चैप्टर 25 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 25 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

चैप्टर 25 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 25 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 25 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 25 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

आगरे के हिंदुओं और मुसलमानों में आए दिन जूतियां चलती रहती थीं। जरा-जरा-सी बात पर दोनों दलों के सिरफिरे जमा हो जाते और दो-चार के अंग-भंग हो जाते। कहीं बनिए ने डंडी मार दी और मुसलमनों ने उसकी दुकान पर धावा कर दिया, कहीं किसी जुलाहे ने किसी हिंदू का घड़ा छू लिया और मुहल्ले में फौजदारी हो गई। एक मुहल्ले में मोहन ने रहीम का कनकौआ लूट लिया और इसी बात पर मुहल्ले भर के हिंदुओं के घर लुट गए; दूसरे मुहल्ले में दो कुत्तों की लड़ाई पर सैकड़ों आदमी घायल हुए, क्योंकि एक सोहन का कुत्ता था, दूसरा सईद का। निज के रगड़े-झगड़े साम्प्रदायिक संग्राम के क्षेत्र में खींच लाए जाते थे। दोनों ही दल मजहब के नशे में चूर थे। मुसलमानों ने बजाजे खोले, हिंदू नैंचे बांधने लगे। सुबह को ख्वाजा साहब हाकिम जिला को सलाम करने जाते, शाम को बाबू यशोदानंदन। दोनों अपनी-अपनी राजभक्ति का राग अलापते। दोनों के देवताओं के भाग्य जागे जहां कुत्ते निद्रोपासना किया करते, वहां पुजारी जी की भंग घटने लगी। मसजिदों के दिन फिरे, मुल्लाओं ने अबाबीलों को बेदखल कर दिया। जहां सांड जुगाली करता था, वहां पीर साहब की हड़िया चढ़ी। हिंदुओं ने ‘महावीर दल’ बनाया, मुसलमानों ने ‘अलीगोल’ सजाया। ठाकुरद्वारे में ईश्वर-कीर्तन की जगह नबियों की निंदा होती थी, मसजिदों में नमाज की जगह देवताओं की दुर्गति। ख्वाजा साहब ने फतवा दिया-जो मुसलमान किसी हिंदू औरत को निकाल ले जाए , उसे एक हजार हजों का सबाब होगा। यशोदानंदन ने काशी के पंडितों की व्यवस्था मंगवाई कि एक मुसलमान का वध एक लाख गोदानों से श्रेष्ठ है।

होली के दिन थे। गलियों में गुलाल के छींटे उड़ रहे थे। इतने जोश से कभी होली न मनाई गई थी। वे नई रोशनी के हिंदू-भक्त, जो रंग को भूखा भेड़िया समझते थे या पागल गीदड़, आज जीते-जागते इन्द्रधनुष बने हुए थे। संयोग से एक मियां साहब मुर्गी हाथ में लटकाए कहीं से चले जा रहे थे। उनके कपड़े पर दो-चार छींटे पड़ गए। बस, गजब ही तो हो गया, आफत ही तो आ गई। सीधे जामे मस्जिद पहुंचे और मीनार पर चढ़कर बांग दी-‘ऐ उम्मते रसूल ! आज एक काफिर के हाथों मेरे दीन का खून हुआ है। उसके छींटे मेरे कपड़ों पर पड़े हुए हैं। या तो काफिर से इस खून का बदला लो, या मैं मीनार से गिरकर नबी की खिदमत में फरियाद सुनाने जाऊं। बोलो, क्या मंजूर है? शाम तक मुझे इसका जवाब न मिला, तो तुम्हें मेरी लाश मस्जिद के नीचे नजर आएगी।’

मुसलमानों ने यह ललकार सुनी और उनकी त्योरियां बदल गईं। दीन का जोश सिर पर सवार हो गया। शाम होते-होते दस हजार आदमी सिरों से कफन लपेटे, तलवारें लिए, जामे मस्जिद के सामने आकर दीन के खून का बदला लेने के लिए जमा हो गए।

सारे शहर में तहलका मच गया। हिंदुओं के होश उड़ गए। होली का नशा हिरन हो गया। पिचकारियां छोड़-छोड़ लोगों ने लाठियां संभाली, लेकिन यहां कोई जामे मस्जिद न थी, न वह ललकार, न वह दीन का जोश। सबको अपनी-अपनी पड़ी हुई थी।

बाबू यशोदानंदन कभी इस अफसर के पास जाते, कभी उस अफसर के। लखनऊ तार भेजे, दिल्ली तार भेजे, मुस्लिम नेताओं के नाम तार भेजे, लेकिन कोई फल न निकला। इतनी जल्द कोई इंतजाम न हो सकता था। अगर वह यही समय हिंदुओं को संगठित करने में लगाते, तो शायद बराबर का जोड़ हो जाता; लेकिन वह हुक्काम पर आशा लगाए बैठे रहे। और अंत में वह निराश होकर उठे, तो मुस्लिम वीर धावा बोल चुके थे। वे ‘अली! अली’ का शोर मचाते चले जाते थे कि बाबू साहब सामने नजर आ गए। फिर क्या था। सैकड़ों आदमी ‘मारो!’ कहते हुए लपके। बाबू साहब ने पिस्तौल निकाली और शत्रुओं के सामने खड़े हो गए। सवाल जवाब कौन करता? उन पर चारों तरफ से वार होने लगे।

पिस्तौल चलाने की नौबत भी न आई, यही सोचते खड़े रह गए कि समझाने से ये लोग शांत हो जाएं तो क्यों किसी की जान लूं। अहिंसा के आदर्श ने हिंसा का हथियार हाथ में होने पर भी उनका दामन न छोड़ा।

यह आहुति पाकर अग्नि और भी भड़की। खून का मजा पाकर लोगों का जोश दूगना हो गया। अब फतह का दरवाजा खुला हुआ था। हिंदू मुहल्लों के द्वार बंद हो गए। बेचारे कोठरियों में बैठे जान की खैर मना रहे थे, देवताओं से विनती कर रहे थे कि यह संकट हरो। रास्ते में जो हिंदू मिला, वह पिटा; घर लुटने लगे। ‘हाय-हाय’ का शोर मच गया। दीन के नाम पर ऐसे-ऐसे कर्म होने लगे, जिन पर पशुओं को भी लज्जा आती, पिशाचों के भी रोएं खडे हो जाते।

लेकिन बाब यशोदानंदन के मरने की खबर पाते ही सेवादल के युवकों का खून खौल उठा। आसन पर चोट पहुँचते ही अड़ियल टटू और गरियाल बैल भी संभल जाते हैं। घोड़ा कनौतियां खड़ी करता है, बैल उठ बैठता है। यशोदानंदन का खून हिंदुओं के लिए आसन की चोट थी। सेवादल के दो सौ युवक तलवारें लेकर निकल पड़े और मुसलमान मुहल्लों में घुसे। दो-चार पिस्तौल और बंदकें भी खोज निकाली गईं। हिंदू मुहल्लों में जो कुछ मुसलमान कर रहे थे, मुसलमान मुहल्लों में वही हिंदू करने लगे। अहिंसा ने हिंसा के आगे सिर झुका दिया। वे ही सेवा-व्रतधारी युवक, जो दीनों पर जान देते थे, अनाथों को गले लगाते थे और रोगियों की शुश्रुषा करते थे, इस समय निर्दयता के पुतले बने हुए थे। पाशविक वृत्तियों ने कोमल वृत्तियों का संहार कर दिया था। उन्हें न तो दीनों पर दया आती थी, न अनाथों पर। हंस-हंसकर भाले और छुरे चलाते थे, मानो लड़के गुड़ियां पीट रहे हों। उचित तो यह था कि दोनों दलों के योद्धा आमने-सामने खड़े हो जाते और खूब दिल के अरमान निकालते; लेकिन कायरों की वीरता और वीरों की वीरता में बड़ा अंतर है।

सहसा खबर उड़ी कि यशोदानंदन के घर में आग लगा दी गई है और दूसरे घरों में आग लगाई जा रही है। सेवादल वालों के कान खड़े हुए। यहां उनकी पैशाचिकता ने भी हार मान ली। तय हो गया कि अब या तो वे ही रहेंगे, या हमीं रहेंगे। दोनों अब इस शहर में नहीं रह सकते। अब निपट ही लेना चाहिए, जिससे हमेशा के लिए बाधा दूर हो जाए। दो-ढाई हजार आदमियों का दल डबल मार्च करता हुआ उस स्थान को चला, जहां यह बड़वानल दहक रहा था। मिनटों की राह पलों में कटी। रास्ते में सन्नाटा था। दूर ही से ज्वाला-शिखर आसमान से बातें करता दिखाई दिया। चाल और भी तेज की और एक क्षण में लोग अग्नि-कुंड के सामने जा पहुंचे। देखा, तो वहां किसी मुसलमान का पता नहीं, आग लगी है; लेकिन बाहर की ओर। अंदर जाकर देखा तो घर खाली पड़ा हुआ था। वागीश्वरी एक कोठरी में द्वार बंद किए बैठी थी। इन्हें देखते ही वह रोती हुई बाहर निकल आई और बोली-हाय मेरी अहिल्या ! अरे दौड़ो, उसे ढूंढो, पापियों ने न जाने उसकी क्या दुर्गति की। हाय ! मेरी बच्ची!

एक युवक ने पूछा-क्या अहिल्या को उठा ले गए?

वागीश्वरी-हां भैया ! उठा ले गए। मना कर रही थी कि एरी बाहर मत निकल; अगर मरेंगे तो साथ ही मरेंगे, लेकिन न मानी। ज्यों ही दुष्टों ने घर में कदम रखा, बाहर निकलकर उन्हें समझाने लगी। हाय ! उसकी बातों को न भूलूंगी। आप तो गए ही थे, उसका भी सर्वनाश किया। नित्य समझाती रही, इन झगड़ों में न पड़ो! न मुसलमानों के लिए दुनिया में कोई दूसरा ठौर-ठिकाना है, न हिंदुओं के लिए। दोनों इसी देश में रहेंगे और इसी देश में मरेंगे। फिर आपस में क्यों लडे मरते हो, क्यों एक-दूसरे को निगल जाने पर तुले हुए हो? न तुम्हारे निगले वे निगले जाएंगे, न उनके निगले तुम निगले जाओगे, मिल-जुलकर रहो, उन्हें बड़े होकर रहने दो, तुम छोटे ही होकर रहो, मगर मेरी कौन सुनता है। स्त्रियां तो पागल हो जाती हैं, यों ही भूका करती हैं। मान गए होते, तो आज क्यों यह उपद्रव होता! आप जान से गए, बच्ची भी हर ली गई, और न जाने क्या होना है? जलने दो घर, घर लेकर क्या करना है, तुम जाकर मेरी बच्ची को तलाश करो। जाकर ख्वाजा महमूद से कहो, उसका पता लगाएं। हाय ! एक दिन वह था कि दोनों आदमियों में दांत-काटी रोटी थी। ख्वाजा साहब उनके साथ प्रयाग गए थे और अहिल्या को उन्होंने पाया था। आज यह हाल है ! कहना, तुम्हें लाज नहीं आती? जिस लड़की को बेटी बनाकर मेरी गोद में सौंपा था, जिसके विवाह में पांच हजार खर्च करने वाले थे, उसकी उन्हीं के पिछलगुओं के हाथों यह दुर्गति। हमसे अब उनकी क्या दुश्मनी ! उनका दुश्मन तो परलोक सिधारा ! हाय भगवान् ! बहुत-से आदमी मत जाओ। चार आदमी काफी हैं। उनकी लाश भी ढूंढो। कहीं आस-पास होगी। घर से निकलते ही तो दुष्टों से उनका सामना हो गया था।

वागीश्वरी तो यह विलाप कर रही थी, बाहर अग्नि को शांत करने का यत्न किया जा रहा था, लेकिन पानी के छींटे उस पर तेल का काम करते थे। बारे फायर इंजिन समय पर आ पहुंचा और अग्नि का वेग कम हुआ। फिर भी लपटें किसी सांप की तरह जरा देर के लिए छिपकर फिर किसी दूसरी जगह जा पहुँचती थीं। संध्या समय जाकर आग बुझी।

उधर लोग ख्वाजा साहब के पास पहुंचे, तो क्या देखते हैं कि मुंशी यशोदानंदन की लाश रखी हुई है और ख्वाजा साहब बैठे रो रहे हैं। इन लोगों को देखते ही बोले-तुम समझते होंगे, यह मेरा दुश्मन था। खुदा जानता है, मुझे अपना भाई और बेटा भी इससे ज्यादा अजीज नहीं। अगर मुझ पर किसी कातिल का हाथ उठता, तो यशोदानंदन उस वार को अपनी गर्दन पर रोक लेता। शायद मैं भी उसे खतरे में देखकर अपनी जान को परवा न करता। फिर भी हम दोनों की जिंदगी के आखिरी साल मैदानबाजी में गुजरे और आज उसका यह अंजाम हुआ। खुदा गवाह है, मैंने हमेशा इत्तहाद की कोशिश की। अब भी मेरा यह ईमान है कि इत्तहाद ही से इस बदनसीब कौम की नजात होगी। यशोदानंदन भी इत्तहाद का उतना ही हामी था जितना मैं। शायद मुझसे भी ज्यादा, लेकिन खुदा जाने वह कौन-सी ताकत थी, जो हम दोनों को बरसरेजंग रखती थी। हम दोनों दिल से मेल करना चाहते थे पर हमारी मर्जी के खिलाफ कोई दैवी ताकत हमको लड़ाती रहती थी। आप लोग नहीं जानते हो, मेरी इससे कितनी गहरी दोस्ती थी। दोनों एक ही मकतब में पढ़े, एक ही स्कूल में तालीम पाई, एक ही मैदान में खेले। यह मेरे घर पर आता था, मेरी अम्मांजान इसको मुझसे ज्यादा चाहती थीं, इसकी अम्मांजान मुझे इससे ज्यादा। उस जमाने की तस्वीर आज आंखों के सामने फिर रही है। कौन जानता था, उस दोस्ती का यह अंजाम होगा। यह मेरा प्यारा यशोदा है, जिसकी गर्दन में बाहें डालकर मैं बागों की सैर किया करता था। हमारी सारी दुश्मनी पसे-पुश्त होती थी। रू-ब-रू मारे शर्म के हमारी आंखें ही न उठती थीं। आह ! काश, मालूम हो जाता कि किस बेरहम ने मुझ पर यह कातिल वार किया ! खुदा जानता है, इन कमजोर हाथों से उसकी गर्दन मरोड़ देता।

एक युवक-हम लोग लाश को क्रिया-कर्म के लिए ले जाना चाहते हैं।

ख्वाजा-ले जाओ भई, ले जाओ, मैं भी साथ चलूंगा। मेरे कंधा देने में कोई हर्ज है ! इतनी रियायत तो मेरे साथ करनी ही पड़ेगी। मैं पहले मरता, तो यशोदा सिर पर खाक उड़ाता हुआ मेरी मजार तक जरूर जाता।

युवक-अहिल्या को भी लोग उठा ले गए। माताजी आपसे…

ख्वाजा-क्या, अहिल्या! मेरी अहिल्या को! कब?

युवक-आज ही। घर में आग लगाने से पहले।

ख्वाजा-कलामे मजीद की कसम, जब तक अहिल्या का पता न लगा लूंगा, मुझे दाना-पानी हराम है। तुम लोग लाश ले जाओ, मैं अभी आता हूँ। सारे शहर की खाक छान डालूंगा, एक-एक घर में जाकर देखूगा, अगर किसी बेदीन ने मार नहीं डाला, तो जरूर खोज निकालूंगा। हाय मेरी बच्ची ! उसे मैंने मेले में पाया था ! खड़ी रो रही थी। कैसी भोली-भोली, प्यारी-प्यारी बच्ची थी! मैंने उसे छाती से लगा लिया था और लाकर भाभी की गोद में डाल दिया था। कितनी बातमीज, बाशऊर, हसीन लड़की थी। तुम लोग लाश को ले जाओ, मैं शहर का चक्कर लगाता हुआ जमुना किनारे आऊंगा। भाभी से मेरी तरफ से अर्ज कर देना, मुझसे मलाल न रखें। यशोदा नहीं है, लेकिन महमूद है। जब तक उसके दम में दम है, उन्हें कोई तकलीफ न होगी। कह देना, महमूद या तो अहिल्या को खोज निकालेगा, या मुंह में कालिख लगाकर डूब मरेगा।

यह कहकर ख्वाजा साहब उठ खड़े हुए, लकड़ी उठाई और बाहर निकल गए।

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