामकिसुनबाबू पानी की पट्टी दे रहे हैं। माँ पंखा झल रही हैं। गांगुली जी चुपचाप खड़े हैं और घबराई हुई तारावती कह रही हैं, “चीख सुनकर मेरी नींद खुली तो देखा यह धरती पर छटपटा रहा है।”

दूसरे दिन आभारानी एक गिलास टमाटर का रस देते हुए बोली थीं, “भगवान, आज थेके तोमाय रोज एक गिलास ऐई रस, आर रात्रे दुध खेते हबे।”

लेकिन, बावन तो सात दिनों का उपवास-व्रत ले चुका था। आत्मशुद्धि, इन्द्रियशुद्धि, प्रायश्चित्त ! आभारानी ने गांगुली के पास जाकर धीरे-धीरे सारी कहानी, सुना दी-“गांगुली जी ! आप माँ को समझा दीजिए। मैं व्रत तोड़ नहीं सकता। कल माया ने…!”

गांगुली जी ने हँसते हुए आभारानी से कहा था, “भगवानेर व्रत-भंग हउबा असम्भव। कारण गुरुतर। तबे आपनार भाग्य भालो जे बेचारा के सूरदासेर कथा मने पड़े नि, नईले एतखन आर भगवानेर चोख थाकतो ना” (भगवान का व्रत-भंग होना असम्भव है। आपका भाग्य अच्छा है कि उन्हें सूरदास की बात याद नहीं आई, वरना अब तक भगवान की आँखें नहीं रहतीं।)

आभारानी अवाक् होकर गांगुली जी की ओर देखती रह गई थीं, “की जानी बापू ?”

देवताओं और मन्दिरों के नगर, बनारस में रहकर भी आभारानी को सबसे पहले अपने ‘भगवान’ की याद आती है। कभी-कभी गांगुली जी के नाम मनीआर्डर आता है, “भगवानेर कापड़ेर जन्य।…भगवानेर दूधेर जन्य।”

…और वही बावनदास कहता है, भारथमाता जार-बेजार हो रही हैं !

बालदेव जी को लछमी दासिन की याद आती है।…वह भी रो रही थी।

…लेकिन कालीचरन ? सोसलिट पाटी !…

बालदेव निराश नहीं होगा। उसे नींद नहीं आ रही है। बहुत खटमल हैं।…हाँ, वह कल बावनदास से पूछेगा, यदि घर में खटमल ज्यादा हो जाएँ तो क्या घर में ही आग लगा देनी चाहिए?

Prev | Next | All Chapters 

तीसरी कसम फणीश्वर नाथ रेणु का उपन्यास 

चंद्रकांता देवकी नंदन खत्री का उपन्यास

आंख की किरकिरी रबीन्द्रनाथ टैगोर का उपन्यास 

देवांगाना आचार्य चतुर सेन शास्त्री का उपन्यास 

Leave a Comment